06-03-2023 (Important News Clippings)

Afeias
06 Mar 2023
A+ A-

To Download Click Here.


Date:06-03-23

विपक्षी दलों का पत्र

संपादकीय

सही है कि ऐसी कोई सरकार नहीं, जिस पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करने का आरोप न लगता हो। केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग की शिकायत करने वाले दलों की मानें तो मनीष सिसोदिया को बिना किसी प्रमाण गिरफ्तार किया गया। यदि ऐसा है तो अदालत ने उन्हें जमानत देने से मना करते हुए सीबीआइ के रिमांड पर क्यों भेजा? दिल्ली की शराब नीति के मामले में पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद आठ विपक्षी दलों की ओर से लिखा इस आशय का पत्र कई प्रश्न खड़े करता है कि केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इस पत्र में आम आदमी पार्टी के साथ सात अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी हस्ताक्षर किए हैं। सबसे पहले तो यही प्रश्न उठता है कि आखिर आम आदमी पार्टी को छोड़कर केवल सात विपक्षी दल ही इस नतीजे पर क्यों पहुंचे कि केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है?इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी उठता है कि तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस पत्र पर हस्ताक्षर कैसे कर सकती हैं? क्या बंगाल के शिक्षक भर्ती घोटाले को अनदेखा कर दिया जाए? शिक्षकों की भर्ती में घोटाला किया गया और बेहद बेशर्मी के साथ किया गया, यह निष्कर्ष कलकत्ता उच्च न्यायालय का है। क्या तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य दल यह चाहते हैं कि देश की जनता यह विस्मृत कर दे कि शिक्षक भर्ती घोटाले में गिरफ्तार बंगाल के मंत्री पार्थ चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी के यहां से करोड़ों की नकदी बरामद की गई थी? यदि तृणमूल कांग्रेस पार्थ चटर्जी को निर्दोष मानती है तो फिर उसने उन्हें पार्टी से निलंबित क्यों किया?

केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग की शिकायत करने वाले दलों की मानें तो मनीष सिसोदिया को बिना किसी प्रमाण गिरफ्तार किया गया। यदि ऐसा है तो अदालत ने उन्हें जमानत देने से मना करते हुए सीबीआइ के रिमांड पर क्यों भेजा? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि शराब नीति में कहीं कोई खामी नहीं थी तो फिर घोटाले का शोर मचते ही उसे वापस क्यों लिया गया? क्या विपक्षी दल इसकी जिम्मेदारी ले सकते हैं कि दिल्ली सरकार की ओर से वापस ली गई शराब नीति में कहीं कोई खामी नहीं थी और उससे शराब विक्रेताओं को कहीं कोई अनुचित लाभ नहीं मिल रहा था? एक सवाल यह भी है कि क्या चिट्ठी लिखने वाले विपक्षी दलों के नेता मनीष सिसोदिया समेत जो अन्य नेता घपले-घोटालों के आरोप में केंद्रीय एजेंसियों की जांच के दायरे में हैं, उनके निर्दोष होने का प्रमाण दे सकते हैं? यह हैरानी की बात है कि विपक्षी नेताओं की चिट्ठी में उन लालू यादव का भी जिक्र है, जिन्हें चारा घोटाले में सजा सुनाई जा चुकी है। यह सही है कि ऐसी कोई सरकार नहीं, जिस पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करने का आरोप न लगता हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार पर पूरी तरह लगाम लग गई है। राजनीतिक भ्रष्टाचार एक कटु सच्चाई है। इसी प्रकार यह भी एक सच है कि राजनीतिक दल अपनी राजनीति चलाने के लिए धन का प्रबंध घपलों-घोटालों के जरिये भी करते हैं। इसी कारण नेताओं के घपले-घोटाले सामने आते रहते हैं।


Date:06-03-23

जनजाति समाज को उकसाने का प्रयास

हरेंद्र प्रताप, ( लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं )

झारखंड विधानसभा के बाद बंगाल विधानसभा में भी आगामी जनगणना के लिए सरना कोड लागू करने का प्रस्ताव पारित किया गया है। जनगणना करते समय हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, अन्य और उल्लेख नहीं-ऐसे कालम में जनगणना का विवरण प्रकाशित किया जाता है। आम जनगणना की तरह ही जनजाति बंधुओं के लिए की गई जनगणना का विवरण भी इसी तरह प्रकाशित होता है। 1951 की जनगणना के समय पारसी और यहूदियों के लिए भी कालम होता था, पर 1961 के बाद उन्हें अन्य के कालम में जोड़ दिया गया। जनजाति समाज के कुछ लोग भी अपनी जाति को ही अपना पंथ लिखवा देते थे। ऐसे फिरके/जाति को भी अब अन्य के कालम में डाल दिया जाता है।

वर्ष 1961 में देश की जनसंख्या 43,92,34,771 थी, जिसमें जनजाति वर्ग की संख्या 2,98,79,249 थी। 2011 की जनगणना के समय देश की जनसंख्या 1,21,08,54,977 थी, जिसमें जनजाति वर्ग की संख्या 8,41,65,326 थी। 1961 की जनगणना के समय जनजाति समाज की जनसंख्या में 89.59 प्रतिशत हिंदू, 0.20 प्रतिशत मुस्लिम, 5.53 प्रतिशत ईसाई तथा 4.18 प्रतिशत अन्य की संख्या थी। 2011 की जनगणना में खुद को हिंदू लिखवाने वाली जनजातियों की संख्या घटकर 80.50 प्रतिशत हो गई तो ईसाई जनसंख्या 5.53 से बढ़कर 9.87 प्रतिशत तथा अन्य की जनसंख्या 4.18 से बढ़कर 6.78 प्रतिशत हो गई। 2011 की जनगणना में देश में अन्य लोगों की कुल आबादी 70,95,408 थी, जिसमें केवल झारखंड में यह संख्या 40,12,622, बंगाल में 7,74,450, मध्य प्रदेश में 5,84,338, छत्तीसगढ़ में 4,88,097 तथा ओडिशा में 4,70,267 थी। पूर्वोत्तर के प्रांतों में अपने को अन्य कालम में लिखवाने वाले कालांतर में ईसाई बनते गए। जैसे-अरुणाचल में 1971 में अन्य 63.45 प्रतिशत तथा ईसाई 0.78 प्रतिशत थे, परंतु 2011 में अन्य घटकर 26.20 प्रतिशत हो गए तो ईसाई बढ़कर 30.26 प्रतिशत हो गए। नगालैंड में 1951 में अन्य 49.50 प्रतिशत तथा ईसाई 46.04 प्रतिशत थे, पर 2011 में अन्य घटकर 0.16 प्रतिशत हो गए तो ईसाई बढ़कर 87.92 प्रतिशत हो गए। मणिपुर में 1951 में अन्य 21.55 प्रतिशत तथा ईसाई 11.87 प्रतिशत थे, पर 2011 में अन्य घटकर 8.88 प्रतिशत रह गए तो ईसाई बढ़कर 41.28 प्रतिशत हो गए। ईसाई बहुल मेघालय में भी 1961 में अन्य 42.92 प्रतिशत तथा ईसाई 35.21 प्रतिशत थे, पर 2011 में अन्य घटकर 8.70 प्रतिशत तो ईसाई बढ़कर 74.59 प्रतिशत हो गए।

2011 की जनगणना के अनुसार नगालैंड में कुल जनजाति समाज के 98.21 प्रतिशत, मणिपुर में 97.42 प्रतिशत, मिजोरम में 90.07 प्रतिशत, मेघालय में 84.42 प्रतिशत तथा अरुणाचल प्रदेश में 40.92 प्रतिशत लोग ईसाई बन गए हैं, पर जिस तरह पूर्वोत्तर के राज्यों में ईसाइयों को जनजाति समाज के लोगों का मतांतरण कराने में सफलता मिल रही थी, उन्हें वैसी सफलता पूर्वी भारत के बंगाल, झारखंड और ओडिशा में नहीं मिल पा रही थी। झारखंड में 1961 में ईसाई 11.21 प्रतिशत तथा अन्य 18.45 प्रतिशत थे, लेकिन 2011 में अन्य बढ़कर 46.41 प्रतिशत तो हुए, पर ईसाई केवल 13.87 प्रतिशत ही हुए। बंगाल में 1961 में ईसाई 2.75 प्रतिशत तथा अन्य 1.78 प्रतिशत थे, लेकिन 2011 में ईसाई बढ़कर 6.49 प्रतिशत तो अन्य 14.62 प्रतिशत हो गए। पूर्वी भारत के राज्यों के जनजाति बंधु अपने को हिंदू ही कहते थे। ईसाई मिशनरियों ने योजनापूर्वक हिंदू के बदले जनजाति बंधुओं को सरना, मुंडा, उरांव, हो आदि लिखवाने को कहते थे। चूंकि जनगणना में इसके लिए अलग से कोई कालम नहीं रहता था, अतः उन्हें अन्य के कालम में डाल दिया जाता था। 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में इसी अन्य में संथाल लिखवाने वालों की संख्या 10,08,997, उरांव लिखवाने वालों की संख्या 10,49,077, हो लिखवाने वालों की संख्या 8,69,362 तथा मुंडा लिखवाने वालों की संख्या 6,05,335 है। जनजाति समाज का ईसाइकरण करने में असफल विदेशी ताकतें उन्हें सरना कोड के नाम पर आंदोलन चलाने को उकसाती रहीं, पर उन्हें सफलता नहीं मिल रही है। झारखंड और बंगाल के प्रस्ताव के तहत अभी भले ही संथाल, उरांव, मुंडा, हो अपने को सरना कोड में लाने को तैयार हो जाएं, पर क्या भविष्य में वे एक ही कोड को स्वीकार कर पाएंगे? क्या भविष्य में कोई अन्य कोड की मांग नहीं उठेगी? क्या सरना कोड को स्वीकार कर सभी मतांतरित ईसाई, ईसाई पंथ छोड़ देंगे? 1996 में असम में बोडो और संथाल लोगों के बीच संघर्ष हुआ था। पूर्वोत्तर के खासी, गारो, जयंतिया, राभा, बोडो, झारखंड के खरवार, भूमिज, कोल और बंगाल के भूटिया, लेपचा, तमांग आदि जनजाति समाज के लोग भी अपनी अलग पहचान को लेकर काफी सजग और संघर्षशील रहे हैं।

वास्तव में एक तरफ ‘विविधता में एकता’ की बात तो दूसरी तरफ ‘यूनिटी इन डाइवर्सिटी इज थ्रेट टू अवर आइडेंटिटी’ की बात करने वाले समय-समय पर सरना कोड का मुद्दा उठाकर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहते हैं। जनजाति समाज को उकसाने का कोई भी प्रयास गृहयुद्ध को निमंत्रण देगा। वोटवैंक की राजनीति के लिए देश के राजनीतिक दलों को आग से नहीं खेलना चाहिए। विदेशी ताकतें और उनके द्वारा पोषित एनजीओ तो इस आग को हवा देने को तैयार बैठे हैं। जनजाति संगठनों को विश्वास में लेकर इस विषय पर गहन चिंतन करना समय की मांग है। कुल जनसंख्या में हिंदू आबादी का प्रतिशत घटना देश को एक और विभाजन की ओर धकेल देगा।


Date:06-03-23

नियामकीय स्वतंत्रता

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को मुश्किल हालात में डाल दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने गत सप्ताह एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अभय मनोहर सप्रे को सौंपी गई है। इस समिति को ‘हालात का समग्र आकलन करना है जिसमें वे प्रासंगिक कारक शामिल हैं जिनके चलते हाल के दिनों से प्रतिभूति बाजार में उतार-चढ़ाव है।’ समिति में भारतीय स्टेट बैंक के पूर्व चेयरमैन ओ पी भट्ट, इन्फोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणी, बैंकर के वी कामत, सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे पी देवधर तथा प्रतिभूति कानूनों के विशेषज्ञ अधिवक्ता सोमशेखर सुंदरेशन शामिल हैं। माना जा रहा है कि यह यह समिति इस बात का आकलन करेगी कि क्या अदाणी समूह या अन्य कंपनियों के मामले में प्रतिभूति कानूनों के कथित उल्लंघन के मामलों में नियामकीय स्तर पर कुछ नाकामी रही है। समिति से यह भी अपेक्षा है कि वह भारतीय निवेशकों के संरक्षण के लिए नियामकीय ढांचे को मजबूत बनाने को लेकर भी कुछ सुझाव देगी।

हाल के दिनों में अदाणी समूह के शेयरों के साथ जो भी हुआ उससे इतर भी निश्चित रूप से नियामकीय ढांचे में सुधार की गुंजाइश है लेकिन इस मामले से निपटने का यह सही तरीका नहीं है। सेबी संचालन ढांचे में सुधार को लेकर लगातार काम कर रहा है और उसने भी अतीत में इसके लिए विशेषज्ञ समिति का गठन किया है। चूंकि नियामक अमेरिका के हिंडनबर्ग रिसर्च (जिसने अदाणी समूह के शेयरों पर शॉर्ट पोजिशनिंग से कमाई की) द्वारा लगाए गए आरोपों के विभिन्न पहलुओं की जांच कर रहा था तो इसे जारी रहने देना चाहिए। हकीकत में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि सेबी को यह जांच करनी चाहिए कि क्या अदाणी समूह की कंपनियों ने प्रतिभूति अनुबंध (नियमन) नियम 1957 के नियम 19ए का उल्लंघन किया। इसके अलावा अगर किसी शेयर को लेकर ऐसी कोई गतिविधि हुई है तथा क्या संबंधित पक्ष के लेनदेन की कानून तथा नियमन के मुताबिक जानकारी नहीं दी गई।

चूंकि मामले की पड़ताल सेबी द्वारा की जा रही है इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि विशेषज्ञ समिति के गठन से कैसे मदद मिलेगी। यह समिति नियामक की स्थिति को कमजोर कर सकती है। हालांकि सूचनाओं के लिए यह काफी हद तक नियामक पर ही निर्भर करेगी। चूंकि सेबी आरोपों की जांच की प्रक्रिया में है इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि जांच खत्म होने तक समिति किसी नतीजे पर कैसे पहुंचेगी। नियामकीय ढांचे को मजबूत करने की बात करें तो प्रतिभूति बाजार नियामक इसके लिए पूरी तरह सशक्त है।

व्यापक स्तर पर देखें तो यह कहा जा सकता है कि नियामक को अदाणी समूह के शेयरों के मामले में तथा उनकी शेयरधारिता के रुझानों को लेकर अधिक सक्रियता बरतनी चाहिए थी लेकिन यह मामला ऐसा भी नहीं था कि न्यायालय हस्तक्षेप करे और इसके लिए समिति का गठन करे। हालांकि यह बात सही है कि अदाणी समूह के शेयरों के बाजार मूल्य को करीब 10 लाख करोड़ रुपये की क्षति पहुंचती है लेकिन इनमें खुदरा और म्युचुअल फंड की हिस्सेदारी काफी हद तक सीमित थी। इसके अलावा कोई समस्या सामने नहीं आई तथा शेयर बाजार सुचारु रूप से काम कर रहे हैं। वित्तीय बाजारों में अस्थिरता तो रहती ही है तथा बड़ी तादाद में निवेशकों के निरंतर कदमों से मूल्य निर्धारण होता है।

जिन शेयरों पर सवाल उठे हैं उनके मामले में भी निवेशकों उन्हें खरीदते समय ही जोखिम का पता होना चाहिए था। हालांकि निवेशकों को बाजार की अस्थिरता से बचाने का कोई तरीका या जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका में कुछ बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 2022 में 50 फीसदी तक घट गया क्योंकि बाजार के हालात बदल गए थे। बाजार ऐसे ही काम करते हैं।


Date:06-03-23

भ्रष्टाचार की जड़ें

संपादकीय

हर राजनीतिक दल सत्ताधारी दल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए चुनाव में मतदाता को अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है। हर दल का दावा होता है कि सत्ता में आने के बाद वह पूरी व्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त कर देगा। मगर होता इसके उलट है। हर साल भ्रष्टाचार की दर कुछ बढ़ी हुई ही दर्ज होती है। भारत की गिनती सर्वाधिक भ्रष्टाचार वाले देशों में की जाती है। ऐसे में यह नई बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार में मुख्य सचिव रहे एक प्रशासनिक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई करते हुए इस प्रवृत्ति को कैंसर बताया। अदालत ने कहा कि यह पूरे समुदाय के लिए शर्म की बात है कि हमारे संविधान निर्माताओं के मन में जो ऊंचे आदर्श थे, उनका पालन करने में लगातार गिरावट आ रही है। यह बात हर कोई स्वीकार करता है कि भ्रष्टाचार के चलते धन के समान वितरण का संवैधानिक तकाजा कहीं हाशिए पर चला गया है, मगर इस पर अमल कम ही लोग करने को तैयार दिखते हैं। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने अदालतों को यह नसीहत दी कि उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों में किसी भी तरह की रियायत नहीं बरतनी चाहिए, उसी दिन कर्नाटक और झारखंड में रिश्वत से जमा की गई भारी रकम पकड़ी गई।

हमारे देश में अब यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि बिना रिश्वत के कोई काम नहीं हो सकता। विकास परियोजनाओं में ठेकेदारी पानी हो, सरकारी नौकरी पानी हो, यहां तक कि तहसील-तालुका से अपनी जमीन-जायदाद के कागजात हासिल करने हों, तो बिना रिश्वत के काम नहीं चल सकता। बहुत सारे सरकारी विभागों में तो अलग-अलग काम के लिए बकायदा दरें निर्धारित हैं। हर ठेके में ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारियों-मंत्रियों आदि के कमीशन तय होते हैं। विचित्र तो यह भी है कि बहुत सारी जगहों पर किसी अधिकारी से मिलाने तक के लिए चपरासी पैसे मांग लेता है। इस तरह सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार खुल्लम खुल्ला चलता है। यह कोई छिपी बात नहीं है। एक सामान्य आदमी भी किसी मामूली सरकारी कर्मचारी के ठाठ-बाट से अंदाजा लगा सकता है कि उसकी ‘ऊपरी’ कमाई कितनी होती होगी। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों ने बहुत सारे कामों में पारदर्शिता लाने के मकसद से खिड़कियों पर कतार लगाने और अधिकारियों के चक्कर काटने की परंपरा खत्म करके इंटरनेट के जरिए काम कराने की व्यवस्था कर दी है। पर हकीकत यही है कि इसके बावजूद भ्रष्टाचार का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।

भ्रष्टाचार की जड़ें सबको पता हैं। हर मंत्री और अधिकारी उन्हें पहचानता है, मगर दिक्कत यह है कि भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प सिर्फ नारों तक सिमट कर रह गया है। उसके लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती। जब खुद मंत्री और उनके सचिव इस खेल में शामिल पाए जाते हैं, तो भ्रष्टाचार को मिटाने की उम्मीद भला किससे की जाए। एक बार चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में कई सौ गुना की वृद्धि देखी जाती है। पिछले कुछ सालों में पड़े आयकर और प्रवर्तन निदेशालय आदि के छापों में कितने ऐसे नाम उभर कर आए। मगर फिर खुद राजनीतिक दल ऐसी कार्रवाइयों को बदले की भावना से उठाए जा रहे कदम बताने पर तुल जाते हैं। इस आरोप को खारिज भी नहीं किया जा सकता। हर सत्तापक्ष भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर ऐसा भेदभाव करता दिखता रहा है। इसलिए भ्रष्टाचार की जड़ों पर तब तक प्रहार संभव नहीं है, जब तक कि राजनीतिक नेतृत्व इसे लेकर खुद गंभीर न हो।


Date:06-03-23

भूकंप से बचाव की तैयारी

अखिलेश आर्येंदु

नीदरलैंड के सर्वेक्षणकर्ता हूगरबीट्स ने तुर्किये और सीरिया के बारे में भूकंप को लेकर जो भविष्यवाणी की थी, उसी ने भारत के बारे में भी भविष्यवाणी की है। ये दुनिया के पहले शोधकर्ता हैं जो भूकंप की भविष्यवाणी का दावा कर रहे हैं। हालांकि दुनिया के वैज्ञानिकों का कहना है कि उनके दावों के पीछे कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। गौरतलब है कि हूगरबीट्स जो खुद को भूकंपीय शोधकर्ता बताते हैं, सौर प्रणाली भूमिति सूचकांक के सहारे सटीक भविष्यवाणी करने का दावा करते हैं। तुर्कीये और सीरिया के भूकंप को लेकर उनका दावा सच बताया जा रहा है। मगर सवाल है कि क्या भारत के बारे में जो भूकंप आने की भविष्यवाणी उन्होंने की है, उसे तुर्कीये में आए भूकंप की भविष्यवाणी से जोड़ कर देखना चाहिए?

भूकंप पर शोध करने वाले यूनाइटेड स्टेट्स जियोलाजिकल सर्वे का कहना है कि भूकंप की भविष्यवाणी करने का कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है। बावजूद इसके अगर भविष्यवाणी कुछ हद तक भी सही साबित होती है तो हूगरबीट्स की भविष्यवाणी को पूरी तरह खारिज नहीं किया जाना चाहिए। हमें यह देखना है कि भविष्यवाणी सच हो या न हो, लेकिन जिस खतरनाक क्षेत्र में दिल्ली और दूसरे कई इलाके आते हैं, उस नजरिए से भी भूकंप से बचने की बेहतर तैयारी पूरी मुस्तैदी के साथ करने की जरूरत है। इससे भूकंप के प्रति हमारी लापरवाही खत्म होगी और खतरनाक पैमाने पर भूकंप आने पर भी काफी जान-माल की रक्षा हो पाएगी।

वैज्ञानिकों के मुताबिक पूरा भारतीय उपमहाद्वीप धीरे-धीरे भूकंप वाले खतरनाक क्षेत्र में आता जा रहा है। कब उच्च स्केल का भूकंप आ जाए, कहना मुश्किल है। इसलिए भू-वैज्ञानिक भूकंप से बचने के लिए आम आदमी में सजगता बढ़ाने पर जोर देते रहे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक दिल्ली, दिल्ली के आसपास और देश का पश्चिम-उत्तर क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से अतिसंवेनशील क्षेत्र है। इसलिए हर वक्त, हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में सजगता और संवेदनशीलता की जरूरत है। महज ज्यादा तादाद में वेधशालाएं स्थापित करने से उच्च स्तर के भूकंपों से जान माल से पूरी तरह बचाव करना नामुमकिन है।

भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती के अंदर दिनोंदिन हलचल बढ़ रही है। पिछले दो सालों में दो दर्जन से ज्यादा भूकंप के छोटे झटके महसूस किए गए। लोगों में दहशत होना लाजमी है, बावजूद इसके भूकंप के प्रति लोगों में वैसी सजगता और तैयारी नहीं है। आमतौर पर ज्वालामुखी या धरती के पपड़ी के भीतर गहरे आंदोलन होने या टेक्टोनिक प्लेटों के विस्थापन या आपस में टकराने की वजह से उच्च स्तर के भूकंप आते हैं। भारत-नेपाल में धरती के नीचे ये क्रियाएं तेज गति से चलती रहती हैं। यही वजह है कि साल में दर्जनों भूकंप की घटनाएं दर्ज होने लगी हैं। दुनिया के सबसे सक्रिय भूकंपीय इलाकों में भारत, तुर्कीये, उत्तर अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देश शामिल हैं। दिल्ली में छोटे स्तर के भूकंप आते ही रहते हैं, जिसकी वजह भारतीय प्लेटों में कंपन है। मगर उच्च रिक्टल स्केल का भूकंप भी आ सकता है, यह कब आएगा यह अनुमान लगाना मुश्किल है। पर जिस क्षेत्र में दिल्ली आती है और जिस प्लेट के ऊपर बसी है, इससे कभी भी कोई बड़ा भूकंप का झटका आ सकता है। वहीं हम यह नहीं कह सकते कि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य भूकंप के नजरिए से ज्यादा खतरनाक नहीं हैं। भूकंप इसलिए ज्यादा विनाशकारी साबित होता है कि ज्यादातर भवन अवैज्ञानिक ढंग से बनाए जाते हैं। जो मानक भूकंपरोधी भवन बनाने के तय किए गए हैं उसका पालन न निजी तौर पर घर बनाते वक्त आम लोग करते हैं और न भवन निर्माता। देखा गया है कि बहुत कम तीव्रता के भूकंप आने पर भी इमारतें हिलने लगती हैं और उनमें दरारें पड़ जाती हैं। भारत के भूकंप का उच्च जोखिम वाला देश होने की वजह भवन या घर बनाने में भूकंपरोधी नियमों का पालन न करना तो है ही, भूकंप से बचाव की सजगता की बेहद कमी भी है।

भारत दुनिया की सबसे घनी और बड़ी आबादी वाला देश होने की वजह से उच्च पैमाने के भूकंप से जान-माल का नुकसान होने की संभावना ज्यादा रहती है। इसे देखते हुए भारत सरकार ने 2026 तक और सौ भूकंप वेधशाला तैयार करने का निर्णय किया है। इसी क्रम में अब तक पैंतीस वेधशालाओं को रोस्टर से जोड़ दिया गया है। इससे भूकंप के स्तर की बेहतर जानकारी मिलने में सहूलियत हो जाएगी।

हिमालयी क्षेत्र भूकंप का उच्च जोखिम वाला क्षेत्र है। यहां उच्च पैमाने का भूकंप आने की हमेशा प्रबल संभावना बनी रहती है। भूकंप का कोई पूर्वानुमान नहीं लगया जा सकता, इसलिए चिंता और बढ़ जाती है। ऐसे में इससे डरने के बजाय बचाव की बेहतर तैयारी होनी चाहिए। आजादी के पहले हिमालयी क्षेत्र में 1897 में शिलांग, 1905 में कांगड़ा, 1934 में बिहार-नेपाल और असम में बड़ा भूकंप आया, जिसमें हजारों लोग मारे गए और लाखों घायल हुए थे। फिर चालीस साल तक इस क्षेत्र में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया। 1991 में उत्तरकाशी, 1999 में चमोली और 1915 में नेपाल में उच्च तीव्रता का भूकंप आया, जिसमें हजारों लोगों की मौत हो गई थी। इसे देखते हुए भूकंप के प्रति सजगता और इससे बचने की पुख्ता तैयारी की जरूरत है। भूकंप आने पर जान-माल का नुकसान कम से कम हो, इसके लिए जरूरी है कि चौबीस घंटे भूकंप के प्रति सजग रहें और दूसरों को भी सजग करते रहें। भूकंप के पहले, भूकंप के वक्त और भूकंप के बाद लोगों में इससे निपटने की रणनीति कैसी हो, इस बात की सजगता जरूरी है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर भूकंप के प्रति जन सामान्य में बेहतर तैयारी और सजगता हो तो भूकंप से नुकसान नाममात्र का ही होगा। इसलिए वाडिया भू-विज्ञान संस्थान हिमालय क्षेत्र के स्कूलों और गांवों में जाकर लोगों को जागरूक करने का कार्य करता है। इससे इस क्षेत्र के लोगों में भूकंप के प्रति सजगता और संवेदनशीलता आई है। गौरतलब है हिमालय क्षेत्र में साठ वेधशालाएं कार्य कर रही हैं, जो भूकंप की हर गतिविधि की पल-पल की जानकारी देती रहती हैं। मगर सोशल मीडिया, टीवी चैनलों और अखबारों के जरिए आम लोगों के जान-माल को भूकंप से बचने के लिए सतर्क और सजग किया जा सकता है। भूकंप से जान-माल से बचाव न हो पाने की वजह यह भी है कि भूकंप आने का वक्त और अंतराल के बारे में वैज्ञानिक कुछ बता पाने की हालात में नहीं हैं। भूकंप आता है, तो लोग मनाते हैं कि वे बचे रहें, लेकिन कुछ साल गुजरता है और फिर भूल जाते हैं कि भूकंप फिर आ सकता है और उससे उनकी जान जा सकती है या गंभीर रूप से घायल हो सकते हैं। इसलिए मानसिक और आर्थिक दोनों तरह से भूकंप से बचने के लिए तैयार रहना जरूरी है। यह सोच कर हम नहीं बच सकते हैं कि ईश्वर जैसा चाहेगा वैसा ही होगा। और यह सोच बनाना भी ठीक नहीं कि इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है। यह सब खुद को तसल्ली देने के लिए तो हम कर सकते हैं, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए सजगता और छद्म अभ्यास के जरिए बेहतर बचाव का उपाय हो सकता है।


Date:06-03-23

कड़ा दंड मिले

संपादकीय

अफवाह किस कदर वैमनस्यता और हिंसक माहौल तैयार करती है, यह तमिलनाडु में उत्तर भारतीयों खासकर बिहार-झारखंड के मजदूरों के साथ घटित वाकये से समझा जा सकता है। अच्छी बात यह हुई कि बिहार और तमिलनाडु सरकार ने इस मामले में त्वरित सक्रियता दिखाई और कथित भय का जो वातावरण बना था, वह समाप्त हुआ। दरअसल, उत्तर भारत के प्रवासी मजदूरों के साथ हिंसा और बिहार के 12 मजदूरों की फंदा लगाकर हत्या किए जाने की झूठी खबर और मारपीट के वीडियो वायरल किए जाने के बाद देश भर में यह समाचार तेजी से फैला कि तमिलनाडु में हिंदी बोलने लोगों के साथ बेहद बुरा बर्ताव हो रहा है, और प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या अपने गृह राज्य लौटने को विवश है। पूरे प्रकरण में बिहार के विपक्षी दलों की भूमिका भी नकारात्मक दिखी और बिना पड़ताल किए सभी लोग इस खबर को सच मान बैठे। यहां तक कि जिन नेताओं सोशल मीडिया मंच पर लाखों प्रशंसक थे, उन्होंने भी अफवाह को विस्तार दिया। जबकि इसके उलट तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष ने इस तरह की खबरों को बकवास बताया और मारपीट का खंडन किया। प्रशंसा तमिलनाडु और बिहार सरकार की भी करनी चाहिए, जिन्होंने तुरंत इस खबर का खंडन किया। बिहार सरकार ने अधिकारियों की एक टीम तमिलनाडु भेजी वहीं तमिलनाडु सरकार ने भी प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा का वादा किया। बहरहाल, अब जो बात सामने आ रही है, उसके मुताबिक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन के जन्मदिन – जिसमें बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी शिरकत की- के अगले ही दिन बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ मारपीट और हत्या किए जाने की झूठी खबर फैलाई गई। इ मामले में अब तक भाजपा के एक नेता और दो पत्रकारों के खिलाफ देश भर में ‘जहर’ फैलाने का केस दर्ज किया जा चुका है। देश की अमन-शांति के साथ इस तरह का बिगाड़ करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है। ऐसा करने के पीछे किन लोगों का दिमाग था, इसका खुलासा जरूरी है। चूंकि तमिलनाडु के तिरुपुर में देश का 40 फीसद से ज्यादा सूती कपड़ों का कारोबार होता है, जिसे प्रवासी मजदूर ही संभालते हैं। अन्य छोटे और मध्यम उद्योगों, होटल, भारी उद्योग और कंस्ट्रक्शन कंपनियों में अधिकांश मजदूर बिहार के हैं, और ऐसी खबरों से व्यवसाय चौपट हो सकता है। चुनांचे, सरकार को ऐसे तत्वों की पहचान कर ऐसी कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए जो नजीर बन सके।


Date:06-03-23

निष्पक्ष हों संवैधानिक संस्थाएं

विनीत नारायण

भारत निर्वाचन आयोग में चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च अदालत की 5 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने पिछले गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। फैसले के बाद भारत निर्वाचन आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति पर केंद्र का सीधा हस्तक्षेप घटेगा। कोर्ट ने फैसला सुनाते समय इस बात पर जोर डाला कि संविधानिक संस्थाओं का निष्पक्ष होना लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। सभी राजनैतिक दलों ने फैसले का स्वागत किया जा रहा है। शीर्ष अदालत के 378 पन्नों के इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे 1997 का ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ का फैसला है।

इस फैसले में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और सीवीसी के निदेशकों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल को लेकर दिशा- निर्देश दिए गए थे, जिससे जांच एजेंसियों को सरकारी दखल अलग रख कर निष्पक्ष और स्वायत्त रूप से कार्य करने की छूट दी गई थी परंतु सवाल उठता है कि क्या जांच एजेंसियां सरकार के दबाव से मुक्त हुई ? ऐसा क्या हुआ कि उसी शीर्ष अदालत ने सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा? दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल मांग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया था पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन को याद किया और कहा है, ‘देश को टीएन शेषन जैसे व्यक्ति की जरूरत है । ‘

सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की जिनमें मांग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी कॉलेजियम प्रक्रिया से होना चाहिए। बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि यह चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिसके अनुसार चयन समिति में तीन सदस्य हों – भारत के प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष ।

यह मांग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है। उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले। इस फैसले के आधार पर जब तक संसद द्वारा कानून पास
नहीं हो जाता तब तक इसी फैसले के दिशा- निर्देशों के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियां होंगी। पिछले कुछ वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करते हुए जिस तरह मुख्य जांच एजेंसियों के निदेशकों की नियुक्ति और सेवा विस्तार किए जा रहे हैं, उससे इन एजेंसियों की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर स्वाल उठ रहे हैं। यदि किसी जांच एजेंसी के निदेशक को इस बात का पता है कि शीर्ष अदालत के आदेश के तहत उसकी नियुक्ति पारदर्शिता से हुई है तो उसे उसके दो साल के निश्चित कार्यकाल से कोई नहीं हटा सकता, परंतु यदि उसके नियुक्ति पत्र में कुछ ऐसा लिखा जाए कि उस निदेशक का कार्यकाल एक निश्चित अवधि ‘ या अगले आदेश तक’ वैध है, तो उस पर अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी दबाव बना रहता है। ऐसे में वो निदेशक कितना स्वायत्त या निष्पक्ष रहेगा कहा नहीं जा सकता। भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने राज्य सभा में कहा था, ‘यह खतरा बड़ा है, रिटायर होने के बाद सरकारी पद पाने की इच्छा रिटायर होने से पहले जज के फैसलों को प्रभावित करती है, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा है।’ एक अन्य बयान में जेटली ने कहा था, ‘रिटायर होने से पहले दिए जाने वाले फैसले रिटायर होने के बाद मिलने वाले पद के प्रभाव में दिए जाते हैं । ” जेटली का बयान न सिर्फ जजों पर लागू होता है, बल्कि जांच एजेंसियों और कुछ संविधानिक पदों पर नियुक्त लोगों पर भी लागू होता है। ऐसे में इस ऐतिहासिक फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए, परंतु सरकार जिस भी दल की हो वो ऐसी नियुक्तियों के लिए भेजे जाने वाले नामों के पैनल में केवल अपने चहेते अधिकारियों के ही नाम भेजती है।

ऐसे में नियुक्त करने वाली समिति के पास इन्हीं नामों में से एक का चयन करने का विकल्प रहता है। यदि महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की सूची को सार्वजनिक किया जाए और बेदाग छवि वाले सेवानिवृत्त अधिकारियों की राय भी ली जाए तो ऐसी नियुक्तियों को निष्पक्ष माना जा सकता है। इस दिशा में व्यापक दिशा-निर्देशों की भी आवश्यकता है। ऐसा होता है तो जनता का विश्वास न सिर्फ नियुक्ति की प्रणाली में बढ़ेगा, बल्कि इन संस्थाओं की कार्यशैली में भी बढ़ेगा। जांच एजेंसियां हों या चुनाव आयोग या कोई अन्य सांविधानिक संस्था यदि वो निष्पक्ष और स्वायत्त रहती है तो लोकतंत्र मजबूत रहता है | यदि ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र खतरे में आ सकता है। इसलिए सर्वोच्च अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए इसे कानून का रूप दिया जाना चाहिए और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि सभी नियुक्तियों को पारदर्शिता से किया जाए न कि पक्षपात के साथ ।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने हर चुनाव अभियान में इस बात पर जोर देते हैं कि सभी विपक्षी दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं जबकि भाजपा ईमानदार सरकार देने का वायदा करती है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के भाजपा विधायक के बेटे को किसी ठेकेदार से 40 लाख की रिश्वत लेते लोकायुक्त ने गिरफ्तार करवाया। उसके घर से 8 करोड़ रुपये भी बरामद हुए। इसी राज्य में पिछले वर्ष एक ठेकेदार ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि भाजपा सरकार का मंत्री उससे 40 प्रतिशत कमीशन मांग रहा है। कर्नाटक का तो यह एक उदाहरण है पर क्या जनता कह सकती है कि उनके राज्य में भाजपा के सत्ता के आने बाद भ्रष्टाचार खत्म हो गया या कम गया? तो क्या वजह है कि पिछले वर्षों में सीबीआई और ईडी के छापे केवल विपक्षी दलों के नेताओं पर ही पड़े हैं? इस विवाद से बचने को जरूरी है कि मोदी जी जांच एजेंसियों और संविधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता और स्वायत्तता सुनिश्चित करें।


Date:06-03-23

जी20 से क्या और कितना पाएंगे हम

आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )

दिल्ली और गुरुग्राम में बीते हफ्ते जी20 की धूम रही। इस महीने की शुरुआत राजधानी दिल्ली में दो दिन के विदेश मंत्री सम्मेलन से हुई। साथ ही, गुरुग्राम में 1 से 4 मार्च तक भ्रष्टाचार निरोधक कार्य समूह की बैठक भी चलती रही और बात सिर्फ दिल्ली या गुरुग्राम की नहीं है। इस साल की शुरुआत से अब तक कोलकाता, पुणे, तिरुवनंतपुरम, चंडीगढ़, जोधपुर, चेन्नई, गुवाहाटी, बेंगलुरु, कच्छ के रन, इंदौर, लखनऊ, खजुराहो जैसी जगहों पर कहीं एक, और कहीं एक से ज्यादा आयोजन हो चुके हैं।

जी20 का अठारहवां शिखर सम्मेलन दिल्ली के प्रगति मैदान में 9 और 10 सितंबर को होना है। तब दिल्ली में जी20 समूह के राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों का जमावड़ा होगा और यह जी20 के अध्यक्ष के तौर पर भारत की पारी का समापन समारोह भी होगा। यह बात थोड़ी हैरत जरूर जगाती है कि जी20 यानी 19 देशों और यूरोपीय संघ को मिलाकर बने इस संगठन के इतिहास में 17 साल बाद भारत को इसकी मेजबानी का मौका क्यों मिला या इससे पहले यह मौका आखिर क्यों नहीं मिल पाया?

जी20 की स्थापना सन 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद हुई थी, लेकिन इसके पीछे 1975 में बने जी7 या सात देशों का समूह था। ये सात देश थे- अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और कनाडा, यानी यह उस वक्त के सबसे अमीर देशों का संगठन था। इसकी सालाना बैठकों में अर्थनीति के साथ-साथ राजनीति और सुरक्षा से जुड़े मसलों पर भी चर्चा होती थी। साल 1998 में रूस को भी इस समूह का सदस्य बनाया गया और तब से इसे जी8 कहा जाने लगा। हालांकि, 2014 में रूस को बाहर करके इसे फिर से जी7 बना दिया गया। इसकी वजह थी कि रूस ने यूक्रेन के प्रांत क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था। वैसे, रूस जी20 का सदस्य है, लेकिन इस बार फिर रूस के यूक्रेन पर हमले का सवाल इस संगठन में विवाद का विषय बना हुआ है।

जी7 की बैठकें अब भी अलग से होती रहती हैं, लेकिन जैसे अमीर आदमी को हमेशा यह फिक्र बनी रहती है कि उसके आसपास अमन-चैन है या नहीं, उसी तरह 1999 के एशियाई मुद्रा संकट के बाद इन अमीर देशों को यह चिंता सताने लगी कि ऐसी मुसीबतों को कैसे कम से कम किया जाए। यह विचार भी बना कि शायद दुनिया के आर्थिक वर्तमान और भविष्य की फिक्र करते वक्त उन देशों को भी साझेदार बनाना जरूरी होगा, जो आर्थिक नक्शे पर तेजी से अपनी पहचान बना रहे हैं। तभी जी8 की पहल पर जी20 की शुरुआत हुई। तब से अब तक जो 17 सम्मेलन हुए हैं, उनमें से सिर्फ पांच ही हैं, जो जी8 सदस्यों, यानी अमीर देशों से बाहर हुए हैं। 2008 के विश्व आर्थिक संकट के बाद यह राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन हो गया है

जी8 देशों ने जब जी20 बनाया, तब शायद सोचा भी नहीं होगा कि 2008 के संकट के बाद और फिर कोरोना के बाद की दुनिया में उनका यह कदम कितना दूरंदेशी भरा साबित होगा। अब जी20 देशों की हैसियत इस बात से समझी जा सकती है कि दुनिया की दो तिहाई आबादी इन्हीं देशों में रहती है, दुनिया की जीडीपी का 85 प्रतिशत हिस्सा इनके पास है और विश्व व्यापार में इनकी हिस्सेदारी 75 प्रतिशत से ऊपर है। आर्थिक पैमाने पर दुनिया के देशों की हैसियत में भी काफी उतार-चढ़ाव हो चुके हैं।

साफ है, 1999 और 2008 के बाद इस समूह के सामने सबसे बड़ी चुनौती खड़ी है। शायद यह उन दोनों संकटों से कहीं बड़ी और विकट समस्या भी है। इस मौके पर जी20 का अध्यक्ष और मेजबान होना भारत के लिए जितनी बड़ी चुनौती खड़ी करता है, शायद उतना ही बड़ा मौका भी साबित हो सकता है। बाली में पिछले साल हुए जी20 सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति पुतिन शामिल नहीं हुए थे और उनके विदेश मंत्री भी समय से पहले ही वापस लौट गए थे। हालांकि, उम्मीद है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन सम्मेलन के लिए नई दिल्ली आएंगे। यूक्रेन मामले पर गतिरोध की एक बड़ी वजह यह है कि ग्लोबल साउथ कहलाने वाले, यानी धरती के दक्षिणी हिस्से में मौजूद ज्यादातर गरीब देश ग्लोबल नॉर्थ या खासकर पश्चिम के अमीर देशों के सामने कमजोर नहीं दिखना चाहते। उनमें से अनेक रूस के पक्ष में न होते हुए भी अमेरिका का साथ देता हुआ भी नहीं दिखना चाहते। भारत से उम्मीद की जा रही है कि वह इस नाजुक वक्त पर दोनों पक्षों के बीच पुल का काम कर सकता है। यहां न सिर्फ दुनिया की समस्या सुलझने की उम्मीद है, बल्कि वैश्विक शक्ति समीकरणों में खुद भारत के लिए एक बेहतर भूमिका की गुंजाइश भी साफ दिखती है।

देश के पचास से ज्यादा शहरों में दो सौ से ज्यादा आयोजन हो रहे हैं। बजट में जी20 के लिए 990 करोड़ रुपये का इंतजाम अलग से किया गया है। यह सब सिर्फ इसलिए कि इससे भारत की हैसियत कुछ बढ़ सकती है। और वह भी एक ऐसे संगठन की अध्यक्षता पर, जो हर साल बारी-बारी से किसी न किसी देश को मिलती ही है। यह सवाल पूछा जा सकता है कि इससे हमारे देश को और जनता को भी कुछ मिलेगा क्या?

इस सवाल का सीधा जवाब मुश्किल है, लेकिन दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो हैसियत बढ़ने का अर्थ यह होगा कि दुनिया की आर्थिक नीतियों में अपने हिसाब से फेरबदल के लिए दबाव बनाना आसान हो जाएगा। दूसरा, देश के पचास शहरों में दो सौ से ज्यादा कार्यक्रमों का अर्थ एक तरह से इन शहरों का, इनकी सांस्कृतिक संपदा का और भारत के तमाम किस्म के उत्पादों का पूरी दुनिया में प्रचार भी होगा। यह वैसे ही है, जैसे स्विट्जरलैंड या नीदरलैंड में भारतीय फिल्मों की शूटिंग से इन देशों के पर्यटन उद्योग को लंबे समय तक फायदा होता रहा। कितना फायदा होगा और कितने समय तक, यह हिसाब लगाना मुश्किल है। जैसे 1982 में हुए एशियाई खेलों या कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान शहर में हुए काम का फायदा आज तक दिल्ली में दिखता है, वैसे ही इन तमाम शहरों में काफी कुछ ऐसा भी होगा, जो आने वाले समय में फायदेमंद होगा।