05-09-2019 (Important News Clippings)

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05 Sep 2019
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Date:05-09-19

बाढ़ नियंत्रण के नजरिये में बदलाव जरूरी

भारत को पारिस्थितिकी सामंजस्य के अग्रदूतों से सीखने और हमारे अपने हालात के हिसाब से उन्हें ढालने की जरूरत है।

मिहिर शाह

भारत में बाढ़ की आवृत्ति एवं तीव्रता बढऩे के साथ ही इसका सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर मढऩे की कवायद शुरू हो चुकी है। लेकिन गत तीन दशकों में बारिश का वितरण एवं सघनता में बदलाव होने से नीति-निर्माताओं पर कहीं बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है कि वे लंबे समय से लंबित सुधारों को लागू करें। केवल सुधारों के ही रास्ते हम अतिवृष्टि की घटनाओं के बुरे प्रभावों को कम कर सकते हैं और उससे बच सकते हैं।

भारत में बाढ़ नीति का केंद्रबिंदु इंजीनियरिंग समाधानों पर रहा है। विशालकाय बांधों के अलावा भारत ने अपनी नदियों के डूब-क्षेत्र में 35,000 किलोमीटर लंबे तटबंध भी बनाए हैं। लेकिन गुजरते वक्त के साथ यह समस्या और भी गंभीर होती गई है। वर्ष 2008 में बिहार की कोसी नदी के एक ऊपरी इलाके में तटबंध टूटने से हजारों लोगों की मौत और 33 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। हालत यह है कि उत्तर बिहार में बांध एवं तटबंध बनाए जाने के बावजूद आजादी के बाद से अब तक बाढ़-प्रभावित इलाका करीब 200 फीसदी बढ़ चुका है। इसका कारण शायद यह है कि तटीय इलाकों में बंधे बनाने से पानी की प्राकृतिक निकासी बाधित हो जाती है और नदी डेल्टा एवं डूब-क्षेत्र भी नहीं बन पाता है। कोसी नदी में तटबंधों के चलते तलछट नाटकीय रूप से बढ़ गई है। कोसी में तलछट बढऩे की एक वजह यह भी है कि बहाव के ऊपरी इलाकों में मिट्टी का भारी कटाव हुआ है। नतीजतन, कोसी का तल काफी ऊंचा हो गया है जिससे बरसात के समय पानी बहुत जल्द तटीय इलाकों में फैलने लगता है और बाढ़ विकराल रूप ले लेती है। पिछले वर्षों में नदी तट के आसपास रिहायशी बस्तियां बसने से भी लोग बाढ़ की चपेट में जल्द आने लगे हैं।

बाढ़ प्रबंधन के बारे में हमारे नजरिये का मूल औपनिवेशिक काल से जोड़ा जा सकता है। पूर्वी भारत के डेल्टाई इलाकों में 1803 से लेकर 1956 के दौरान बाढ़ नियंत्रण को लेकर किए गए प्रयोगों का अध्ययन दर्शाता है कि यह इलाका बाढ़ पर आश्रित कृषि व्यवस्था से बाढ़-प्रभावित भूभाग में तब्दील हो गया। औपनिवेशिक शासक बाढ़ नियंत्रण का विचार अपनी संपत्तियों को बचाने और राजस्व संग्रह रणनीतियों को ध्यान में रखते हुए लेकर आए थे। सबसे पहले ओडिशा डेल्टा क्षेत्र में जमीन को डूबने से बचाने के लिए नदी के तटीय इलाकों में छोटे बंधे बनाए गए थे। मशहूर इंजीनियर सर आर्थर कॉटन को 1858 में डेल्टाई इलाकों के सर्वे के लिए बुलाया गया था। उन्होंने यह क्लासिक संकल्पना पेश की थी कि ‘सभी डेल्टाई इलाकों को बुनियादी तौर पर एक ही समाधान की जरूरत होती है।’ इस सोच का मतलब है कि नदियों में पानी की अपरिवर्तनीय एवं सतत आपूर्ति बनाए रखने के लिए उन्हें नियंत्रित एवं विनियमित किए जाने की जरूरत है। यह धारणा दोषपूर्ण होते हुए भी भारत में आज भी जल नीति को रास्ता दिखाती है।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि हम उपनिवेश काल की इस विरासत को किस तरह तिलांजलि देकर नए रास्ते तलाश सकते हैं? पहला, विज्ञान के बुनियादी उसूलों की तरफ लौटकर और जल चक्र में विभिन्न अवयवों की अंतर-संबद्धता को मान्यता देकर। इसी महीने केरल में आई भीषण बाढ़ के उदाहरण से हम इसे बखूबी समझ सकते हैं। लगातार तीसरे साल केरल में भीषण बाढ़ आई है। उत्तराखंड में 2013 में आई विनाशकारी बाढ़ की तरह केरल की बाढ़ भी जल-ग्रहण क्षेत्रों के अच्छी स्थिति में होने की अहमियत पर बल देती है। हमें पानी इन जल-ग्रहण क्षेत्रों से ही मिलता है। हिमालय एवं पश्चिमी घाट के नाजुक परिवेश में अंधाधुंध एवं काफी हद तक गैरकानूनी निर्माण कार्य चलने से भूस्खलन का खतरा काफी बढ़ गया है। माधव गाडगिल और कस्तूरीरंगन समितियां पहले ही पश्चिमी घाटों की अनमोल पारिस्थितिकी को अहमियत देने और उनके संरक्षण के अनुकूल विकास प्रतिमान तैयार करने की वकालत कर चुकी हैं। लेकिन इस सलाह को लगातार नजरअंदाज किए जाने से इन इलाकों में रहने वाले लोगों की मुसीबतें बदस्तूर जारी हैं।

इससे भी खराब बात यह है कि केरल के अधिकांश बांध पश्चिमी घाट में ही मौजूद हैं। बिजली उत्पादन की मांग और बाढ़ नियंत्रण की अनिवार्यता के बीच अनवरत संघर्ष होता है। दरअसल बिजली उत्पादन के लिए बांधों के जलाशयों में भरपूर पानी की जरूरत होती है जबकि बारिश का मौसम शुरू होने के पहले इन बांधों के काफी हद तक खाली होने से बाढ़ काबू में रहेगी। किसी भी सूरत में हमारे अधिकांश बांध या तो सिंचाई या फिर बिजली उत्पादन के मकसद से बनाए गए हैं और बाढ़ नियंत्रण इसका दोयम लक्ष्य होता है। इसके बजाय पृथ्वी विज्ञान विभाग के केंद्रीय सचिव ने हाल ही में यह कहा है कि बांधों के जलाशयों के खराब प्रबंधन ने बाढ़ को और भी भयावह बनाने का काम किया है। मसलन, 2006 में सूरत, 2015 में चेन्नई और 2016 में बिहार में आई बाढ़ में इन जलाशयों की भूमिका रही थी। जलाशय प्रबंधन की वैकल्पिक रणनीति बनाई जा सकती है। केरल की 144 किलोमीटर लंबी चलकुडी नदी पर ही बने छह बड़े बांधों ने इस नदी की नैसर्गिक जलीय प्रणाली को पूरी तरह बदल दिया है। लेकिन इंजीनियरों एवं समाज वैज्ञानिकों के एक समूह ने इस नदी पर बने बांधों के जलाशयों की वैकल्पिक प्रबंधन रणनीति का खाका तैयार किया है और सघन सामाजिक लामबंदी के बाद नदी तट इलाके के सभी छह विधायकों ने भी उसे स्वीकृति दे दी है। ऐसी योजनाओं के सावधानीपूर्ण अध्ययन एवं देश भर में अनुसरण की जरूरत है।

खासकर शहरी इलाकों में नदी या समुद्र की तरफ जाने वाले पानी के प्राकृतिक मार्ग तबाह होने से भी बाढ़ की विभीषिका बढ़ी है। इन जलमार्गों को एक बार अवरूद्ध कर देने पर वह पानी हमारे घरों और दफ्तरों के सिवाय किधर जाएगा? वर्ष 2000 में हैदराबाद, 2001 में अहमदाबाद, 2003, 2009 एवं 2010 में दिल्ली, 2004, 2015 एवं 2017 में चेन्नई, 2007 में कोलकाता, 2014 में गुवाहाटी, कोच्चि एवं श्रीनगर और 2017 में तिरुवनंतपुरम की बाढ़ इसके उदाहरण हैं। शहरी क्षेत्रों में बाढ़ का यह सिलसिला अंतहीन है। हम यह भूल जाते हैं कि 1980 के दशक में चेन्नई में 600 से भी अधिक छोटे-बड़े जलस्रोत थे लेकिन आज यह संख्या एक-तिहाई भी नहीं रह गई है। हैदराबाद में भी गत 15 वर्षों में नमी से भरपूर 3,245 हेक्टेयर जमीन गुम हो चुकी है। बेंगलूरु में 1960 के दौर में 262 झीलें हुआ करती थीं लेकिन आज 10 झीलों में भी पानी नहीं रह गया है। पूर्व का वेनिस कहा जाने वाला अलप्पी भी अपनी खूबसूरत झीलों से गाद हटाने और उनकी सफाई की समस्या से जूझ रहा है। हम इन झीलों और तालाबों पर अतिक्रमण और उन्हें नजरअंदाज करने का अपराध कर चुके हैं जबकि इन जल निकायों का बाढ़ नियंत्रण में काफी योगदान होता है।

कोपनहेगन, लंदन, न्यू ऑर्लियंस, शिकागो, रॉटरडम, मेलबर्न और न्यूयॉर्क सभी शहरों में यह माना जा रहा है कि 21वीं सदी में बादल फटने की घटनाएं बढऩे के बाद अर्थव्यव्यवस्था को एक व्यापक पारिस्थितिकी का छोटा हिस्सा भर ही मानना चाहिए। ये शहर प्रकृति के साथ मिलकर निर्माण और नदी के लिए भी जगह वाला नजरिया लेकर चल रहे हैं। भारत भी पारिस्थितिकी के इन अग्रदूतों से सीख कर उनकी खासियत को अपने हालात के हिसाब से ढाल सकता है।


Date:04-09-19

नई लड़ाई का हथियार

संपादकीय

युद्ध अब बदल गए हैं। नए दौर की सामरिक चुनौतियों का सामना करने का तरीका है- लगातार नई व उन्नत रक्षा तकनीक और नए हथियारों को जखीरे में शामिल करना। पुराने हथियारों से नए युद्ध नहीं लडे़ जा सकते और इस लिहाज से देखें, तो भारतीय वायु सेना में अपाचे एएस64ई का शामिल होना काफी महत्वपूर्ण कदम है। बोइंग कंपनी द्वारा बनाया गया यह लड़ाकू हेलीकॉप्टर हवाई हमला बोलने का सबसे आधुनिक हथियार है। खुद अमेरिकी सेना के अभियानों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह हेलीकॉप्टर सिर्फ हमला बोलने का काम ही नहीं करता, युद्धस्थल की तस्वीरें खींचकर भी अपने एयरबेस पर ट्रांस्मिट कर देता है। अब युद्ध का अर्थ सिर्फ आमने-सामने की जंग ही नहीं है। इसमें कई छोटे-बड़े सर्जिकल ऑपरेशन भी करने होते हैं, अपाचे हेलीकॉप्टर सिर्फ हमला बोलने का नहीं, सर्जिकल ऑपरेशन का हथियार भी बन सकता है। इतना ही नहीं, यह आपात स्थिति में सैनिकों को नियत स्थान पर पहुँचाने, लाने-ले जाने का काम भी कारगर ढंग से कर सकता है। भारतीय सेना में रूस के बने पुराने एमआई-36 हेलीकॉप्टरों की जगह लेने वाला अपाचे एक संपूर्ण युद्धक मशीन है, जिसकी जरूरत भारतीय वायु सेना को काफी पहले से ही थी। इस हेलीकॉप्टर का वायु सेना में शामिल होना अगर स्वागतयोग्य है, तो इसमें हुई देरी भी एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।

भारत को आधुनिकतम जंगी हेलीकॉप्टर चाहिए, यह बात तो देश में डेढ़ दशक पहले ही स्वीकार कर ली गई थी। ऐसे 22 हेलीकॉप्टर की खरीद के लिए 2008 में भारतीय वायु सेना ने बाकायदा ग्लोबल टेंडर भी जारी कर दिया था। इस पूरी खरीद प्रक्रिया में 11 साल का लंबा समय लग गया। इस बीच नई दिल्ली में तीन सरकारें बन गईं। इस लंबी प्रक्रिया के बाद इस साल जुलाई में ऐसे आठ हेलीकॉप्टरों की पहली खेप गाजियाबाद के हिंडन एयरबेस पर पहुंची, जिन्हें वहां पर पूरी तरह सज्जित करके मंगलवार को तैनाती के लिए पठानकोट एयरबेस भेजा गया, जो वायु सेना का एक अग्रिम मोर्चा भी है। यह पूरी कहानी हमारे देश की रक्षा सामग्री खरीद प्रक्रिया का पूरा हाल बताती है। इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि आधुनिक सेना बनाने के हमारे सपने और रक्षा सामग्री की खरीद के पुराने तौर-तरीके एक साथ नहीं चल सकते। हम खरीद प्रक्रिया को आधुनिक व त्वरित नहीं बना सके, तो कुछ मोर्चों पर सेना पुरातन तौर-तरीकों तक सीमित रहने को मजबूर होगी।

अपाचे हेलीकॉप्टर की तैनाती भारत की एक और सफलता के बारे में बताती है। बोइंग कंपनी को इस बिक्री की इजाजत बाकायदा अमेरिकी विदेश विभाग ने दी थी। यह इसलिए अहम है कि अमेरिका दशकों तक भारत को हथियार देने में आनाकानी करता रहा है। इसी के चलते हमें लंबे समय तक रूस और फिर इजरायल से हथियार खरीदने पर मजबूर होना पड़ा था। जबकि हमारे पड़ोसी पाकिस्तान को अमेरिका ने लंबे समय तक एफ-16 बमवर्षकों समेत कई हथियार दिए हैं। आज अगर भारत इस प्रतिबंध से बाहर निकला है, तो इसे विदेश नीति की एक बड़ी सफलता माना जाना चाहिए। अब दुनिया का कोई भी देश इस मामले में भारत पर पाबंदी नहीं लगाता, जो बताता है कि रक्षा मामलों में भारत की छवि एक जिम्मेदार देश की बनी है।


Date:04-09-19

क्यों जरूरी है रूस का साथ

नई कश्मीर नीति और कई दूसरी ज़रूरतों को देखते हुए रूस के साथ अपने रिश्तों को नई गहराई देने का समय आ गया हैं ।

जोरावर दौलत सिंह

साल 1964 में तत्कालीन अमेरिकी राजनयिक चेस्टर बॉउल्स और मॉस्को में तैनात भारतीय राजदूत टी एन कौल की आपसी मुलाकात समकालीन भू-राजनीति के बारे में दिलचस्प नजरिया पेश करती है। उस बैठक में दक्षिण-पूर्व एशिया की चर्चा करते हुए बॉउल्स ने कहा था, ‘सुखद होगा, यदि सोवियत और अमेरिकी सोच को भारत करीब लाने की कोशिश करे… दोनों मुल्कों के साथ भारत की दोस्ती इस काम में सेतु का काम कर सकती है।’ बॉउल्स ने यह भी कहा, ‘मुझे भरोसा है, दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन की बढ़ती विस्तारवादी और हस्तक्षेपकारी नीति को रोकने के लिए भारत की मदद से अमेरिका और सोवियत संघ कुछ हद तक आपसी समझ बना लेंगे।’ इसके जवाब में कौल ने कहा था, ‘यह भारत के लिए सचमुच खुशी की बात होगी कि वह अपनी क्षमता के मुताबिक अमेरिका और सोवियत संघ को करीब लाने में मदद कर सके। वास्तव में, हमारी यही नीति है।’

यह बातचीत बताती है कि उस वक्त वाशिंगटन और मॉस्को के बीच मेल-मिलाप में भारत की कितनी भू-रणनीतिक अहमियत थी। कौल ने सितंबर 1965 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भेजे अपने संदेश में कहा भी था, ‘अमेरिका, सोवियत संघ और भारत के आपसी हितों में एक बात साझी है, वह है- इस क्षेत्र में चीन के विस्तार को रोकना। यह भारत के लिए एक मौका है कि वह दोनों देशों से अधिकतम लाभ हासिल करे और भविष्य के लिए खुद को मजबूत करे।’

हालांकि इतिहास ने दूसरा ही रुख अख्तियार किया। 1960 का दशक बताता है कि चीन-सोवियत संघ के वैचारिक संघर्ष ने कम्युनिस्ट दुनिया में एक बेजा विवाद की शुरुआत की। विडंबना है कि नई दिल्ली और वाशिंगटन, दोनों ने उस प्रवृत्ति को अलग-अलग चश्मे से देखा। एंग्लो-अमेरिकी नीति-निर्माताओं के लिए वह वक्त रूस को अलग-थलग करने और चीन को अपने पाले में वापस लाने के सपने के साकार होने जैसा था। जबकि भारत के लिए, वाशिंगटन और मॉस्को की आपसी समझ के माध्यम से चीन पर दबाव बनाने के उसके स्वप्न का टूटना था, और नई दिल्ली अपने हितों और सुरक्षा के लिए नई राहों की तलाश करने को मजबूर हुई।

साल 1969 तक दो-ध्रुवीय प्रणाली वाली दुनिया बहुध्रुवीय विश्व की ओर बढ़ने लगी। अमेरिका और चीन में नजदीकियां बढ़नी शुरू हुईं, जबकि भारत व सोवियत रूस ने इस नई वैश्विक गठजोड़ के जवाब में आपसी विश्वास सर्वोच्च रणनीतिक स्तर तक विकसित किया। दिसंबर 1971 ने इस नई बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था को एक बार फिर पुष्ट किया, जब बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत के हस्तक्षेप को रोकने के लिए एंग्लो-अमेरिकी योजनाओं के जवाब में सोवियत नौसेना ने हिंद महासागर में प्रवेश किया। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपनी हालिया मॉस्को यात्रा में कहा भी है कि इसी दौर ने चार दशक से भी पुराने उस रिश्ते की नींव रखी, जिसने बाद में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तमाम तनावों का मिलकर सामना किया; फिर चाहे वह 1989 में पहले शीत युद्ध का अंत हो या 1991 में सोवियत संघ का विघटन।

हाल के वर्षों पर यदि हम निगाह डालें, तो अतीत की यह गूंज आज भी सुनाई देती है। अमेरिका-रूस-चीन का मौजूदा त्रिकोण जटिल है, जो अक्सर भारत के सामरिक विमर्श में अस्पष्ट या विकृत रूप में पेश किया जाता है।

चीन पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रुख और चीन-अमेरिकी संबंधों को फिर से परिभाषित करने के प्रयासों के बावजूद अभी तक चीन के उदय को जवाब देने के लिए एक विश्वसनीय और टिकाऊ अमेरिकी नीति हम नहीं देख सके हैं। यहां तक कि चीन-रूस की बढ़ती नजदीकी भी अमेरिकी सोच में कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला पाई है। हाल के वर्षों में, अमेरिका बेशक उत्तर कोरिया पर दबाव बनाने का प्रयास करता दिखा है, लेकिन मध्य-पूर्व के संघर्षों या चीन सागर में समुद्री विवाद से यह जाहिर होता है कि रूस और चीन एक-दूसरे को मनोवैज्ञानिक और राजनयिक समर्थन देते हैं।

कार्नेगी मॉस्को सेंटर के निदेशक दमित्री त्रेनीन कहते हैं कि मौजूदा समय में रूस और चीन की दोस्ती ऐसी है कि वे ‘कभी एक-दूसरे के खिलाफ नहीं थे, पर जरूरी नहीं कि हमेशा एक-दूसरे के साथ रहें’। यह फॉर्मूला ‘मॉस्को और बीजिंग के बीच एक ठोस साझेदारी को आगे बढ़ाता है। जहां उनके हित आपस में मिलते हैं, संघर्ष से वे परहेज करते हैं और जहां हित नहीं मिलते, वहां वे भरपूर लचीला रुख अपनाते हैं।’ यह बाजीगरी हमने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी देखी, जहां भारत की नई कश्मीर नीति के खिलाफ रूस और चीन मुखर थे। हालांकि रूस इससे अनजान नहीं है कि यूरेशिया के कुछ हिस्सों में मॉस्को के प्रभाव को चीन खत्म कर रहा है, मगर पश्चिम को संतुलित करने के लिए वह चीन के साथ रणनीतिक साझेदारी को तवज्जो दे रहा है।

जब मुख्यधारा के अमेरिकी नीति-निर्माता अमेरिका-चीन और रूस के मजबूत त्रिकोण को देखते हैं, तो उनकी भू-रणनीतिक प्राथमिकताएं स्वाभाविक ही स्पष्ट हो जाती हैं। वास्तव में, पश्चिमी सोच के हिसाब से चीन के लिए दरवाजा अब भी काफी ज्यादा खुला है, जो रूस-चीन रिश्ते में दूरी पसंद करेगा, ताकि अमेरिका की गिरती वैश्विक हैसियत थामी जा सके। लेकिन भारत यकीनन विपरीत परिस्थिति पसंद करेगा, यानी चीन से रूस को दूर करने के लिए वह एशिया में मॉस्को के लिए अधिक विकल्प मुहैया कराना चाहेगा।

मॉस्को में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की टिप्पणी ने भारत-रूस संबंधों के अगले अध्याय के लिए कुछ ऐसी ही भूमिका बनाई है। हकीकत यही है कि बीजिंग को परेशान किए बिना रूस पहले से हिंद-प्रशांत की भू-राजनीति को आकार दे रहा है। भारत, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे हिंंद-प्रशांत के देशों को उच्च तकनीक देने और नौसेना के आधुनिकीकरण में मदद करने से रूस यूरेशिया का एक खिलाड़ी बन गया है।

मॉस्को को फिर से यह आश्वस्त करने से कि भारत अमेरिका का पिछलग्गू नहीं है और वह खुले व समावेशी सुरक्षा और व्यवस्था-निर्माण में विश्वास रखता है, रूस हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी भूमिका को आकार दे सकता है। आज से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शुरू हो रही दो दिवसीय रूस यात्रा इसी आश्वासन की अगली कड़ी साबित हो सकती है।


Date:04-09-19

शहरी विकास को चुनौती

संपादकीय

यादा दिन नहीं हुए और अब फिर सर्वोच्च न्यायालय को दिल्ली में अतिक्रमण हटाने के लिए आदेश देना पड़ा है। न्यायालय ने स्थानीय निकायों को आदेश दिया है कि फुटपाथ से अतिक्रमण हटाया जाए। न्यायालय की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर अतिक्रमणकारी नोटिस देने के 15 दिन के भीतर अतिक्रमण नहीं हटाता है, तो नगर निगम उस अवैध निर्माण को ध्वस्त कर दे और उससे उसका खर्च वसूला जाए। अतिक्रमण हो या अवैध निर्माण, न्यायालय इस पर पहले भी आदेश दे चुका है। स्थानीय प्रशासन की हरकत के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। पिछले साल ही न्यायालय को डीडीए से सवाल करना पड़ा था कि अतिक्रमण के खिलाफ अभियान में अमीर क्यों छोड़ दिए गए? दिल्ली का यह हाल है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के अन्य हिस्सों की स्थिति क्या होगी? सड़क किनारे के अतिक्रमण की समस्या से क्षुब्ध होकर पटना उच्च न्यायालय ने इसी साल सरकारी बाबुओं को ही तलब कर लिया था। न्यायालय की सक्रियता यह प्रदर्शित करने के लिए काफी है कि कार्यपालिका निष्क्रिय है। लेकिन अहम सवाल है कि न्यायालय के बार-बार हस्तक्षेप के बावजूद प्रशासन और पुलिस इसके प्रति तत्पर क्यों नहीं होते? क्या इसका अर्थ लगाया जाए कि वे अतिक्रमण रोकने में सक्षम नहीं हैं, या अतिक्रमणकारियों से उनकी मिलीभगत है? लेकिन इस समस्या का दूसरा पहलू भी है, जो सरकारों को एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रभावी कार्रवाई करने से रोकता है। बेशक, सड़क या फुटपाथ आम आदमी के लिए है, लेकिन जनता के वोट से बनी संस्थाओं के लिए यह आसान भी नहीं होता कि अतिक्रमणकारियों को एक झटके में हटा दें। उनसे अपेक्षा की जाती है कि फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों का पुनर्वास करें। इस परिप्रेक्ष्य में देखना दिलचस्प होगा कि अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव का सामना करने जा रही दिल्ली में न्यायालय के मौजूदा आदेश के प्रति स्थानीय निकायों का रवैया कैसा रहता है? लेकिन एक बात साफ है कि अतिक्रमण शहरी विकास के लिए चुनौती बन चुका है। समस्या की जड़ बढ़ती आबादी और सीमित संसाधनों में छिपी है। पेशागत जरूरतों के लिए अतिक्रमण बढ़ने लगा है। ‘‘स्मार्ट सिटी’ की राह पर चलने वाले देश में अतिक्रमण की समस्या को अभी तक न सुलझाया जाना चिंताजनक है।


Date:04-09-19

The World’s most happening place

Global power axis is shifting eastwards from the Pacific-Atlantic. India’s future lies in the Indian Ocean region

Ram Madhav 

Three decades ago, when globalisation was the flavour of the season, a big section in India, comprising the conventional Right and Left, was up in arms against it. The argument, broadly, was that globalisation was a conspiracy hatched by the developed West to take over the emerging markets of the developing world, that included India. Some of us, though we shared the concerns about globalisation, felt that this cannot be the sole argument against it. Our scepticism was based on the evolving global power order at that time.

The advent of the globalisation era had coincided with a significant geo-political development. Starting with the late ‘80s, fissures started erupting in the USSR body politic, ultimately leading to its dismemberment and collapse in the early ’90s. The West’s aggressive globalisation push started around that time. It had arguably seen the collapse of the USSR and the end of bipolarity in global politics as an opportunity to attempt a West-centric global standardisation.

Scholars in the West were gung-ho over this prospect. Recall Francis Fukuyama’s famous article in 1989 in the reputed journal, The National Interest, provocatively titled “The End of History?” Later, in 1992, he expanded his theses into a book, The End of History and The Last Man. Fukuyama’s argument was that with the collapse of the Soviet Union, humanity had reached “not just … the passing of a particular period of post-war history, but the end of history as such: That is, the end point of mankind’s ideological evolution and the universalisation of Western liberal democracy as the final form of human government”.

The unipolar world that Fukuyama had conceived in his article was the dominant thought in the West at the time globalisation was unfolding. Naturally, the thinking world outside had doubts and scepticism about the real intent of that process. Many scholars in the world questioned the validity and ambition of Fukuyama’s argument. History proved them right and Fukuyama wrong.

Three decades into its existence, globalisation is at the end of its tether. Countries the world over are increasingly turning inwards. Global institutions are losing their relevance and influence over large parts of the world.

But the world is not turning nationalist, as some had argued at the time of the emergence of globalisation. Instead, we see a process of the emergence of new power blocs in different parts of the world. These power blocs are hankering to become strategic poles, thus leading to the emergence of a multi-polar world order. Multipolarity is the new flavour of the season in the 21st century, marking a death blow to globalisation and unipolarity.

Under the new pecking order, America continues to enjoy primacy but a much reduced one. The American leadership seems content with its role in global affairs reduced while its priorities seem more domestic than global. The European Union is struggling to find its coherence to emerge as an important pole. But internal contradictions like Brexit and disputes over the entry of East European nations bog it down. The rise of a China-centric Asian power order that has spawned new alliances, both regional and interest-based, is a phenomenon in our neighbourhood. China’s Belt and Road Initiative (BRI) and the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) have been causing ripples in the world today.

A new Hanseatic League-style arrangement is trying to reemerge on the world stage with the coming together of countries like Ireland, the Netherlands, the Nordic and Baltic states, while the Arab League, with 22 member states, is in complete disarray with war, terror and despotism. Erstwhile superpowers like Russia and the United Kingdom are struggling to find a place of prominence in the new 21st century world order. Leaders of both countries have great power ambitions — the UK leadership talks about “Global Britain” while Putin centered his 2018 campaign around the slogan “Strong Russia”. Yet it appears to be a long road ahead for both countries.

Amidst all this, India is quietly building itself as an important power. Vibrant democracy, literate and skilled manpower and a vast middle class with strong purchasing power are its advantages that attract world attention today. Its strong leadership under Prime Minister Narendra Modi has been able to bring the country on par with major powers in the world through proactive diplomacy and global positioning. Yet we still have to travel a long distance before we emerge as a strong pole. We are no doubt capable of it, but for it to happen, we need to do a few things, and do them differently.

The Indian Ocean is where India’s future lies. The global power axis is constantly shifting eastwards from the Pacific-Atlantic region, and the Indian Ocean region has emerged as the most influential region today. It is here that the power axis will settle down ultimately in this century; it is here that the emerging new economies come together with strong traditional economies; it is here that populations and markets with purchasing power exist; it is here that strong military powers with massive defence spending exist; it is here that massive energy-guzzlers like India and China are located. It is the world’s most happening place today.

The Indian leadership needs to appreciate the fact that in the emerging multipolar world order, India is a natural leader in the Indian Ocean region. By turning eastwards and focusing on building an Indian Ocean Bloc, it can aspire to rise as a guiding pole for many countries in the region. India has to think and act fast. As an influential region, it is already witnessing major competition among the leading powers. But with its historic, cultural and civilisational linkages with countries in the region and its present standing in the world, India could become a natural gravitational force for countries, mostly the island nations, in the region.

An Indian Ocean Conference of the stakeholder nations in the region is thus an idea whose time has come.