04-08-2023 (Important News Clippings)
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Date:04-08-23
Details Awaited
Personal data protection bill this time does well to emphasise purpose limitation. But subsequent rules are the key
TOI Editorials
The Digital Personal Data Protection Bill, 2023, was introduced in Lok Sabha yesterday. Way back in December 2019 GOI introduced its first iteration. It was followed by more changes following a parliamentary committee study of it and GOI’s finetuning. The current version is sharper and fittingly places a greater emphasis on the principle of purpose limitation when personal data is collected for processing. It has other positive features such as the recourse to mediation in the event of a dispute. GOI independently introduced a mediation bill this week.
That said, it’s hard to reach a firm conclusion on the personal data protection bill. It’s because essential operative parts will follow in the subordinate legislation, or rules, that GOI will later draft. For example, the manner in which an entity collecting data seeks consent or informs a victim of personal data breach has been left to the rules. Therefore, the rules will determine the efficacy of the legislation.
On broad principles, there are three standout features. Purpose limitation prevents misuse of data. The bill acknowledges that people often unwittingly consent to part with more personal data than required. For example, a food delivery app may in its fine print also seek the phone contact list. The bill clearly spells out that even if consent is unwittingly given, purpose limitation will apply. In this example, the phone contact list will be out of bounds for the app. People also have the right to have data erased. The data bill creates a new class of licensed intermediaries called consent managers who may be used by people as a single point of contact to assist in the legal aspects of consent.
The rules will need to clearly define exemptions from the checks imposed by data protection law. For instance, GOI has a blanket exemption to uphold sovereignty and public order. These exemptions need to be narrowly tailored as governments are among the largest collectors and processors of personal data. Privacy is a fundamental right. Parliament needs to debate this thoroughly. However, its passage shouldn’t be delayed as India’s digital transformation has already generated a huge amount of personal data. It’s not protected adequately in the absence of standalone legislation. The technological landscape is rapidly evolving. Therefore, the quality of the regulator that the bill empowers and also rule-making will influence the efficacy of India’s personal data protection law.
More Battery Storage Beasts Than Li-ion
ET Editorials
NITI Aayog’s recommendation to boost the availability of critical minerals used in lithium-ion (Li-ion) batteries is welcome. Surge in demand to meet the needs of decarbonisation, particularly in the transportation sector, and for the integration of RE in the energy system, is expected. The focus on incentivising the creation of an ecosystem for refining, recycling and reusing critical minerals is essential if India wants to become a major player in the Li-ion battery value chain.
The global annual demand for Li-ion batteries is expected to grow from 730 GWh to 5,100 GWh by 2030. This five-fold increase is driven by decarbonisation of mobility and energy systems, but also by existing uses of Li-ion batteries, such as in mobile phones. Securing predictable supply chains and the environmental integrity of decarbonisation is essential. Here, NITI Aayog has proposed several measures, including royalties, tax benefits and PLI schemes, to support the processing and refining of critical minerals. In building up India’s recycling and reuse capacity, GoI must implement robust regulatory frameworks to ensure the bid to emerge as a global refining and recycling hub is done in an efficient and safe manner. This effort must be accompanied by measures to formalise the recycling, upcycling and reuse of e-waste. A formal lifecycle approach to e-waste will not only help with access to materials but also improve the sector’s safety, health and job potential, mainly in the informal sector.
Care must be taken to ensure incentives do not result in foreclosing other options, including vanadiumand sodium-based batteries. A broader approach is critical to ensure a competitive edge in the storage segment.
सारे आईआईएम फिर से सरकारी नियंत्रण में
संपादकीय
सन् 2017 में जब पहली बार देश के प्रसिद्ध भारतीय प्रबंध संस्थानों (आईआईएम) को एक कानून बनाकर पूर्ण स्वायत्तता दी गई थी तो इसे दुनिया ने सराहा। लेकिन पिछले सप्ताह संसद में नया बिल आया है, जिसके तहत देश के सभी आईआईएम फिर से सरकार के अधीन रहेंगे। गवर्निंग बॉडी से लेकर निदेशक को चुनने वाली सर्च कमेटी में भी सरकार द्वारा नामित सदस्यों की बहुलता होगी। यानी अब मैनेजमेंट संस्थान भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटीज और एनआईटीज़ की तरह सरकारी नियंत्रण में काम करेंगे। जाहिर है निदेशक सरकार अपनी पसंद से चुनेगी। क्या दुनिया में कोई एक मशहूर संस्था सरकार बता सकती है जिसके अकादमिक कार्यों में सरकार का हस्तक्षेप रहा हो ? ज्ञान की दुनिया अलग है और उसे हस्तक्षेप से बैर है। उसे सरकारी मशीन का मोहताज बनाना ज्ञान के परिंदे के पर काटने जैसा होगा। शायद यही कारण है कि हमारी शिक्षण संस्थाएं वैश्विक स्तर पर 100 संस्थाओं में भी जगह नहीं बना पाती हैं, जबकि चीन की यूनिवर्सिटीज अग्रणी रहती हैं। अगर चीन सरीखे शासन में भी वहां की संस्थाओं को फलने-फूलने की पूरी छूट रहती है तो भारत की सरकार को भी आर्थिक मदद देते हुए भी अकेडमी को मुक्त करना होगा। फिर छह साल में नीतियों में मौलिक बदलाव शायद सरकार की समझ पर भी प्रश्न चिह्न खड़े करता है।
Date:04-08-23
डेटा संरक्षण बिल: दूर हों चिंताएं
संपादकीय
डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2023 गुरुवार को लोकसभा में पेश किया गया। यह प्रस्तावित विधेयक की चौथी पुनरावृत्ति है। विधेयक का पहला मसौदा 2018 में तैयार किया गया था। यह विधेयक डेटा मालिकों की व्यक्तिगत जानकारी के संरक्षण का विधायी ढांचा मुहैया कराता है। यह विधेयक डेटा के प्रति जवाबदेहों और उन्हें संसाधित करने वालों के अधिकार और कर्तव्यों को भी रेखांकित करता है जो निजी डेटा एकत्रित करते हैं। लंबे समय से लंबित था विधेयक इसके अलावा वह डेटा मालिकों और डेटा के प्रति जवाबदेहों के बीच मध्यस्थ का काम करने वालों के अधिकार और कर्तव्य भी बताता है। ऐसा कानून लंबे समय से लंबित था क्योंकि व्यक्तिगत डेटा की गोपनीयता मूलभूत अधिकार है और साथ ही डिजिटलीकरण को लेकर नीतिगत स्तर पर जो जोर दिया जा रहा है उसमें व्यक्तिगत डेटा को कई उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। बहरहाल मसौदे को सार्वजनिक चर्चा के लिए जारी नहीं किया गया है। यदि ऐसा किया जाता तो आरंभ में ही अधिक सूचित सार्वजनिक बहस संभव होती।
इस विधेयक में पिछले मसौदों की भाषा को सरल किया गया है और कुछ अस्पष्टताओं को दूर किया गया है। इसमें डेटा के स्थानीय भंडारण पर जोर कम किया गया है। इसमें बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का डेटा के प्रति जवाबदेह संस्थानों के रूप में जिक्र नहीं किया गया है। विधेयक की मांग है कि डेटा को खास उद्देश्यों के लिए सहमति से जुटाया जाए। यह विशिष्ट जरूरत पूरी हो जाने के बाद व्यक्तिगत डेटा में सुधार, उसे उन्नत बनाने या मिटाने की इजाजत देता है। विधयेक का लक्ष्य डेटा संग्रहण और भंडारण रोकना डेटा मालिक की सहमति खत्म होने पर भी उसे हटाना होगा। इसका लक्ष्य यह है कि कंपनियों को अंधाधुंध तरीके से डेटा संग्रहण और भंडारण करने तथा उसका तमाम जगहों पर इस्तेमाल करने से रोका जा सके। व्यक्तिगत डेटा लीक होने की जानकारी भी तुरंत दर्ज होनी चाहिए वरना डेटा के लिए जवाबदेह कंपनी को जुर्माना देना होगा। ‘सिग्निफिकेंट डेटा फिडुशिएरीज’ से तात्पर्य है ऐसी कंपनियां जिन्होंने एक खास सीमा से अधिक संवेदनशील जानकारी एकत्रित की हो उन्हें भारत में डेटा संरक्षण अधिकारी नियुक्त करने होंगे। उन्हें स्वतंत्र अंकेक्षक भी नियुक्त करना होगा ताकि डेटा अंकेक्षण किया जा सके। सैद्धांतिक तौर पर इन प्रावधानों से लोगों को यह राहत मिलनी चाहिए कि उनके व्यक्तिगत डेटा का दुरुपयोग न हो।
यह विधेयक अभी भी केंद्र सरकार तथा उसकी संस्थाओं को यह अधिकार देता है कि वे व्यापक तौर पर तथा अस्पष्ट रूप से परिभाषित उद्देश्य के लिए डेटा संग्रहण जारी रखें। इससे बिना जांच परख और निगरानी के नजर रखना जारी रखा जाएगा और यह नागरिक स्वतंत्रता का हनन होगा। यह चिंता का विषय बना हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक इस विधेयक को जिस तरह बनाया गया है उससे सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधान भी शिथिल होंगे। इससे सरकार के कई कामों में पारदर्शिता चली जाएगी। उदाहरण के लिए मतदाता सूचियों, पेंशन धारकों की सूची को जारी करने से रोकना या राशन पाने वालों की जानकारी को रोकना।
एक अन्य मुद्दा प्रस्तावित डेटा संरक्षण बोर्ड से संबंधित है जो मुख्य नियामक संस्था होगी। विधेयक का प्रस्ताव है कि केंद्र सरकार ही सभी सदस्यों और चेयरपर्सन की नियुक्ति करनी चाहिए। ऐसी भी चिंताएं हैं कि वह शायद वांछित उद्देश्य को पूरा न कर सके। आदर्श स्थिति में ऐसे बोर्ड को स्वायत्त होना चाहिए और उसके पास सांविधिक अधिकार होने चाहिए। सदस्यों की चयन प्रक्रिया भी पारदर्शी होनी चाहिए। एक अपील पंचाट भी होगा जो किसी व्यक्ति के बोर्ड से पीड़ित होने पर मामले की सुनवाई करेगा। इसका भी स्वतंत्र होना आवश्यक है।
अब जबकि इतनी देरी के बाद विधेयक को प्रस्तुत किया गया है तो यह महत्त्वपूर्ण है कि संसद में इस पर समुचित बहस हो और नागरिक समाज की तमाम चिंताओं को हल किया जाए। इसकी प्रासंगिकता को देखते हुए यह आवश्यक है कि हाल के दिनों के अन्य मामलों की तरह इस विधेयक को बिना समुचित बहस के पारित न किया जाए।
Date:04-08-23
नफरती भाषण पर सुप्रीम सख्ती
संपादकीय
साप्रदायिक या सामुदायिक हिंसा – प्रतिहिंसा मामलों में अब सर्वोच्च अदालत को बताना पड़ रहा है कि सरकारें उन्हें रोकने के लिए कौन से कदम उठाएं। मणिपुर में नृशंस सामुदायिक हिंसा के दौरान ध्वस्त हुई विधि- व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी के बाद हरियाणा के मेवात क्षेत्र का नूंह दूसरा ऐसा भयावह मामला है, जब सर्वोच्च अदालत को सामने आना पड़ा है। उसने प्रदेश सरकार से सख्त लहजे में कहा कि वह एक दूसरे समुदाय के विरुद्ध घृणा फैलाने वाले भाषणों पर रोक लगाए जिससे कि हिंसा को और फैलने से बचाया जा सके। इस बात के सुबूत मिल रहे हैं कि तीन वर्षों से आयोजित हो रहे बृजमंडल जलाभिषेक यात्रा के इस बार प्रारंभ होने के पहले से सोशल मीडिया पर दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति बजरंग दल से संबद्ध मोनू मानेसर की तरफ से घृणा फैलायी जा रही थी। तभी सरकार और प्रशासन को सचेत हो जाना चाहिए था। मोनू मुस्लिम समुदाय के दो लोगों को जिंदा जला देने के मामले में वांछित है। हरियाणा सरकार अब इसके पकड़ने की बात कर रही है। साथ ही, इसके जवाब में दूसरे समुदाय की सोशल मीडिया पर कथित जवाबी तैयारी पर उसी मुस्तैदी से कार्रवाई की जानी चाहिए थी। ऐसा होता तो न साजिशन हिंसा हुई होती और न दर्जनों दुकानें और सैकड़ों वाहन खाक हुए होते। जानमाल की इस कदर हुई क्षति के लिए और कोई नहीं प्रथमदृष्टया हरियाणा सरकार और उसके प्रशासन की काहिली दोषी है। जब इसी एक यात्रा के दौरान एक मकबरे को फूंक दिया गया था, जिसका पुनर्निर्माण प्रशासन को कराना पड़ा था। तो ताजा यात्रा के शांतिपूर्ण सम्पन्न हो जाने का इल्हाम कैसे हो गया, जबकि इसी दौरान दूसरे पक्ष की तरफ से व्यापक हिंसा की संगठित तैयारी की जा चुकी थी। इस पक्ष ने अवैध असलहों के जरिए शांतिपूर्ण यात्रा के दौरान दहशतगर्दी फैलाने में कोई कसर नहीं रखी। निश्चित रूप से इन उपद्रवियों को कानून के कठघरे में लाना चाहिए, उन्हें बख्शा नहीं जाना चाहिए। इस घटना के विरोध में विहिप- बजरंग दल की रैलियों की इजाजत देने के साथ सर्वोच्च अदालत ने इसके शांतिपूर्ण होने की हर संभव व्यवस्था करने को कहा है, जिसमें वीडियोग्राफी तक शामिल है। इन रैलियों के दौरान नूंह की पुनरावृत्ति न होने देने के लिए हरियाणा समेत केंद्र, उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली की सरकारों को भी सख्त निर्देश दिया है।
Date:04-08-23
जाति जनगणना के निहितार्थ
संपादकीय
बिहार में हो रही जातिगत जनगणना का मुद्दा एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। पटना उच्च न्यायालय ने मंगलवार को जातिगत जनगणना को वैध ठहराते हुए इसके विरुद्ध दायर की गई सभी याचिकाओं को निरस्त कर दिया था। गुरुवार को इस फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में अर्जी दाखिल की गई है। अब देखना है कि इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का क्या फैसला आता है। लेकिन यह समझना आसान है सामाजिक उत्थान में जातिगत जनगणना किस तरह सहायक बन सकती है और दूसरी ओर भारतीय राजनीति को किसी तरह प्रभावित करेगी। पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश विनोद चंद्रन एवं न्यायाधीश पार्थ सारथी की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि राज्य का यह कदम पूरी तरह से वैध है और इसे करने में वह सक्षम है। जनगणना का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि इस तरह की गणना का अधिकार केंद्र सरकार का है और अगर बिहार सरकार इसे करती है तो यह व्यक्ति की निजता के अधिकार का हनन होगा। पटना हाईकोर्ट ने इन दोनों तर्कों को खारिज कर दिया। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने बाद समाज के अति पिछड़े समूहों तक इसका लाभ नहीं पहुंचा है। जाहिर है कि समाज के अनेक जाति-समूहों से हाल के वर्षों में जातिगत जनगणना की मांग तेज हुई है। राज्य सरकार की किसी भी सामाजिक कल्याण की योजनाओं का लाभ तब तक इन समूहों तक नहीं पहुंच पाएगा, जब तक इनसे संबंधित सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं होंगे। हाल ही में, 26 दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ ने जातिगत जनगणना का समर्थन किया है। जाहिर है कि ‘इंडिया’ 2024 के चुनाव में इस मुद्दे के जरिए जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करना चाहेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसका भान है, तभी उन्होंने गरीबी को सबसे बड़ी जाति बता कर ‘इंडिया’ का काट निकालने की कोशिश की है। फिर भी उनका एनडीए ज्ञानवापी, यूसीसी जैसे मुद्दों के जरिए समाज का धार्मिक ध्रुवीकरण कराना चाहेगा। ऐसे में चुनाव में विकास के साथ-साथ तीन दशक पुराने मंडल और कमंडल का मुद्दा हावी होता है तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
आयात पर लगाम
संपादकीय
भारत सरकार ने एचएसएन 8741 श्रेणी के अंतर्गत आने वाले लैपटॉप, टैबलेट और पर्सनल कंप्यूटर के आयात पर तत्काल प्रभाव से व्यापक प्रतिबंध लगा दिए हैं। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, प्रतिबंधित वस्तुओं के आयात की अनुमति केवल वैध लाइसेंस पर ही दी जाएगी। हालांकि, बैगेज नियमों के तहत आयात पर अंकुश लागू नहीं होगा। इसका एक अर्थ यह हुआ कि एक लैपटॉप, टैबलेट, ऑल-इन-वन पर्सनल कंप्यूटर या अल्ट्रा स्मॉल कंप्यूटर के लिए आयात लाइसेंस की जरूरत नहीं पडे़गी। इस श्रेणी में कोई भी यथोचित शुल्क चुकाकर उपकरण विदेश से मंगा सकेगा या ला सकेगा। वास्तव में, जो सामान किसी ई-कॉमर्स पोर्टल से पोस्ट या कूरियर के माध्यम से खरीदे जाते हैं, उन पर अलग से निर्धारित शुल्क लेने का प्रावधान है। स्पष्ट है कि व्यक्तिगत रूप से लोगों को कोई ऐसा सामान विदेश से लाने या मंगाने में परेशानी नहीं होगी, पर अब कोई थोक में ऐसे सामान के आयात की नहीं सोच सकेगा। जो कंपनियां या विक्रेता कंपनियां विदेश से लैपटॉप, टैबलेट और पर्सनल कंप्यूटर आयात करती हैं, उनका कारोबार बंद होने वाला है।
सरकार को यह कदम पहले ही उठा लेना चाहिए था, क्योंकि भारत में उत्पादन या निर्माण को बढ़ावा देने के लिए ऐसे कदम जरूरी हैं। बड़ी कंपनियां भी ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के आयात को तरजीह देती हैं। कम कीमत पर विदेश से ज्यादा सामान खरीदने के बाद ज्यादा कीमत पर भारत में बेचती हैं। ऐसे में, भारत में न तो निर्माण को बढ़ावा मिलता है और न रोजगार सृजन होता है, साथ ही, उत्पाद की बिक्री से होने वाला फायदा भी विदेश चला जाता है। ऐसे में, आयात रोकने के ताजा इंतजाम से भारत में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उत्पादन को बल मिलेगा। कंपनियां विदेश से लाकर आपूर्ति करने के बजाय भारत में ही निर्माण को बढ़ावा देंगी। वैसे भी ज्यादातर बड़ी निर्माता कंपनियों ने भारत में ही अपने निर्माण केंद्र बना लिए हैं, इन कंपनियों का काम बढ़ जाएगा, जिससे रोजगार में वृद्धि होगी। इसमें कोई शक नहीं कि भारत लैपटॉप, टैबलेट और पर्सनल कंप्यूटर का बड़ा उभरता बाजार है। चीन इत्यादि देशों में ऐसे उत्पादों के बाजार अब स्थिर होने लगे हैं। यूरोप की कुल आबादी से लगभग दोगुनी आबादी अकेले भारत में रहती है, ऐसे में, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत कितना बड़ा बाजार है! ऐसे बडे़ बाजार को अपने इस्तेमाल के अधिकतम उत्पाद स्वयं बनाने चाहिए। जिन विदेशी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने यहां निर्माण शुरू कर दिया है, उनका सहयोग करने में कोई हर्ज नहीं है। साथ ही, छोटी-मझोली भारतीय कंपनियों को भी पूरी रियायत देते हुए ‘मेक-इन-इंडिया’ को सफल बनाना चाहिए।
भारत को दुनिया का नया उत्पादन केंद्र या मैन्युफेक्चरिंग हब बनाने के लिए जो भी निर्णय या नीतियां संभव हैं, जल्दी लेने की जरूरत है। आज हमारी अर्थव्यवस्था को ज्यादा तेजी और रोजगार की जरूरत है। दुनिया में भारत का विकास बहुत जरूरी है। यह भी जरूरी है, हम कम से कम अपने विशाल बाजार का पूरा लाभ लेने लायक तो हो जाएं। भारतीयों के पास पैसा है, वे दुनिया में कहीं से भी सामान मंगाने में सक्षम हैं, पर जो लाभ अपने देश में सामान बनाने या बनवाने में है, उसे कतई हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। हां, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत में जो सामान निर्मित हों, वे आम भारतीयों की जेब के अनुकूल हों, ताकि देश को पूरा लाभ हो।