04-08-2018 (Important News Clippings)

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04 Aug 2018
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Date:04-08-18

Caste Cauldron

Police reform is the real answer to protecting Dalits

TOI Editorials

Belying the current climate of political polarisation, one issue that’s witnessing bipartisan support in Parliament is the effort to overturn the Supreme Court’s dilution of the SC/ST (Prevention of Atrocities) Act. The apex court in March had ruled regarding the misuse of the Act, prescribing that there wouldn’t be any automatic arrests, and that preliminary inquiries would be carried out before lodging FIRs. It had also introduced the provision of anticipatory bail under the law. This was done in light of NCRB data that 15-16% of the total complaints filed in 2015 under the Act were found to be false and out of the cases disposed of by courts 75% had resulted in acquittals or withdrawals.

However, the apex court decision upset Dalit legislators and social groups. Government now wants to bring in an amendment in the current session of Parliament to overturn the Supreme Court order, while opposition parties contend that an ordinance to this effect should have been brought months ago. Clearly, both camps are vying for Dalit votes here, especially in light of upcoming elections. But stringent laws that are frequently misused defeat the aim of justice. Misuse of the SC/ST Act can ironically reinforce caste hate.

Understandably, there are concerns that given how deep-rooted the caste system is in this country, marginalised Dalits may not get their grievances redressed by prejudiced upper-caste policemen. But this should be addressed through police reforms. Police forces need to be sensitised about caste atrocities and their capacities expanded to take action in such cases. In that sense, enacting harsh laws is the easy way out. Only heavy lifting in the form of police reforms can prevent both – atrocities against Dalits and misuse of law. That’s the path to true justice.


Date:04-08-18

India’s Adultery Law is Crudely Anti-Woman

ET Editorials

Individual members of a Supreme Court bench hearing achallenge to the validity of Section 497 of the Indian Penal Code on adultery have all spoken against the law as it stands, indicating that this could well be struck down. And that would be the right thing to do. Adultery amounts to breach of trust between a married couple and should thus qualify as a strong ground for divorce, but should not carry other penalties such as imprisonment. The law as it stands in India is a colonial creation, formulated 158 years ago. The law has moved on in England, where adultery is no longer penalised except as a ground to claim irretrievable breakdown of marriage.

The alimony that a divorced wife is entitled to is not diminished on account of her adulterous liaison in England and much of Europe, although that is not the case in the US, where 21 of 50 states still deem it a crime (it is a misdemeanour in New York). The Indian law on adultery is an unapologetic articulation of patriarchy. A man who enters into a sexual relationship with a married woman without the knowledge or connivance of her husband is guilty of adultery and can be punished with a jail term of up to five years. If a married man has an affair with an unmarried woman, no adultery subsists.

Adultery is, in Indian law, violation of one man’s marital home by another, in which women are seen as passive objects wholly devoid of agency. Section 497 specifically says that the woman in an adulterous relationship will not be considered an abettor. This does women no favour. Modern India cannot afford to have such gender bias in its laws.

Removing such bias would mean two things. Adultery must be understood as violation of the commitment to sexual exclusivity that marriage entails, not as violation of a man’s marital home. Further, women should qualify as culpable agents, not passive objects of male will, in the offence of adultery. Marriage should sustain on the strength of mutual trust, respect and love, not out of fear of a jail term. Modernising the law on adultery is essential to live up to the commitment to equality offered by the Constitution.


Date:04-08-18

राष्ट्रपति को वैज्ञानिकों की बात पर गौर करना चाहिए

वैज्ञानिकों की मांग है कि इसरो, परमाणु ऊर्जा आयोग जैसी संस्थाओं में राजनीतिक दखलंदाजी न की जाए

संपादकीय

इसरो के अहमदाबाद के स्पेस अप्लिकेशन सेंटर के निदेशक तपन मिश्र के तबादले के विरोध में देश के 28 प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र पर गौर किया जाना चाहिए। इन वैज्ञानिकों ने देश के सर्वोच्च शासक से यह मांग की है कि वे वैज्ञानिक संस्थाओं की स्वायत्तता कायम रखें और वैज्ञानिक मनोवृत्ति को नष्ट न होने दें। उन वैज्ञानिकों की मांग है कि इसरो, परमाणु ऊर्जा आयोग, वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध परिषद (सीएसआईआर), डीआरडीओ, भारतीय कृषि शोध संस्थान जैसी संस्थाओं में राजनीतिक दखलंदाजी न की जाए और उनका नेतृत्व राजनीतिक विचारधारा की बजाय काम और गुणवत्ता के आधार पर तय हो।

मौजूदा विवाद इसलिए उठा क्योंकि तपन मिश्र को अहमदाबाद केंद्र के निदेशक पद से हटाकर तत्काल प्रभाव से बेंगलुरू में इसरो के चेयरमैन का सलाहकार बना दिया गया। सलाहकार गैर प्रशासनिक पद है और इस जगह से वे इसरो के निदेशक कभी नहीं बन पाएंगे। माना जा रहा है कि तपन मिश्र के राजनीतिक विचार मौजूदा सरकार के अनुकूल नहीं थे, इसलिए चेयरमैन के पद की दौड़ से बाहर करने के लिए उनके साथ ऐसा किया गया है। तपन मिश्र एक परियोजना को मंजूरी मिलने में हो रही देरी और संस्थान के निजीकरण के लिए बनने वाले दबाव का विरोध कर रहे थे। वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे संस्थानों में काम करने वाले अन्य वैज्ञानिकों में गलत संदेश जाएगा और वे हतोत्साहित होंगे। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास करने के लिए कई संस्थानों का निर्माण किया था।

वहां ढूंढ़-ढूंढ़ कर अच्छे वैज्ञानिक लाए जाते थे और उन्हें प्रोत्साहित किया जाता था। इस प्रोत्साहन में कमी का नतीजा देश ने प्रतिभा पलायन के रूप में भुगता है और अमेरिका व यूरोप की तमाम प्रयोगशालाएं भारतीय वैज्ञानिकों से भरी पड़ी हैं। इसी उपेक्षा का परिणाम है कि डॉ. हरगोविंद खुराना जैसे लोग नोबल पुरस्कार पाने के बाद भारत के प्रति कृतज्ञता भी नहीं जाहिर करते। पिछले दिनों गुजरे हैदराबाद के सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलिकुलर बायोलाजी के निदेशक पीएम भार्गव ने देश में वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए संविधान में अनुच्छेद 51 ए-एच जुड़वाया था। वैज्ञानिकों की इस आवाज का प्रयोजन यही है कि भारत को आगे बढ़ने के लिए नए शोधों की जरूरत है और उसके लिए वैज्ञानिकों को बिना किसी दबाव के काम करने देना चाहिए।


Date:04-08-18

आरक्षण में सुधार का वक्त

जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर समर्थ बनाने की तैयारी है, तब कई सक्षम मानी जाने वाली जातियां आरक्षण मांग रही हैं।

संपादकीय

लोकसभा में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक के सर्वसम्मति से पारित होने से इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि उसे राज्यसभा में भी विपक्ष का समर्थन मिलेगा। इस विधेयक को दूसरी बार संसद में इसलिए लाना पड़ा, क्योंकि पिछली बार राज्यसभा में कुछ विपक्षी दलों ने उसके मूल स्वरूप में बदलाव कर दिया था। उम्मीद है कि इस बार ऐसा नहीं होगा और पिछड़ा वर्ग आयोग जल्द ही संवैधानिक दर्जे से लैस हो जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग है।

यह अजीब है कि जब अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण लागू हुए 25 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, तब उससे संबंधित आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का रास्ता साफ हो रहा है। नि:संदेह संवैधानिक दर्जा हासिल करने के बाद पिछड़ा वर्ग आयोग कहीं अधिक सक्षम होगा, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह आरक्षण संबंधी समस्याओं का समाधान करने में भी समर्थ होगा। विभिन्न जातीय समूह जिस तरह ओबीसी आरक्षण के दायरे में आने के लिए जोर दे रहे हैं और इस क्रम में धरना-प्रदर्शन भी कर रहे हैं, उससे लगता नहीं कि पिछड़ा वर्ग आयोग और साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों के लिए कोई आसानी होने जा रही है। आखिर इसकी अनदेखी कैसे की जा सकती है कि जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर समर्थ बनाया जा रहा है, तब कई सक्षम मानी जाने वाली जातियां अपने लिए आरक्षण मांग रही हैं। यह एक तथ्य है कि इन दिनों उग्र तरीके से आंदोलन कर रहे मराठा समूह इसके बावजूद आरक्षण चाह रहे हैं कि वे उसकी पात्रता की परिधि में नहीं आते। कुछ ऐसी ही स्थिति आरक्षण के लिए आंदोलन की राह पर चलने वाले अन्य जातीय समूहों की भी है।

लोकसभा में पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक पर चर्चा के दौरान विभिन्न् राजनीतिक दलों की ओर से क्रीमीलेयर हटाने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने की जो मांग की गई, उससे यही संकेत मिलता है कि आरक्षण संबंधी मांगों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। यह तय है कि यदि किसी एक जातीय समूह को आरक्षण मिला तो कुछ अन्य जातीय समूह आरक्षण की मांग लेकर आगे आ जाएंगे। इसमें संदेह है कि ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने से बात बनेगी। अच्छा होगा कि आरक्षण की व्यवस्था को ऐसा स्वरूप देने पर विचार हो, जिससे वह पात्र लोगों को ही मिल सके और उसे सरकारी नौकरी पाने का जरिया भर न माना जाए। अभी तो ऐसा ही अधिक है। इसके अलावा एक विसंगति यह भी है कि आरक्षण का लाभ ले चुके लोग भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे हासिल कर रहे हैं। इनमें वे भी हैं, जो संपन्न् और प्रभावशाली हैं। आरक्षण शोषित-वंचित एवं पिछड़े तबकों के उत्थान का माध्यम है। अच्छा होगा कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के साथ अन्य पिछड़ी जातियों को हासिल आरक्षण व्यवस्था की इस दृष्टि से समीक्षा की जाए कि इससे मूल उद्देश्य की प्राप्ति सही तरह हो रही है या नहीं? इसी के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण के दायरे में कैसे लाया जाए।


Date:04-08-18

सोशल मीडिया की समस्या

सोशल मीडिया पर तमाम तत्व नफरत फैलाने, दुष्प्रचार करने, लोगों को उकसाने और आतंक की पैरवी करने तक का काम कर रहे हैं।

संपादकीय

सोशल मीडिया केंद्र बनाने की मोदी सरकार की योजना को पहले जिस तरह जासूसी का जाल बिछाने की कवायद के रूप में देखा गया और फिर सुप्रीम कोर्ट ने उस पर जैसी सख्त आपत्ति जताई उसके बाद उसे ठंडे बस्ते में ही जाना था। समझना कठिन है कि अगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सोशल मीडिया हब का निर्माण सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार के लिए करना चाह रहा था तो फिर उसकी व्याख्या इस रूप में कैसे हुई कि सरकार का इरादा लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों पर निगरानी करना है? इस सवाल का जवाब जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म सूचनाएं हासिल करने, अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने, सवाल पूछने और विरोध जताने का अवसर उपलब्ध कराने के साथ कई तरह की समस्याएं भी पैदा कर रहे हैं।

सोशल मीडिया पर तमाम तत्व जिस तरह नफरत फैलाने, दुष्प्रचार करने, लोगों को उकसाने और यहां तक कि उन्माद एवं आतंक की पैरवी करने तक का काम कर रहे हैं वह भारत समेत दुनिया के अनेक देशों के शासन-प्रशासन के लिए एक बड़ा सिरदर्द है। सोशल मीडिया कंपनियां अपने प्लेटफार्म पर सक्रिय अराजक और उन्मादी तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने अथवा अवांछित या भड़काऊ सामग्री के प्रसार को रोकने में किस तरह आनाकानी करती हैं, इससे खुद सुप्रीम कोर्ट परिचित है। बहुत दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने यौन अपराध के वीडियो प्रतिबंधित करने में हीलाहवाली पर गूगल, फेसबुक समेत तमाम कंपनियों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था।

सच तो यह है कि तब इन कंपनियों ने यह तक नहीं बताया था कि वे यौन अपराध के वीडियो का प्रसार रोकने के लिए क्या उपाय कर रही हैं? भीड़ की हिंसा पर सुनवाई कर चुका सुप्रीम कोर्ट इससे भी अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि हाल के समय में ऐसी हिंसा के कुछ मामले इसलिए सामने आए, क्योंकि सोशल मीडिया के जरिये यह अफवाह फैलाई गई कि अमुक-अमुक जगह बच्चे चोरी करने वाले दिखे हैं।

बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट केवल इतने भर से संतुष्ट नहीं होता कि केंद्र सरकार सोशल मीडिया हब बनाने की अपनी योजना से पीछे हट रही है। उसे ऐसे कुछ उपाय भी सुझाने चाहिए थे जिससे सोशल मीडिया के किस्म-किस्म के प्लेटफॉर्म पर सक्रिय अराजक तत्वों पर काबू पाने में मदद मिलती। जैसे इसमें दोराय नहीं कि सोशल मीडिया संवाद-संपर्क के साथ प्रचार-प्रसार का एक प्रभावशाली माध्यम है। वैसे ही यह भी एक तथ्य है कि इस माध्यम का अनुचित इस्तेमाल भी जमकर किया जा रहा है। कुछ अराजक समूह और यहां तक कि आतंकी संगठन तो अपने प्रसार के लिए सोशल मीडिया पर ही निर्भर हैं। नि:संदेह सरकारी तंत्र को आम लोगों की जासूसी करने वाले उपायों से लैस होने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन यह समय की मांग है कि ऐसी कोई व्यवस्था बने जिसके जरिये सोशल मीडिया पर सक्रिय समाज, समरसता और देश विरोधी तत्वों से निपटा जा सके। इस मामले में इस तर्क के लिए गुंजाइश नहीं है कि समय के साथ लोग खुद ही समझदारी और संयम का परिचय देने लगेंगे।


Date:03-08-18

वंचितों की फिक्र

संपादकीय

केंद्रीय मंत्रिमंडल का अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 के मूल प्रावधानों को फिर से बहाल करने का फैसला स्वागतयोग्य है। यह देश में कमजोर तबकों की चिंता के प्रति सरकार का सकारात्मक रुख है। पर यह भी उसकी जवाबदेही बनती है कि सदियों से वंचना के शिकार तबकों की समस्याओं और तकलीफों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए। गौरतलब है कि इसी साल मार्च में एक मुकदमे की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के खिलाफ अपराधों के मामले में पुलिस आरोपी को तुरंत गिरफ्तार नहीं करेगी और इसके लिए महकमे के डीएसपी रैंक के किसी अधिकारी की जांच के बाद अनुमति की जरूरत होगी। यह न्याय की अवधारणा के अनुकूल व्यवस्था थी, लेकिन देश के ज्यादातर हिस्सों में जाति के आधार पर सामाजिक व्यवहार की हकीकत के मद्देनजर अदालत के इस रुख पर सवाल उठे। खासकर दलितों और आदिवासियों के बीच इसे लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई और अदालत की इस राय के खिलाफ व्यापक बंद भी आयोजित किया गया।

तभी यह साफ था कि मूल कानून में फेरबदल की सुप्रीम कोर्ट की राय से बहुत सारे लोग इत्तिफाक नहीं रखते और इसे दलित-आदिवासी तबकों के प्रति न्याय के रास्ते में एक बाधा मानते हैं। यह मांग उठी कि अब इस मसले पर केंद्र सरकार या तो अध्यादेश लाए या फिर मूल कानून को बनाए रखने की पहल करे। पर इस ओर कोई सुगबुगाहट न होते देख दलित और आदिवासी संगठनों ने फिर से आंदोलन करने की बात कही। यही नहीं, खुद एनडीए के घटकों के दलित सांसदों और नेताओं ने नौ अगस्त को फिर से भारत बंद में शामिल होने की घोषणा की। यों दलित संगठनों के बीच इस बात पर क्षोभ पहले से था कि सुप्रीम कोर्ट के पीठ ने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून को कमजोर कर दिया है। मगर केंद्र सरकार ने उसी पीठ के एक न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का अध्यक्ष बना दिया। इससे यह धारणा बनी कि अदालत के इस फैसले में केंद्र भी सहयोगी है। हालांकि अदालत के फैसले पर सरकार ने पुनर्विचार याचिका दी थी। पर यह अच्छा है कि अनुसूचित जाति तथा जनजातियों की सामाजिक हकीकतों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए सरकार ने कानून के मूल प्रावधानों को बहाल करने संबंधी प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है।

हमारे देश में अनुसूचित जाति तथा जनजाति वर्गों में आने वाले समुदाय सदियों से कमजोर सामाजिक स्थिति में रहे हैं। इसलिए संविधान में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के मानवीय अधिकारों और गरिमा के संरक्षण की विशेष व्यवस्था की गई, ताकि देश और समाज के विकास में इनकी भी सम्मानजनक भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। दरअसल, जाति-संरचना में उच्च और निम्न दर्जा तय होने के साथ ही एक मनोविज्ञान जुड़ जाता है और लोगों के बर्ताव भी उसी से संचालित होने लगते हैं। ऐसे में जो लोग समर्थ और ताकतवर समुदायों से आते हैं, वे अक्सर कमजोर तबके के लोगों के साथ अमानवीय और आपराधिक तरीके से पेश आते हैं। यहां तक कि आपसी संबोधन की भाषा तक में वर्चस्व और दमन का भाव काम करता है। देश की आजादी के सात दशक बाद भी समाज में जाति के आधार पर भेदभाव और दमन की घटनाएं आम हैं। किसी भी लोकतंत्र में इस विषमता को स्वीकार नहीं किया जा सकता।


Date:03-08-18

सख्त दलित ऐक्ट की जरूरत क्यों

चंद्रभान प्रसाद दलित चिंतक

यह घटना विगत सदी की नहीं है, न ही हिमालय की गोद में बैठे किसी गांव की, जहां सूरज की रोशनी भी हमेशा नहीं पहुंच पाती। यह घटना ग्राम निजामपुर की है। उत्तर प्रदेश में कासगंज स्थित निजामपुर सबसे बड़ा गवाह है दलित ऐक्ट के पक्ष में। बात इसी 15 जुलाई की है। दलित संजय जाटव की शादी दलित दुल्हन शीतल सिंह से होनी थी। दूल्हा घोड़े की बग्घी पर सवार था। आगे बैंड पार्टी चल रही थी। बॉलीवुड की धुन पर नौजवान बाराती डांस कर रहे थे। शाम छह बजे का समय था। क्या नजारा था! बारात को 350 पुलिस पार्टी का संरक्षण था। आगे-पीछे पीएसी के जवान थे। जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक बंदूकों से लैस जवानों का नेतृत्व कर रहे थे। इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर भी स्थिति पर नजर बनाए हुए थे। निजामपुर गांव एक रणभूमि में इसलिए तब्दील हो गया, क्योंकि पहली बार इस गांव में घुड़-बग्घी पर सवार दलित दूल्हा मुख्य रास्ते से अपनी बारात ले जा रहा था। एक दलित होने का यह अर्थ है। यदि दूल्हा संजय जाटव गधे पर सवार होता, तो गांव के सवर्ण शायद तालियों से उसका स्वागत करते।

मात्र दो दिन पहले गुजरात में अहमदाबाद के कविथा गांव में दो दलित नौजवानों पर इसलिए हमले हो गए, क्योंकि उन्होंने नुकीली मूंछें बढ़ानी शुरू कर दी थी। मार्च में भावनगर जनपद के उमराला गांव में सवर्णों ने एक दलित की इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह खुद के खरीदे घोडे़ पर घुड़सवारी करने लगा था। अप्रैल माह में मध्य प्रदेश के मालवा के एक गांव में सवर्णों ने दलित बस्ती के कुएं में किरोसिन का तेल डाल दिया। बस्ती में यही हुआ था। वहां ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एक दिन पूर्व दलित परिवार ने अपनी बेटी की शादी में बैंड बाजा मंगवा लिया था। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में एक दलित की इसलिए पिटाई हो गई, क्योंकि उसने सरपंच के घर के सामने से अपनी बाइक निकाली थी। कुछ महीने पहले सहारनपुर के घड़कौली गांव में दलित बस्ती से सटे ‘द ग्रेट चमार बोर्ड’ पर सवर्ण अभी तक तीन हमले कर चुके हैं। दलितों पर तरह-तरह की वजहों से हमले हो रहे हैं, जिसमें नए कपड़े पहनने, यहां तक कि ‘सन ग्लास’ पहनने के लिए भी हमले हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बदायूं के गद्दी चौक एरिया में आंबेडकर की प्रतिमा को लोहे की छड़ों से घेर दिया गया है। एक तरह से पिंजड़े में बंद कर दिया गया है, ताकि प्रतिमा को सवर्ण क्रोध का शिकार न बनना पड़े। देश भर में आंबेडकर प्रतिमाओं पर हमले की खबरें अब सामान्य बात बनकर रह गई हैं।

दलित ऐक्ट वर्ष 1989 में आया था, इससे पहले एक और ऐक्ट था, जिसे प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट ऐक्ट कहते हैं। 1955 में बना यह कानून मूलत: छुआछूत के विरुद्ध था, वर्ष 1989 का ऐक्ट अत्याचार के विरुद्ध। वर्ष 1989 के दलित ऐक्ट को वर्ष 2015 में फिर से संशोधित करके और सख्त किया गया। यहां देश और दलित की प्रगति के अंतर्विरोध को देख लें। देश 1947 में स्वतंत्र हुआ, 1950 में संविधान लागू हुआ। उम्मीद थी कि नए संविधान के तहत, नए राष्ट्र में लोग स्वयं ही छुआछूत और जात-पांत को छोड़ देंगे। लेकिन पांच वर्ष में छुआछूत के विरुद्ध कानून की जरूरत पड़ गई। वर्ष 1950 और 1989 के 39 वर्षों का अंतर देखिए। आजादी, खासतौर से संविधान लागू होने के बाद भारत प्रगति पथ पर चल निकला। हरित क्रांति का असर दिखने लगा था। आरक्षण के कारण दलितों में एक मध्य वर्ग की झलक दिखने लगी थी, गैर दलितों के एक हिस्से को यह खलने लगा। दलितों पर दो-तरफा हमले शुरू हो गए। हिंसक वारदातें तथा दलित अफसरों की गोपनीय रिपोर्ट पर लाल स्याही की वारदातें।

दलितों पर हमले रोकने के लिए वर्ष 1989 में दलित ऐक्ट आया और दलित अफसरों के प्रमोशन में रोडे़ अटकाने के विरुद्ध नब्बे के दशक में प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ी। भारत बदल रहा है, जाति व्यवस्था भी कमजोर पड़ती जा रही है, लेकिन जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हुई। दलित अफसर एक मातहत की तरह तो स्वीकार्य थे, यहां तक कि सहकर्मी के रूप में भी, मगर एक बॉस के रूप में नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे निजामपुर गांव में दलित दूल्हा घुड़-बग्घी पर स्वीकार्य नहीं, चाहे वह बग्घी अपनी कमाई से क्यों न लाया हो?

इसके बाद 1989 और 2015 में 26 वर्षों का अंतराल है। वर्ष 1991 में आर्थिक सुधार शुरू हुए, देश में आर्थिक क्रांति सी आ गई, उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ, शहरीकरण की गति उससे अधिक रही। करोड़ों दलितों को उद्योगों, शहरों में काम मिला। सवर्णों के दरवाजे सूने पड़ने लगे। दलित उनकी मुट्ठी से अब आजाद हो रहा था। उद्योगों, शहरों में मजदूरी कैश में मिलती है, इसलिए अब दलित भी उन चीजों को खरीदने लगे, जिनकी चार दशक पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। चार दशक पहले तक रोटी और लाल मिर्च के लिए संघर्षरत दलित की दूसरी पीढ़ी सन ग्लास, स्पोट्र्स शू, जीन्स और बाइक के सपने देखने लगी। दलितों के खिलाफ माहौल कुछ ज्यादा ही बनने लग गया, इसे देखते हुए 2015 में दलित ऐक्ट को और कड़ा करना पड़ा।

वर्ष 1950 और 2014 के बीच 65 वर्षों का अंतराल है। इस दौरान भारत समृद्धिशाली बना, जाति व्यवस्था कमजोर पड़ गई, दलितों में एक सशक्त मध्यवर्ग बना, तथा व्यापक दलित समाज सवर्ण सत्ता से मुक्त हो गया। इन 64 वर्षों में सवर्णों के बीच से एक अंडर क्लास पैदा हुआ, जिसकी सुधि किसी ने नहीं ली। सवर्णों का यही तबका गुस्से में निराश बैठा था। यह तबका अब हिंसक बन बैठा है। दलित ऐक्ट को और मजबूत करने की बजाय न्यायपलिका ने इसे दंतविहीन कर दिया। विगत 70 वर्षों में भारत आर्थिक-सामाजिक क्रांति के दौर से गुजर चुका है। ढेर सारी उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं, पर इस दौरान भारत ने कुछ खोया भी है। देश ने सवर्ण सत्ता खोई है, जाति टूट रही है। दुर्भाग्यवश, कुछ लोग जाति को राष्ट्र मानते हैं, इसीलिए वे कहते हैं कि 70 वर्षों में राष्ट्र कमजोर हो गया। दलित ऐक्ट इन्हीं तरह के लोगों के लिए बना है। इसे और मजबूत करना होगा।


Date:03-08-18

Managing Perceptions

From the viewpoint of pragmatism, the Centre had no choice but to amend the SC/ST Act

EDITORIAL

If we accept that politics is about pragmatism, about managing perceptions, about defusing difficult situations, and keeping a sharp eye out on the prevailing political winds, then the Union Cabinet’s decision to amend the provisions of the SC/ST (Prevention of Atrocities) Act appears both reasonable and unavoidable. It is arguable that no dispensation at the Centre could have ignored the massive Scheduled Caste protests against the Supreme Court verdict that was perceived as diluting the provisions of the 1989 law. With the call for a nationwide shutdown on August 9, one that an NDA constituent, the Lok Janshakti Party led by Ram Vilas Paswan, had threatened to join, the Centre was goaded into acting quickly. The proposed amendments are aimed at undoing three new rules laid down by the court: that the bar on anticipatory bail under the Act need not prevent courts from granting advance bail if there is no merit in a complaint; that there can be an arrest only if the appointing authority (in the case of public servants) or the district superintendent of police (in the case of others) approves such arrest; and that there should be a preliminary inquiry into complaints. What they do is state that the bar on anticipatory bail will remain “notwithstanding any judgment or order of any court”, that there will be no need for a preliminary inquiry before an FIR is registered and that no approval is required before someone is arrested under the Act.

From the very beginning it was clear that the entire issue had less to do with the correctness of the Supreme Court judgment and more to do with the way it was interpreted, and sometimes deliberately misinterpreted. The judgment had not altered or read down any of the key provisions of the Act. The Court was at pains to emphasise that it was only seeking to protect the innocent against arbitrary arrest and that there should be no denial of relief and compensation to SCs and STs, whose rights should be protected. While no one can object to procedural safeguards against false accusations, it is possible that the Court’s concerns about what it saw as misuse of the Act resulted in the perception that it was introducing norms to prevent quick action on complaints. It is arguably much more likely that such perceptions consolidate at a time when the conviction rate under the Act is dismally low and atrocities against Dalits are a disturbing reality. It is vital that any law that is founded on punishing social ostracisation maintains a fine balance between protecting the rights of the individual to a fair trial and enforcing not only the letter but also the spirit of a legislation that was introduced to protect the dignity of the disadvantaged, who have suffered unspeakably as a result of the abhorrent practice of social discrimination.


Date:03-08-18

Discounting Logic

The draft e-commerce policy has too many echoes from the licence-raj era

EDITORIAL

The process of putting together a regulatory framework for electronic commerce in the country is finally speeding up. A task force of the Union Commerce Ministry has submitted the draft National Policy on Electronic Commerce, which will now be studied by a 70-member think tank chaired by Suresh Prabhu, the Union Commerce, Industry and Civil Aviation Minister. India’s e-tail business, estimated to be worth around $25 billion, is still a fraction of the overall retail sector in the country, but it has been witness to some frenetic activity of late, including the merger between home-grown, but Singapore-based, Flipkart and global giant Walmart. Over the coming decade, the e-commerce pie is expected to swell to $200 billion, fuelled by smartphones, cheaper data access and growing spends. The draft policy proposes the creation of a single national regulator to oversee the entire industry, although operationalising its different features would require action from multiple Ministries and regulators. This would also need amendments to existing legislation and rulebooks. Consumer protection norms to guard online shoppers from possible frauds too are overdue. As per data available for the first eight months of 2017-18, over 50,000 e-commerce grievances were made to the Consumer Affairs Ministry helpline. Traditional retailers too have voiced concerns about large e-tail players with deep pockets pricing them out of the market, and have been seeking a level playing field.

Much work, however, remains to be done to forge a cohesive framework from the draft. Among the ideas in the draft policy are a sunset clause on discounts that can be offered by e-commerce firms and restrictions on sellers backed by marketplace operators. The aim may be to prevent large players from pricing out the competition through unfair practices, but taken too far such licensing and price controls can depress the sector. To give the government a say on who can offer how much discount and for how long, instead of letting consumers exercise informed choices, would be a regressive step for the economy. Foreign direct investment restrictions on players who can hold their own inventory are sought to be lifted, but there must be a majority Indian partner and all products have to be made in India. This seems like a leaf out of India’s retail FDI policy that has similar procurement diktats that are not easy to meet or monitor. E-tailer costs are also likely to rise on account of proposed norms on storing and processing data locally, while consumers and firms could both question the plan to stipulate payments via Rupay cards. The proposed e-commerce policy could drive away those planning online retail forays — and the opportunity to create jobs and benefit consumers would be lost.