04-05-2019 (Important News Clippings)

Afeias
04 May 2019
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Date:04-05-19

How Odisha Learned to Defang Cyclones

ET Editorials

It is commendable that the authorities in Odisha have contained loss of life to low single digits, in the face of severe cyclone Fani, probably the most extreme weather event to hit the Indian coast in the last two decades. But, then, Odisha today is probably India’s most disaster-ready state, and there has been focused attention, for years, on developing manpower, infrastructure and skill sets for disaster preparedness.

Over 11lakh people living in low-lying areas have been evacuated to storm shelters. Other precautionary measures have limited damage to property. Ever since the super cyclone that devastated Odisha in 1999, several policy measures have been taken to cope with, and, indeed, tide over, such extreme events. Some 800 multipurpose cyclone and flood shelters have been built in the coastal districts, and setting up of the Odisha Disaster Management Authority (ODMA) as an autonomous body has been path-breaking.

The ODMA has trained enthusiastic youth volunteers for relief work. It has also raised over 20 units of highly-trained personnel to tackle and manage large-scale disasters. Civil society has been enthused as well to report distress and stay involved for proactive disaster management.

When cyclone Phailin struck in 2013, Odisha evacuated a million people, and when cyclone Hudhud happened a year later, the loss of life was put at two. But we can surely improve. The way ahead is to aim for zero loss of life, even in extreme weather. We also need institutional mechanism by which funding for damaged infrastructure and buildings is readily available. There’s also the requirement for new risk-transfer mechanisms, insurance products like calamity bonds, complete with innovative market design, for speedy reconstruction and rehabilitation of the disaster-affected.


Date:04-05-19

A Lesson in Social Reform From Kerala

Muslim Education Society bans the face veil

ET Editorials

The Muslim Education Society has banned the face veil for girl students on its campuses, which number 150, are located mostly in Kerala and where 15,000 staff members educate 85,000 students in everything ranging from medicine at the postgraduate level, engineering, management, the liberal arts, the sciences, pedagogy and industrial training to the CBSE syllabus. This is a welcome development.

Predictably, a couple of conservative Muslim outfits have opposed the ban, in the name, interestingly enough, of the individual right of girl students to dress as they choose. Kerala’s political parties have not weighed in on the matter so far, but that is only a matter of time. We hope their contribution would be healthy.

The education society’s president explained his decision saying two things: one, that the Society had to discourage dress unacceptable to mainstream society, and, two, that the veil is not Islamic but a cultural invasion that has now become widespread in Kerala. This latter formulation sheds light on Kerala Muslims’ perception of themselves as authentically Islamic regardless of the fashion in the Arab nations — after all, Islam had taken root in Kerala in the seventh century itself. He cited, in defence of his decision, the authority of a Kerala High Court order that gave college managements the right to decide the dress code of their institutions rather than any religious diktat, although a similar ban in 2009 by the chief cleric of Al-Azhar, the pre-eminent centre of Sunni Islamic learning in Egypt, offered itself as theological defence. Reform of custom and tradition should ideally begin from within communities rather than be imposed from the outside.

At a time when a radical strain, tiny in size but frenetic in action, seeks to delegitimise mainstream Muslim outfits as insufficiently Islamic, it is vital for all democrats to buttress the mainstream against such radical pressure, instead of trying to take political advantage of such pressure. Kerala’s Muslims manage to thrive as a minority living largely in harmony with the majority. This has valuable lessons for the majority and the minority in other parts of India.


Date:03-05-19

नफरत का दायरा

संपादकीय

उम्मीद की गई थी कि दुनिया में जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक के साथ-साथ आधुनिक वैज्ञानिक सोच का विकास और विस्तार होगा, वैसे-वैसे अलग-अलग मत को मानने वालों के बीच पसरी संकीर्णताओं की दीवारें टूटेंगी और इंसानी समाज ज्यादा सभ्य और संवेदनशील बनेगा। लेकिन इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर दुनिया की उत्पत्ति के रहस्यों की खोज में बड़ी कामयाबियां दर्ज की जा रही हैं, विज्ञान नई ऊंचाइयां हासिल कर रहा है और दूसरी ओर विश्व भर में समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रतिगामी दिख रहा है। हर अगले दिन विकास के मायने जहां ये होने चाहिए थे कि तकनीकी उपलब्धियों के समांतर हमारा समाज भी ज्यादा सभ्य, संवेदनशील और मानवीय बने, वहां कई बार ऐसा लगता है कि मनुष्य के बीच दूरी पैदा करने वाले विचारों की जड़ें अभी भी काफी मजबूत हैं और तकनीकी उपलब्धियों को नफरत या हिंसा फैलाने का जरिया बना लिया गया है।

हाल के वर्षों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अनेक धर्मों की पहचान के साथ जुड़े समूहों की गतिविधियां जिस तरह की नफरत और उस पर आधारित हिंसा के रूप में सामने आ रही हैं, वह समूचे मानव-समाज के लिए बेहद चिंता की बात हैं। शायद यही वजह है कि लगातार गहराता यह मसला अब संयुक्त राष्ट्र की चिंता में भी शुमार हुआ है। सोमवार को संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंतोनियो गुतारेस ने साफ तौर पर कहा कि पूरी दुनिया में हम देख रहे हैं कि असहिष्णुता और विभिन्न पंथों के अनुयायियों के खिलाफ घृणा आधारित हिंसा बढ़ रही है और यह जहर हर उस व्यक्ति के खिलाफ है, जिसे ‘दूसरा’ समझा जाता है। उन्होंने आगाह किया कि इंटरनेट का कुछ हिस्सा ‘घृणा का हॉटहाउस’ बनता जा रहा है। सवाल है कि सामाजिक विकास के क्रम में हमें जहां ज्यादा से ज्यादा सभ्य और संवेदनशील बन कर अपने बीच इंसानियत के मूल्यों को मजबूत करना चाहिए था, वहां हमारे समाज में यह हालत कैसे हो गई?

गौरतलब है कि हाल ही में श्रीलंका में गिरजाघर सहित कई जगहों पर हुए सिलसिलेवार आतंकी बम विस्फोटों में ढाई सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई। इससे कुछ दिन पहले न्यूजीलैंड में एक मस्जिद पर हुए आतंकी हमले में करीब पचास लोग मारे गए। इसके अलावा भी गिरजाघरों में इसाइयों की हत्या, सिनेगॉग यानी यहूदी प्रार्थना-गृहों में यहूदियों का कत्ल, मस्जिद में मुसलमानों को मार डाला जाना, धार्मिक स्थलों में तोड़फोड़ जैसी घटनाएं हाल के दिनों में ज्यादा होने लगी हैं। भारत में भी एक समुदाय विशेष के प्रति ऐसे दुराग्रह उभरते देखे जा सकते हैं। नफरत के स्तर का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि यहूदियों की कब्रों पर स्वस्तिक का निशान बना दिया जा रहा है, जो एक समय में जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी का प्रिय निशान था। एक समय में नाजीवाद से मुक्ति के लिए दुनिया के बहुत सारे देशों को एक मोर्चा बनाना पड़ा था, ताकि नफरत और हिंसा के विचार से मुक्त एक मानवीय संवेदनाओं वाला समाज बनाया जा सके। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध में नाजीवाद को हराने के आठ दशक बाद भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में धर्म या नस्ल के नाम पर नफरत और हिंसा अगर एक प्रवृत्ति के रूप में हमारे सामने हैं तो यह ठहर कर सोचने का वक्त है कि हमारे बीच इंसानियत और अपनापे के विचार की जगह क्यों सिकुड़ती गई है। दुनिया को तो हम सब यही बताते हैं कि हमारा धर्म या मत सबसे ज्यादा मानवीय है। तो आखिर इसी बीच किसी भी ‘दूसरे’ कहे जाने वाले धर्म और मत के लोगों के प्रति उस असहिष्णुता और नफरत का विकास कैसे हुआ, जो अमानवीयता और हिंसा के सहारे जिंदा रहना चाहता है ?


Date:03-05-19

आपदा के वक्त

संपादकीय

प्राकृतिक आपदा को रोकना मनुष्य के वश की बात नहीं। बस उससे होने वाले नुकसान से बचने के एहतियाती उपाय किए जा सकते हैं। आधुनिक तकनीक और संचार माध्यमों से एक सुविधा यह जरूर हुई है कि आपदा का पूर्व अनुमान लगाना संभव हो गया है। इससे समय रहते लोगों को सावधान रहने और आपदा प्रबंधन की तैयारी में मदद मिली है। चक्रवाती तूफान फानी से पार पाने के लिए ऐसी तैयारी पूरी दिख रही है। बंगाल की खाड़ी में करीब दो सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चल रही हवाओं ने चक्रवाती तूफान का रूप ले लिया। इससे भारत के पूर्वी तट को भारी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई गई। इसलिए पश्चिम बंगाल, ओड़ीशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों में अतिरिक्त सतर्कता बरतने के निर्देश दे दिए गए। आपदा प्रबंधन की तमाम तैयारियां कर ली गर्इं। इस तूफान के अधिक प्रभाव में आने वाले क्षेत्रों में आपदा प्रबंधन के लिए निर्वाचन अयोग ने आदर्श आचार संहिता में छूट भी दे दी। इस तरह लोगों को जान के खतरे से बचाने के लिए सराहनीय तैयारियां की गई हैं। मगर इससे संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों को पहुंचने वाले नुकसान को कितना रोका जा सकेगा, अभी दावा नहीं किया जा सकता।

जिन इलाकों में फानी से भारी नुकसान का अनुमान है, वहां तो एहतियाती तैयारियां कर ली गई हैं, पर ऐसी आपदाओं का दायरा बहुत विस्तृत होता है। इसका असर दूसरे समीपवर्ती राज्यों पर भी पड़ता है। यह फसल कटने का मौसम है। बहुत सारे किसानों ने अपनी फसलें काट कर खेतों में उनके ढेर लगा रखे हैं। बहुत सारे लोगों ने अनाज की मड़ाई करके बाहर छोड़ रखा है। अभी काफी खेत कटने को हैं। ऐसे में बारिश आने से फसलों को भारी नुकसान पहुंचेगा। यह लगभग हर साल का सिलसिला बन चुका है कि जब किसान फसल काट कर रखता है या फसल कटने को होती है तो मौसम का मिजाज करवट लेता है और किसान की सारी मेहनत पर पानी फेर जाता है। बहुत सारा अनाज बारिश की वजह से सड़ जाता है। फिर ऐसे तूफान से समुद्री इलाकों में बने भवनों, बाग-बगीचों, खेतों, रिहाइशी बस्तियों, मछुआरों के रोजगार को भारी चोट पहुंचती है। पुरी के जिस समुद्र तट पर फानी के टकराने का अनुमान है, वह वैसे भी उग्र है और उसमें उठा उफान कितना नुकसान पहुंचाएगा, अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

प्रकृति का कोप कोई नई बात नहीं है, पर पिछले कुछ सालों में ऐसी आपदाएं अधिक उग्र और थोड़े-थोड़े अंतराल पर दिखने लगी हैं, तो इसकी कुछ वजहें साफ हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से हवाओं का चक्र गड़बड़ हो गया है। इसकी वजह से बेमौसम बारिश और तूफान उठ खड़े होते हैं। पिछले कई सालों से जोर दिया जा रहा है कि दुनिया के सारे देश, खासकर विकसित देश अपने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएं। प्राकृतिक संसाधनों के अतार्किक दोहन पर विराम लगाएं। मगर आर्थिक उन्नति के इस प्रतिस्पर्धी समय में कोई भी अपनी औद्योगिक गतिविधियों को नियंत्रित नहीं करना चाहता। बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाने और नदियों, पहाड़ों, जंगलों की चिंता किए बगैर सड़कों और रिहाइशी कॉलोनियां, बाजार बसाने की जैसे होड़ लगी हुई है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान से बचने के फौरी इंतजाम तो हम कर लेते हैं, पर आपदा को रोकने के इंतजाम करने में नाकाम साबित हो रहे हैं। जब तक इस दिशा में नहीं सोचा जाता, संकट से पार पाना कठिन बना रहेगा।