04-11-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
American nightmare, Indian dream
Fleeing Indians need easing of living and doing business index as much as foreigners
Chidanand Rajghatta
More than 300 migrants from India were recently – and unprecedentedly – deported to New Delhi by Mexico, rounded up as they were planning to illegally cross over from that country into the United States. Some of the prospective (illegal) migrants had paid upwards of $20,000 (approximately Rs 14 lakh) per head to human traffickers to make the perilous journey across oceans, jungles, and deserts; one family of four paid $50,000. The expedition itself often claims lives before they can even get a risky shot at the storied American Dream.
The Rs 14 lakh that individuals coughed up for this Mission America (or illegal admission USA) is no chump change. In any country, it would be sufficient seed capital to start a small business. If nothing else, it is enough to live in reasonable comfort for a few years in India, where cost of living remains low. Why would migrants spend so much money for a dangerous enterprise of going to America at a time when even the meanest intelligence knows immigrants, much less illegal immigrants, are unwelcome in the United States?
There are two immediate, obvious reasons. The lure of the United States, of the famed American dream, is still alive – warts and dangers and all – despite reports of its demise, imminent or otherwise, at the hands of a nativist, isolationist dispensation that has taken control of the country. The more worrisome reason for New Delhi is that India offers so little hope that some young men who are able to raise $20,000 prefer to use it to flee the country rather than deploy it at home to build a life. In other words, they have assessed that the risk-reward return from chasing the American Dream is better than investing it in what they probably consider an Indian nightmare.
This should not shock anyone who is familiar with how things work (or not work) in India, notwithstanding occasional success stories, the uptick for the country in the ease of doing business, the patriotic resilience of its people, and the modest efforts by the government to nourish enterprise. In every sphere of business activity, the dice is loaded against aspiring entrepreneurs, and indeed anyone who wants a decent quality of life in India. From regulatory hurdles to retail corruption to workaday issues of lack of clean and safe air, water and transport, India is a welter of unresolved basic problems that defeats its people. In no other country, not even in sub-Saharan Africa is there so much promise and so little fulfilment. The result is many people are fleeing, even at great risk.
Let me illustrate the purported dream vs nightmare scenario with two examples involving home construction. After a modest home expansion in the US some years ago, our contractor called in the county inspector for a final review after which one gets an occupation certificate. The inspector failed us because he found a designated “egress window” (one through which a fireman can enter or exit in case of an emergency) was HALF an inch smaller than prescribed in the building code. Half an inch. The contractor (a Chinese builder) and i exchanged knowing looks. This would have never happened “back home”. But there was no earthly chance of getting around the rule (much less bribing) and we eventually had to replace the window before passing the inspection.
Switch scene to India. The electrical contractor’s itemised bill during house construction here included a “miscellaneous” charge of Rs 35,000. His shrug upon inquiry said it all: it was required for payoff to local officials. But why should we pay when we are not violating any rule or law, particularly when we can pick up the phone and talk to the chairman of the electricity corporation or bring it up on social media? Do that at your own risk of being harassed for years for not greasing the system, he advised. We are still paying the price of our foolhardiness in “not going with the flow”, marked out as the “house that would not pay”.
It is not that the United States is incorruptible. There is monumental corruption involving big corporations and lawmakers that eventually does affect the common man even in the US. This is most evident in the drug and pharma industry. But there is very little retail corruption at the day to day level of the kind that is endemic in India – at check posts, in local bodies, at the motor vehicles department, in survey offices, and in a myriad places where there are workaday transactions. Besides, mature countries have scope for correction and redress – as is being demonstrated in the opioid crisis in the US.
The admirable Swachh Bharat (Clean India) Mission now needs to be expanded not just to clean our cities and towns of the physical filth but also the obscenity of corruption that is causing demoralised youth to spend impressive amounts of money to abandon the country. Owners of fractured farms and blue collar labour may be spending $20,000 to flee, but white collar work force is spending as much as $200,000 to exit, mostly through legal means. The modest improvement in the ease of doing business index shouldn’t just be addressing foreign investors; our own people need the reassurance that they can thrive in India. They should be deploying capital for a shot at the Indian Dream instead of pursuing an American nightmare.
कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की हिस्सेदारी
रिजवान अंसारी
हाल ही में क्रेडिट सुइस नामक स्विस संगठन ने कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट की मानें, तो भारत में महिलाओं के लिए कॉरपोरेट की दुनिया अब भी बेहद सिमटी हुई है। दुनिया भर के 56 देशों की तीन हजार कंपनियों का सर्वेक्षण किया गया है, जिसमें भारत को 23वें पायदान पर रखा गया है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच सालों में कंपनी की बोर्ड टीम में महिलाओं की भागीदारी में केवल 4.3 फीसदी का इजाफा हुआ है। वरिष्ठ प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी 2016 में महज 6.9 फीसदी थी। लेकिन, थोड़े इजाफे के साथ अब वह 8.5 फीसदी हो गई है।
भारतीय कंपनियों में महिला सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) का प्रतिनिधित्व केवल दो फीसदी है, जबकि सीएफओ (मुख्य वित्तीय अधिकारी) के पद पर महिलाओं की भागीदारी महज एक फीसदी है। एशिया प्रशांत क्षेत्र में महिला सीईओ के मामले में थाईलैंड पहले, मलयेशिया दूसरे और फिलिपींस तीसरे स्थान पर है। जबकि भारत रैंकिंग लिस्ट में नीचे से तीसरे पायदान पर है। इसी तरह, महिला सीएफओ के मामले में भारत नीचे से दूसरे स्थान पर है। 15 फीसदी महिला सीईओ के साथ सिंगापुर और इटली दुनिया भर में सबसे आगे हैं। रिपोर्ट में साफ तौर पर यह कहा गया है कि आईटी के 80 फीसदी प्रमुख पुरुष हैं। रिपोर्ट की मानें तो, महिलाओं को निर्णय लेने से संबंधित भूमिका में बहुत कम मौके दिए जा रहे हैं। जहां तक लैंगिक असमानता का सवाल है, तो हालिया वर्षों में जारी दूसरे सूचकांकों में भी भारत की स्थिति बेहतर नहीं रही है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी जेंडर गैप इंडेक्स 2018 में भारत को 108 वां स्थान मिला था, जबकि इसमें 149 देशों को शामिल किया गया था। इसी तरह, लैंगिक असमानता रिपोर्ट 2018 में 129 देशों की सूची में भारत को 95वें पायदान पर रखा गया है। अमूमन इस तरह की रिपोर्ट्स आर्थिक अवसर, स्वास्थ्य और पोषण, राजनीतिक सशक्तीकरण, शिक्षा की प्राप्ति आदि जैसे मापदंडों के आधार पर तैयार की जाती हैं।
जाहिर है, ये रैंकिंग इन मुद्दों पर हमारे पिछड़ेपन का एक आईना है। दूसरी ओर समाज और पारिवारिक स्तर पर भी महिलाओं की दयनीय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, जहां तक कॉरपोरेट जगत का सवाल है, तो भारत सरकार ने महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए पहल की है। 2013 में व्यवसायों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के मकसद से कंपनी अधिनियम में इस बात को जरूरी किया गया था कि कंपनी के बोर्ड में कम-से-कम एक महिला डायरेक्टर हों। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इस मामले में जमीनी स्तर पर अभी और काम करने की जरूरत है, क्योंकि इस कानून का अभी तक पूरा लाभ नहीं मिला है। एक आंकड़ा यह भी है कि कंपनियों के बोर्ड में शामिल करीब 25 फीसदी महिलाएं प्रमोटर फैमिली की हैं। लिहाजा, पारदर्शिता का अभाव हमेशा ही एक बड़ी समस्या रही है। गौर करें तो कानूनी प्रावधान का लाभ भी मिला है। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में महिलाओं को जगह देने वाली कंपनियों की शेयर होल्डिंग वैल्यू बेहतर हुई है।
पिछले पांच सालों में ऐसी कंपनियों की संख्या में 10 फीसदी की वृद्धि हुई हैै, जिसने बोर्ड में महिलाओं को शामिल किया है। दफ्तरों में लैंगिक असमानता की खाई को पाटना है, तो बोर्ड में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा। लैंगिक समानता का सूत्र श्रम सुधारों और सामाजिक सुरक्षा कानूनों से भी जुड़ा है, फिर चाहे कामकाजी महिलाओं के लिए समान वेतन सुनिश्चित करना हो या सुरक्षित नौकरी की गारंटी देना। बहरहाल, कॉरपोरेट जगत को बड़ा दिल दिखाते हुए कंपनी अधिनियम के नियमों का अनुपालन करने की जरूरत है, ताकि महिला भागीदारी के सपने को साकार किया जा सके।
राजकोषीय घाटे में कैसे आ सकता है सुधार ?
टीसीए श्रीनिवास-राघवन
भारतीय अर्थव्यवस्था गहरी आर्थिक मंदी के चक्र में है। हालात में बदलाव लाने के लिए कुछ अहम सुधारों की आवश्यकता है और उनकी रूपरेखा भी पूरी तरह स्पष्ट है। इनमें से कुछ सुधार पूरे होंगे, और कुछ नहीं। परंतु मैं यहां एक ऐसी बात दोहराना चाहता हूं जो मैं पिछले कई वर्षों से कहता आ रहा हूं: क्या वृहद आर्थिक नीति का सबसे अहम हिस्सा, राजकोषीय घाटे को देखने के हमारे नजरिये में बदलाव में नहीं निहित होना चाहिए? कहने का तात्पर्य यह है कि यदि बढ़ा हुआ या घटा हुआ सरकारी व्यय श्रम और उत्पाद बाजार को संतुलित रखने का काम करता है तो क्या ऐसे व्यय को दो हिस्सों में नहीं बांट दिया जाना चाहिए? क्या एक हिस्सा ऐसा नहीं होना चाहिए जिसके घटने पर सरकार का राजनीतिक जोखिम बढ़े और आर्थिक लाभों में इजाफा हो? आखिर हम सब जानते हैं कि राजस्व घाटे और राजनीतिक जोखिम दोनों आपस में बहुत गहरे तक जुड़े हुए हैं। हालांकि आर्थिक लाभ निवेश व्यय से आते हैं।
मेरा मानना है कि इन दोनों को वित्तीय उद्देश्य से अलग-अलग किया जाना चाहिए। पुराने दिनों में जब तक भेद समाप्त नहीं हुआ था, इन्हें योजनागत और गैर योजनागत व्यय कहा जाता था। हमें थोड़े सुधार के साथ उस दिशा में वापसी करनी होगी। बल्कि गैर योजनागत व्यय को भी दो हिस्सों में बांटा जाना चाहिए। पहला, जिसमें कमी के राजनीतिक जोखिम हों, मसलन: सब्सिडी और वेतन तथा पेंशन। दूसरा है रखरखाव का उच्च व्यय जिसमें इजाफा समग्र उत्पादकता में सुधार करता है। फिलहाल तो इनमें से पहले में किसी भी तरह का इजाफा बाद वाले में कटौती करता है। ऐसा हर वर्ष होता है क्योंकि हर साल एक या दो स्थानों पर चुनाव भी होते हैं। देश में बुनियादी ढांचे की दयनीय दशा की यही वजह है। अरविंद केजरीवाल के अधीन दिल्ली शहर इसका उदाहरण है। मैं इकलौती नई बात यह कह रहा हूं कि राजनीतिक जोखिम कम करने पर होने वाले व्यय को आर्थिक जोखिम वाले व्यय से अलग किया जाना चाहिए। ऐसा करके ही हम उस पाखंड को दूर कर पाएंगे जो प्रतिस्पर्धी राजनीतिक व्यवस्था में घर कर गया है और जिसके चलते राजनीतिक जोखिम को जानबूझकर सत्ताधारी दल से और गरीब कल्याण को लेकर उसकी चिंताओं से जोड़ा जाता है।
पारदर्शिता की ओर
ऐसा करने के पश्चात ही राजकोषीय घाटे को लेकर कोई लक्ष्य तय किया जा सकेगा। तब निश्चित रूप से इसे 3 फीसदी के स्तर पर रखा जा सकता है। ऐसी पारदर्शिता के अभाव में बजट को आकर्षक बनाकर पेश करने की घटनाएं बढ़ती हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है लेकिन सन 2005 के बजट में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मनरेगा के साथ इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। तब से यह सिलसिला अबाध ढंग से चला आ रहा है। अब निर्मला सीतारमण के सामने अवसर है कि वह इसे बंद करें। उन्हें प्रधानमंत्री को यह यकीन दिलाना चाहिए कि वे इस समस्या से सीधा टकराव मोल लें।
अगर ऐसा नहीं होता है तो सरकार हमेशा अनावश्यक दबाव में रहेगी। सन 2014 से ऐसा ही देखने को मिल रहा है और इसने अर्थव्यवस्था को हद से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। अनावश्यक रूप से कम राजकोषीय घाटे का लक्ष्य तथा कम मुद्रास्फीति संबंधी लक्ष्य ने भी इसमें इजाफा किया है। इतना ही नहीं कुल व्यय के राजनीतिक हिस्से की फाइनैंसिंग कर राजस्व तथा घाटे की फाइनैंसिंग के आर्थिक हिस्से से की जानी चाहिए। अगली बात, राजनीति हिस्से को भी ब्रिटिश पीएसबीआर (सार्वजनिक क्षेत्र की ऋण आवश्यकता) सीमा के समकक्ष होना चाहिए जिसे लेकर पांच वर्ष तक कोई मोलभाव नहीं हो सकता।
केंद्र सरकार को सब्सिडी, वेतन और पेंशन पर और अधिक व्यय नहीं करना चाहिए जबकि अभी सरकार ऐसा ही कर रही है। नई चीजों के लिए उधारी लेने पर भी उसे केवल उच्च ब्याज भुगतान ही करना चाहिए। किसी अन्य चीज के लिए उसे उधार भी नहीं लेना चाहिए। अगले वर्ष से राजनीतिक वजहों से जुड़े तमाम वृद्घिकारक व्यय राज्यों से आने चाहिए। इसके लिए उन्हें यह इजाजत दी जानी चाहिए कि वे व्यक्तिगत आय पर कर लगा सकें। आयकर पर केंद्र के एकाधिकार की कोई वजह नहीं है।
वृहद अर्थशास्त्र के मौलाना
एक अच्छे पुजारी की एक विशिष्टता यह होती है कि वह तमाम संदर्भों के परे धर्मग्रंथों में लिखी बातों पर टिका रहता है। उसके लिए ये ग्रंथ अप्रश्नेय होते हैं। आज ऐसा ही वृहद अर्थशास्त्रियों के साथ है। यही कारण है कि आज हर चीज से निपटने के लिए एक जैसा रुख अपनाया जा रहा है जो वास्तव में मूर्खतापूर्ण है। अगर आप वृहद आर्थिक विचार प्रक्रिया के इतिहास पर नजर डालेंगे तो आप पाएंगे कि तमाम सफल सरकारों ने पुरानी समझ को नकारा यानी औसत अर्थशास्त्रियों की सहज समझ को। फ्रैंकलिन रूजवेल्ट इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। मार्गे्रट थैचर और रोनाल्ड रीगन को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
सरकार जो करती है उसकी वैधता के लिए उसे बौद्घिक जमात की प्रतिपुष्टि चाहिए। कींस के सिद्घांत सन 1950 के दशक से ऐसा कर रहे हैं। लेकिन अब इसमें बदलाव की आवश्यकता है क्योंकि जहां तक मैं जानता हूं कींस ने सरकारी घाटे को लेकर कोई सीमा निर्धारित नहीं की। उन्होंने केवल इतना कहा था कि उतना ही व्यय करें जितना अर्थव्यवस्था को गिरावट से उबारने के लिए आवश्यक हो। उनका जोर व्यय पर था, किसी सीमा पर नहीं। तमाम शक्तिशाली बॉन्ड बाजार उनके दिमाग तक में नहीं थे। अब हमें एक बार फिर कींस की शरण में जाना होगा न कि उनके व्याख्याकारों की शरण में। कम से कम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में बैठे लोगों के पास तो कतई नहीं जो सबके लिए एक समान सिद्घांत के सबसे बड़े हिमायती हैं। किसी सरकार को ऐसी बिना दिमाग का इस्तेमाल किए सुझाए जा रहे उपायों पर विचार नहीं करना चाहिए।