03-08-2018 (Important News Clippings)

Afeias
03 Aug 2018
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Date:03-08-18

Naya Pakistan?

New Delhi should be cautiously optimistic about what Imran can deliver

TOI Editorials

With Imran Khan preparing to take oath as the next PM of Pakistan, there have been reports about former Indian cricket stars Kapil Dev, Sunil Gavaskar and Navjot Singh Sidhu being on the guest list. As also Bollywood celebrity Aamir Khan. Although speculations were rife that Khan was also looking to invite Indian PM Narendra Modi for his swearing-in, the tantalising possibility of such a photo-op has been quashed. Nonetheless, the very fact that Khan was planning to invite his Indian cricket contemporaries and friends indicates some willingness to script a fresh chapter in India-Pakistan ties.

But the two countries have been here before. After former Pakistan PM Nawaz Sharif attended Modi’s swearing-in ceremony in 2014, there were similar hopes that the two countries would chart a new modus vivendi. However, things quickly took a downward turn thereafter … until the surprise Modi stopover in Pakistan in December 2015 appeared to provide a huge fillip to the engagement process. Then it was the terror attack on India’s Pathankot airbase in January 2016 and the Uri terror attack on an Indian army base in September of that year – impelling the Indian military to conduct retaliatory surgical strikes across the LoC – that seriously (and understandably) soured the mood.

Add to this the role of agents from across the border in the widespread unrest in Kashmir following militant Burhan Wani’s death in the summer of 2016, and the engagement process once again came off the rails. It’s against this backdrop that Khan takes over as the new Pakistan PM. And while he has talked about boosting trade with India, he has also stuck to the Pakistan army’s position of Kashmir being the core issue in bilateral relations. Given that Rawalpindi GHQ is the real author of Pakistan’s India policy, it will be interesting to see how Khan manages the generals.

That said, Khan’s connections with India are better than most in Pakistan. He has an opportunity to break the mould in bilateral ties. Telephoning Khan to congratulate him Modi reportedly said, “We are ready to enter a new era of relations with Pakistan.” Khan talked a moderate line in his victory speech too but none of this can paper over how his party flirted with radical positions during the campaign. So New Delhi will be cautiously optimistic.


Date:03-08-18

Innovative Solutions in Education Funding

ET Editorials

Improving quality and offerings of higher education institutes requires money. For the bulk of the country’s higher education institutions, augmenting revenues will mean, at least in the short run, increasing tuition fees. While established universities, colleges and institutions can access alumni contributions and industry partnerships, and use their considerable corpus, these options are not open to newer institutions. Higher education institutions, therefore, need to explore innovative financing schemes that will augment revenues without curtailing access.

Increasing budgetary support is an option, but even the most ambitious government budget cannot match rising demand. Besides, public money is better utilised in pre-schools/schools, and research and development. Budgetary constraints limit the quantum of scholarships, which are therefore reserved for the poorest. Education loans, though available, are expensive; the government’s interest subvention schemes and waiving of collateral requirements are restricted to technical education.

Income-sharing agreements (ISAs) are an option — ensuring revenues without limiting access. Under ISAs, students agree to pay a fixed percentage of their income for a fixed period, in return for the educational institution funding their education. Purdue University, in the US, offers ISAs, funded with its own corpus. Others rope in co-investing financial firms. This system’s collateral benefit is that institutions have a stake in ensuring the employability of their students and their ability to garner high salaries. Such innovative financing options will need oversight and regulation, besides enabling laws. Indian institutions must explore such options to become the engines that power the nation’s transformation.


Date:03-08-18

महंगाई और विकास दर में संतुलन का छोटा कदम

एसोचेम ने बैंक को चेताया है कि उसे यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि यह वृद्धि हर हाल में जारी ही रहेगी

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक ने बुधवार को दो महीने के भीतर लगातार दूसरी बार रेपो रेट में 25 बीपीएस की बढ़ोतरी करके उसे 6.5 करने का फैसला उम्मीदों के मुताबिक ही किया है। घरेलू मोर्चे पर उर्ध्वमुखी महंगाई, मानसून की लुका छिपी के बीच अच्छे खरीफ की घटती उम्मीदें, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के उछलते दाम और बढ़ते व्यापारिक युद्ध के बीच केंद्रीय बैंक के पास इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं था। हालांकि मुद्रा नीति समिति ने ब्याज दरें बढ़ाने का निर्णय जून के महीने की तरह सर्वसम्मति से नहीं लिया है। कम से कम एक सदस्य ने इसके विरुद्ध मत दिया।

ऐसे भी विशेषज्ञ थे, जिनका कहना था कि भारत को ब्याज लिए जाने पर होने वाले व्यय को बढ़ाने की बजाय उसे घटाना चाहिए, क्योंकि देश के कई राज्यों में वित्तीय संकट है और उसका मुकाबला करने के लिए कर्ज लेना ही पड़ेगा। रिजर्व बैंक ने महंगाई के मौजूदा आकलन में केंद्र सरकार द्वारा खरीफ की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई 150 प्रतिशत वृद्धि को भी रखा है। इससे भी मंहगाई पर असर पड़ेगा। हालांकि, कुछ वस्तुओं पर जीएसटी घटाए जाने का सकारात्मक प्रभाव भी पड़ना है। बैंक चाहता है कि महंगाई की दर चार प्रतिशत पर कायम रहे लेकिन, जून में वह पांच प्रतिशत तक पहुंच गई थी। यह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) है, जबकि मूल महंगाई की दर तो 6.4 के पास बताई जाती है। दूसरी ओर थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआई) 5.8 प्रतिशत है। उधर जीडीपी की दर 2018-19 में 7.4 प्रतिशत रहने की उम्मीद है।

रिजर्व बैंक ने महंगाई और विकास दर के बीच संतुलन कायम करने के लिए ही यह छोटा कदम उठाया है। कॉर्पोरेट जगत इसे अर्थव्यवस्था में वृद्धि और ऋण की बढ़ती मांग के रूप में देखता है लेकिन, एसोचेम ने बैंक को चेताया है कि उसे यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि यह वृद्धि हर हाल में जारी ही रहेगी। एसोचेम ने निजी क्षेत्र को भी आगाह किया है कि उन्हें संसाधनों के लिए बाजार पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं रहना चाहिए। रिजर्व बैंक ने अपने नीतिगत रवैए में किसी रुझान का प्रदर्शन न करते हुए उसे तटस्थ रखा है। यानी वह दरें बढ़ाते जाने का संकल्प लेकर नहीं बैठा है। अगर आंकड़े बढ़ाए जाने के पक्ष में आएंगे तो वैसा हो सकता है वरना अब अक्तूबर में दरें नहीं बढ़ने वाली हैं। लगता है कि रिजर्व बैंक अब अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के साथ मानसून की भी धैर्य के साथ निगरानी करने की रणनीति अपनाएगा।


Date:03-08-18

आर्थिक संतुलन साधने की कोशिश

सुषमा रामचंद्रन, (लेखिका वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं)

भारतीय रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार नीतिगत ब्याज दर में इजाफा करते हुए अर्थव्यवस्था के उन अहम तत्वों को लेकर चिंताओं को रेखांकित किया है, जिनके कारण महंगाई बढ़ रही है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से ब्याज दरों में गिरावट का दौर चल रहा था। लेकिन अब रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा की पिछली लगातार दो बैठकों के बाद ब्याज दरें बढ़ाने का एलान किया। पहले जून में ब्याज दर बढ़ी और फिर इसी हफ्ते इसमें पुन: इजाफा किया गया। हालांकि यह उछाल तीव्र नहीं है और दोनों ही बार 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई, लेकिन इसके चलते रेपो दर (जिस दर पर आरबीआई बैंकों को उधार देता है) 6.50 फीसदी के स्तर तक पहुंच गई है। इसके नतीजतन बैंक भी उन ब्याज दरों को बढ़ाएंगे, जिन पर वे लोगों को कर्ज या उधार देते हैं। इसका मतलब है कि लोगों के लिए आवास, शिक्षा, कार या ऐसी अन्य निजी जरूरतों की खातिर कर्ज और महंगे हो जाएंगे। ग्राहकों के लिए कर्ज की मासिक किस्त या ईएमआई भी बढ़ जाएगी, जिससे ऐसे अनेक लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी, जिन्होंने मौजूदा ब्याज दरों के आधार पर अपनी दीर्घकालीन योजनाएं बनाई होंगी।

दूसरी ओर यह भी है कि वरिष्ठ नागरिक जैसा तबका, जो ज्यादातर जमाओं से प्राप्त निश्चित आय पर निर्भर रहता है, उनके लिए जमाओं पर ब्याज दरें स्वत: नहीं बढ़ेंगी। यह भी अजीब है कि बैंक नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी के मुताबिक कर्ज या उधार की दरें तो तुरंत बढ़ा देते हैं, लेकिन जमाओं पर इस बढ़ोतरी का प्रभाव अमूमन नजर नहीं आता या इसमें काफी वक्त लग जाता है। हालिया दौर में कर्ज बांटने की रफ्तार सुस्त होना और बैंकों का बढ़ता एनपीए (फंसे कर्ज) भी इसके लिए जिम्मेदार है। फिर भी बैंकों को अगले कुछ महीनों में जमाओं पर ब्याज दरों में कुछ बढ़ोतरी तो करनी ही चाहिए, ताकि उन लोगों के चेहरों पर मुस्कान आ सके, जो ब्याज की आय पर निर्भर हैं। आखिर रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार ब्याज दरें बढ़ाने का यह कदम क्यों उठाया? इसके लिए कुछ ऐसे कारक भी जिम्मेदार हैं, जो हमारे नीति-नियंताओं को पिछले कुछ महीनों से परेशान किए हुए हैं। इसमें पहला और सर्वप्रमुख कारक है अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों का सख्त बने रहना। यदि एक साल की अवधि में ही अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाएं तो उस देश की चिंताएं बढ़ाना लाजिमी है, जो अपनी जरूरतों का 80 फीसदी से ज्यादा तेल आयात करता है।

तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल के चलते देश का आयात बिल भी तेजी से बढ़ा, जिससे राजकोषीय घाटे को निश्चित लक्ष्य तक सीमित रखना मुश्किल हो गया। हालांकि अब तक सरकार तेल आयात की लागत को घरेलू कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में उपभोक्ताओं तक स्थानांतरित करती रही है, लेकिन रिजर्व बैंक इसे बढ़ती महंगाई का एक बड़ा कारण मानता है और ब्याज दर में इजाफे की यह एक मुख्य वजह है। पर ऐसा लगता नहीं कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी से खास फर्क पड़ेगा, क्योंकि तेल की कीमतें तो बाहरी माहौल द्वारा नियंत्रित होती हैं। इसके अलावा, जहां तक ऊर्जा जरूरतों का सवाल है तो कीमतों में उतार-चढ़ाव से मांग में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।इसका दूसरा कारण मानसून से जुड़ा है, जिससे यह निर्धारित होता है कि कृषि पैदावार कैसी रहेगी। भले ही मौसम विभाग द्वारा पहले इस तरह की भविष्यवाणियां की गई हों कि इस साल मानूसन ‘सामान्य रहेगा, लेकिन हालिया कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि बारिश कुछ कम रह सकती है।  हालांकि केंद्रीय बैंक ने इंगित किया कि शुरुआत में कुछ कसर रहने के बाद अब मानसून में सुधार नजर आ रहा है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है।

लेकिन साथ ही साथ उसने सरकार द्वारा अनेक खाद्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में तीव्र इजाफे को भी रेखांकित किया। इसका खाद्य महंगाई पर सीधा असर पड़ सकता है और महंगाई एक बार फिर सुर्खियों में आ सकती है। इन तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए रिजर्व बैंक ने दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर) में खुदरा महंगाई 4.4 फीसदी, दूसरी छमाही (अक्टूबर से अगले साल मार्च) में 4.7-4.8 फीसदी और अगले वित्त वर्ष में 5 फीसदी रहने का अनुमान व्यक्त किया है। ये अनुमान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर व्यक्त किए गए हैं, जो मई में 4.9 प्रतिशत था और जून में बढ़कर 5 फीसदी तक पहुंच गया, खासकर तेल की उच्च कीमतों के चलते। इसके अलावा मैन्युफैक्चरिंग फर्म्स की भी उत्पादन लागत बढ़ने की खबरें आ रही हैं, जबकि कृषि लागतें भी बढ़ रही हैं। इन तमाम कारणों ने रिजर्व बैंक को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह ऐसे कदम उठाए, जिससे महंगाई के चक्र को नियंत्रित करना सुनिश्चित हो सके।यहां पर यह गौरतलब है कि इन तमाम चिंताओं के बावजूद रिजर्व बैंक इस बात को लेकर आश्वस्त है कि अर्थव्यवस्था  इस साल रफ्तार पकड़ रही है और धीरे-धीरे सुधार आ रहा है।

उसने वर्ष 2018-19 के लिए 7.4 फीसदी विकास दर का अनुमान नहीं घटाया है।  इसके पीछे एक प्रमुख वजह तो यही लगती है कि हालिया दौर में कई फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है, जिसके चलते ग्रामीण मांग में उछाल आ सकता है और कृषि अर्थव्यवस्था के भीतर आमदनी बढ़ सकती है। उम्मीद यही है कि इस सबके चलते साल के बाकी हिस्से में मैन्युफैक्चरिंग गतिविधियों को भी संबल मिलेगा। बहरहाल, रिजर्व बैंक ने घरेलू आर्थिक विकास पर बाहरी कारकों के प्रभाव का बारीकी से अध्ययन किया है और इस क्रम में वैश्विक ट्रेड वॉर गहराने का परिदृश्य भी केंद्रीय बैंक की चिंता की एक प्रमुख वजह है। हालांकि यह अच्छी बात है कि पिछले दो माह के आंकड़ों के मुताबिक निर्यातों में पर्याप्त सुधार आया है। ऐसा कुछ हद तक रुपय के मूल्य में गिरावट की वजह से भी हुआ है। इससे खासकर ऐसी कंपनियों को काफी मदद मिली है, जो सेवाओं का निर्यात करती हैं, जैसे कि सॉफ्टवेयर कंपनियां। एक और प्लस प्वाइंट है। मौजूदा वित्त वर्ष की शुरुआत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्प्रवाह में बढ़ोतरी हुई है।

साल-दर-साल के हिसाब से औद्योगिक विकास भी रफ्तार पकड़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो जहां तक समग्र आर्थिक विकास की बात है तो इस मामले में रिजर्व बैंक जबर्दस्त आशावादी नजरिया पेश करता नजर आता है, लेकिन साथ ही साथ वह यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि महंगाई की वजह से कहीं रंग में भंग न पड़ जाए। यही वजह है कि इसका फोकस पूरी तरह महंगाई को चार फीसदी के दायरे तक ही सीमित रखने पर केंद्रित है और तभी इसने लगातार दो बार ब्याज दरें बढ़ाने से गुरेज नहीं किया। लेकिन उसने यह भी देखा है कि आर्थिक गतिविधियों में मजबूती आ रही है और लगता नहीं कि विकास पर कोई असर पड़ेगा। लिहाजा यह उम्मीद की जा सकती है कि जहां तक ब्याज दरों में इजाफे की बात है तो अगली बैठक में इस पर विराम लगेगा। अन्यथा, लोगों में यह चिंता गहरा सकती है कि क्या निम्न ब्याज दरों का दौर बीत चुका है। बेहतर यही है कि केंद्रीय बैंक ज्यादा यथार्थवादी नजरिया अपनाए और इस तथ्य को स्वीकार करे कि ब्याज दरों में इजाफे से तेल व खाद्यान्न् संबंधी महंगाई पर खास असर नहीं पड़ने वाला। ऐसा नजरिया दीर्घकाल में इंडस्ट्री और आम आदमी दोनों के लिए मददगार होगा।


Date:03-08-18

नियंत्रण केंद्रित नीति

संपादकीय

राष्ट्रीय ई-कॉमर्स नीति के मसौदे में कुछ ठोस बातें कही गई हैं। उदाहरण के लिए इस क्षेत्र के लिए एक अलग नियामक का गठन तथा वस्तु एवं सेवा कर फाइलिंग का केंद्रीकरण करना ताकि कागजी कार्यवाही को काफी हद तक कम किया जा सके। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को निपटाने के लिए अलग इकाई का गठन करके निवेश की गति को भी तेज किया जा सकता है। बहरहाल, इस नीति की मुख्य कमी इसका स्वरूप है। इसे कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि यह इस क्षेत्र में वृद्घि को बल देने के बजाय इस पर कड़े नियंत्रण थोपे। रियायती मूल्य को लेकर तथाकथित सनसेट क्लॉज का विचार अपने आप में एक गलत विचार है और यह लाइसेंस राज के दिनों की याद दिलाता है, खासतौर पर सरकार द्वारा सूक्ष्म प्रबंधन किए जाने के मामले में। सरकार के पास ऐसी कोई दलील नहीं है जो मूल्य नियंत्रण व्यवस्था लागू करने को सही ठहरा सके या छूट पर उत्पाद बेचने की अवधि तय कर सके। ऐसा करना मुक्त बाजार के सिद्घांतों का उल्लंघन तो है ही, साथ ही यह अन्य प्रमुख क्षेत्रों की नीतियों के साथ भी विसंगतिपूर्ण है।

उदाहरण के लिए दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को यह इजाजत दी गई कि वे भारी भरकम रियायत वाली योजनाएं पेश कर सकें। यहां तक कि उन्होंने एक तय अवधि तक नि:शुल्क सेवाएं भी मुहैया कराईं। यह दलील दी जा सकती है कि ई-कॉमर्स का क्षेत्र दूरसंचार की घटी कीमतों से लाभान्वित होने वाला एक प्रमुख क्षेत्र है और अगर उनकी बदौलत ई-कॉमर्स को मदद मिली है तो बाजार को यह लाभ आगे बढ़ाने देने में क्या हर्ज है?  बुरी बात तो यह है कि इस नीति के आगमन से ई-कॉमर्स क्षेत्र की लागत में काफी इजाफा हो सकता है क्योंकि उसे डेटा भंडारण और प्रसंस्करण का काम स्थानीय स्तर पर करना होगा। डेटा और बिग डेटा एनालिसिस का काम ई-कॉमर्स को सफलतापूर्वक चलाने के लिहाज से अहम है।  लेकिन हमारे देश में न तो सर्वर की क्षमता है और न ही जरूरी गति का ब्रॉडबैंड है जो कम लागत में प्रभावी और किफायती डेटा भंडारण और प्रसंस्करण सुविधाएं दे सके। जहां डेटा का स्थानीयकरण करना है उनसे जुड़ी मूल्य शृंखलाओं पर नए सिरे से काम करने की लागत भी कम नहीं है। इनमें से कोई सुरक्षा से जुड़े उन मसलों का हल नहीं करता है जो स्थानीयकरण से उभरेंगे।

इन्वेंटरी आधारित मार्केटिंग भी सही विचार नहीं है, हालांकि यह प्रथम दृष्टया प्रगतिशील नजर आता है लेकिन इसके साथ कई किंतु-परंतु जुड़े हुए हैं। इसमें कुछ अच्छी बातें भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए मूल्य शृंखलाओं का 100 फीसदी भारतीय होना। इन्वेंटरी आधारित विपणन की इजाजत केवल उन कंपनियों को देने की बात भी समझ से परे है जिनका स्थानीय प्रबंधन भारतीय हो और जिनमें 51 फीसदी अंशधारिता स्थानीय हो। भारतीयों के हित प्राथमिकता आधारित वोटिंग इक्विटी का प्रस्ताव भी पिछड़ा हुआ है। भुगतान की बात करें तो रुपे को बढ़ावा देना समझा जा सकता है लेकिन उपभोक्ताओं को यह इजाजत होनी चाहिए कि वे चाहें तो किसी भी अन्य पारदर्शी माध्यम से भुगतान कर सकें। देश के 700 अरब डॉलर के खुदरा बाजार में ई-कॉमर्स क्षेत्र की हिस्सेदारी बहुत मामूली है। अगर आर्थिक समीक्षा को संकेत मानें तो ई-कॉमर्स का आकार करीब 33 अरब डॉलर का है यानी खुदरा बाजार के 5 फीसदी से भी कम का। यह जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में है जहां हल्के नियमन अपनाए जाएं, बजाय कि इस क्षेत्र पर तमाम प्रतिबंध और सीमाएं लाद देने के। मसौदा नीति ऐसे प्रतिबंधों को बढ़ावा देती है।


Date:02-08-18

लचर बनाने की तैयारी

शशिधर खान

केंद्रीय सूचना आयोग, केंद्रीय सूचना आयुक्त कार्यालय और राज्य सूचना आयोग में कई महीनों से खाली पड़े रिक्त पदों पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जवाब-तलब किया है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की पीठ ने केंद्र सरकार से हलपफनामा दायर करके चार हफ्ते के अंदर यह बताने का निर्देश दिया है कि कितने समय में ये नियुक्तियां हो जाएंगी? सुप्रीम कोर्ट पीठ के जजों ने कहा है कि केंद्रीय सूचना आयोग में इस वक्त चार पद रिक्त हैं और दिसम्बर में चार और रिक्त हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सात राज्यों को पिछले हफ्ते वैसे समय में यह निर्देश जारी किया है, जब केंद्रीय सूचना आयोग को लचर बनाने की चर्चा तेज है। केंद्र सरकार ने एक साथ दो उपाय आजमाए और दोनों ही विवादों के घेरे में आ गए। सीआईसी (केंद्रीय सूचना आयोग) में रिक्तियों का मामला सुप्रीम कोर्ट में जाना सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है। केंद्रीय सूचना आयोग के सर्वोच्च अधिकारी मुख्य सूचना आयुक्त का पद 2015 में कई महीनों तक खाली पड़ा रहा। केंद्र की भाजपा गठजोड़ सरकार सीआईसी की नियुक्ति टालती रही।

चयन प्रक्रिया दिल्ली हाईकोर्ट की इस सरकार के बाद शुरू हुई कि ‘‘कोर्ट का दखल होने तक लंबे समय के लिए महत्त्वपूर्ण पद खाली रखे जाते हैं।’ अप्रैल 2015 में सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को बताया कि नियुक्ति प्रक्रिया में तीन महीने लगेंगे, जबकि उस समय मुख्य सूचना आयुक्त की खाली कुर्सी के नौ महीने गुजर चुके थे और उसके अलावा, तीन सूचना आयुक्तों के भी पद रिक्त पड़े थे। आखिरकार दिसम्बर, 2015 के अंतिम सप्ताह में पूर्व रक्षा सचिव आरके माथुर सीआईसी नियुक्त हुए। आरटीआई एक्ट, 2005 के अंतर्गत जनता को दिया गया सूचना का अधिकार न तो रद्द किया जा सकता है, न वापस लिया जा सकता है। इसलिए सरकार ने आरटीआई संशोधन बिल का ऐसा मसौदा तैयार किया ताकि केंद्रीय सूचना आयोग संवैधनिक संस्था की जगह एक सरकारी संस्था की तरह काम करे।

इसका प्रारूप अभी गोलमटोल रखा गया है। लेकिन संशोधन बिल में ऐसे नियम जोड़े गए हैं ताकि सीआईसी सरकार के पूर्ण नियंतण्रमें हो और वैसी कोई सूचना सार्वजनिक करने का आदेश मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त किसी सरकारी विभाग को न दे पाएं जो सरकार न चाहे। दरअसल, मार्च 2017 में ही आरटीआई एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव सरकार ने उछाला। जब चारों तरफ तीखी प्रतिक्रिया हुई तो केंद्रीय कार्मिक और जन शिकायत मंत्रालय ने सफाई दे दी कि ‘‘ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है।’ लेकिन अंदर-अंदर सीआईसी को लचर बनाने की तैयारी चलती रही। सूचना आयुक्त और आरटीआई कार्यकर्ता को तो पता था, मगर जनता तक इसकी जानकारी अभी जुलाई, 2018 में पहुंची, जब संसद के चालू मॉनसून सत्र में सरकार को खंडन करना पड़ गया कि सूचना का अधिकार (संशोधन बिल) 2018 संसद में पेश करने के लिए तैयार है। उससे भी बड़ी बात ये कि केंद्रीय सूचना आयोग के सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्यालू ने इस संबंध में वरिष्ठतम सूचना आयुक्त यशोवर्धन आजाद को लिखा गया पत्र प्रेस को जारी किया।

आचार्यालू के पत्र में 19 जुलाई की तारीख अंकित है, जिसमें सभी सूचना आयुक्तों की बैठक बुलाने और सरकार को संशोधन बिल वापस लेने के लिए संयुक्त रूप से लिखने को कहा गया है। आचार्यालू ने अपने साथी सूचना आयुक्तों के नाम लिखे गए पत्र में सीआईसी से भी आग्रह किया कि सरकार को आरटीआई (संशोधन बिल) 2018 वापस लेने के लिए लिखें। आचार्यालू के अनुसार आरटीआई (संशोधन बिल) 2018 एक ही साथ आरटीआई एक्ट, 2005 कानून बनने के असली मकसद को और संविधान की मूल भावना संघवाद को समाप्त कर देगा। सीआईसी को सीमित दायरे में रखने के पक्ष में सभी दल हैं, क्योंकि सूचना आयोग पार्टियों के अंदरूनी चुनाव फंड, चंदा कारोबार पर उंगली उठाकर उसे सार्वजनिक करने का आदेश जारी कर चुका है। 2012 में सीआईसी सत्यानंद मिश्र ने आदेश जारी किया और सुप्रीम कोर्ट जजों को भी सार्वजनिक पद पर होने के कारण अपनी संपत्ति बताने को कहा। सरकार नहीं चाहती कि दलाली, घपला और सुरक्षा बलों की फर्जी मुठभेड़ वाली सूचनाएं मांगने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल हो, इसके लिए अर्जी की फीस बढ़ाने और छंटनी में भी सरकारी हस्तक्षेप प्रस्तावित है।


Date:02-08-18

महंगाई की चिंता

संपादकीय

रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरों में फिर से बढ़ोतरी कर यह साफ कर दिया कि महंगाई से निपटना उसकी प्राथमिकता है। पिछले दो महीने में यह दूसरा मौका है जब केंद्रीय बैंक ने महंगाई पर काबू रखने के लिए यह कदम उठाया है। इससे पहले साढ़े चार साल में पहली बार जून के पहले हफ्ते में नीतिगत दरें बढ़ाई गई थीं। केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति समिति पिछले दो दिन से इस बारे में सोच-विचार में लगी थी कि इतनी जल्दी फिर से नीतिगत दरें बढ़ाना उचित होगा या नहीं। लेकिन अंत में उसे कड़ा फैसला करना पड़ा। हालांकि पिछले कुछ समय से बाजार और अर्थशास्त्रियों से इस बात के संकेत आ रहे थे कि जिस तरह के हालात हैं, उनमें रिजर्व बैंक फिर से नीतिगत दरें बढ़ाने को मजबूर हो सकता है। बैंक ने रेपो और रिवर्स रेपो दर 0.25 फीसद बढ़ा दी है। यानी अब रेपो दर साढ़े छह फीसद और रिवर्स रेपो दर 6.25 फीसद हो गई है। मौद्रिक नीति समिति ने आने वाले महीनों में भी महंगाई बने रहने के संकेत दिए हैं। मुद्रास्फीति चार फीसद तक के दायरे में रहती है तो यह चिंता की बात नहीं होती। लेकिन जब यह चार फीसद से ऊपर जाने लगती है तो यह परेशानी का कारण बनना स्वाभाविक है।

जाहिर है, दो महीने के भीतर ही केंद्रीय बैंक के ऐसे सख्त कदम से व्यावसायिक बैंकों के लिए भी मुश्किलें बढ़ेंगी। दो महीने पहले ही व्यावसायिक बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाई थीं। अब फिर से बैंकों को ऐसा कदम उठाना पड़ सकता है। इसका सीधा असर यह होगा कि कर्ज महंगा होगा। जिन लोगों ने बैंक से घर, गाड़ी के लिए या किसी भी अन्य तरह का कर्ज ले रखा है, उन्हें अब ज्यादा ब्याज देना होगा। मासिक किस्त यानी ईएमआइ बढ़ेगी। व्यावसायिक बैंकों का कारोबार मुख्य रूप से कर्ज पर टिका होता है। ऐसे में अगर कर्ज महंगा होगा तो कर्ज लेने से भी लोग बिदक सकते हैं। मुद्रास्फाति को लेकर रिजर्व बैंक के अनुमान संकेत दे रहे हैं कि हालात जल्द सामान्य होते नहीं लगते। नीतिगत दर बढ़ने के फैसले से उद्योग भी अछूते नहीं रहेंगे। कर्ज महंगा होगा तो लागत बढ़ेगी और औद्योगिक वृद्धि पर असर पड़ेगा। अगर हालात लंबे समय तक ऐसे बने रहे तो उद्योगों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। रोजगार सृजन पर बुरा असर पड़ेगा। यानी कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।

रिजर्व बैंक ने यह इशारा कर दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के कारण खाद्य वस्तुएं महंगी हो सकती हैं। बैंक का यह अनुमान भी चिंतित करने वाला है कि खुदरा मुद्रास्फीति के अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में बढ़ कर पांच फीसद तक पहुंच सकती है। जाहिर है, महंगाई बनी रहेगी। हाल-फिलहाल इससे राहत के कोई आसार नजर नहीं हैं। हालांकि अभी तक कई राज्यों में मानसून ठीक रहा है, लेकिन कुछ राज्यों में पर्याप्त बारिश नहीं होने की वजह से सूखे का खतरा सामने है। इस साल में पेट्रोल-डीजल के दामों ने जो रिकार्ड बनाया, उसने भी महंगाई की आग में घी काम किया। पेट्रोल-डीजल के दाम में जरा भी तेजी आती है तो सबसे पहला असर माल-भाड़े और ढुलाई पर पड़ता है और इसका सीधा बोझ आम जनता की जेब पर आता है। महंगाई चाहे थोक मूल्य सूचकांक आधारित हो या फिर खुदरा में, असर तो बाजार और खरीदार पर ही पड़ता है। इसलिए हाल-फिलहाल जो हालात हैं उसमें महंगाई को साधने के लिए नीतिगत दरों में वृद्धि ही कारगर उपाय था।


Date:02-08-18

पुलिस और समाज के बीच की दूरी पाटने के लिए

के एस द्विवेदी पुलिस महानिदेशक, बिहार

सामुदायिक या कम्युनिटी पुलिसिंग एक फलसफा है। यह पुलिसिंग का एक दृष्टिकोण है, एक आयाम है, जिसमें समुदाय के माध्यम से पुलिसिंग की जा सकती है। साथ ही यह पुलिस के प्रति जनता का नजरिया बनाने या बदलने का एक साधन भी है। इसकी तुलना हम गांधीजी की अहिंसा से कर सकते हैं, जो साधन व साध्य, दोनों है। इसी प्रकार, सामुदायिक पुलिसिंग एक लक्ष्य है, इस लक्ष्य को प्राप्त करने का माध्यम भी सामुदायिक पुलिसिंग ही है। इसे ‘पार्टीसिपेटिव पुलिसिंग’ भी कह सकते हैं। पुलिस का उद्देश्य अपराध पर नियंत्रण और समाज में व्यवस्था स्थापित करना होता है। अपराध या घटनाओं पर कार्रवाई करना प्रतिक्रियात्मक पुलिसिंग है, जबकि समाज में व्यवस्था कायम करने में जनता को भागीदार बनाना ‘कम्युनिटी पुलिसिंग’ है।

अक्सर लोग स्वैच्छिक प्रतिरोध समूह बनाना, पेट्रोलिंग करना या पुलिस को सूचना देने को कम्युनिटी पुलिसिंग समझ लेते हैं। यह पूरा सच नहीं है। पुलिस बलों का जनता के बीच जाकर खेल गतिविधियों में भाग लेना, चिकित्सा शिविर लगाना या स्कूली किताबें आदि बांटने को पूरी तरह से सामुदायिक पुलिसिंग नहीं कह सकते। कम्युनिटी पुलिसिंग का एक सूक्ष्म स्वरूप है, जो मानसिक धरातल पर होता है। हमारे देश में इसकी काफी आवश्यकता है। वह यह समझना है कि पुलिस हमारी है, और हम पुलिस हैं। पुलिस के प्रति, उसके काम के प्रति दृष्टिकोण बदलना कम्युनिटी पुलिसिंग है। हम पुलिस को समझें, कैसे पुलिस और बेहतर कार्य करे, यह सोचे और सुझाव दें। पुलिस के कार्य और उद्देश्य में योगदान दें। हम पुलिस के काम को, काम की स्थितियों को, लक्ष्य को और कानूनी परिवेश को समझकर ही यह काम कर सकते हैं।

बिहार में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत अधिक थी। सरकार की प्रेरणा से पुलिस जवानों और अधिकारियों ने बच्चों को न केवल स्कूल भेजा, वरन कक्षाएं भी लीं। यह पुलिस का काम नहीं था, समुदाय का काम था, मगर पुलिस समुदाय का ही अंग है, इसलिए वह इस काम को कर सकी। इसी तरह, समुदाय महसूस करे कि पुलिस उसका हिस्सा है या समुदाय ही पुलिस है, तो समुदाय का जो भाग पुलिस की वर्दी में नहीं है, वह भी पुलिसिंग कर सकता है। अपराध रोकने और व्यवस्था स्थापित करने के कई काम ऐसे हैं, जिनमें जनता का योगदान हो सकता है। कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिनका कारगर प्रबंधन केवल समुदाय कर सकता है। घरेलू हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या, अभिभावकों के प्रति हिंसा, लैंगिक भेदभाव, बाल विवाह, नशाखोरी, बच्चों के साथ दुव्र्यवहार, बच्चों का यौन शोषण ऐसे मसले हैं, जिनका समाधान समुदाय ही दे सकता है। इनमें पुलिस और जनता की समान भागीदारी हो सकती है।

ग्रामीण, दूरदराज में रहने वाले और कम पढ़े-लिखे लोगों को योजनाओं व सुविधाओं की जानकारी देना भी कम्युनिटी पुलिसिंग है। महिलाओं का सशक्तीकरण और सुरक्षा की दिशा में हर परिवार और हर सामुदायिक संस्था को सहयोग देना चाहिए। महिला छात्रावासों की सुरक्षा और निजी छात्रावासों में सुरक्षात्मक व्यवस्था यथा सीसीटीवी कैमरा लगाने के अलावा स्टाफ के सदस्यों का पुलिस सत्यापन, छात्रावासों के संबंध में स्थानीय पुलिस को जानकारी देना, वहां रहने वालों को पुलिस के फोन नंबर उपलब्ध कराना एक अच्छी सहायता हो सकती है। इसे प्रत्येक छात्रावास के संचालक अच्छी तरह सुनिश्चित कर सकते हैं।

बहुत से लोग ऐसे हैं, जो कभी खुद थाने नहीं गए होंगे, पर वे भी पुलिस के बारे में कुछ न कुछ धारणा रखते हैं। यदि उनकी राय नकारात्मक है, तो मैं चाहूंगा कि वे पुलिस के नजदीक आएं और खुद मूल्यांकन करें। कम्युनिटी पुलिसिंग के लिए किए जाने वाले क्रिया-कलापों के माध्यम से जनता और पुलिस एक-दूसरे को बेहतर समझ सकते हैं और समाज में सुरक्षा व सहयोग का बेहतर माहौल बना सकते हैं। जनता और पुलिस, कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से समन्वय स्थापित करके सुरक्षा सुदृढ़ कर सकते हैैं। इसके लिए जागरूक नागरिकों, स्वैच्छिक समूहों और अन्य संस्थाओं को पहल करनी चाहिए।


Date:02-08-18

The limp arm of the law

Prevention of Corruption (Amendment) Act, 2018 might help some honest public servants, but more than a few offenders will slip through the cracks.

M L Sharma, (The writer is former special director, CBI and former Central Information Commissioner)

The President of India accorded his assent to the Prevention of Corruption (Amendment) Act, 2018, on July 26. The amended law shall come into force as and when it is notified by the Centre. Presumably, the Centre has brought in drastic changes in the principal act to fulfil the ruling party’s electoral promise of ushering in a corruption-free Bharat in the run up to the 2019 parliamentary election. It would, therefore, be appropriate to now examine some of the main aspects of the amended act vis-à-vis its efficacy as an anti-corruption tool.

One of the fundamental features of the amended act is that a new section — Section 17A — has been inserted, which bars an “enquiry or inquiry or investigation” by an anti-corruption agency (CBI included) against a public servant in matters relatable to the discharge of his official duties, without the prior approval of the Centre or the state government, as the case may be, or the disciplinary authority. This provision would apply to all public servants, including the lowest rungs of administration. Importantly, no enquiry is now permissible against an incumbent minister or, for that matter, a former minister, without the prior approval of the President. In case of MPs and MLAs, approval of the Speakers concerned shall be essential.

The amended law thus places anti-corruption agencies at the mercy of the governments/competent authorities concerned, depriving them of any initiative. It may be recalled that such a provision was inserted in the Delhi Special Police Establishment Act (1946) in 2003 with Section 6A — it provided that the CBI shall not conduct an enquiry or investigation into an offence under the Prevention of Corruption Act against an officer of the central government of the level of joint secretary or above without the prior approval of the Centre. This provision was eventually declared null and void by the Supreme Court on May 6, 2014, for being violative of Article 14 of the Constitution.

Huge problems were experienced in the implementation of this provision during the 11 years of its existence in terms of leakage of correspondence between the CBI and the central government, inordinate delays in the response of the Centre to the requests of CBI to accord approval to carry out investigations and the denial of such permission on extraneous/ trivial grounds, etc. The experience of the CBI was not a very happy one. It is to be borne in mind that Section 6A applied only to CBI cases. That too, only in respect of officers of the rank of joint secretary and above, thereby involving a limited number of cases. However, the new Section 17A is applicable to all public servants — past and present — and to all anti-corruption agencies, that is, the CBI and state anti-corruption bureaux. Going by past experience, this provision is likely to give rise to problems such as those discussed above.

By divesting the anti-corruption agencies of initiative in combating corruption, this provision is likely to render them toothless. A former Chief Justice of India famously called the CBI a “caged parrot”. This could well be an exaggeration. The amended provision, however, truly renders not only the CBI but also the state anti-corruption bureaux toothless. Also, criminal misconduct on the part of a public servant now requires more rigorous proof. In fact, quid pro quo is now required to be established to prove criminal misconduct against a public servant. In theory, this looks fine but is fraught with serious consequences. The public servants often show undue favours to third-parties without leaving any evidence of quid pro quo or acceptance of “undue advantage”. Apart from the political class and higher bureaucracy, the top executives of the public sector financial institutions are likely to escape the long arm of the law despite evidence of showing undue favours — because there is no evidence of quid pro quo.

The amended law would protect honest officers (and that is laudable), but the flip side is that many dishonest ones would slip through the cracks because of it. Reckless allotment of natural resources in violation of rules or at throwaway prices to favoured parties by the decision makers, thereby causing huge pecuniary loss to the nation, would escape the law, defeating public justice. Hence, there is a need to dilute the test of quid pro quo for bringing such cases to justice. The amended law also provides for the completion of trial by a special judge within a period of two years, extendable to four years in aggregate. This too is a welcome step. However, the law does not provide as to what will happen if a trial is not concluded in four years. This needs to be addressed. It may, however, be added that the Centre has set up 138 special courts across the country to try CBI cases. At present, 9,237 cases are pending in the CBI courts.

If every special court decides 15 cases in a year (and it is not an unachievable target), the total disposal of the special courts would be about 2,000 cases per year. It should, thus, be possible to knock off the pendency in four to five years time. Finally, the amended law bars the prosecution of retired public servants without the sanction for prosecution, to be accorded by the competent authority. This, again, is a welcome measure and would help avoid frivolous and dilatory prosecutions. It would appear that the amended law is public servant-friendly, concentrates the decision-making power with the government in matters of initiation of enquiries and investigations but deprives the anti-corruption agencies of initiative in combating corruption. It needs a relook.


 

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