04-04-2024 (Important News Clippings)

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04 Apr 2024
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Date:04-04-24

Chip Off the Old Taiwanese Block

India needs to ramp up manufacturing plans.

ET Editorials

The earthquake off Taiwan’s east coast on Wednesday is unfortunate. It is also an unfortunate reminder of the risk of concentrating an overwhelming proportion of the world’s most advanced chip-making capacity in one territory. Taiwan’s semiconductor fabrication units are located at some distance from the epicentre of the earthquake and evacuated staff in response to disaster protocols. Initial reports suggest there is unlikely to be an immediate impact on supply chains feeding all manner of things from cars and cellphones to laptops and satellites. However, chip-making is particularly susceptible to vibration, and Taiwan lies in a zone of heightened seismic activity that also poses arisk to its principal source of power: nuclear energy.

Chipmakers have accelerated plans to diversify beyond Taiwan after the Covid outbreak snarled up supply lines. There is also simmering tension with China that reinforces the need for resilient supply of a critical component in global manufacturing. The automobile industry is revisiting its underinvestment in chip manufacturing that held up production for the better part of the pandemic. The ensuing ‘China plus one’ strategy has had an effect on government policy, with the US announcing incentives for chip production at home. India, too, places semiconductors at the core of its manufacturing ambitions.

New Delhi has had a mixed experience as it scaled up its plans to make more advanced semiconductors, aided by a generous scheme of incentives. After initial missteps that saw Foxconn pull out of a venture with Vedanta, the Tatas are partnering Taiwan’s PSMC for a fab unit in Gujarat. Taiwan offers India its principal access to chipmaking technology. And for Taiwanese chipmakers operating in China’s shadow, India’s plans to ramp up manufacturing can be an interesting proposition. The other element in India’s chip-making strategy — of drawing interest from US producers as China dials up the rhetoric over technology transfer — may not be as immediate as Taiwanese partnership.


Date:04-04-24

Don’t Make Bail A Coin Toss

ET Editorials

Supreme Court’s recent decision to grant bail to AAP MP Sanjay Singh has once again highlighted India’s lingering bail problem. Singh was jailed for six months after the Delhi High Court refused him bail last year, stating prima facie that Singh was part of the policy planning team of the now-scrapped Delhi liquor policy, which has allegedly resulted in revenue loss for the state government. Not much headway was made since his October 2023 arrest regarding his guilt or innocence.

The apex court has consistently highlighted that bail should be the rule, jail an exception. Using arrest as a punitive measure leads to one of the most severe consequences in criminal law — loss of personal liberty. Bail is a lifeline for undertrial prisoners, providing temporary reprieve from incarceration. It also helps decongest India’s prisons and reduce strain on the judicial system. The court has always underlined the need to go by the doctrine of three tests on bail: an accused should be granted bail if they do not present a flight risk, are unlikely to tamper with evidence, or influence witnesses.

Despite these directives, jail has become a default practice in India because of indiscriminate arrests, lack of repercussions on police for inadequate groundwork, absence of free legal aid (especially for those at the bottom of the pyramid), and a paucity of judges to tackle cases. To fix this broken and arbitrary system, GoI must, as the top court had asked in 2022, move on a separate bail Act to streamline the process of granting bail to ensure that bail in India is not just for those making headlines like Singh, but for all citizens. Above all, there must be a change of mindset that upholds the principles of personal freedom and accepts that one is innocent until provenguilty.


Date:04-04-24

क्या पीएमएलए की समीक्षा होनी चाहिए ?

संपादकीय

साल 2005 में अस्तित्व में आया पीएमएलए (प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट) ड्रग मनी और उसके शोधन तक सीमित नहीं रहा। तमाम विशेष अपराध कानूनों (जिसमें भ्रष्टाचार कानून भी शामिल था ) सहित आईपीसी की धाराओं को भी इसने अपने ‘शेड्यूल्ड ऑफेंसेस’ में शामिल किया। अनेक संशोधनों से इसका विस्तार हुआ। चूंकि ऐसे विशेष कानून सख्त होते हैं लिहाजा ‘अपराध सिद्धि न होने तक निर्दोषता’ के मौलिक अधिकार ( अनुच्छेद 21 ) को नकारते हुए इस कानून में ‘बाध्यकारी राज्य हित’ के सिद्धांत को प्रमुखता मिली। सेक्शन 24 में, ईडी के गिरफ्तार करते ही जमानत लेने के लिए आरोपी को निर्दोष सिद्ध करने की बाध्यता थी, जबकि सेक्शन 45 में कहा गया कि जमानत तभी दी जाए जब कोर्ट के पास यह विश्वास करने का उचित आधार हो कि आरोपी ने अपराध नहीं किया और आगे कोई अपराध नहीं करेगा। जाहिर है कोई भी कोर्ट केस के पूरे और दो-तरफा तथ्य जाने बगैर न तो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकती है ना ही आरोपी के भविष्य में कोई अपराध न करने की गारंटी ले सकती है। नतीजतन जमानत मिलनी बंद हो गई। उधर हाल के दस सालों में ईडी की जद में आए कुल राजनीतिक लोगों के खिलाफ हुई कार्रवाई में 95% विपक्षी नेता थे। इनमें 25 नेताओं ने सत्ताधारी पार्टी का दामन थामा, जिनमें से 3 के केस बंद हुए और 20 को राहत मिली। क्या यह कानून शायद रास्ता भटक गया है ?


Date:04-04-24

नक्सलियों पर नकेल

संपादकीय

छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों की नक्सलियों से मुठभेड़ होती ही रहती है, लेकिन मंगलवार की रात बीजापुर में जो मुठभेड़ हुई, उसका महत्व इसलिए है, क्योंकि उसमें एक दर्जन से अधिक नक्सली मारे गए। इनमें कई बड़े नक्सली सरगना भी शामिल माने जा रहे हैं। नक्सलियों पर चौतरफा दबाव बनाना केवल इसलिए आवश्यक नहीं कि वे लोकसभा चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश न करने पाएं, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि उनके दुस्साहस का हमेशा के लिए दमन हो सके। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे रह-रहकर सुरक्षा बलों के जवानों को निशाना बनाते रहते हैं और अपने विरोधियों को पुलिस का मुखबिर बताकर उन्हें मार देते हैं। उनके दुस्साहस का एक प्रमाण यह है कि वे पिछले एक साल में कम से कम आठ भाजपा नेताओं की हत्या कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने के बाद इस दल के नेता खास तौर पर उनके निशाने पर हैं। इन स्थितियों में उन्हें यह संदेश दिया ही जाना चाहिए कि उनकी ऐसी हरकतों से उनके खिलाफ जारी अभियान कमजोर पड़ने वाला नहीं है। नक्सली किसी भी तरह की नरमी के हकदार नहीं हैं। उनका निर्ममता के साथ दमन इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वे बंदूक के बल पर भारत की संवैधानिक व्यवस्था को खुली चुनौती देने के साथ यह स्वप्न भी देख रहे हैं कि एक दिन शासन उनके हाथ में होगा।

नक्सली संगठन खुद को भले ही आदिवासियों और गरीबों का हितैषी बताते हों, लेकिन वे इसकी आड़ में उगाही करने वाले गिरोह के अलावा और कुछ नहीं। उन्हें न तो आदिवासियों की कोई चिंता है, न गरीबों की और न ही वन एवं खनिज संपदा की। वे एक ओर तो यह दुष्प्रचार करते हैं कि गरीबों के साथ अन्याय हो रहा है एवं उन्हें विकास का कोई लाभ नहीं मिल रहा है और दूसरी ओर स्कूलों को निशाना बनाते हैं तथा सड़क, अस्पताल आदि बनाने में बाधाएं खड़ी करते हैं। इस पर हैरानी नहीं कि बीजापुर के जंगलों में मारे गए नक्सलियों के पास से बड़ी संख्या में आधुनिक हथियार मिले। सुरक्षा बलों एवं खुफिया एजेंसियों को इस पहेली को सुलझाना ही होगा कि आखिर नक्सलियों को हर किस्म के आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक सामग्री कहां से मिलती है? यह ठीक है कि बीते कुछ वर्षों में नक्सली संगठनों की कमर तोड़ने में सफलता मिली है, लेकिन जब तक उन्हें आधुनिक हथियारों की आपूर्ति होती रहेगी, तब तक उनका खात्मा करना कठिन होगा। केंद्र और राज्य सरकारों का लक्ष्य नक्सलवाद को जड़-मूल से खत्म करना होना चाहिए, क्योंकि नक्सली बीच-बीच में अपनी गतिविधियों को विराम देकर अपनी ताकत को बढ़ाने का ही काम करते हैं। केंद्रीय गृहमंत्री ने यह जो वादा किया है कि अगले तीन वर्षों में नक्सलवाद का खात्मा कर दिया जाएगा, वह इस अवधि में वास्तव में पूरा हो जाए, इसके लिए केंद्र और राज्यों में तालमेल आवश्यक है।


Date:04-04-24

रिजर्व बैंक की निरंतर मजबूती की गाथा

तमाल बंद्योपाध्याय

भारतीय रिजर्व बैंक ने सोमवार 1 अप्रैल को 90वें वर्ष में प्रवेश कर लिया। दुनिया के दो अन्य बैंक 90 से 99 वर्ष के बीच हैं। वे बैंक ऑफ अर्जेन्टीना और बैंक ऑफ कनाडा हैं जो 1935 में स्थापित हुए।

केंद्रीय बैंकों का इतिहास 17वीं सदी का है जब 1668 में स्वीडिश रिक्सबैंक की स्थापना हुई। इसे एक संयुक्त स्टॉक कंपनी के रूप में सरकारी फंड्स को ऋण देने तथा कारोबारों के लिए क्लियरिंग हाउस के रूप में काम करना था। इसे केंद्रीय बैंक की शुरुआत माना जाता है।

कुछ दशक बाद 1694 में बैंक ऑफ इंगलैंड की स्थापना हुई। यह भी संयुक्त स्टॉक कंपनी के रूप में बना जिसे सरकारी डेट खरीदना था। 1800 में नेपोलियन बोनापार्ट ने बैंक डी फ्रांस की स्थापना की ताकि फ्रांसीसी क्रांति के दौरान कागजी मुद्रा की अत्यधिक मुद्रास्फीति को स्थिर किया जाए। बैंक ऑफ फिनलैंड की स्थापना 1812 में हुई। अमेरिकी फेडरल रिजर्व 1913 में स्थापित हुआ यानी स्विस नैशनल बैंक के सात वर्ष बाद। बैंक ऑफ जापान 1882 में स्थापित हुआ। आखिरकार 1998 में वर्तमान यूरोपीय केंद्रीय बैंक की स्थापना हुई ताकि यूरो की शुरुआत की जा सके।

समय के साथ केंद्रीय बैंकों की गतिविधियों में सुधार हुआ है। उदाहरण के लिए 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू होने से पहले केंद्रीय बैंकों ने घरेलू आर्थिक स्थिरता को बहुत महत्त्व नहीं देते थे। युद्ध ने रोजगार, गतिविधियों और मूल्य स्तर को लेकर चिंता उत्पन्न की। महामंदी के बाद एक बार फिर केंद्रीय बैंकिंग में बदलाव आया। फेड भी वित्त विभाग के अधीन हुआ और फिर 1951 में ही उसे स्वायत्तता मिल सकी। वापस रिजर्व बैंक पर लौटते हैं।

एक अप्रैल, 1935 को रिजर्व बैंक की स्थापना के बाद से वह 25 गवर्नरों के साथ काम कर चुका है। बेनेगल रामा राव 1 जुलाई, 1949 से 14 जनवरी, 1957 तक यानी साढ़े सात वर्षों तक इसके गवर्नर रहे जो अब तक किसी गवर्नर का सबसे लंबा कार्यकाल है। वहीं अमिताभ घोष महज 20 दिनों (15 जनवरी से 4 फरवरी, 1985 तक) तक गवर्नर रहे। रामा राव के इस्तीफे के बाद गवर्नर बने केजी अंबेगांवकर भी केवल छह सप्ताह तक पद पर रहे। बी एन आदरकर ने भी 4 मई, 1970 से 15 जून, 1970 तक लगभग इतनी ही अवधि तक गवर्नर पद संभाला।

1991 के आर्थिक सुधारों से अब तक आठ गवर्नर बने हैं जिनमें विमल जालान का 22 नवंबर, 1997 से 6 सितंबर, 2003 तक का कार्यकाल सबसे लंबा रहा जबकि एस वेंकटरमणन का कार्यकाल सबसे छोटा। वर्तमान गवर्नर शक्तिकांत दास दिसंबर में अपना दूसरा कार्यकाल पूरा होने के पहले ही कार्यकाल के मामले में जालान से आगे निकल जाएंगे। वह रामा राव के बाद दूसरे सबसे लंबे कार्यकाल वाले गवर्नर होंगे। वाईवी रेड्‌डी ने पांच साल और ऊर्जित पटेल ने तीन वर्ष आठ महीने तक यह पद संभाला।

उदारीकरण के बाद के गवर्नरों की बात करें तो दास तमिलनाडु कैडर के 1980 के बैच के आईएएस अधिकारी हैं। उनके लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण दायित्व रहा है। कोविड 19 महामारी ने 5 लाख करोड़ डॉलर का आकार पाने का सपना देख रही अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेल दिया। दास ने ब्याज दरों को ऐतिहासिक रूप से कम किया। इस असाधारण संकट को कई गैर पारंपरिक उपायों की मदद से हल करने का प्रयास किया गया।

वेंकटरमणन, जालान, डी सुब्बाराव और रघुराम राजन के सामने भी मुश्किल हालात आए। जालान तब गवर्नर बने जब पूर्वी एशियाई संकट चरम पर था और स्थानीय मुद्रा दिन ब दिन डूब रही थी। सुब्बाराव के कार्यकाल में ही अमेरिकी निवेश बैंक लीमन ब्रदर्स होल्डिंग इंक का पतन हुआ और वैश्विक वित्तीय संकट आया। राजन को अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा क्वांटिटेटिव ईजिंग रोकने के बाद ट्रेजरी प्रतिफल में आई तेजी, कमजोर रुपये, बढ़ते चालू खाते घाटे तथा उच्च मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा।

1991 का उदारीकरण वेंकटरमणन के कार्यकाल के बीच हुआ। 1991 के भुगतान संतुलन के साक्षी रहे लोग मानते हैं कि सबसे मुश्किल कार्यकाल दास का नहीं बल्कि वेंकटरमणन का रहा। मेरा मानना है कि दोनों संदर्भ इतने अलग हैं कि तुलना करना सही नहीं। दास को कोविड-19 संकट का सामना तब करना पड़ा जब पूरी दुनिया आपस में गुंथी हुई थी और भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी के अनुसार दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। अब रिजर्व बैंक का एक अंतरराष्ट्रीय कद है। पूरी दुनिया के सामने एक ही चुनौती थी और विभिन्न केंद्रीय बैंकों ने तालमेल के साथ नीतियां बनाईं।

वेंकटरमणन का समय अलग था। भारत की अर्थव्यवस्था तब बहुत छोटी थी और उसे अकेले ही चुनौतियों से निपटना था। उस समय तो कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालयों के फंड भी भारत के विदेशी मुद्रा भंडार से बड़े थे।

रेड्‌डी का कार्यकाल सबसे बेहतर था क्योंकि भारत ने उच्च वृद्धि और कम मुद्रास्फीति का दौर देखा। अपने कार्यकाल में उन्होंने नीतिगत दर बढ़ाना जारी रखा लेकिन ऋण और आर्थिक वृद्धि प्रभावित नहीं हुई। कई लोग कहते हैं कि यह जालान की विरासत थी। रेड्‌डी ने नियामकीय मानकों को सख्त बनाया जो वैश्विक मानकों के कारण पहले से तंग थे। उन्होंने कई सुरक्षा उपाय किए जो 2008 के संकट के समय सुब्बाराव के लिए मददगार साबित हुए।

यदि 1991 के बाद के रिजर्व बैंक पर नजर डालें तो शायद ऐसी तस्वीर सामने आएगी: रंगराजन और उनके डिप्टी एसएस तारापोर मुद्रावादी थे। दोनों ने सरकार के साथ रिश्तों को बदला। जालान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक में सेवा दे चुके अर्थशास्त्री थे। वह जानते थे कि कैसे काम करना है। दास भी ऐसे ही हैं जबकि रेड्‌डी को सबसे दिमागदार गवर्नर माना जाता है।

वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग चाहता था कि रिजर्व बैंक को कई दायित्वों से मुक्त किया जाए। राजन ने इसका सफलतापूर्वक विरोध किया। इस बीच केंद्रीय बैंक ने पूरी तरह मुद्रास्फीति पर ध्यान केंद्रित किया। दास के कार्यकाल में उसने वृद्धि और मुद्रास्फीति का सराहनीय संतुलन किया, वित्तीय क्षेत्र को स्थिर बनाए रखा और व्यवस्था को मजबूती दी।

उपसंहार: यथास्थितिवादी नीति

मौद्रिक नीति समिति की 2024-25 की पहली बैठक जो शीघ्र होगी उसका नतीजा क्या होगा?

यथास्थिति बरकरार रहेगी यानी कोई कदम नहीं उठाया जाएगा। लगातार सातवीं बैठक में रीपो दर 6.5 फीसदी पर अपरिवर्तित रहेगी। वित्त वर्ष 25 के लिए सात फीसदी के वृद्धि अनुमान में भी कोई बदलाव नहीं आएगा। चालू वर्ष का वृद्धि अनुमान बढ़ाकर 7.3 फीसदी किया जा सकता है।

कोर मुद्रास्फीति में कमी एक बड़ी राहत है लेकिन खाद्य मुद्रास्फीति चिंताजनक है। मॉनसून की भी इसमें भूमिका अहम होगी। हम आशावादी रह सकते हैं लेकिन हमें सतर्क भी रहना होगा। निकट भविष्य में दरों में कटौती की भी कोई संभावना नहीं।


Date:04-04-24

राष्ट्र की संप्रभुता का सम्मान

संपादकीय

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर अमेरिका, जर्मनी और संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों की टिप्पणियों पर भारत सरकार ने सख्त एतराज जताया था। अब विदेशमंत्री ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आगाह किया है कि उन्हें भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से परहेज करना चाहिए, नहीं तो इसका बहुत कड़ा जवाब मिलेगा। आमतौर पर अपेक्षा की जाती है कि हर राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की संप्रभुता का सम्मान करे और उनके आंतरिक मामलों में दखल देने से परहेज करे, मगर अक्सर देखा जाता है कि कमजोर देशों के मामलों में ताकतवर देश हस्तक्षेप करने का प्रयास करते हैं। इसी आदत के चलते जर्मनी, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने भारत सरकार को लोकतांत्रिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने की कोशिश की थी।

ऐसा नहीं माना जा सकता कि उन राजनयिकों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि भारत किस कदर भ्रष्टाचार और धनशोधन संबंधी मामलों को लेकर गंभीर है। ऐसे मामलों के आरोपियों के खिलाफ सख्त कदम उठाता है। फिर भी उन्होंने अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर टिप्पणी की तो उससे यही जाहिर हुआ कि वे भारत के विपक्षी दलों के सुर में सुर मिला रहे हैं। उनकी टिप्पणियों से विपक्षी दलों को सरकार की आलोचना करने का आधार मिल गया था।

यह ठीक है कि यह पहला मौका था जब किसी मुख्यमंत्री को पद पर रहते हुए गिरफ्तार किया गया। उस गिरफ्तारी में समय के चुनाव को लेकर भी सवाल उठे, क्योंकि तब तक आम चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी थी। इस तरह चुनाव में सभी राजनीतिक दलों को समान सुविधाएं और अवसर उपलब्ध कराने का सैद्धांतिक पक्ष बाधित नजर आने लगा। मगर इस पर नजर रखने और कार्रवाई करने का अधिकार भारत के निर्वाचन आयोग और अदालतों को है, न कि संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका या जर्मनी के किसी राजनयिक को।

यह भी ठीक है कि हर देश अपने राजनयिकों के जरिए दूसरे देशों की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखता, वहां के चुनावों की खोज-खबर लेता रहता है, मगर वह चुनाव प्रक्रिया या वहां के राजनीतिक विवादों में पक्षकार की तरह शामिल नहीं हो सकता। वैसे भी अमेरिका, जर्मनी और संयुक्त राष्ट्र पर अनेक बार सवाल उठते रहे हैं कि वह अपने मित्र राष्ट्रों में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन तक पर चुप्पी साधे रहते हैं। फिलिस्तीन के खिलाफ नियम-कायदों को ताक पर रख कर चलाई जा रही इजराइल की कार्रवाइयों पर वे क्यों मुखर होकर नहीं बोलते या तन कर खड़े होते!

अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी कोई ऐसा मामला नहीं था, जिसका अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर कोई बुरा और व्यापक असर पड़ता हो। यहां की जांच एजंसियों ने कानून के दायरे में रहते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की और उसको केजरीवाल की तरफ से अदालत में चुनौती भी दी गई है। उसके गलत या सही होने का निर्णय अदालत को करना है। उनके पहले भी इसी मामले में कई दूसरे नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे। अमेरिका, जर्मनी, संयुक्त राष्ट्र या किसी भी दूसरे देश को उसमें हस्तक्षेप करने का कोई तुक नहीं बनता। हर देश की अपनी संप्रभुता है और वह अपने नियम-कायदों, कानूनों के जरिए चलता है। संयुक्त राष्ट्र को उसके किसी फैसले पर तभी कोई टिप्पणी करने का हक है, जब उससे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होता हो। इसलिए भारत के विदेश मंत्रालय ने उचित ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ऐसी टिप्पणियों के प्रति आगाह किया है।


Date:04-04-24

उपेक्षा की शिकार बुजुर्ग आबादी

विनोद के शाह

कभी संयुक्त परिवार में सम्मानित रहे बुजुर्ग, बदलते जीवन मूल्यों और आर्थिक उपार्जन में निर्बलता के कारण उपेक्षित और एकाकी जीवन गुजराने को मजबूर हैं। यह समस्या देश के करीब अस्सी फीसद बुजुर्गों की है। नीति आयोग की ‘भारत में वरिष्ठ नागरिक देखभाल- प्रतिमान परिकल्पना’ शीषर्क से प्रकाशित रपट में कहा गया है कि सन 2050 में भारत का हर चौथा व्यक्ति बुजुर्ग होगा। सामाजिक मूल्यों में हो रहे क्षरण की चुनौती के साथ देश में बुजुर्गों के लिए एक ससम्मान सुरक्षित भविष्य को तलाशना देश और सरकार दोनों की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है। बाजार बुजुर्ग आबादी की देखभाल के लिए ‘स्टार्टअप’ के माध्यम से युवाओं को रोजगार देने की भविष्यवाणी कर रहा है। यह देश में सामाजिक मूल्यों की गिरावट के साथ बुजुर्गों के भविष्य की चुनौतियों का संकेत है। आर्थिक आवश्यकताओं के लिए देश के 48 फीसद बुजुर्ग पूरी तरह संतानों पर निर्भर हैं। उनके पास आय के संसाधन नहीं हैं। मात्र 34 फीसद बुजुर्ग आबादी को सेवानिवृत्ति पेंशन मिलती है।

एक सामाजिक आकलन यह भी है कि तृतीय और चर्तुथ श्रेणी से सेवानिवृत्त अस्सी फीसद बुजुर्गों को मिलने वाली पेंशन राशि उनकी संतानें परिवार खर्चे के लिए छीन लेती हैं। हावी होती उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण साठ फीसद बुजुर्ग पारिवारिक प्रताड़ना सहने को मजबूर हैं। तीस फीसद बुजुर्ग अत्यधिक प्रताड़ना के बाद पारिवारिक हिंसा की शिकायत दर्ज कराने कानून की चौखट तक पहुंचते हैं। मारपीट, चोट पहुंचाना, मानसिक उत्पीड़न और आर्थिक तंगी के चलते परिवार या निकटतम व्यति द्वारा हिंसा इसमें शामिल है। मगर भारतीय न्याय व्यवस्था में भी इन अपराधों को सामान्य अपराध के रूप में ही देखा-सुना जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पचहत्तर फीसद बुजुर्ग पारिवारिक हिंसा के शिकार हैं। उन्हें कानूनी संरक्षण भी नहीं मिल पाता है। पारिवारिक सदस्य दो जून की रोटी के लिए उनसे मजदूरों की तरह काम लेते हैं। एक से अधिक बच्चे होने की स्थिति में बुजुर्ग मां-बाप का ही बंटवारा तक कर लेते हैं। दो जून की रोटी देने के लिए एक के हिस्से में मां आती है, तो दूसरे के हिस्से में पिता! इस तरह बुजुर्गों को दो जून रोटी तो उपलब्ध हो जाती है, लेकिन बरसों साथ रहने वाले बुजुर्ग दंपति अलगाव की जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं। राज्य सरकारें ग्रामीण बुजुर्ग पुरुषों को पुनर्वास योजना के नाम पर ग्रामीण भजन मंडली बनाने, मात्र गाने-बजाने वाले वाद्ययंत्र उपलब्ध कराती हैं। मगर जहां जरूरत आर्थिक पुनर्वास के साथ विश्राम की अधिक है, वहां भजन मंडली योजना सिर्फ ग्राम पंचायतों को भ्रष्टाचार की खुराक उपलब्ध कराने का संसाधन बन गई है।

सरकार बुजुर्ग व्यक्तियों के बेहतर जीवन प्रबंधन के लिए देश की कुल जीडीपी का मात्र 0.73 फीसद हिस्सा खर्च कर पा रही है, जिसमें से 0.03 फीसद राशि से सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय बुर्जग पेंशन योजना संचालित करता है। उसमें राज्यों से मिलने वाले अंशदान से ही प्रति व्यक्ति पेंशन राशि का निर्धारण होता है। देश के अलग-अलग राज्यों में प्रति व्यक्ति पेंशन राशि 600 से 1200 रुपए तक मासिक है, जो तेजी से बढ़ती महंगाई के दौर में बुजुर्गों की मात्र दस दिन की खाना-खुराक के लिए भी पर्याप्त नहीं है।

भारत में अकेले बुजुर्ग आबादी प्रतिवर्ष सत्तर हजार करोड़ रुपए की राशि अपनी स्वास्थ्य सेवाओं और दवाओं पर खर्च करती है। इलाज के लिए उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल और कई शहरों में भी भटकना पड़ता है। एक सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार सेवानिवृत्त बर्जुगों की बीस फीसद पेंशन राशि प्रतिमाह उनकी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों पर खर्च होती है। जबकि देश की 53 फीसद बुजुर्ग आबादी अपनी बचत जमा राशि नियमित स्वास्थ्य खर्चों पर व्यय करने को मजबूर होती है। ग्रामीण बुजुर्ग आबादी का 45 फीसद हिस्सा नजदीक प्राथमिक चिकित्सा सेवा न होने के कारण गांव से दस से पचास किमी दूरी तय करता है। सरकारी स्तर पर चलने वाली वरिष्ठ नागरिक योजनाएं बीपीएल श्रेणी के बुजुर्गों की मात्र औपचारिक खनापूर्ति करती हैं।

देश के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में जीवित बुजुर्गों को शासकीय कागजों में मृत घोषित किया जा चुका है। ऐसे सैकड़ों बुजुर्ग अपने जीवित होने का प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए तहसीलों और अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर हैं। यात्रा के दौरान भी बुजुर्ग अक्सर उत्पीड़न का शिकार होते हैं। मुंबई हवाई अड्डे पर पहिएदार कुर्सी न मिलने के कारण एक बुजुर्ग की मौत हो गई। रेलवे में ऐसे असंख्य प्रकरण हैं, जब यात्रा के दौरान प्राथमिक चिकित्सा या यात्रा सुविधा न मिलने से उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। भारतीय रेल ने तो अब बुजुर्ग यात्रियों को मिलने वाली रेल किराया रियायत भी बंद कर दी है। बुजुर्गों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं में मुआवजे का निर्धारण करते समय बुजुर्ग की आर्थिक उपयोगिता का आकलन कर क्षतिपूर्ति का निर्धारण किया जाता है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रपट के मुताबिक 2022 में देश में हुई धोखाधड़ी, लूट, जालसाजी की घटनाओं में 23.9 फीसद बुजुर्ग शिकार हुए थे। पारिवारिक कारणों और आर्थिक तंगी से परेशान होकर वर्ष 2022 में 1518 बुजुर्गों ने आत्महत्या कर ली थी। रपट के अनुसार पिछले एक वर्ष में बुजुर्गों के साथ अपराधों में 11.25 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। साठ वर्ष से नब्बे वर्ष तक उम्र वाली बुजुर्ग महिलाएं शारीरिक शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों का शिकार हुई हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक साठ वर्ष से अधिक उम्र की सोलह फीसद भारतीय महिलाओं के साथ सार्वजनिक स्थानों पर घृणित दुर्व्यवहार होता है।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष यानी यूएनएफपीए की ‘इंडिया एजिंग’ रपट 2023 के अनुसार 2046 तक भारत की बजुर्ग आबादी देश के बच्चों की आबादी के बराबर हो जाएगी। देश में पंद्रह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट दर्ज हो रही है। यह परिवार में और अधिक तनाव, फासला पैदा करने और बुजुर्गों के एकाकीपन में वृद्धि करने वाला साबित होगा। सामाजिक मूल्यों में गिरावट देश में बुजुर्गों के भविष्य को लेकर बड़ी चिंता पैदा करती है।

अर्थशास्त्र इसमें यह कह कर एक बड़े निवेश की संभावनाएं टटोल रहा है कि इससे युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने वाला सेवा उद्योग क्षेत्र बढ़ेगा। बुजुर्गों की मदद के बहाने रोजगार स्थापना के लगभग डेढ़ सौ से अधिक स्टार्टअप इस सेवा क्षेत्र में आ चुके हैं। देश में वर्ष 2023 में बुजुर्ग सेवा क्षेत्र के नाम पर रोजगार स्थापित करने के लिए लगभग 210 करोड़ रुपए का निवेश हुआ है। भारत में विकसित होती वृद्धाश्रम संस्कृति और बुजुर्गों का एकाकीपन, युवाओं का रोजगार की तलाश में घर छोड़ कर चले जाना और पारिवारिक क्लेश इस उद्योग को अवसर उपलब्ध कराते हैं। मगर देश में विकसित हो रहा वृद्धाश्रम बाजार, देश की वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति पर आघात करता है।


 

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