05-04-2024 (Important News Clippings)

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05 Apr 2024
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          Date:05-04-24

Water, Make It a Political Issue

ET Editorials

This election season, water should rank high up on the electoral issues list. In fact, it should be politicised. Winter rainfall shortage, groundwater depletion, increased warming due to El Niño and its impact on rains will exacerbate water stress. As politicians promise a grand future in their stump speeches, they need to tell voters of their plan to address water woes. More so, as India’s tryst with water stress, if not averted, will short-circuit investment flows, economic growth and jobs, upending the goal of Viksit Bharat. Beacons of developed India like Bengaluru are canaries in the proverbial coal mine.

In 2018, NITI Aayog reported that 600 mn people were living in conditions of high-to-extreme water stress. This is no longer a function of delayed development. Cities, earlier considered immune, are taking the brunt. Increased use of groundwater as urban population grows is no longer a solution. Filling water bodies to construct residential high-rises has slowed groundwater recharge. The situation will worsen.

Reservoirs in Karnataka, Tamil Nadu, Telangana and Andhra Pradesh are filled to 25% or less of their capacity. Water storage capacity of 13 east-flowing river basins are deficient-to-highly deficient. It is not just the south, but reservoir capacities are below last year’s levels in other parts of the country too, barring the eastern/northeastern region.

Forecasts of a warmer summer and climate change-induced disruptions in rainfall are already changing life as we know it in our cities. Tankers, transporting water, and interlinking rivers are not the solution. This is a crisis of water planning. Political parties must address this existential problem. Else, what happens in Bengaluru won’t just stay in Bengaluru.


Date:05-04-24

राजनीति में नैतिकता

हरेंद्र प्रताप, ( लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं )

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की शराब घोटाले के आरोप में गिरफ्तारी के बाद आम आदमी पार्टी कह रही है कि वह जेल से ही सरकार चलाएंगे। केजरीवाल भी ऐसा कह रहे हैं। इसने एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि क्या भारत का संविधान इसकी अनुमति देता है? क्या जेल से सरकार चलाना उचित है? मुख्यमंत्री एक संवैधानिक पद है। केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई। हालांकि उसने इस पर सुनवाई से इन्कार कर दिया, लेकिन इतना जरूर कहा कि ‘इस मुद्दे पर निर्णय लेना दिल्ली के उपराज्यपाल (या भारत के राष्ट्रपति पर निर्भर है। कभी-कभी व्यक्तिगत हित को राष्ट्रीय हित के अधीन करना पड़ता है, लेकिन यह अरविंद केजरीवाल का निजी फैसला होगा कि उन्हें मुख्यमंत्री बने रहना है या नहीं।’ अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल इन दिनों मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर जनता के नाम केजरीवाल की भावनात्मक अपील जारी कर रही हैं। इससे चर्चा का बाजार गर्म है कि क्या अरविंद केजरीवाल की पत्नी उनकी उत्तराधिकारी बनने जा रही हैं? ईडी द्वारा पूछताछ के लिए समन पर समन के बाद भी हाजिर न होकर अरविंद केजरीवाल लोकसभा चुनाव की घोषणा का इंतजार तो नहीं कर रहे थे, ताकि लोगों की सहानुभूति प्राप्त की जा सके? सवाल कई हैं, पर सबसे बड़ा सवाल राजनीति में नैतिकता का है।

यह 12 जून, 1975 की बात है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी मानते हुए उनकी जीत को अवैध करार दिया। इसके साथ ही उनके छह वर्ष के लिए चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी। उस समय देश में जेपी आंदोलन चल रहा था। उच्च न्यायालय के निर्णय के सिलसिले में पत्रकारों ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण से पूछा-इंदिरा गांधी अब क्या करेंगी? उन्होंने कहा-अब वह इस्तीफा देंगी। पत्रकारों ने फिर से पूछा कि अगर वह इस्तीफा देने से इन्कार कर दें तो क्या होगा? जयप्रकाश जी ने कहा-तब अनर्थ हो जाएगा। इतिहास गवाह है कि इंदिरा गांधी ने इस्तीफा न देकर देश पर आपातकाल थोप दिया। एक प्रकार से उन्होंने लोकतंत्र के साथ राजनीतिक नैतिकता का भी अपहरण किया। हालांकि इसका दुष्परिणाम उन्होंने भुगता। 1977 में इंदिरा गांधी लोकसभा चुनाव हार कर सत्ता से बेदखल हो गईं। 1977 की घटना के बाद नेताओं में एक भय पैदा हुआ। चारा घोटाले में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव जब जेल जाने लगे तो उन्होंने पद से इस्तीफा देकर पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। चूंकि बिहार में विधानसभा के अलावा विधान परिषद भी है, अतः राबड़ी देवी को विधान परिषद का सदस्य बनाकर जेल में रहते हुए भी सत्ता संचालन का काम एक तरह से लालू यादव ही करते थे। एक बार मुख्यमंत्री जयललिता के सामने जब जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने इस्तीफा देकर अपने भरोसे के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया था। पिछले दिनों झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए, पर उन्हें भी इस्तीफा देकर चम्पाई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। उनकी मंशा तो यही थी कि पत्नी कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री बनाकर जेल में रहते हुए सत्ता का संचालन करें। इसके लिए जल्दबाजी में एक सीट भी खाली कराई गई, पर एक डर यह था कि अगर छह माह के भीतर चुनाव नहीं हुए तो कल्पना सोरेन को कुर्सी छोड़नी पड़ेगी। हेमंत सोरेन अभी जेल में हैं, पर भविष्य की रणनीति पर काम चल रहा है। उनकी पत्नी राजनीति में आ गई हैं और जल्द चुनाव लड़कर विधायक बनने की तैयारी भी कर रही हैं।

हेमंत सोरेन की तरह ही जेल गए अरविंद केजरीवाल की पत्नी को उनका उत्तराधिकारी बनाने की मांग उठ रही है। मौजूदा कानूनी प्रविधानों के अनुसार दो या दो वर्ष से अधिक की सजा होने पर जनप्रतिनिधियों को पद छोड़ना पड़ता है, लेकिन नेताओं ने इसका तोड़ पत्नी को सत्ता में भागीदारी देने के रूप में निकाल लिया है। स्थानीय निकाय के चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रविधान के बाद ‘मुखिया पति-सरपंच पति आदि’ शब्द प्रचलन में हैं। इसका अर्थ है कि पति चुनाव नहीं लड़ सकता, अतः पत्नी को चुनाव लड़वाता है। चुनाव भले उसकी पत्नी जीते, पर अघोषित रूप से मुखिया-सरपंच का काम वही करता है।

इन दिनों बिहार में बाहुबली अशोक महतो का विवाह चर्चा में है। चूंकि वह चुनाव नहीं लड़ सकता, अतः उसने आनन-फानन विवाह कर लिया। अब उसकी पत्नी राजद से लोकसभा का चुनाव लड़ने जा रही हैं। सिवान की जदयू सांसद कविता सिंह की भी कहानी अशोक महतो से मिलती-जुलती है। इसी तरह आनंद मोहन तथा पप्पू यादव की पत्नी भी राजनीति में आईं। भारतीय लोकतंत्र मुखिया पति, विधायक पति, सांसद पति से आगे चलते हुए मुख्यमंत्री पति तक का सफर पूरा कर चुका है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग को लेकर छिड़े अन्ना हजारे के आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल की मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा न देने की जिद ने देश को एक ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है, जहां से आगे का रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। भारतीय संविधान निर्माताओं ने ऐसे संवैधानिक संकट की कल्पना भी नहीं की थी। चूंकि उन्होंने ऐसी कोई कल्पना नहीं की थी, इसलिए उन्होंने इस बारे में कुछ तय भी नहीं किया कि यदि किसी मुख्यमंत्री को जेल जाना पड़ा तो उसकी सरकार कैसे चलेगी? कायदे से नेताओं को लोकलाज का ध्यान रखना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते तो आंदोलनों पर से भरोसा उठ जाएगा।


Date:05-04-24

शहरों के लिए एकीकृत परिवहन प्रणाली प्राधिकरण आवश्यक

विनायक चटर्जी, ( लेखक आधारभूत ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ और द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंध न्यासी हैं। )

केंद्र सरकार ने वर्ष 2006 में शहरी विकास मंत्रालय के माध्यम से राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति जारी की थी। इस नीति में 10 लाख से अधिक आबादी वाले सभी शहरों के लिए एकीकृत महानगर परिवहन प्राधिकरण (यूएमटीए) के गठन का सुझाव दिया गया था। वर्ष 2011 की गणना के अनुसार देश में ऐसे 53 शहर थे। अगस्त 2017 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नई मेट्रो रेल नीति को मंजूरी दी थी। इस नीति में उन शहरों के लिए ढांचा तैयार किया गया था, जो मेट्रो रेल प्रणाली शुरू एवं इसका विस्तार करना चाह रहे हैं।

वैसे तो कई शहरों ने नई मेट्रो रेल परियोजनाएं शुरू करने की ठान ली है मगर इस बात को समझने के व्यापक प्रयास नहीं हो रहे हैं कि किसी शहर एवं इसके लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप कोई मेट्रो रेल परियोजना किस तरह फिट बैठती है। इस नीति में स्पष्ट कर दिया गया है कि अगर कोई शहर अपनी मेट्रो परियोजना के लिए केंद्र सरकार से सहायता चाहता है तो संबंधित राज्य सरकार को यूएमटीए संचालित करने का आश्वासन देना होगा। यूएमटीए एक इकाई है जो सभी प्रकार के शहरी परिवहन के लिए उत्तरदायी होगी। यह फिर उस शहर में यातायात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण शुरू करेगा। जिन शहरों में मेट्रो रेल परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है, उन्हें एक वर्ष के भीतर यूएमटीए स्थापित करने पर विचार करना होगा। आवास एवं शहरी मामलों पर संसद की स्थायी समिति की 16वीं रिपोर्ट में मेट्रो रेल परियोजनाओं के विषय पर कहा गया है कि ‘यह देखकर हैरानी हो रही है कि चार वर्ष बीतने के बाद भी राज्यों ने यूएमटीए का गठन नहीं किया है’।

लगभग सभी राज्यों में इस स्थिति को समझने के लिए ‘द इन्फ्राविजन फाउंडेशन’ ने दो विशेष शोध शुरू किए हैं। इनमें एक शोध आईआईटी दिल्ली की गीतम तिवारी और दूसरा शोध आईआईएम अहमदाबाद के संदीप चक्रवर्ती ने किया है। ये दोनों जाने-माने परिवहन विशेषज्ञ हैं। डॉक्टर तिवारी ने ‘ए फ्रेमवर्क फॉर सलेक्टिंग एन एप्रोप्रियेट अर्बन ट्रांसपोर्ट सिस्टम इन इंडियन सिटीज’ शीर्षक के साथ अपनी रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में पांच स्पष्ट सिफारिशें की गई हैं।

1. यातायात के अलग-अलग रूपों के लिए अलग-अलग सार्वजनिक परिवहन प्रणाली उपयुक्त होते हैं। यातायात के इन रूपों का निर्धारण दूरी से निर्धारित किया जाता है। किस मार्ग पर किसी तरह की परिवहन प्रणाली की जरूरत है यह बात यातायात का विकल्प चुनने में मदद करती है। इससे उच्च गुणवत्ता वाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के सभी लाभ (सामाजिक लाभ सहित) लोगों को देना सहज हो जाता है।

2. उच्च क्षमता वाली परिवहन प्रणाली जैसे मेट्रो रेल लंबी दूरी के लिए उपयुक्त मानी जाती है। 80 लाख से अधिक आबादी वाले बड़े शहरों में 300-400 किलोमीटर लंबी मेट्रो लाइनें बिछाई जा सकती हैं। हालांकि ऐसे शहरों में एक मजबूत एवं विश्वसनीय बस सेवा भी होनी चाहिए जो सभी प्रमुख एवं मझोले मार्गों पर चलाई जा सके। इनकी कुल लंबाई लगभग 800-1,000 किलोमीटर होना चाहिए। अंत में गंतव्य तक पहुंचने के लिए पैदल या मध्यस्थ सार्वजनिक परिवहन विकल्पों जैसे ऑटो रिक्शा आदि का सहारा लिया जा सकता है। नीति, नियोजन, खाका और नियामकीय स्तरों पर तीनों प्रणालियों के एकीकरण से एक उच्च गुणवत्ता वाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली विकसित हो पाएगी। फीडर बसों के जरिये यात्रियों को मेट्रो स्टेशनों तक पहुंचाया जा सकता है, जिससे विशेष फीडर बसों की जरूरत नहीं रह जाएगी।

3. जिन शहरों की आबादी 40 से 80 लाख है वहां सभी प्रमुख एवं उप-मार्गों पर बस प्रणाली संचालित कर यातायात की जरूरत पूरी की जा सकती है। 10 किलोमीटर से अधिक दूरी वाले मार्गों के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से पर लाइट रेल ट्रांसपोर्ट (एलआरटी) इस्तेमाल में लाया जा सकता है। यह यातायात व्यवस्था में बस सेवाओं के साथ मिलकर काम करेगा। अंत में गंतव्य तक पहुंचने के लिए पैदल जाया जा सकता है या मध्यवर्ती सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का सहारा लिया जा सकता है। 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों को एकीकृत प्रणाली के रूप में बीआरटीएस/मेट्रो लाइन जैसी उच्च क्षमता वाली प्रणाली इस्तेमाल करने पर विचार कर सकते हैं।

4. जिन शहरों की आबादी 10 लाख से कम है उन्हें यातायात के झंझट का समाधान करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाली बस प्रणाली में निवेश करना चाहिए। उच्च क्षमता वाली परिवहन प्रणाली जैसे मेट्रो की योजना पर तभी विचार किया जाना चाहिए जब शहर की आबादी बढ़कर 10 लाख से अधिक होने का अनुमान हो और माना जा रहा हो कि अगले 10 वर्षों में यह बढ़कर 2.40 करोड़ से अधिक
हो जाएगी।

5. 5 लाख से कम आबादी वाले शहरों में परिवहन की मांग मध्यवर्ती सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के जरिये पूरी की जा सकती है। इसके साथ ही प्रमुख एवं उप-मार्गों पर छोटे स्तर पर बस सेवा का संचालन किया जा सकता है।

डॉ. चक्रवर्ती की रिपोर्ट ‘स्ट्रैटजीज टू इम्प्रूव द फाइनैंशियल परफॉर्मेंस ऑफ मेट्रो रेल सिस्टम्स इन इंडिया’ मुख्य रूप से यूएमटीए पर ध्यान केंद्रित करता है। वह चतुर्आयामी कदम का सुझाव देते हैं।

1. यूएमटीए को शहर में सभी गैर-निजीकृत परिवहन ढांचे और सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों का नियंत्रण, संचालन और रखरखाव अपने हाथों में लेना चाहिए। इस तरह, परिणामस्वरूप पूरे शहर या महानगर क्षेत्र के परिवहन से जुड़े कार्यों की जिम्मेदारी यूएमटीए की होनी चाहिए। इन कार्यों में नीति तैयार करना, रणनीतिक नियोजन, परियोजना मूल्यांकन एवं मंजूरी, परियोजना क्रियान्वयन, संचालन एवं रखरखाव, धन की उपलब्धता और शोध शामिल होंगे।

2. यूएमटीए इनमें किसी भी कार्य के लिए ठेकेदार (कॉन्ट्रैक्टर) नियुक्त कर सकता है और जरूरत पड़ने या संभावनाएं बनने पर निजी क्षेत्र के साथ इक्विटी साझेदारी कर सकता है। यूएमटीए निजी परिवहन सेवा (ऐप-आधारित टैक्सी सेवा), सूक्ष्म यातायात सेवा (साझा बाइक एवं इलेक्ट्रिक स्कूटर) और शहर लॉजिस्टिक सेवा (ई-कॉमर्स आपूर्ति, वस्तुओं के परिवहन, गोदाम में संरक्षण आदि) के प्रबंधन, नियमन एवं लाइसेंस जारी करने के लिए उत्तरदायी होगा।

3. यातायात नियंत्रण, इंटीग्रेटेड मोबिलिटी पेमेंट सिस्टम्स (ट्रांजिट स्मार्ट कार्ड), मल्टीमोडल सिस्टम डेटा कलेक्शन और वास्तविक समय में यात्रा सूचना प्रावधान का उत्तरदायित्व भी यूएमटीए पर होना चाहिए।

4. यूएमटीए को बड़े संस्थागत बदलाव और शहरों में परिवहन परिसंपत्तियों के मालिकाना नियंत्रण के हस्तांतरण और बड़े कार्यों के लिए पहल करनी होगी।

सार्वजनिक परिवहन के लिए दुनिया के जिन शहरों की मिसाल दी जाती है वहां नियोजन, क्रियान्वयन और शहरी यातायात के सभी पहलुओं के संचालन के लिए एक इकाई होती है। इनमें न्यूयॉर्क सिटी ट्रांजिट अथॉरिटी, ट्रांसपोर्ट फॉर लंदन और सिंगापुर का एसबीएस ट्रांजिट और एसएमआरटी जैसे कुछ नाम गिनाए जा सकते हैं। भारतीय शहरों को भी परिवहन से जुड़े नीति निर्धारण में यात्रियों को केंद्र में रखना चाहिए। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सबसे पहले एक एकीकृत परिवहन प्राधिकरण स्थापित करना अनिवार्य एवं आवश्यक शर्त है।


Date:05-04-24

जनता को जानने का हक

रजनीश कपूर

पिछले दिनों देश की शीर्ष अदालत ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया नोटिस में अदालत ने चुनाव आयोग से पूछा कि भारत की चुनाव प्रणाली में इस्तेमाल की जाने वाली ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और उसके साथ जुड़ी वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल’ (वीवीपैट मशीन का शत प्रतिशत मिलान क्यों न किया जाए? चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से याचिकाकर्ता की इस मांग को उचित मानते हुए सर्वोच्च अदालत ने ये नोटिस जारी किया। विपक्षी दलों द्वारा इस मिलान की मांग काफी समय से की जा रही है, परंतु न तो चुनाव आयोग और न ही शीर्ष अदालत ने इन मांगों पर ध्यान दिया। सभी को यही लगता था कि जब भी विपक्ष चुनाव हारता है तभी ईवीएम पर शोर मचाता है।

ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ही ईवीएम की गड़बड़ी या उससे छेड़-छाड़ का आरोप लगाते आए हैं। इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जहां हर प्रमुख दलों के नेताओं ने कई चुनावों के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। चुनाव आयोग की बात करें तो वो इन आरोपों का शुरू से ही खंडन कर रहा है। आयोग के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। 1998 में दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा की कुछ सीटों पर ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था, परंतु 2004 के आम चुनाव में पहली बार हर संसदीय क्षेत्र में ईवीएम का पूरी तरह से इस्तेमाल हुआ। 2009 के चुनावी नतीजों के बाद इसमें गड़बड़ी का आरोप भाजपा द्वारा लगा। गौरतलब है कि दुनिया के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ परंतु खास बात यह है कि अधिकतर देशों ने इसमें गड़बड़ी कि शिकायत के बाद वापस बैलट पेपर के जरिये ही चुनाव किए जाने लगे। वीवीपैट व्यवस्था के तहत वोटर डालने के तुरंत बाद कागज की एक पर्ची छपती है। इस पर्ची पर वोटर द्वारा जिस उम्मीदवार को वोट दिया गया है, उनका नाम और चुनाव चिह्न छपा होता है। इससे वोटर को इस बात की संतुष्टि हो जाती है कि उसने जिसे वोट दिया उसी को वोट मिला। इसके साथ ही किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ईवीएम में पड़े वोटों का इन पर्चियों से मिलान भी किया जा सके। 2013 में वीवीपैट को भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड द्वारा बनाया गया था। 2014 में चुनाव आयोग ने यह निर्णय लिया कि 2019 के आम चुनावों में सभी ईवीएम के साथ वीवीपैट का इस्तेमाल हो । ईवीएम में गड़बड़ी की आशंका को दूर रखने की मंशा से फिलहाल हर निर्वाचन क्षेत्र की किसी भी 5 रैंडम ईवीएम का ही वीवीपैट से मिलान होता है। याचिका में मांग की गई कि चुनाव आयोग ने लगभग 24 लाख वीवीपैट खरीदने के लिए 5 हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं, परंतु केवल 20,000 वीवीपैट की पर्चियों का ही मिलान होता है। जनता के कर से दिए गए पैसों से बनी इन मशीनों का जब सभी मतदान केंद्रों पर इस्तेमाल होता है तो इसका मिलान करने में दिक्कत क्या है? आखिर मतदाता को इस बात की जानकारी लेने का पूरा हक है कि उसके द्वारा दिए गए वोट, उसी के द्वारा चुने गए उम्मीदवार को मिले किसी अन्य को नहीं । याचिका में कहा गया है कि ‘चुनाव न केवल निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए क्योंकि सूचना के अधिकार को भारत के संविधान के आर्टिकल 19 (1) (ए) और 21 के संदर्भ में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा माना गया है। कोर्ट ने इसी अधिकार के तहत इस याचिका को स्वीकार किया और नोटिस जारी किया। जब भी कभी कोई प्रतियोगिता होती है। तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएं इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है। आयोजक इस बात पर खास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे। इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को कोई सुझाव दिए जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगे तो उसे स्वीकार लेते हैं।

ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगता। ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं। उसके आयोजक यानी चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों को खुले दिमाग से और निष्पक्षता से लेना चाहिए। चुनाव आयोग एक संविधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चाहे ईवीएम पर गड़बड़ियों के आरोप लगें पर चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करता। यदि ईवीएम की गुणवत्ता पर और उसकी कार्यपद्धति पर चुनाव आयोग को पूरा विशवास है तो इस याचिका पर अपनी प्रतिक्रिया सर्वोच्च अदालत में अविलंब दे देनी चाहिए। यदि चुनाव आयोग को याचिका की मांगों पर आपत्ति नहीं है तो आगामी लोक सभा चुनावों में ऐसा प्रयोग कर ही लेना चाहिए। इतना ही नहीं भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र को और मजबूती भी मिलेगी।


Date:05-04-24

काम करे लोकतंत्र

संपादकीय

भारत में चुनावी सरगर्मी के दौर में सत्ता में आने, सत्ता बचाने और सत्ता छीनने की तेज जद्दोजहद के बीच दिल्ली उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी सुखद और स्वागतयोग्य है कि लोकतंत्र को अपना काम करने दिया जाए। दरअसल, दिल्ली उच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के आरोप में पिछले महीने हुई गिरफ्तारी के बाद अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग वाली तीसरी याचिका को खारिज कर दिया है। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन की अगुवाई वाली पीठ ने दिल्ली के उप-राज्यपाल को किसी तरह की सलाह देने से भी मना कर दिया है। केजरीवाल के खिलाफ दायर की गई इन याचिकाओं की दलील है कि अदालत दिल्ली के उप-राज्यपाल को निर्देशित करे और मुख्यमंत्री का इस्तीफा लिया जाए। वास्तव में, पद न छोड़ने या पद से हटाने की राजनीति कतई अदालती विषय नहीं है। किसी भी नेता को किसी पद से हटाने की अपनी स्थापित परंपराएं हैं, उन परंपराओं में अदालती हस्तक्षेप से न्यायपालिका और विधायिका के बीच विवाद की स्थिति बन सकती है। अत: अदालत के रुख की प्रशंसा होनी चाहिए और जो लोग केजरीवाल को हटाने के पक्ष में हैं, उन्हें जिम्मेदार राजनीतिक आकाओं पर दबाव बनाना चाहिए।

नैतिकता का सवाल अलग-अलग ढंग से किसी नेता को परेशान करता है और नेता अलग-अलग ढंग से इस सवाल का जवाब देते हैं। नैतिकता का प्रश्न केवल नेताओं को ही नहीं, बल्कि राजनीतिक पार्टियों को भी परेशान करता है। अब के दौर में जो चलन है, उसके अनुसार, राजनीतिक पार्टियां अपने मतदाताओं के मानस को समझकर ही फैसला लेती हैं। आम आदमी पार्टी में भी चुने हुए सभी विधायक यदि अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में हैं, तो उन्हें ऐसा करने का हक है। उन्होंने निश्चित ही इस बड़े फैसले के लाभ-हानि पर विचार किया होगा। ऐसे में, उच्च न्यायालय ने उचित ही इशारा किया है कि ‘उप-राज्यपाल को हमारे मार्गदर्शन की जरूरत नहीं है। हम उन्हें सलाह देने वाले कोई नहीं हैं। उन्हें कानून के अनुसार, जो भी करना होगा, वह करेंगे।’ कहना न होगा, जिस देश में चार करोड़ से ज्यादा मामले अदालत में लंबित हों, वहां राजनीति को अपने हर झगड़े के निपटारे के लिए कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाना चाहिए। न्यायालय या न्यायपालिका की अपनी सीमा है और राजनीति से जुड़ी नैतिकता की दुहाई देते हुए न्यायालय पहुंचने की परिपाटी हमारी समग्र व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। एक सुखद पहलू है कि इस देश में नैतिकता के सवाल पर पहले अनेक राज्य सरकारें बर्खास्त हुई हैं, पर इधर सरकारों की बर्खास्तगी के प्रति केंद्र सरकार में संवेदना बढ़ी है, तो यह लोकतंत्र की परिपक्वता का भी एक प्रमाण है। सरकारों को मर्जी से नहीं, बल्कि संविधान से प्रेरित होना चाहिए।

ध्यान रहे कि अरविंद केजरीवाल को कथित शराब नीति घोटाले के सिलसिले में 21 मार्च को गिरफ्तार किया गया था और वह अपनी लड़ाई अदालत और अवाम के बीच बड़ी मुखरता से लड़ रहे हैं। उनके पक्ष में ऐसे नेताओं की बड़ी संख्या है, जो मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी को गलत मानते हैं। अदालत भी पहले संकेत कर चुकी है कि अभियोजन चल रहा है और आरोपी को जमानत पर छोड़ा भी जा सकता है। इस मामले के पटाक्षेप में समय लग सकता है, फिर भी अगर कुछ लोग इस मोर्चे पर जल्दी मचाना चाहते हैं, तो उनके पास किसी को पद से हटाने के लिए अकाट्य तर्क होने चाहिए।


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