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06-03-2024 (Important News Clippings)
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Deprivileging bribe
Voters should know that MPs do not act under monetary inducement
Editorial
The Court has made it clear that parliamentary privilege, enshrined in Article 105 (for MPs) and Article 194 (for State legislators) is aimed at protecting the freedom of speech and independence of the legislators in their functioning in the House and cannot extend to bribery, as it is not essential to the casting of the vote or in deciding how to cast it. A key rationale that weighed with the Constitution Bench in 1998 was that parliamentary privilege was essential to protecting members from persecution for anything said or any vote in the House. The majority feared that limiting this privilege might have serious consequences and felt that public indignation over the conduct of some MPs accepting a bribe should not lead to the court construing the Constitution so narrowly that it removes the guarantee for effective parliamentary participation and debate. However, the seven-member Bench has concluded that the potential for such misuse is neither enhanced nor diminished by recognising the court’s jurisdiction to prosecute a member for bribery. The Bench has also held that voting in a Rajya Sabha election, being part of a legislator’s function, is protected under Article 194 of the Constitution as a privilege. It requires utmost protection for a member to vote freely and without fear of legal persecution. Overall, the verdict meets public expectation that the members they elect do not act under monetary inducement.
बेंच बदलते ही सत्य भी कैसे बदल जाता है ?
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इसी कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच के छह साल पुराने एक फैसले को गलत करार दिया। 2018 में फैसला दिया गया था कि किसी स्टे की मियाद छह माह बाद स्वतः खत्म हो जाएगी। कोर्ट ने यह भी कहा कि कई बार हम न्याय करने के प्रयास में अन्याय कर देते हैं। दरअसल पुराना फैसला इस आधार पर था कि देश के तमाम उच्च न्यायालय स्टे दे देते थे फिर दशकों तक वादी आराम से बैठे रहते थे, जिससे लंबित मामलों की संख्या बढ़ती रहती थी। लेकिन अब उसी कोर्ट की बड़ी बेंच का इसे अन्याय कहना चौंकाता है। ‘नोट फॉर वोट’ केस में पांच जजों के 26 साल पुराने फैसले को सात जजों की बेंच ने पलट दिया। हो सकता है कि कोई नौ जजों वाली बेंच इसे फिर पलट दे ! क्या न्यायशास्त्र का ज्ञान आधारभूत मुद्दों पर भी इतने सालों बाद एकमत नहीं हो सकता और तीन की जगह पांच जज होंगे तो सत्य इतना उलटा हो जाएगा कि पहला सत्य ‘अन्याय’ लगने लगेगा? फिर यह तो देश की सबसे बड़ी कोर्ट है, जिसके आगे कुछ भी नहीं है। संप्रभु राष्ट्र है जहां इस कोर्ट के ऊपर तो शायद कोई और सत्ता नहीं है। आशंका है कि इस फैसले के बाद उच्च न्यायालयों में एक बार फिर बहस की जगह स्टे का ही काम शुरू हो सकता है। वकील, मुवक्किल और जज तीनों जानते हैं कि स्टे लेकर किसी भी विवाद को दशकों के लिए ठंडे बस्ते में डाला जा सकता है। न वकीलों को केस समझने और मेरिट पर बहस करने की जरूरत, न ही जज को फैसला देने की जल्दी । फैसला पलटने के लिए क्या पांच-सदस्यीय बेंच ने इन खतरों की सम्यक विवेचना की है? यह सच है कि उच्च न्यायालयों की स्वायत्तता अक्षुण्ण है और वादी के नैसर्गिक अधिकार भी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने दो दिन पूर्व न्याय प्रक्रिया को ही एक सजा बताया था।
Date:06-03-24
सेमीकंडक्टर सेक्टर में भारत की बड़ी छलांग
संपादकीय
इसके अलावा, असम के मोरीगांव और गुजरात के साणंद में दो सेमीकंडक्टर एटीएमपी (असेंबली, टेस्टिंग, मार्किंग और पैकेजिंग) इकाइयों की स्थापना की जाएगी। यह भारत की सेमीकंडक्टर संभावनाओं के लिहाज से एक बड़ी छलांग है, यह देखते हुए कि वैश्विक कंपनियों को यहां कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित करने के सरकारों के प्रयास के बावजूद देश कई दशकों तक अवसर से वंचित रहा।
इस ऐलान से पहले दुनिया में चिप की भारी तंगी देखने को मिली थी। इसके अलावा, जैसे-जैसे भू-राजनीतिक तनाव बढ़ रहा है, घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण को आर्थिक वृदि्ध के संभावित वाहक के रूप में देखा जा रहा है। यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है कि मुख्यभूमि चीन और ताइवान के बीच की दुश्मनी किस तरह से सेमीकंडक्टर चिप के उत्पादन को गहराई से प्रभावित कर सकती है।
वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में कमजोरियों को देखते हुए भारत के लिए यह ज्यादा अहम हो गया है कि विभिन्न क्षेत्रों के लिए आवश्यक इलेक्ट्रॉनिक घटकों की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित की जाए, हालांकि यह बात गौर करने की है कि भारत में क्षमता इस क्षेत्र में हुए अत्याधुनिक विकास जैसी नहीं होगी। इसके अलावा, सरकार भारत के उभरते सेमीकंडक्टर परिवेश में रोजगार की संभावनाओं को लेकर काफी आशावादी है।
इन इकाइयों से करीब 20,000 उन्नत प्रौद्योगिकी नौकरियों और करीब 60,000 अप्रत्यक्ष नौकरियों का सृजन हो सकता है। भारत ने एक महत्त्वपूर्ण सेमीकंडक्टर देश बनने की दिशा में अभी बस यात्रा शुरू की है, लेकिन पहले से ही वह एक शीर्ष सेमीकंडक्टर डिजाइन देश की स्थिति में आ गया है, जिसके पास दुनिया का लगभग 20 फीसदी सेमीकंडक्टर डिजाइन प्रतिभा पूल है। यह काफी अहम हो सकता है क्योंकि इससे विनिर्माता अपनी गुणवत्ता में सुधार कर पाएंगे।
फैब कारखानों में निवेश से कंपोनेंट और एंसिलरी विनिर्माण को भी बढ़ावा मिलेगा और साथ ही कुशल कामगारों के लिए रोजगार के ज्यादा अवसर उपलब्ध होंगे। लेकिन यह बात ध्यान देने की है कि निकट भविष्य में ऐसे कुशल श्रमिकों की तलाश कठिन होगी जो किसी फैब कारखाने की फैक्टरी फ्लोर पर काम कर सकें। इसको देखते हुए अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने देश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में एकीकृत सर्किट और सेमीकंडक्टर चिप के विनिर्माण एवं डिजाइन से जुड़े पाठ्यक्रम शुरू किए हैं। ऐसी उम्मीद है कि कामगारों को कुशल बनाने और समुचित प्रशिक्षण से प्रतिभा की तंगी की समस्या से निजात पाने में मदद मिल सकती है।
ध्यान रहे कि कई और देश भी अपने यहां चिप विनिर्माण कारखाने शुरू करने की कोशिश में लगे हैं, इनमें मलेशिया और वियतनाम जैसे विकासशील देश भी शामिल हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे देशों-क्षेत्रों में नई दिल्ली से ज्यादा आकर्षक प्रोत्साहन योजनाएं पेश की गई हैं। ऐसे में भारत को बहुत उच्च गुणवत्ता वाली चिप का निर्माण शुरू करने से पहले इंतजार करना होगा।
इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह अहम है कि भरोसेमंद बिजली आपूर्ति, जल संसाधन और परिवहन नेटवर्क जैसे बुनियादी ढांचे की अड़चनों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। चिप का उत्पादन एक अत्यधिक सटीक और महंगी प्रक्रिया है, जिसमें कई जटिल चरण शामिल होते हैं। यहां तक कि बिजली की आपूर्ति में थोड़ी-सी बाधा भी भारी नुकसान करा सकती है। बहरहाल, भारत ने इस दिशा में शुरुआत करके अच्छा काम किया है और इस क्षेत्र की सफलता के लिए सरकारी संरक्षण और निजी क्षेत्र के निवेश, दोनों की आवश्यकता होगी।
सरकार ने 76,000 करोड़ रुपये की चिप प्रोत्साहन योजना पेश की है और वह बड़ी पूंजी सब्सिडी प्रदान कर रही है। यह देखना होगा कि क्या ये कदम आवश्यक परिवेश विकसित करने में उचित सफलता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होंगे?
घूस पर विशेषाधिकार नहीं
संपादकीय
रिश्वत या घूस लेकर सदन में मतदान अथवा भाषण करने वाले माननीय `इसके गुनहगार होंगे। इसके लिए उन पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। जनप्रतिनिधि होने के उनके विशेषाधिकार कवच नहीं बन सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ का यह आम सहमति से दिया गया निर्णय वस्तुतः नागरिक अधिकार, संविधान और जनतंत्र के मूल्यों की रक्षा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सही ही ‘स्वागतम्’ कहा है। संविधान पीठ ने ‘कैश फॉर वोट’ जिसे झामुमो सांसद रिश्वत कांड के नाम से जाना जाता है, उस पर 1998 में दिए अपने ही फैसले को वजनदार तर्कों से पलट दिया है। इस फैसले के आलोक में देखें तो वह पुराना फैसला विशेषाधिकार का मजाक और उत्कोच का खुला प्रोत्साहन लगता है। मामला यह था कि 1993 में पीवी नरसिंहराव की बहुमतविहीन सरकार को बचाने के लिए झामुमो के अध्यक्ष व सांसद समेत छह सांसदों ने रिश्वत लेकर वोट दिया था। तब सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि इसके लिए उन पर विशेषाधिकार के तहत आपराधिक मुकदमा नहीं चलेगा, जबकि घूस लेकर भी वोट न देने वालों पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। यह तो लोक मंदिर खुलेआम घूसखोरी को वैधता प्रदान करना हुआ। पर सोमवार को संविधान पीठ ने कहा कि विधायिका का कोई भी सदस्य अनुच्छेद 105 और 194 के तहत सदन में वोट या भाषण से संबंधित रिश्वतखोरी के आरोप में आपराधिक मुकदमे से छूट पाने के लिए विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। ये अनुच्छेद सदन के भीतर संवाद और बहस संभव करने के लिए है। मुख्य न्यायमूर्ति का यह कहना उचित है कि विधायिका के सदस्यों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी संसदीय लोकतंत्र की नींव को खोखला करती है। यह ऐसी राजनीति का निर्माण करती है, जो नागरिकों को जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधि लोकतंत्र से वंचित करती है।’ यह सटीक फैसला झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन के ताजा मामले में आया है, जिन पर 2012 में राज्य सभा चुनाव में घूस लेकर वोट देने पर आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ था। उन्होंने विशेषाधिकार के आधार पर हाई कोर्ट में चुनौती देकर मुकदमा खारिज करने की मांग की थी। कोर्ट के ताजा फैसले से उन्हें या उनके सहित बहुतों को झटका लगा है। बहरहाल, न्यायपालिका की यह स्थापना सराहनीय है कि हमारे माननीयों को सदन में भी ‘भ्रष्ट’ होने की छूट नहीं है।
माननीयों को कितना विशेषाधिकार
एसएन ढींगरा, [ पूर्व न्यायाधीश ]
सोमवार को देश के उच्चतम न्यायालय की सात जजों की पीठ ने अपने सर्वसम्मत फैसले से साल 1998 के नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले में दिए गए निर्णय को पलट दिया। पांच जजों की पीठ ने वह फैसला 3-2 के बहुमत से दिया था। जब वह फैसला आया था, तब उसने देश के प्रबुद्ध वर्ग में एक गहरी निराशा भर दी थी। उस फैसले के अनुसार, विधायिका का कोई भी सदस्य अपना वोट बेच सकता था। इसे उसका विशेषाधिकार माना गया, जिसके लिए उस पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता था। हां, उस पर मुकदमा तभी चल सकता था, जब वह पैसे लेकर पैसे देने वाले की इच्छा के अनुसार वोट न करे। जाहिर है, यह एक विचित्र तर्क था, जहां रिश्वत लेना तो माफ था, लेकिन रिश्वत लेकर बेईमानी करने को अक्षम्य अपराध माना गया था।
इस फैसले के बाद देश के संसदीय लोकतंत्र में रिश्वत का खेल बहुत बढ़ गया। आज स्थिति यह है कि किसी भी राज्य में चुनाव के बाद राजनीतिक पार्टियां अपने चुने गए सदस्यों को भेड़-बकरी की तरह किसी रिसॉर्ट या होटल में बंद कर देती हैं, ताकि कोई उनकी बोली न लगा पाए। पार्टियों को यह डर सताता है कि उनके सांसद या विधायक खरीद लिए जाएंगे, और बिकने के बाद वे अपना वोट दूसरी पार्टी के हक में डाल देंगे, और आप उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यह अक्सर देखा गया कि हर चुनाव के बाद या जब कभी सरकार पर कोई संकट आया, तो विधायकों को किसी दूसरे प्रदेश के होटल या रिसॉर्र्ट में ले जाकर बंद कर दिया गया, यहां तक कि उनके मोबाइल भी रख लिए गए।
ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला हवा के ताजा झोंके की तरह है। अब तक संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत सांसदों और विधायकों को सदन के अंदर कुछ कहने और करने का विशेषाधिकार मिला हुआ था। नतीजतन, कई बार माननीयों द्वारा भाषण के दौरान ऐसे-ऐसे आरोप लगाए जाते रहे, जो यदि सदन के बाहर बोले जाते, तो भाषण देने वाले सांसद या विधायक पर आपराधिक अवमानना या कानून के तहत अन्य अपराधों के लिए मुकदमा हो जाता। अब कम से कम यह साफ हो गया है कि रिश्वत लेकर वोट देना विधानमंडल के सदस्यों के विशेषाधिकार में नहीं आता, न ही रिश्वत लेकर सवाल पूछना या विशेष प्रकार का भाषण देना संसदीय विशेषाधिकार है। इस फैसले से यह आशा की जाती है कि भारतीय लोकतंत्र में अधिक स्वच्छता, शुचिता और जिम्मेदारी से काम होगा, और जनता के प्रतिनिधि देश की जनता को धोखा नहीं दे सकेंगे। यानी, जन-प्रतिनिधि जिस दल से चुनकर आएंगे, उसी पार्टी की इच्छानुसार अपना वोट करेंगे।
शीर्ष अदालत ने तो अपना काम कर दिया, अब बारी है संसद की कि वह कानून में जरूरी बदलाव करे और विधायिका सदस्यों को मिले विशेषाधिकारों को ही खत्म कर दे। सांसदों-विधायकों को यह विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए कि वे सदन में झूठ बोल सकें, गलत तथ्य पेश करके किसी की छवि बिगाड़ सकें, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर सकें अथवा किसी प्रकार की दंड संहिता का उल्लंघन कर सकें। ये विशेषाधिकार भारतीय संविधान में विदेशी नकल से लाए गए हैं। ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ (संसद का निचला सदन) के विशेषाधिकारों की तर्ज पर ये भारतीय संविधान में शामिल किए गए। इनमें भारतीय संस्कृति की मूल भावना का उल्लंघन है। भारतीय संस्कृति में यह नहीं माना जाता कि राजा कानून से ऊपर है, जैसा कि इंग्लैंड के अंदर नियम है कि ‘किंग कैन डु नो रॉन्ग’, यानी राजा कोई गलती नहीं कर सकता। इसके उलट, भारत में राजा भी धर्म के अधीन होता है और न्याय के लिए उसको भी दंड दिया जा सकता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए अब हमारी संसद को भी संसदीय विशेषाधिकारों से जुड़े अनुच्छेदों को खत्म कर देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सदन में सदस्य भाषण देते समय मर्यादाओं का ख्याल रखेंगे, और किसी भी व्यक्ति के खिलाफ गलतबयानी नहीं करेंगे या अपनी दुर्भावना जाहिर नहीं करेंगे।
आज ज्यादा से ज्यादा होता यह है कि असंसदीय टिप्पणियां और ऐसे भाषण रिकॉर्ड से निकाल दिए जाते हैं, लेकिन किसी भी बाहरी व्यक्ति के पास यह अधिकार नहीं है कि वह सांसद या विधायक पर मुकदमा चला सके। जिस प्रकार अन्य सामान्य व्यक्ति पर कानून लागू होता है, वैसे ही विधायिका के सदस्यों पर भी कानून लागू होने चाहिए। इससे उनके कार्य करने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि विधायिका के सदस्यों का यह काम नहीं है कि वे सदन में झूठ बोलें, गलत तथ्य पेश करें, दुर्भावनापूर्ण भाषण दें या दूसरों की मर्यादा को तार-तार करें। उम्मीद है, अगली संसद इस फैसले के बाद बाकी सभी विशेषाधिकारों को भी समाप्त कर देगी।
इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ फैसले को भी स्पष्ट करते हुए कहा कि राज्यसभा चुनाव संविधान के अनुच्छेद 194 (2) के अंतर्गत आता है। कुलदीप नैयर केस में यह कहा गया था कि राज्यसभा के लिए वोट देना संसदीय कार्य नहीं है, और इसलिए उसमें संसदीय विशेषाधिकार लागू नहीं होते। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को स्पष्ट कर दिया कि उस फैसले का यह हिस्सा गलत है और राज्यसभा के लिए वोट देना भी संसदीय कार्य है, जिसे संसदीय विशेषाधिकारों में गिना जाएगा।
शीर्ष अदालत का यह फैसला विधायिका के लिए मील का एक पत्थर साबित हो सकता है। अब बहुत से दलों का यह डर कि उनके सदस्यों को खरीद लिया जाएगा और बिकने के बाद वे खरीदार के अनुसार वोट देंगे, समाप्त हो जाएगा, क्योंकि ऐसे सदस्यों के खिलाफ अब कानूनी कार्रवाई हो सकेगी। पार्टियों को यह जरूरत नहीं पड़ेगी कि वे अपने सदस्यों को किसी गेस्ट या रेस्ट हाउस में बंद करें। अगर कोई सदस्य रिश्वत लेकर वोट देता है, तो वह अपराधी माना जाएगा और उसके ऊपर मुकदमा चलेगा। अब कुछ नेताओं का यह कहना भी कि बेशक दूसरे दलों से रिश्वत ले ली जाए, लेकिन वोट मूल पार्टी के पक्ष में किया जाए, कानूनी अपराध माना जाएगा। वास्तव में, अब किसी भी रूप में रिश्वत लेना ही आपराधिक कृत्य बन जाएगा।
Date:06-03-24
बेअसर होकर अपनी आभा खो रहा विश्व व्यापार संगठन
मोहन कुमार, [ पूर्व राजदूत ]
एक और डब्ल्यूटीओ मंत्रिस्तरीय सम्मेलन अबू धाबी में संपन्न हो गया, पर इसमें दिखाने के लिए कुछ खास नहीं था। आखिरकार, डब्ल्यूटीओ या विश्व व्यापार संगठन के मुख्य कार्य, यानी संवाद कार्य और विवाद सुलझाने का कार्य पिछले कुछ समय से ठप पड़े हैं। इन दोनों कार्यों को फिर शुरू करने की कोशिशें अबू धाबी में सिफर साबित हुईं। इससे पता चलता है कि 166 सदस्यों वाला यह संगठन कैसे गंभीर रूप से संकटग्रस्त हो गया है।
अबू धाबी में 13वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में डब्ल्यूटीओ सदस्यों के सामने चार मुख्य चुनौतियां थीं। पहली, मत्स्य पालन सब्सिडी पर बहुपक्षीय समझौता कैसे किया जाए। दूसरी, अपीलीय निकाय को कैसे बहाल किया जाए, ताकि विवाद निपटान तंत्र डब्ल्यूटीओ के मुकुट में रत्न के रूप में अपनी प्रतिष्ठा फिर से हासिल कर सके। तीसरी, खाद्य सुरक्षा से संबंधित सार्वजनिक स्टॉक होल्डिंग (पीएसएच) मुद्दे का स्थायी समाधान कैसे हो, जिसकी मांग भारत और कई अन्य देश कर रहे हैं। और आखिरी, इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिशन पर सीमा शुल्क पर रोक के विस्तार को कैसे सुनिश्चित करें।
मत्स्य पालन सब्सिडी पर बहुपक्षीय समझौता पिछले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में आंशिक रूप से हो गया था और इसे इस सम्मेलन में पूरा किया जाना था, ताकि यह लागू हो सके। निराशा की बात है कि यहां वार्ताकारों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। भारत ने समानता और न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, जिसके कारण यूरोपीय संघ के वार्ताकार को कहना पड़ा कि केवल एक देश (भारत) था, जिसने सहमति रोकी है। भले ही यह सच हो, पर भारत अपने मछुआरों की आजीविका के लिए दी जाने वाली सब्सिडी से कैसे समझौता कर सकता है? अनेक देश हैं, जो भारत से भी ज्यादा सब्सिडी देते हैं। हमारे किसानों के लिए भी यही बात लागू होती है। डब्ल्यूटीओ ने भारत जैसे देशों से जो वादा किया था, उससे वह मुकर गया है। वास्तव में, कृषि सब्सिडी एक गंभीर मुद्दा है, जिसे अत्यधिक गरीबी और भूख को खत्म करने के सतत विकास लक्ष्य से जोड़ा जाना चाहिए। बाजार तक पहुंच के मुद्दे को बंधक बनाना अनुचित व अन्यायपूर्ण है। अफसोस, अबू धाबी के सम्मेलन में इस दिशा में कोई कामयाबी नहीं मिली।
अपीलीय निकाय की बहाली की कहानी भी अलग नहीं है। केवल एक डब्ल्यूटीओ सदस्य, यानी संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस पर आपत्ति जताई है। यदि डोनाल्ड ट्रंप सफल होते हैं, तो इस विषय पर सभी दांव बेकार चले जाएंगे। यह सम्मेलन बमुश्किल इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिशन पर सीमा शुल्क पर रोक को दो साल तक बढ़ाने में कामयाब रहा है। भारत इसके भी विरोध में था और संयुक्त अरब अमीरात के व्यापार मंत्री के व्यक्तिगत अनुरोध के बाद ही वह अंतिम समय में सहमत हुआ।
बहरहाल, सम्मेलन के बाद यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि बहुपक्षीय मंचों पर चीन-भारत सहयोग का युग अब समाप्ति की ओर है। अब ब्रिक्स समूह पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह देखना बाकी है। चीन दुनिया के सौ से ज्यादा देशों के साथ व्यापार समझौता कर चुका है। अब बहुपक्षीय संगठन के रूप में डब्ल्यूटीओ का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। क्या विश्व स्तर पर व्यापार विवाद सुलझाने के मोर्चे पर हम बुरे पुराने दिनों की वापसी देख सकते हैं? यदि ऐसा होता है, तो भारत क्या करेगा? डब्ल्यूटीओ को पुनर्जीवित करने की निराशाजनक संभावनाओं को देखते हुए, भारत को अपने प्रमुख एफटीए, विशेषकर ईयू, यूके और जीसीसी के साथ समझौते में जल्दी करनी चाहिए। हम समय नहीं गंवा सकते और मई में नई सरकार को प्राथमिकता से इस पर ध्यान देना चाहिए।
भारत की रणनीतिक/विदेश नीति विमर्श और इसकी व्यापार नीति विमर्श के बीच भी कुछ अंतर है। रणनीतिक चर्चा इस धारणा पर आधारित है कि हम जल्द ही सात या दस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। मौजूदा व्यापार नीति चर्चा यकीनन दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए उपयुक्त है! अत: इस अंतर को पाटने की जरूरत है। ऐसा करने का एक तरीका यह है कि मई में नई सरकार कृषि, भूमि, श्रम और रसद में गहन, संरचनात्मक सुधार करे, ताकि भारत को बड़ी आर्थिक लीग में शामिल होने में मदद मिले।