06-11-2024 (Important News Clippings)

Afeias
06 Nov 2024
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Date: 06-11-24

Private matters

SC ruling on govt acquisition of pvt properties is right & a reflection of how economic policies have changed

TOI Editorials

Supreme Court’s ruling yesterday on Article 39(b) clarified not all private property can be classified as ‘material resources of the community’ that the state can redistribute for the common good. The Constitution’s Article 39(b) mandates that “the state shall…direct its policy towards securing that ownership and control of…material resources of the community are so distributed as best to subserve the common good.” The question before SC was whether private property can be considered part of the ‘material resources of the community’.

Limiting state intervention | CJI Chandrachud-led constitution bench underscored in their 7:2 judgment that while some privately held resources could potentially fall under this category, each case requires careful assessment, given context and on case-to-case basis. Only those resources of significant impact to community welfare, that have unique characteristics or are scarce and needed for community well-being, may be considered under this provision.

Potential for judicial oversight | The judgment straightaway increases scope of judicial oversight in cases involving resource redistribution or govt’s acquisition bids. Expect intense scrutiny of state’s claims – for infra projects, for example. Questions will be asked on whether acquisitions genuinely serve public welfare, on the consequence of such resource being concentrated in the hands of private commercial players, and on whether they meet criteria outlined by this judgment. Private property remains constitutionally protected unless it meets stringent criteria of public interest.

Judicial support for market-driven policy | The judgment is not unexpected, although its discussion outside the courtroom had taken on a tangential political life all its own ahead of Lok Sabha elections. Poll results evidenced that voters did take the misinformation that swirled around the issue with a fistful of salt. That said, it was an unusual day in court. It is rare to find ideologies discussed in Supreme Court judgments, with salty remarks on earlier judges. In their dissent, two of the nine judges strenuously countered the comments against certain political ideology. Justice Dhulia, who wholly dissented the judgment, backed the inclusive meaning given to ‘material resources of community’, and held that given growing inequality in income and wealth, it wouldn’t be prudent to abandon principles on which Articles 38 and 39 are based. In sum, what SC has ruled is that interpretations of constitutional provisions can vary with shifts in economic policies, keeping intact the basic structure doctrine. That is how it is expected to be.


Date: 06-11-24

The (Other) Right to Privacy Upheld

Links nature of resource to ownership

ET Editorials

On Tuesday, a 9-judge bench of the Supreme Court delive- red a divided (8-1) interpretation that all private property can’t be included in ‘material resources’ of the communi- ty for the state to apportion equitable, or for the ‘greater common good’. The interpretation was overdue and is bro- adly in line with India’s development trajectory that relies on market forces to redistribute resources. Yet, as the dis- senting view points out, this reliance does not address ri- sing inequality, and the state shouldn’t unduly lose agency through a narrow reading of what constitutes ‘material resources of the community’ as stated in Article 39(b) of the Constitution. The verdict by a bench of this size over- turns the legal position derived through a minority judg- ment several decades earlier that included all private pro- perty in the definition of ‘community resources’. This is welcome. But it leaves open to interpretation what kind of private property is, well, private.

The bench had, at the outset, restric- ted itself to examining the question of community resources and not the constitutional immunity granted to the state in promoting public welfare. The judgment, thus, sets out the limit on resources the state can claim in its endeavour. To this extent, it serves as a check on creeping expansion of eminent domain’. Subsequent legal inter- pretations will have to strengthen the contract between state and its citizens over property rights. The state do- esn’t face any restriction in this ruling over the defini- tion of control, another term left vague in the Constitu- tion, which keeps alive the question of redistributing re- sources between community and individuals. This, too, is welcome in that it allows the state room to manoeuvre. By linking the nature of a resource to its ownership, the reading pushes the issue to a granular level while permitting a dynamic relationship between community and material resources. In this, it serves to build a deeper moat around private ownership, keeping Adam Smith’s proverbial hand invisible.


Date: 06-11-24

महीनों तक रुलाकर क्या वाकई महंगाई घटेगी?

संपादकीय

लंबे समय बाद आरबीआई गवर्नर ने कहा कि दिसंबर में महंगाई घटेगी। इससे उम्मीद बंधी कि शायद रेपो रेट घटेगा, जिससे बाजार में पैसा आएगा और खरीदारी बढ़ेगी। महंगाई घटेगी तो उसका मूल कारण होगा खाद्यान्न व पेय पदार्थों के दाम कम होना, क्योंकि इसी ने अपनी 48% भागीदारी से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को विगत कई महीनों से ऊपर रखा था। लेकिन महंगाई में कमी किसी बड़े नीतिगत फैसले या राज्य – अभिकरणों के बाजार में हस्तक्षेप के कारण नहीं है। दरअसल अच्छी बारिश के बाद खरीफ की फसल आ चुकी है और रबी की बुवाई काफी हद तक खत्म हो चुकी है। ठंड के मौसम में सब्जियां पर्याप्त मात्रा में आने लगी हैं। इस मौसम में सब्जियां खराब होने का डर भी नहीं रहता। यानी कुल मिलाकर खाद्य पदार्थों के दाम घटना इस सीजन में आम बात है। लेकिन यहां सोचना होगा कि अगर इन जिंसों के दाम रेपो रेट प्रभावित कर सकते हैं, जिससे पूरी अर्थव्यवस्था को झटका लगता है तो क्या कोशिश यह नहीं होनी चाहिए कि शीतगृह की तादाद बढ़ाकर और प्रमुख उत्पादन वाले क्षेत्रों में बड़े गोदामों की संख्या बढ़ाकर सरकार इनकी बर्बादी कम करे और साथ ही किसानों को आढ़तियों के शोषण से बचाए? एक ताजा सरकारी रिपोर्ट के अनुसार बढ़ी कीमतों का बड़ा हिस्सा इन बिचौलियों के पास जाता है न कि किसानों के पास। ‘टॉप’ योजना को छह साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी 30-35% सब्जियों की बर्बादी के अलावा अनाज और दूध भी खराब होने से रोके जा सकते हैं। व्यापक स्तर पर शीत – श्रृंखला और अच्छे गोदाम उत्पादन केन्द्रों के पास तैयार करना खाद्य महंगाई रोकने की पूर्व – शर्त है। गरीब के कुल खर्च में इसका हिस्सा 70% तक होता है। इन प्रयासों में सरकारी-निजी निवेश किसानों, गरीबों और मार्केट- सेंटिमेंट सभी को खुश रखेगा।


Date: 06-11-24

राह दिखाने वाला फैसला

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि सरकार हर निजी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती, केवल इसलिए ऐतिहासिक नहीं है कि यह नौ सदस्यीय संविधान पीठ की ओर से दिया गया, बल्कि इसलिए भी है, क्योंकि इसने उस समाजवादी विचार को आईना दिखाया, जिसे सरकारों की रीति-नीति का अनिवार्य अंग बनाने का दबाव रहता था। स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन समाजवादी और वामपंथी सोच वालों के लिए भी झटका है, जो यह माहौल बनाने में लगे हुए थे कि देश में गरीबी और असमानता तभी दूर हो सकती है, जब सरकार संपत्ति का पुनर्वितरण करने में सक्षम हो और उसे यह अधिकार मिले कि वह किसी की भी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि सरकार एक हद तक ही ऐसा कर सकती है। अपने फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से यह भी रेखांकित कर दिया कि आपातकाल के समय संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलरिज्म के साथ समाजवाद शब्द जोड़कर भारतीय शासन व्यवस्था में समाजवादी तौर-तरीके अपनाने का जो काम किया गया था, वह निरर्थक था। अच्छा हो कि इस निरर्थकता को वे लोग भी समझें, जो संपत्ति के सृजन से अधिक अहमियत उसका पुनर्वितरण करने पर देते हैं। यह देश को समृद्धि की ओर ले जाने का रास्ता नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि दुनिया भर का अनुभव यही बताता है कि जिन देशों ने अपने लोगों की भलाई के नाम पर अतिवादी समाजवादी तौर-तरीके अपनाए, वे आर्थिक रूप से कठिनाइयों से ही घिरे ।

निजी संपत्ति संबंधी सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने करीब चार दशक पुराने उस फैसले को खारिज करने का काम किया, जिसमें कहा गया था कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता है। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट करने की आवश्यकता भी समझी कि उक्त फैसला एक विशेष आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था । उसने यह भी रेखांकित किया कि पिछले कुछ दशकों में गतिशील आर्थिक नीति अपनाने से ही भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह भी पता चल रहा है कि देश को किसी विशेष प्रकार के आर्थिक दर्शन के दायरे में रखना ठीक नहीं है और आर्थिक तौर-तरीके ऐसे होने चाहिए, जिनसे एक विकासशील देश के रूप में भारत उभरती चुनौतियों का सामना कर सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से निजी संपत्ति के मामले में अब इसे लेकर कोई संशय नहीं रहेगा कि क्या समुदाय का संसाधन है और क्या नहीं? कोई भी देश हो, उसे अपना आर्थिक दर्शन देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से अपनाना चाहिए, न कि इस हिसाब से कि पुरानी परिपाटी क्या कहती है ? समय के साथ बदलाव ही प्रगति का आधार है। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार को मजबूती प्रदान की ।


Date: 06-11-24

चुनौतीपूर्ण है निजी पूंजी जुटाना

संपादकीय

अजरबैजान की राजधानी बाकू में आगामी 11 से 22 नवंबर के बीच आयोजित होने जा रहे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (कॉप29) में जलवायु वित्त तथा इसके लिए राशि जुटाना वार्ताकारों के बीच प्रमुख विषय होगा।विभिन्न देश, खासकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देश जलवायु वित्त के मामले में करीब 800 अरब डॉलर की कमी का सामना कर रहे हैं और महामारी के कारण सार्वजनिक फंडिंग में भारी कमी आई है। ऐसे में नीति निर्माता और जलवायु कार्यकर्ता शिद्दत से ऐसे तरीके तलाश कर रहे हैं जिससे निजी क्षेत्र की फंडिंग जुटाई जा सके। यह बात और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि यह माना जा रहा है कि विकासशील देश, जो इस वित्त के मुख्य लाभार्थी होंगे (क्योंकि उनका विकास जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है) और उन्हें 2030 तक 5.9 लाख करोड़ डॉलर की आवश्यकता होगी।

बहरहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि निजी वित्त इस भारी-भरकम राशि के बड़े हिस्से की भरपाई करने में शीर्ष भूमिका निभा भी पाएगा या नहीं। अब तक की बात करें तो जलवायु वित्त में निजी क्षेत्र की भागीदारी देखकर ऐसा नहीं लगता है कि हरित और ईएसजी फंड में इजाफा होने के बावजूद वर्तमान हालात में कुछ खास परिवर्तन आएगा।वर्ष 2022 तक जलवायु वित्त के क्षेत्र में जो भी फंड जुटाए गए उनमें निजी क्षेत्र की भागीदारी करीब 20 फीसदी रही। फंडिंग के इस स्रोत को बढ़ावा देने के लिए कई मोर्चों पर मौजूद चुनौतियों से निपटना होगा। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की फंडिंग का अब तक का रुझान यही बताता है कि विकासशील देशों की जोखिम अवधारणाएं और आर्थिक एवं निवेश नीतियों की दक्षता, निजी निवेशकों के निर्णयों में अहम भूमिका निभाएगा।

जलवायु वित्त के क्षेत्र में निजी पूंजी का बड़ा हिस्सा यानी करीब 81 फीसदी हिस्सा जलवायु परिवर्तन को रोकने पर केंद्रित था। जलवायु परिवर्तन को अपनाने के क्षेत्र में 11 फीसदी राशि दी गई। यह विडंबना ही है कि इसका अधिकांश हिस्सा विकसित देशों को गया। महत्त्वपूर्ण बात है कि निजी क्षेत्र से आने वाली 85 फीसदी पूंजी सबसे कम जोखिम प्रोफाइल वाले विकासशील देशों पर केंद्रित रही।

कम आय वाले देश जहां इस पूंजी की जरूरत अधिक थी उन्हें केवल 15 फीसदी राशि मिली। कुछ विश्लेषकों के अनुसार मुद्दे की मूल वजह है निवेश के लिए तैयार परियोजनाओं की कमी। परंतु इस परियोजना पाइपलाइन को तैयार करने में सरकारी और बहुराष्ट्रीय संस्थानों के समर्थन की अहम भूमिका होगी जिनकी मदद से जोखिम कम किया जा सकेगा और प्रतिफल और निर्गम पर नजर रखी जा सकेगी।

उदाहरण के लिए भारत जैसे देशों में यह कवायद दिक्कतदेह बन जाती है क्योंकि बिजली की कीमतें तय करने के मॉडल में दीर्घकालिक ढांचागत कमियां हैं और नवीकरणीय ऊर्जा के वितरण एवं पारेषण के साथ तकनीकी दिक्कतें जुड़ी हुई हैं।बिजली के क्षेत्र में राजनीतिक कारणों से प्रेरित सब्सिडी के चलते भी राष्ट्रीय ग्रिड से जुड़ी हरित ऊर्जा उत्पादन परियोजनाओं का लाभ समय पर नहीं मिल रहा है। आंकड़ों की कमी और अविकसित वित्तीय बाजार भी निजी क्षेत्र के निवेश को बाधित करते हैं।

अगर जलवायु नियंत्रण से संबंधित परियोजनाएं मसलन हरित ऊर्जा की दिशा में बदलाव की राह में इतनी चुनौतियां हैं तो जलवायु परिवर्तन को अपनाने के क्षेत्र में निजी निवेश जुटाना और कठिन होगा। पुनर्वनीकरण, जल संरक्षण या चक्रवात और तूफानों की अग्रिम चेतावनी जैसी गैर वाणिज्यिक परियोजनाओं के क्षेत्र में निजी पूंजी के आने की कल्पना करना थोड़ा मुश्किल काम है।लब्बोलुआब यह है कि जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी निवेश जुटाने की तमाम कोशिशों के बीच सरकारी और बहुपक्षीय पूंजी की आवक जारी रखनी होगी। मुख्य भूमिका उनकी ही होगी जबकि निजी क्षेत्र की फंडिंग पूरक भूमिका में होगी। परंतु इस राशि को जुटाने के लिए भी प्राप्तकर्ता देशों को अपनी राज्य क्षमता मजबूत करनी होगी। परियोजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ानी होगी। इन बुनियादी सुधारों के बिना निजी पूंजी जुटाना मुश्किल बना रहेगा।


Date: 06-11-24

स्टार्टअप का खुमार और भविष्य की हकीकत

अजित बालकृष्णन

एक दिन तड़के मेरे पास एक फोन आया। दूसरी ओर से जानी-पहचानी आवाज में किसी ने कहा, ‘मुझे लगता है मेरे भाई ने खुदकुशी कर ली।’
‘हे भगवान, क्या हुआ?’ मैंने पूछा।

‘उसने हमारा पुश्तैनी घर गिरवी रखकर बैंक से अपने स्टार्टअप के लिए कर्ज लिया था, जिसे बाद में वह चुका नहीं पाया। इसलिए बैंक ने घर पर कब्जा कर लिया और हमारे दादा-दादी समेत सभी घर वालों को घर खाली करने को कह दिया। उनके पास सिर छिपाने के लिए कोई जगह भी नहीं है! मुझे लगता है इसी वजह से उसने कुछ गोलियां निगल लीं और अब वह जग ही नहीं रहा है।’

मैं एकदम स्तब्ध और अवाक रह गया। अच्छा हुआ कि मेरे मित्र ने फोन काट दिया और मैं गहरी सोच में डूब गया। इस जमाने के ज्यादातर लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि स्टार्टअप सारी आधुनिक आर्थिक चुनौतियों का इलाज हैं। इनसे हमें ढेर अपेक्षाएं हैं। मसलन इन्हें अच्छा रोजगार तैयार करना चाहिए, अर्थव्यवस्था का विकास करना चाहिए, हमारी अर्थव्यवस्था को विदेशी टेक दिग्गजों से बचाना चाहिए।

सरकार भी उतने ही जोश के साथ इसमें शामिल है: उसके स्टार्टअप इंडिया मिशन के तहत 2022-23 में करीब 23,000 इकाइयों ने पंजीकरण कराया और आंकड़ों से संकेत मिलता है कि इस साल और भी अधिक इकाइयों का पंजीकरण होगा। इसके अलावा लगभग हर आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) और आईआईएम (भारतीय प्रबंध संस्थान) तथा ऐसे ही अन्य शैक्षणिक संस्थानों ने भी अपने-अपने स्टार्टअप केंद्र स्थापित किए हैं। हम भारतीयों को मानो स्टार्टअप का बुखार चढ़ गया है।

मगर मुझे यह सोचकर रात भर नींद नहीं आती है कि स्टार्टअप पर ऐसे जश्न और शोरशराबे के बीच हमें नीति निर्माण के स्तर पर स्टार्टअप की प्रक्रिया में बहुत गहराई तक जाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि हर स्टार्टअप कामयाब ही होगा और अपने संस्थापकों और निवेशकों को अमीर बना देगा।अमेरिका तथा भारत के आंकड़े बताते हैं कि 10 में से 9 स्टार्टअप अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते। केवल 10 फीसदी स्टार्टअप ही बचते हैं और फल-फूल पाते हैं। आगे का विश्लेषण दिखाता है कि 20 फीसदी स्टार्टअप एक साल बाद ही नाकाम हो जाते हैं, अगले 30 फीसदी स्टार्टअप दो साल के भीतर बंद हो जाते हैं। उससे आगे बढ़ें तो 20 फीसदी स्टार्टअप पांच साल के भीतर बंद हो जाते हैं और 20 फीसदी का बोरिया-बिस्तर 10 साल में बंध जाता है।इस तरह 10 फीसदी स्टार्टअप ही आर्थिक मायनों में सफल हो पाते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्टअप में नाकामी को स्वीकार करना सीखना भी उतना ही जरूरी है, जिसका उसकी कामयाबी का जश्न मनाना सीखना। ऐसा नहीं किया जाए तो स्टार्टअप संस्थापक और उसके परिवार को वैसी ही त्रासदी झेलनी पड़ सकती है, जैसी मेरे मित्र के भाई के कारण हुई।

नाकामी से निपटने के तरीकों पर बात करने से पहले हम नाकामी की वजहों की पड़ताल कर लेते हैं। आंकड़े बताते हैं कि स्टार्टअप की नाकामी की सबसे अहम वजह है उसके बनाए उत्पाद या सेवा का बाजार को लुभाने में असफल रहना यानी उत्पाद बाजार के माफिक नहीं बन पाता।दूसरी सबसे बड़ी वजह है स्टार्टअप को शुरुआत में मिली पूंजी बहुत जल्दी इस्तेमाल हो जाना। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण वजह है सही लोगों को नौकरी पर नहीं रख पाना। ध्यान रहे कि दोस्तों या रिश्तेदारों का जमावड़ा इकट्ठा कर लेने से बात नहीं बनती। संस्थापकों के पास एक-दूसरो को सहारा देने वाले कौशल होने चाहिए। मसलन एक संस्थापक तकनीक का जानकार है तो दूसरे को मार्केटिंग का विशेषज्ञ होना चाहिए।

नाकामी की आखिरी वजह कोई ऐसी घटना होती है, जिस पर हमारा वश नहीं चलता मगर जिसका हमारे कारोबार या कामकाज पर बहुत असर पड़ता है। उदारहण के लिए रुपये में अचानक गिरावट आ जाना या आपके लिए जरूरी वस्तु के आयात पर अचानक बहुत अधिक शुल्क लग जाना।

इसी तरह वर्ल्ड वाइड वेब (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू) किसी ऐसे पड़ाव पर पहुंच सकता है, जहां उसका बुनियादी ढांचा ही अचानक बदल जाए। अगर वर्तमान स्टार्टअप या पहले से जम चुके स्टार्टअप ऐसे बदलावों को पहले से नहीं भांप पाते हैं तो उनके सामने गंभीर संकट आ सकता है।

यह बदलाव किस तरह का हो सकता है, इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें टिम बर्नर्स ली की बात सुननी होगी। विकीपीडिया पर लिखे परिचय को जस का तस लिखें तो टिम बर्नर्स ली ‘इंगलैंड के कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं, जो डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू, एचटीएमएल मार्कअप लैंग्वेज, यूआरएल सिस्टम और एचटीटीपी के आविष्कार के लिए सबसे ज्यादा मशहूर हैं।’ यह पढ़ते हुए आप ध्यान देंगे कि कंप्यूटर विज्ञान का जिक्र किए बगैर ही इन संक्षिप्त नामों ने वह सब स्पष्ट कर दिया जो वर्ल्ड वाइड वेब बनाने के लिए जरूरी है और जिसे हम सब प्यार करते हैं तथा मानते हैं कि उसी ने आधुनिक दुनिया बनाई है।

परंतु अब दम साधकर सुनिए कि हमारी यह आधुनिक दुनिया गढ़ने वाला विद्वान व्यक्ति आज के वेब के बारे में क्या कहता है (सारे बयान उनकी वेबसाइट से लिए गए हैं)। वह कहते हैं कि आज का वेब जानबूझकर सरकार के इशारे पर हैंकिंग तथा हमलों, आपराधिक व्यवहार, ऑनलाइन प्रताड़ना जैसे गलत इरादों से बनाया गया है। इसे कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि इस्तेमाल करने वाले की कोई अहमियत ही नहीं रह जाती।विज्ञापन से कमाई का मॉडल इसका उदाहरण है, जिसमें लोगों को कीबोर्ड क्लिक करने के लिए आकर्षित करने वाली सामग्री (क्लिकबेट) और गलत सूचना के प्रसार से व्यावसायिक लाभ होता है। इसकी वजह से ऑनलाइन चर्चा का स्तर गिरा है और ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है।

वेब के संस्थापक अपने जादुई अविष्कार के इस हश्र पर निराशा और नाराजगी जाहिर करने के लिए इससे कड़वा और क्या कह सकते थे। उनकी राय में कंपनियों को सुनिश्चित करना चाहिए कि जल्दी मुनाफा हासिल करने की उनकी दौड़ से मानवाधिकारों, लोकतंत्र, वैज्ञानिक तथ्यों और जन सुरक्षा की बलि न चढ़ जाए।

क्या ऐसा हो सकता है कि टिम बर्नर्स ली की बातों को ध्यान से सुनने वाले स्टार्टअप ही कल की दुनिया में फलें-फूलें? क्या आज की लीक पर चल रहे बाकी सभी का वैसा ही त्रासद अंत होगा, जिससे इस आलेख की शुरुआत हुई थी? इसका मतलब है कि जो स्टार्टअप विकेंद्रीकृत मॉडल पर चलते हैं और जिनके यहां यूजर्स का अपनी जानकारी पर अधिक नियंत्रण होता है, उनके लिए विकेंद्रीकृत संगठनों तथा विश्वसनीय पहचान प्रबंधन पर जोर देना ही सफलता की कुंजी है। ब्लॉकचेन, स्मार्ट कॉन्टैक्ट्स और विकेंद्रीकृत ऐप्स ही शायद कल सफलता के आसमान पर चमकेंगे।


Date: 06-11-24

राहत भरा फैसला

संपादकीय

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश के हजारों मदरसों ने राहत की सांस ली होगी, वरना इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लग गया था। उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा कानून 2004 में तब बनाया गया था, जब प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। तब इस कानून का मकसद यह बताया गया था कि प्रदेश के सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन किया जाएगा, उनमें आधुनिक शिक्षा दी जाएगी और एकरूपता लाई जाएगी। इसी के साथ इसमें मदरसा शिक्षा बोर्ड का भी प्रावधान था, जो सारे के मदरसों का पाठ्यक्रम तय करने से लेकर वहां परीक्षाएं आयोजित करने का काम करेगा। इस कानून का एक मकसद यह भी बताया गया था कि इन मदरसों से जो छात्र निकलेंगे, वे देश की मुख्यधारा में शामिल होंगे और उनकी शिक्षा उन्हें विभिन्न रोजगारों में अवसर उपलब्ध कराएगी। उत्तर प्रदेश में इस समय लगभग 25 हजार मदरसे हैं। इनमें से 16,500 मदरसे शिक्षा बोर्ड से पंजीकृत हैं, जबकि बाकी का पंजीकरण नहीं हुआ। पंजीकृत मदरसों को सरकारी मदद भी मिलती है। और वहां के शिक्षकों के वेतनमान भी तय हैं। बाद में जब इस कानून को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, तो अदालत ने इसे असांविधानिक घोषित कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यह कानून धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है। अदालत ने कहा कि इन मदरसों में इस्लामी शिक्षा पर बहुत जोर दिया जाता है। इतना ही नहीं, हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार से यह भी कह दिया कि वह इन मदरसों में पढ़ रहे छात्रों को वहां से निकालकर मुख्यधारा के स्कूलों में भर्ती कराएं।

सुप्रीम कोर्ट ने अब इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को गलत ठहराया है और मदरसा शिक्षा कानून को फिर से वैधानिकता दे दी है। प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ समेत तीन न्यायाधीशों की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को गलत करार दिया। अदालत में प्रधान न्यायाधीश की यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण थी कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है, जियो और जीने दो। उन्होंने यह भी कहा कि मदरसों का नियमन हो, यह हमारे राष्ट्रीय हित के लिए भी जरूरी है। उन्होंने इसमें यह भी जोड़ा कि अगर हम हाईकोर्ट के फैसले को ही लागू करें और अभिभावक अपने बच्चों को फिर भी इन्हीं मदरसों में भेजते रहे, तो हम उनके कूपमंडूक के बनने का रास्ता तैयार कर देंगे। अदालत ने
यह भी कहा कि मदरसों के छात्रों को अच्छी शिक्षा मिले, इसकी चिंता हमें भी है। पीठ के फैसले में यह भी गौर करने लायक है कि मदरसों में धार्मिक शिक्षा दिए जाने में कुछ भी गलत नहीं है। ये सारी टिप्पणियां अदालत के फैसले को ही नहीं, बल्कि उसके पीछे की सोच और भावना को भी स्पष्ट करती हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस समय आया है, जब पूरे देश का माहौल सांप्रदायिक रूप से काफी संवेदनशील हो चुका है। माहौल जब खतरनाक ढंग से संवेदनशील बन चुका हो, तब जरूरत ऐसी ताकतों की होती है, जो सरल शब्दों में समझदारी की बातें बेखौफ होकर कहे। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार के अपने फैसले में यही भूमिका निभाई है। उसने जो फैसला दिया है, वह कानून सम्मत और संविधान सम्मत तो है ही, साथ ही देश के माहौल को सुधारने और संवारने वाला भी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले ही मदरसों की शिक्षा पर बने कानून को लेकर हो, लेकिन उसने जो कहा है, उसका असर इससे कहीं आगे तक जाता है।