05-07-2024 (Important News Clippings)
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Make Parliament Parliamentary Again
ET Editorials
Last month, the people of India gave their mandate. It was not just about who would run the government, but also about who would represent them in Parliament. Above all, it means elected parliamentarians doing what their job entails: conduct legislative proceedings. Much of what has been witnessed in Parliament so far seems to be nothing but a spillover of electiontime campaign rhetoric (sic). Both ‘battering ram’ Opposition and ‘bulldozer’ government seem to have misunderstood the mandate — of their jobs.
Holding successful elections, winning or losing in polls, and the act of voting are only one aspect of parliamentary democracy. The real ‘dance of democracy’ is what happens in between elections. In the institution of Parliament, elected representatives question and check the government, debate issues and make laws. In the words of former Rajya Sabha chairman M Venkaiah Naidu, the opposition and treasury benches are like ‘two eyes’ of the House. Going by the present theatrics, we are being made witness to a crosseyed Parliament, which seems to be doing everything but its job.
The Opposition and government need to come to a consensus, at least when it comes to serving their parliamentary — rather than only political — function. A functioning Parliament does not require the Opposition to acquiesce to every demand of the government. Neither does it mean responding only with kneejerk pushbacks. Issue-based engagement needs to be back centre stage. Rules and procedures set out the norms of engagement to ensure fairness, a level playing field and maximise outcomes. Parliament can’t be just another venue for MPs to grandstand. The people did not vote for a dysfunctional Parliament. So, MPs, make Parliament parliamentary again.
Date: 05-07-24
Grave concern
The risk of international spread of wild type-1 polio cases from Pakistan is great.
Editorial
The ambitious goal of eradicating wild-type poliovirus type-1 (WPV1) by 2026 appears to have become tougher. WPV1, which is endemic only in Pakistan and Afghanistan, is showing signs of a resurgence since 2023. With Afghanistan and Pakistan reporting six WPV1 cases each in 2023 — there were two cases in Afghanistan and 20 cases in Pakistan in 2022 — the total incidence of type-1 cases in both countries in 2023 might appear to have nearly halved. But with six cases in Afghanistan and five cases in Pakistan already this year, there appears to be an uptick. If this continues, the total cases being reported from the two countries might be close to or even surpass the 2022 numbers. The concern about WPV1 is not limited to the number of cases in children. The circulation of the virus in the environment is seen to be rising, and, most importantly, after a gap of two years, positive environmental samples have been increasingly collected in Pakistan, in 2023 and till early June this year, from cities which have been historical reservoirs for the virus. Last year, 125 positive environmental samples were collected from 28 districts in Pakistan. Of these, 119 belonged to a genetic cluster (YB3A), which suggests that these were imported from Afghanistan. By June 1 this year, there have been 153 positive environmental samples from 39 districts. As of April 8, 2024, 34 positive environmental samples were collected from Afghanistan.
According to the World Health Organization, the presence of positive environmental samples in “epidemiologically critical areas and historical reservoirs” such as Karachi, Quetta and the Peshawar-Khyber blocks in Pakistan, and Kandahar in Afghanistan, represents a significant risk to the gains made in the past. Rising positive environmental samples are a reflection of polio campaigns not really achieving their desired coverage; fake finger marking sans vaccination is a persisting problem. Though children in Pakistan’s cities are largely immunised, there is a heightened risk of the virus striking any unvaccinated or not fully vaccinated children — in 2023, two of the six cases were from Karachi city. The situation in Pakistan appears worse than it is in Afghanistan with the actual spread of WPV1 seen “predominantly in Afghanistan in 2022 now being detected in Pakistan in 2023 and 2024”. There is also the grave risk of international spread from Pakistan, particularly to Afghanistan. With over 0.5 million Afghan refugees forced to leave Pakistan, and an estimated 0.8 million to be evicted soon, there is an increased risk of cross-border spread of the virus. There is a large pool of unvaccinated and under-immunised children in southern Afghanistan, increasing the risk that returning refugees can pose.
क्या मणिपुर में वाकई हालात सामान्य हो रहे हैं?
संपादकीय
प्रधानमंत्री ने कहा है मणिपुर में स्थिति सामान्य हो रही है और विपक्ष इस पर राजनीति करके मुद्दे को न भड़काए। पहला वाक्य प्रशासनिक मूल्यांकन का है और दूसरा शुद्ध राजनीतिक प्रति आक्षेप का । क्या वाकई मणिपुर में सवा साल बाद भी हालात सामान्य हो रहे हैं? जिस दिन पीएम यह दावा कर रहे थे उसी दिन सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने सख्त लहजे में कहा कि हमें राज्य सरकार पर भरोसा नहीं है जो एक विचाराधीन कैदी का इलाज इसलिए नहीं करा रही है क्योंकि वह कुकी समुदाय से है। इलाज न करने का कारण बताने वाले हाईकोर्ट और प्रशासनिक आदेशों को देख सुप्रीम कोर्ट चौक गया। उसमें कहा गया था कि राज्य में हालात सामान्य नहीं हैं और अगर इस बंदी को अस्पताल में भेजा गया तो कानून-व्यवस्था और बिगड़ सकती है। अगर कोई विचाराधीन कैदी जानलेवा बीमारी से ग्रस्त हो, दर्द से कराह रहा हो और महीनों से जेल अधिकारी उसका एक समुदाय विशेष का होने के कारण इलाज न करा रहे हों, और अंततः उसे देश की सबसे बड़ी कोर्ट में आना पड़ा हो तो क्या इसे सामान्य स्थिति कहा जाएगा? अगर ऐसे मुद्दे पर विपक्ष राजनीति करता भी है तो यह उसका मौलिक दायित्व है। सरकार की विफलताओं को जनमानस में लाना प्रजातंत्र की पहली शर्त है। हां, उस पर सरकार कैसे प्रतिक्रिया करती है यह देखा जाना चाहिए।
Date: 05-07-24
इस मानसून में वर्षाजल को सहेजें, भूजल को रिचार्ज करें
सुनीता नारायण, ( प्रतिष्ठित पर्यावरणविद् और सीएसई की डायरेक्टर जनरल हैं )
कई साल पहले, मैं अपने सहयोगी दिवंगत अनिल अग्रवाल के साथ चेरापूंजी गई थी। वहां हमने एक साइनबोर्ड देखा, जिस पर लिखा था पानी की कमी है, ऐहतियात से इस्तेमाल करें। यह दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाला स्थान था! यहां मिलीमीटर में नहीं, मीटर में बारिश होती है। फिर हम जैसलमेर गए। यह रेगिस्तानी शहर है। वहां हमें पता चला कि एक समय यह कारवां के रुकने की जगह हुआ करती थी; यहां फलता-फूलता व्यापार था। यहां साल भर में कुल 50 मिलीमीटर बारिश होती है। तो फिर यह शहर कैसे विकसित हुआ? जवाब है, बारिश की एक-एक बूंद तालाबों में एकत्र की गई, और हर घर की छत से पानी सहेजा गया। हर जलग्रहण क्षेत्र को संरक्षित किया गया।
हम थोड़ा आगे बढ़े तो हमें उलटी तश्तरी जैसी एक आकृति दिखी। जब हमने रुककर उसके बारे में पूछा तो हमें बताया गया कि यह जल संचयन के लिए एक ढंका हुआ कुआं था, जिसमें एक जलग्रहण क्षेत्र था। इसे कुंडी कहा जाता है। पानी का गणित सरल है, लेकिन बहुतेरे इंजीनियरों को यह समझ नहीं आता : 1 हेक्टेयर भूमि; 100 मिलीमीटर बारिश; इससे आप 100 मिलियन लीटर तक पानी का संचयन कर सकते हैं!
हमने गजेटियरों को खंगाला और यह समझने की कोशिश की कि भारत ने इतनी कम बारिश में सभ्यता का निर्माण कैसे किया। हमने सीखा कि हर क्षेत्र ने अपनी तकनीक को निखारा है। पूर्वोत्तर में बांस की सिंचाई प्रणाली थी, जहां झरनों से बांस के जरिए पानी लाया जाता था; हिमालय में गुल और कुल थे; ठंडे रेगिस्तान लद्दाख में झिंग; और दक्षिण भारत के अविश्वसनीय झरने तो स्पेस से भी देखे जा सकते हैं।
तर्क सरल था : बारिश को रोकें; भूजल को रिचार्ज करें। हमने इसे अपनी पुस्तक ‘डाइंग विजडम’ में प्रस्तुत किया। हमने इसे ‘डाइंग’ इसलिए कहा, क्योंकि धीरे-धीरे हम यह ज्ञान-प्रणाली खो रहे हैं। जब अंग्रेज भारत आए, तो उन्हें स्थानीय जल संचयन परंपराओं की समझ नहीं थी। वे ऐसी दुनिया से आए थे, जहां पानी केंद्रीकृत था और राज्य उसका प्रबंधन करता था। यह लोक निर्माण विभाग का काम था। व्यवस्था पानी को चैनलाइज करने की ओर बढ़ी; पानी को रोकने के लिए नहरें और बांध बनाए गए। इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह हमारी जरूरतों को पूरा नहीं करता; और यह प्रकृति की व्यवस्था के अनुकूल भी नहीं है।
अब हमारे पास नहरें हैं, सिंचाई व्यवस्था है। इसे मेजर इरिगेशन कहते हैं। छोटी सिंचाई भूजल से होती है। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारी अधिकांश कृषि-भूमि वर्षा पर निर्भर है (सरकारी आंकड़ों के अनुसार 50 प्रतिशत); और ये हमारे भोजन का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करती है। इसी तरह, 60-70 प्रतिशत भूमि की सिंचाई भूजल से होती है; सतही प्रणालियों से नहीं और भूजल ही पेयजल का बड़ा हिस्सा प्रदान करता है। तो आइए, उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्षा को संचित करने के महत्व को समझें; स्थानीय और लचीली खाद्य प्रणालियों का निर्माण करें।
पिछले कुछ वर्षों में, वर्षा जल संचयन की आवश्यकता का अहसास सघन हुआ है। इस क्षेत्र में शायद दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम मनरेगा है- जिसमें लोगों के श्रम का उपयोग प्राकृतिक पूंजी बनाने के लिए किया जाता है। इस कार्यक्रम के तहत लाखों तालाब खोदे गए हैं; नहरों की मरम्मत की गई है; चेकडैम बनाए गए हैं। लेकिन एक बुनियादी खामी के साथ; यह कार्यक्रम अपने द्वारा बनाई संपत्ति में निवेश नहीं करता। यह केवल काम उपलब्ध कराने के बारे में है; जो यकीनन महत्वपूर्ण है, लेकिन पर्याप्त नहीं।
लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। जहां लोगों ने व्यवस्थाएं बनाई हैं; जलग्रहण क्षेत्र को संरक्षित किया है, वहां जादू देखने लायक है। हम मनरेगा से जुड़े उन ग्रामीणों के पास गए, पानी ने जिनकी आजीविका को सुरक्षित किया था। उनका रिवर्स माइग्रेशन हो रहा था क्योंकि वे खेती की ओर लौट रहे थे; अपनी भूमि-जल संपदा से अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहे थे। यह आश्चर्य की बात नहीं है। औपनिवेशिक काल की सबसे बड़ी मार भूमि-राजस्व प्रणाली पर पड़ी थी। भारत के शासक राजकोषीय प्रोत्साहन के माध्यम से जल प्रणालियों में निवेश को बढ़ावा देते थे। भू-राजस्व वर्ष के लिए फसल उपज के प्रतिशत पर आधारित होता था; किसानों को उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता था; वे जल संरचनाएं बनाते थे। यह सबसे बड़ा दान था। कहा जाता है कि उदयपुर में पिछोला झील खानाबदोशों द्वारा बनाई गई थी। लेकिन अंग्रेजों ने इसे बदल दिया।
Date: 05-07-24
मणिपुर का दर्द
संपादकीय
मणिपुर पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से अशांति और हिंसा के दौर से गुजर रहा है। सरकार की ओर से तमाम कवायदों के बावजूद आज भी हालात में कोई बड़ा बदलाव आता नहीं दिख रहा है। जाहिर है, मुख्य रूप से मैतेई और कुकी समुदायों के बीच चल रहे हिंसक टकराव की आग में आम लोग झुलस रहे हैं और इस पर काबू पाने में सरकार नाकाम रही है। दरअसल, लोकतंत्र और शासन के बुनियादी सिद्धांतों के तहत कम से कम सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह इस संघर्ष के दौरान किसी खास तबके के पक्ष में या किसी के खिलाफ न दिखे। मगर मणिपुर में सरकार पर ऐसे आरोप कई बार लगाए गए कि वह मैतेई समुदाय के लिए नरम रुख और कुकी समुदाय के प्रति उपेक्षा का भाव रखती है। इस क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकार के प्रति सख्त नाराजगी जाहिर करते हुए उसे इस बात के लिए कठघरे में खड़ा किया कि एक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए अस्पताल नहीं ले जाया गया क्योंकि वह अल्पसंख्यक कुकी समुदाय से था।
गौरतलब है कि मणिपुर में अब भी कुकी और मैतेई समुदाय के बीच टकराव जारी है। मगर कम से कम सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने क्षेत्राधिकार में हर नागरिक के प्रति समान बर्ताव करे, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए सुरक्षित और सहज जीवन सुनिश्चित करे। जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार किसी समुदाय के प्रति पूर्वाग्रहों के बिना शांति-व्यवस्था कायम करे। किसी बीमार या जरूरतमंद व्यक्ति की मदद से बचने के लिए अगर कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका को कारण बताया जाता है, तो सवाल है कि इसे बहाल करने और रखने की जिम्मेदारी किसकी है? हालत यह है कि राज्य में दो समुदायों के बीच हिंसा के एक वर्ष से ज्यादा बीत चुके हैं, दो सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और आज भी सरकार शांति कायम कर पाने में नाकाम है। एक ओर, केंद्र सरकार संसद में यह आश्वासन दे रही है कि मणिपुर में शांति की आशा और भरोसा करना संभव हो रहा है, वहीं सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करनी पड़ रही है कि उसे मणिपुर सरकार पर भरोसा नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकार के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है।