03-09-2019 (Important News Clippings)
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Date:03-09-19
रिजर्व बैंक से धन लेना सरकार के लिए बहुत फायदेमंद नहीं
ए के भट्टाचार्य
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने विमल जालान समिति की सिफारिशों के आधार पर पिछले सप्प्ताह सोमवार को जो फैसला किया, वह वित्त मंत्रालय में बैठे उन लोगों के लिए निराशाजनक था जो केंद्रीय बैंक के भंडार में से और अधिक राशि मिलने की उम्मीद लगाए बैठे थे। लेकिन इससे भी बड़ी निराशा सरकार का इंतजार कर रही है। पांच महीने बाद जब फरवरी में वह देश का अगला बजट पेश करेगी, तब उसके हाथ यह निराशा हाथ लगेगी। मोदी सरकार को अपनी कार्यशैली के बारे में भी राजनीतिक सवालों का सामना करना पड़ेगा। कई महीनों की माथापच्ची के बाद भी अगर सरकार को आरबीआई से इतनी ही राशि हासिल हो पाई, तो इससे सवाल पैदा होता है कि क्या यह पूरी कवायद सरकार के लिए उल्टी पड़ी ?
जालान समिति का गठन दिसंबर 2018 में किया गया था। समिति को आरबीआई के लिए भंडार का विवेकपूर्ण स्तर तय करना था। यह वह पूंजी है जिसे केंद्रीय बैंक को आर्थिक पूंजी ढांचे के रूप में अपने पास रखना है। सरकार को उम्मीद थी कि नए फॉर्मूले से आरबीआई बोर्ड सरकारी खजाने में ज्यादा पूंजी हस्तांतरित करेगा जिससे सरकार को अपने खर्चों के वित्तपोषण में मदद मिलेगी जो पर्याप्त संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। लेकिन जालान समिति की सिफारिशों ने सरकार को आरबीआई के भंडार का फायदा उठाने की ज्यादा छूट नहीं दी। यह सही है कि केंद्रीय बैंक इस साल सरकार को करीब 1.76 लाख करोड़ रुपये हस्तांतरित करेगा। इसमें से 1.23 लाख करोड़ रुपये की पूंजी आरबीआई की शुद्घ आय से आई है। 2018-19 जुलाई-जून अवधि के दौरान खुले बाजार गतिविधियों से केंद्रीय बैंक को 3 लाख करोड़ रुपये मिले।
शेष 53,000 करोड़ रुपये नए फॉर्मूले के तहत सरकार को हस्तांतरित किए गए ताकि आरबीआई का आपात भंडार उसके बहीखाते का 5.5 फीसदी रखा जा सके। यह समिति द्वारा सुझाए गए फॉर्मूले का न्यूनतम स्तर है। समिति ने आपात भंडार का स्तर 5.5 से 6.5 फीसदी रखने का सुझाव दिया था। 5.5 फीसदी फॉर्मूला लागू करने से पहले आरबीआई का आपात भंडार उसके बहीखाते का 6.8 फीसदी था। इस तरह सरकार को केवल 58,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि हासिल हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार 2018-19 के बजट में पहले ही अंतरिम लाभांश के रूप में आरबीआई से पहले ही 28,000 करोड़ रुपये ले चुकी थी। 2019-20 के बजट में भी पहले ही केंद्रीय बैंक लाभांश के रूप में 90,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जा चुका था।
यानी इतनी माथापच्ची और विवाद के बाद सरकार को जो पूंजी मिली वह देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 0.3 फीसदी है। यह न केवल बढ़ते खर्च को पूरा करने के लिए नाकाफी है बल्कि इससे राजस्व की कमी को भी पूरा नहीं किया जा सकेगा। आगे स्थिति के और खराब रहने की आशंका है। 2020-21 के दौरान आरबीआई की आय उस पूंजी से बहुत कम रहने का खटका है जो उसने 2019-20 में हस्तांतरित की। ऐसे में केंद्रीय बैंक के आपात भंडार में से अतिरिक्त लाभ मिलने की गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि सुझाए गए फॉर्मूले के न्यूनतम स्तर पर पहले ही पहुंचा जा चुका है। आरबीआई बहीखाते के अगले वर्ष 7 से 10 फीसदी तक बढऩे की उम्मीद है, जिससे उसे अपनी आय में से ज्यादा पूंजी आपात भंडार में हस्तांतरित करने पड़ेंगे ताकि इसे बहीखाते के 5.5 फीसदी के स्तर पर रखा जा सके। करीब 6.6 लाख करोड़ रुपये के मुद्रा और स्वर्ण भंडार पर हाथ नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि जालान समिति के मुताबिक इस पूंजी का अन्यत्र इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। अगले साल सरकार को आरबीआई से मिलने वाली पूंजी में भारी गिरावट आएगी जिससे उसकी वित्तीय स्थिति पर बुरा बसर पड़ेगा।
इससे यह सवाल पैदा हो सकता है कि सरकार ने केंद्रीय बैंक के भंडार से ज्यादा पैसा लेने के लिए अपनी प्रतिष्ठा और राजनीतिक पूंजी को गंवा दिया। सबसे पहले फरवरी 2016 में पेश आर्थिक समीक्षा में आरबीआई से ज्यादा पूंजी हस्तांतरण की मांग की गई थी। एक साल बाद 2017 की आर्थिक समीक्षा में एक बार फिर यह मांग दोहराई गई। इसके पीछे यह तर्क दिया गया था कि इससे सरकार को बैंकों के पुनर्पूंजीकरण में मदद मिलेगी और सरकार का कर्ज कम होगा। अगले साल फिर वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने यह मुद्दा उठाया जबकि आरबीआई गवर्नर ऊर्जित पटेल ने इस बारे में अपनी आपत्तियों के बारे में सरकार को बता दिया था।
आखिरकार, सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के तहत सरकार ने अक्टूबर 2018 में आरबीआई को एक सलाह जारी करके उसके आर्थिक पूंजी ढांचे पर विचार-विमर्श की मांग की जिससे जालान समिति का गठन हुआ। आरबीआई बोर्ड ने 19 नवंबर, 2018 की बैठक में इस समिति के गठन का फैसला किया। ऊर्जित पटेल ने 11 दिसंबर को अपने पद से इस्तीफा दिया। जालान समिति की कई बैठकें हंगामेदार रहीं। सरकार के प्रतिनिधि ने समिति की सिफारिशों पर असहमति जताते हुए हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। इस सरकारी प्रतिनिधि का किसी अन्य मंत्रालय में तबादला होने के बाद समिति ने आनन फानन में अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया और इसे आरबीआई को सौंप दिया। आरबीआई बोर्ड ने 26 अगस्त को इसे मंजूरी दे दी।
लेकिन इसका अंतिम परिणाम सरकार के लिए बहुत संतोषजनक नहीं हो सकता। आरबीआई के आर्थिक पूंजी ढांचे को नए सिरे से परिभाषित करने की कवायद और पटेल के इस्तीफे से सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच रिश्तों में पहले ही खटास आ गई थी। अब आगे सरकार की हताशा और बढ़ेगी क्योंकि इतनी माथापच्ची के बावजूद उसे आरबीआई से अपने खजाने में आने वाली पूंजी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में कोई मदद नहीं मिली।
Date:03-09-19
एनएचएआई का संकट
संपादकीय
ऐसी रिपोर्ट हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) का हद से ज्यादा एवं अनियोजित विस्तार होने और कर्ज का दायरा बढऩे पर चिंता जताई है। सड़क निर्माण क्षेत्र में राजनीतिक जोखिम और निजी ठेकेदारों पर असर डालने वाले कर्ज बोझ को देखते हुए निजी क्षेत्र से इक्विटी मिलनी कम होती जा रही है। ऐसे में एनएचएआई को अपना रुख बदलते हुए राजमार्ग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग, खरीद एवं निर्माण (ईपीसी) मॉडल अपनाना पड़ा है। इससे कर्ज का भारी बोझ पैदा हो गया है जिसका अनुपात इतना अधिक है कि वह समग्र व्यवस्थागत स्थिरता को प्रभावित कर सकता है। कर्ज का दायरा जल्द ही 2.5 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है जिसके बाद केवल ब्याज के मद में ही 25,000 करोड़ रुपये देने पड़ेंगे।
यह कर्ज चुकाने की बात तो भूल ही जाइए, ब्याज का भी भुगतान हो पाना मुश्किल लग रहा है। एसबीआई कैप्स के मुताबिक टोल संग्रह से प्राप्त राजस्व केवल छह फीसदी की वार्षिक दर से ही बढ़ रहा है। बाजार एनएचएआई की बढ़ी उधारी का भार उठाने को तैयार नहीं है। इस उधारी के इस साल 75,000 करोड़ रुपये पहुंच जाने का अनुमान है जो आम बजट में इसके लिए रखे गए 36,700 करोड़ रुपये के प्रावधान से काफी अधिक होगा। इस तरह यह राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) जैसे सरकारी नियंत्रण वाले वित्तीय पूल पर अधिक निर्भर हो चुका है। एनएसएसएफ भी 75,000 करोड़ रुपये की उधारी जरूरत में से 40,000 करोड़ रुपये ही दे सकता है।
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय इन आंकड़ों को लेकर काफी आशावादी नजर आता है। उसका मानना है कि एनएचएआई अब भी एएए रेटिंग वाली संस्था है और उसे अपने कर्ज चुकाने या अधिक उधारी जुटाने में कोई मुश्किल नहीं होगी। मंत्रालय इन बिंदुओं पर काफी हद तक सही भी है। यह भी ठीक है कि वृहद अर्थव्यवस्था एवं रोजगार सृजन में इसकी अहमियत को देखते हए राजमार्ग निर्माण का काम रोका नहीं जा सकता है। फिर भी पीएमओ के अलावा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की चिंताओं पर गौर किए जाने की जरूरत है। जोखिम पूंजी की कमी एवं सीमित बजटीय समर्थन से जूझ रहे एनएचएआई ने भी शायद यह मान लिया है कि विस्तार योजना के लिए पैसे जुटाने को वह मनचाही रकम कर्ज ले सकता है। लेकिन एनएचएआई को अद्र्ध-स्वायत्त गारंटी मिली होने की धारणा ही इसकी क्रेडिट रेटिंग ऊंची होने की वजह है। लिहाजा एनएचएआई की आकस्मिक देनदारियां सरकार के लिए समग्र तौर पर अहमियत रखती हैं, न कि केवल प्राधिकरण या उसके नोडल मंत्रालय के तौर पर। समस्या यह है कि कुल आकस्मिक देनदारियों को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है। जहां रेटिंग एजेंसी इक्रा ने आकस्मिक देनदारी के 63,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया है वहीं आंतरिक अनुमानों के मुताबिक यह तीन लाख करोड़ रुपये भी हो सकता है। उपकर फंडों से मिली राशि भूमि अधिग्रहण लागत से कम ही रही है। जमीन की लागत अब कुल खर्च का करीब एक तिहाई हो चुकी है और गत तीन वर्षों में यह करीब दोगुना होकर तीन करोड़ रुपये प्रति हेक्टेयर हो चुकी है।
अब नया कर्ज लेने के पहले एनएचएआई को अपने लेखांकन को लेकर अधिक पारदर्शिता दिखानी चाहिए। सारे तथ्य पता होने चाहिए जिनमें वृहत्तर पारिस्थितिकी पर कर्ज बोझ के असर की मात्रा भी शामिल है। एनएचएआई के भुगतान रोकने जैसे पुराने साक्ष्यों से इसके व्यवस्था में दूसरी जगह भी फैलने का अंदेशा पैदा होता है। ब्याज अदायगी में आ रही दिक्कतों को भी जोड़ दें तो इससे व्यवस्थागत गतिरोध पैदा हो सकता है। ऋण बाजार पहले से ही आईएलऐंडएफएस के पतन का दुष्परिणाम झेल रहा है लिहाजा समस्या को और गंभीर होने से बचाया जाना चाहिए।
Date:03-09-19
विशेष अदालतों का सीमित असर
यदि उच्च न्यायालयों के स्तर पर त्वरित सुनवाई नहीं होती, तो फिर निचली अदालतों की ओर से दिए जा रहे फैसलों का खास महत्व नहीं
सुरेंद्र किशोर, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से जनप्रतिनिधियों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए देश में विशेष अदालतें गठित हो चुकी हैं। इस आशय का आदेश 2017 में आया था। इस आदेश के तहत गठित अदालतें अपना काम भी कर रही हैं और उनकी सुनवाई में गति भी आई है, लेकिन जब यही मुकदमे हाईकोर्ट में अपील में जाते हैं तो वहां लंबा इंतजार करना पड़ रहा है। दरअसल मुकदमों को वहां अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि उस स्तर पर सुनवाई में प्राथमिकता का अभी कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए निचली अदालतों की तेजी निरर्थक जाती है। क्या उच्च न्यायालयों के स्तर पर भी ऐसे मुकदमों की शीघ्र सुनवाई का प्रबंध नहीं किया जा सकता? ऐसा प्रबंध चाहे तो खुद उच्च अदालतें ही कर सकती है, क्योंकि हाईकोर्ट को कोई अन्य निर्देशित नहीं कर सकता। अगर उच्च न्यायालयों के स्तर पर त्वरित सुनवाई नहीं होती तो निचली अदालतों के स्तर पर विशेष व्यवस्था करने का पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा। बहुत दिनों से यह शिकायत आ रही थी कि जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दायर आपराधिक मुकदमे दशकों लंबित रहते हैं। इस बीच वे बार-बार जनप्रतिनिधि बनते रहते हैं। इससे राजनीति दूषित होती है और प्रशासन पर भी उसका बुरा असर पड़ता है। दूसरी ओर जिन जनप्रतिनिधियों के खिलाफ राजनीतिक कारणों से या द्वेषवश मुकदमे शुरू होते हैं, वे वर्षों तक बदनाम होते रहते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की जल्द सुनवाई पूरी हो जाए तो सिर्फ असली गुनहगारों को छोड़कर सबका भला है। ऐसे शुभ काम में सभी संबंधित पक्षों और खासकर अदालतों को भरसक सहयोग करना चाहिए, लेकिन कई कारणों से ऐसा हो नहीं पाता।
अभी हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की शीघ्र सुनवाई करने की सीबीआई की गुजारिश को मानने से इनकार कर दिया। याद रहे कि 2जी मामले में विशेष अदालत ने 2017 में पूर्व केंद्रीय मंत्री ए. राजा और अन्य को दोषमुक्त कर दिया था। उस निर्णय के खिलाफ सीबीआई ने हाईकोर्ट में अपील कर रखी है। देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 399 पद खाली हैं। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि इन पदों को भरने से अधिक जरूरी काम कोई और हो ही नहीं सकता। ये पद भरे जाने चाहिए, लेकिन इसी के साथ निचली अदालतों की ओर से दिए गए फैसलों का उच्चतर अदालतों द्वारा निस्तारण भी प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। विभिन्न् उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की बड़ी संख्या को देखते हुए किसी न्यायाधीश के लिए यह तय करना कठिन होता है कि बारी से पहले किसी केस की सुनवाई कैसे कर ली जाए, लेकिन वर्तमान और पूर्व सांसदों एवं विधायकों से संबंधित मुकदमों की शीघ्र सुनवाई की जरूरत खुद सुप्रीम कोर्ट बता चुका है। इन जन-प्रतिनिधियों के मामलों के शीघ्र निपटारे से भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण पर काबू पाने में सुविधा होगी। देश की विधायिका में ऐसे प्रतिनिधियों की संख्या समय के साथ बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ अपराध और भ्रष्टाचार के आरोपों में मुकदमे चल रहे हैं।
ध्यान रहे कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड से संबंधित मुकदमे का अंतिम निर्णय अब तक नहीं हो सका है। उनकी हत्या बिहार के समस्तीपुर में 1975 में हुई थी। महत्वपूर्ण मुकदमों में यथाशीघ्र निर्णय से लोगों में न्यायपालिका के प्रति भरोसा बढ़ता है। चारा घोटाले में पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव और अन्य अनेक लोगों को पहली बार 2013 में सजा हुई थी। रांची की विशेष सीबीआई अदालत ने उन्हें सजा दी। उस सजा के खिलाफ लालू प्रसाद ने रांची हाई कोर्ट में अपील कर रखी है, पर वह अपील अब तक विचाराधीन है। इस बीच कुछ अन्य मुकदमों में भी लालू प्रसाद को सजा मिली है। ये मामले भी हाईकोर्ट जाएंगे। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट भी जा सकते हैं। कहना कठिन है कि इस प्रक्रिया में कितने साल लगेंगे? देर से मिला न्याय न्याय नहीं होता, यह कहावत यहां पूरी तरह लागू हो रही है। दरअसल भ्रष्टाचार और अपराध से संबंधित मामलों के त्वरित निपटारे के अभाव में अन्य अपराधियों और घोटालेबाजों का मनोबल बढ़ता जाता है। 2जी घोटाले से संबंधित मुकदमे के शीघ्र निपटारे से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की न सिर्फ साख बढ़ेगी, बल्कि अन्य घोटालेबाजों के हौसले भी पस्त होंगे।
2जी घोटाले ने राजनीति और चुनाव को भी प्रभावित किया है, लेकिन बीच में मामला अटक जाने के कारण सिस्टम के प्रति असंतोष का खतरा बढ़ गया। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर 2जी घोटाले की जांच से क्या मिला? कोर्ट ने आरोपितों को तो दोषमुक्त कर दिया। कम ही लोगों को यह मालूम है कि 2जी का मामला अब भी दिल्ली हाई कोर्ट में विचाराधीन है। सीबीआई ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील कर रखी है। इस मामले में ए. राजा और कनिमोझी को दिल्ली स्थित विशेष सीबीआई जज ओपी सैनी ने 2017 में दोषमुक्त करते हुए कहा था कि कलाइनगर टीवी को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डीबी ग्रुप द्वारा 200 करोड़ रुपए देने के मामले में अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की। याद रहे कि इस टीवी कंपनी का मालिकाना हक करुणानिधि परिवार के पास है। शायद मनमोहन सरकार के कार्यकाल में सीबीआई के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी, लेकिन भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए धारा-165 का प्रावधान किया गया है। आखिर विशेष अदालत ने इस अधिकार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? संभवत: इस सवाल पर हाई कोर्ट में विचार होगा। इस धारा के अनुसार, ‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता लगाने के लिए या उनके उचित सबूत हासिल करने के लिए किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकार से कोई भी प्रश्न पूछ सकता है और किसी भी दस्तावेज को पेश करने का आदेश दे सकता है। किसी भी पक्षकार और उनकी पैरवी करने वालों को ऐसे किसी भी आदेश पर आक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।
इस मौके पर चर्चित चारा घोटाले की भी चर्चा आवश्यक है। अदालत के आदेश पर सीबीआई ने चारा घोटाले की जांच 1996 में शुरू की थी, लेकिन अभी तक केवल लोअर कोर्ट ही इस घोटाले के कुछ मामलों में निर्णय कर सका है। 23 साल बीत जाने के बाद भी यह स्थिति है। कल्पना करें कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचते-पहुंचते और कितने साल लगेंगे? ऐसे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के प्रति आमजन का भरोसा कैसे बढ़ सकता है? पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में सीबीआई ने जिन आरोपितों को कठघरे में खड़ा किया है उनके बारे में दिवंगत मिश्र के परिजन कहते हैं कि असली हत्यारे वे नहीं। सच्चाई जो भी हो, ऐसे मामलों में सुनवाई में देरी का कोई औचित्य नहीं। अपराध व भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों का अंतिम स्तर पर निस्तारण कहीं जल्द होना चाहिए।
Date:03-09-19
एनआरसी के सबक
संपादकीय
असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी की अंतिम सूची से जिस तरह कोई भी पक्ष संतुष्ट नहीं दिख रहा है उसे देखते हुए इस पर हैरानी नहीं कि भाजपा इस सूची का नए सिरे से सत्यापन करने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कह रही है। फिलहाल कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट एनआरसी को लेकर क्या आदेश-निर्देश देता है, लेकिन बेहतर होगा कि उसके फैसले का इंतजार करने के साथ ही इस सवाल का जवाब तलाशा जाए कि आखिर वे करोड़ों बांग्लादेशी कहां खप गए जो घुसपैठ करके असम के विभिन्न इलाकों में आ बसे थे? उनकी ढंग से पहचान नहीं की जा सकी या फिर वे असम से निकलकर देश के दूसरे हिस्सों में जा बसे? साफ है कि कहीं कुछ तो गड़बड़ हुई है।
यह ठीक नहीं कि हजारों करोड़ रुपये खप जाने के बाद जो नतीजा सामने आया वह किसी के गले नहीं उतर रहा है। यह सही है कि एनआरसी की अंतिम सूची के आधार पर अभी किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता, क्योंकि जिनका नाम इस सूची में नहीं है उन्हें अदालत जाने का अधिकार है, लेकिन यह स्पष्टता तो होनी ही चाहिए कि अंतिम तौर पर बाहरी घोषित लाखों लोगों का क्या किया जाएगा? इसमें संदेह है कि उन्हें बांग्लादेश लेने को तैयार होगा। वहां की सरकार यह कह सकती है कि जिन्हें बांग्लादेशी बताया जा रहा है उनके बारे में यह साबित किया जाए कि वे अवैध रूप से भारत में घुसे थे।
आने वाले समय में यह हो सकता है कि बांग्लादेश की आर्थिक हालत में सुधार के चलते तमाम बांग्लादेशी अपने देश लौटना पसंद करें, लेकिन इसके बावजूद भारत को तो इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा कि जिन्हें अंतिम तौर पर भारतीय नागरिक नहीं माना जाएगा उनके अधिकारों में क्या और कैसे कटौती की जाएगी? जो भी हो, यह अच्छा नहीं हुआ कि एनआरसी की लंबी प्रक्रिया किसी नतीजे पर पहुंचती नहीं दिख रही। पता नहीं इसकी तह तक जाया जाएगा या नहीं कि इस प्रक्रिया में कहां क्या खामी रही, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि असम के हालात सीमाओं की चौकसी में लापरवाही का नतीजा हैै।
कम से कम अब तोे यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि एक भी विदेशी हमारी सीमा में न घुसने न पाए। यह इसलिए बेहद जरूरी है, क्योंकि हजारों रोहिंग्या भारत में घुसकर जम्मू तक जा बसे और फिर भी किसी को खबर नहीं हुई। नि:संदेह उन तौर-तरीकों को भी सुनिश्चित करने की सख्त जरूरत है जिनसे यह आसानी के साथ तय हो सके कि कौन भारतीय है और कौन बाहरी ?
Date:03-09-19
भारत में हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार
वैश्विक तौर पर कुपोषण से बचने के लिेए कई योजनाएं चल रही हैं लेकिन इस समस्या में कोई सुधार नहीं हो रहा है।
रीतिका खेड़ा , लेखक: अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी, भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद
आजादी के सत्तर साल बाद आज अगर देश के लोगों की खाद्य सुरक्षा और पोषण सुनिश्चित करने को लेकर देशव्यापी अभियान चलाने की जरूरत पड़ रही है तो जाहिर तौर पर कई सवाल लोगों के दिमाग में कई सवाल घूम रहे होंगे। आखिर किसी विकासशील देश में पोषण की इतनी अहमियत क्यों है ? और इतने सालों के दौरान हम इसे कर क्यों नहीं पाए। पूरी दुनिया में खाद्य सुरक्षा, पोषण और स्वास्थ्य के लिए सरकारें कार्यरत हैं। अमेरिका दुनिया के सबसे सक्षम देशों में से है, फिर भी वहां ‘फूड स्टैंप्स’ की योजना चल रही है। जापान, स्वीडन जैसे विकसित देशों में स्कूलों में मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम भी चलता है। अत: इस तरह की योजनाओं का चलना, केवल हमारी विफलता की निशानी नहीं है, यह सरकार की जिम्मेदारी है, और लोगों का हक है। जब तक दोनों- लोग और सरकारें- रहेंगे, तब तक ऐसे कार्यक्रम चलते रहेंगे।
भारत में हर तीसरा बच्चा है कुपोषण का शिकार
इसका अर्थ यह नहीं कि हमें जो कुछ करना चाहिए था, किया। भारत में कुपोषण की समस्या इतनी बड़ी है, कि इससे निपटना आसान नहीं। आज लगभग हर तीसरा बच्चा कुपोषित है और महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) अभी भी 40 फीसद के आसपास है। दरअसल भारत में पिछले 70 साल में पोषण पर जरुरत से काफी कम खर्च किया गया है। जो खर्च हुआ, उसका जोर खाद्य सुरक्षा पर रहा। जन वितरण प्रणाली में ज्यादातर राज्यों में केवल गेहूं या चावल ही दिया जाता है, जिससे ज्यादा से ज्यादा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। पोषण सुरक्षा प्राथमिकता नहीं बन सकी।
किए जा रहे हे हैं ये प्रयास
सरकारी नीतियों में जिस पर जोर देना चाहिए था उसमें मां के स्वास्थ्य, छोटे बच्चों के पोषण और संबंधित जरूरतें जैसे मसले शामिल हैं। कुपोषण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता है। मां के कुपोषित होने से बच्चे कुपोषित पैदा होंगे। साथ ही, कुपोषण के लिए मां के गर्भ से लेकर बच्चे के जीवन के पहले 1000 दिन सबसे अहम होते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कुपोषण से लड़ने में छोटे बच्चों और माओं पर ध्यान दिए जाने वाली समझ व्यापक रूप से हमारी नीतियों में पिछले 15 साल से ही दिखने लगी है। हालांकि कई मसलों पर अभी ध्यान देने की जरूरत है। जैसे पहले 6 महीनों में केवल स्तनपान सुनिश्चित कराना।
चलाई जा रही ये योजनाएं
छोटे बच्चों पर केंद्रित मुख्य योजना है, समेकित बाल विकास योजना, जिसकी सेवायें आंगनवाड़ी द्वारा पहुचायी जाती हैं। आंगनवाड़ियां कुपोषण पर सीधा वार करने में सबसे असरदार योजना हो सकती है। उनकी स्थिति में भी बहुत सुधार आया है। जहां रोज खाना मिलना तो दूर, गांव की आंगनवाड़ी कहाँ है लोग यह भी नहीं जानते थे, आज कई राज्यों की आंगनवाड़ियां प्री-प्राइमरी स्कूल बनने की कोशिश में हैं। दक्षिण के राज्य पहले से ही सक्रिय थे, अब ओडिशा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी छोटे बच्चों पर खर्च बढ़ाया गया है। इन राज्यों में अंडा, दूध, चिकी इत्यादि पौष्टिक आहार देने की पहल हुई है।
दो दशकों में कितना आया सुधार
पिछले दो दशक में जो सुधार आया है, वह राज्यों की मुहिम रही है। केंद्र से अभी भी समर्थन की कमी है। चाहे वह धनराशि की रूप में हो या योजना में लचीलेपन की। एक खतरा यह है कि मां-बच्चे के नाम पर जो खर्च हो रहा है वह उन पर कम, निजी कंपनियों की जेब में जाएगा। संप्रग-एक सरकार के समय से कंपनियों की कोशिश रही है कि गर्म खाने की बजाय प्री-पैक्ड खाना दिया जाए। केंद्र सरकार पोषण अभियान चला रही है जिसमें खर्च और ध्यान स्मार्टफोन और सॉफ्टवेयर द्वारा रिकॉर्ड-कीपिंग पर है। बच्चों पर नहीं। इस प्रवृत्ति को अविलंब समझने-परखने और उजागर करने की जरूरत है ताकि कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर हो रहा खर्च जन कल्याण पर केंद्रित रहे, निजी मुनाफे में न व्यय हो जाए।
Date:02-09-19
कालेधन का सच
संपादकीय
आखिरकार स्विस बैंक में जमा भारतीय नागरिकों के कालेधन की जानकारी साझा करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। विदेशी बैंकों में खाता खोल कर गैरकानूनी तरीके से धन जमा कराने वालों के नामों का पता लगाने और वह धन वापस भारत लाने की मांग उठती रही है। इसे लेकर बाबा रामदेव ने व्यापक आंदोलन भी चलाया था। भाजपा ने भी पिछले लोकसभा चुनाव में विदेशी बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने का मुद्दा उठाया था। मगर अभी तक इस दिशा में कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल पाई थी। अब स्विट्जरलैंड और भारत के बीच हुए समझौतों के तहत दोनों देशों के बीच बैंक सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रक्रिया इस महीने से शुरू हो गई है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड यानी सीबीडीटी ने इसे अहम कामयाबी बताया है। हालांकि स्विस बैंक में भारतीय नागरिकों के खातों की जानकारी हासिल करने के लिए लंबे समय से प्रयास किया जा रहा था, पर इस बैंक के नियमों के मुताबिक इसके खाताधारकों के बारे में जानकारी साझा नहीं की जा सकती। यहां तक कि वहां की सरकार भी उस पर ऐसा करने का दबाव नहीं डाल सकती थी। पर स्विट्जरलैंड सरकार ने कालेधन के मुद्दे को गंभीर मानते हुए नियमों में बदलाव कर बैंक सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रक्रिया का रास्ता खोल दिया।
दरअसल, स्विट्जरलैंड सहित कई देशों के बैंकों में खाता खोलना बहुत आसान है। किसी भी देश का कोई भी नागरिक आनलाइन अपना खाता खोल सकता है। ये बैंक अपने ग्राहकों के नाम-पते वगैरह को गोपनीय रखते हैं। वहां की सरकारों ने ही इन बैंकों को यह स्वायत्तता दी है। इसलिए दुनिया के तमाम देशों के ऐसे लोगों के लिए ये बैंक अपना कालाधान छिपाने के सबसे मुफीद ठिकाने बनते गए। इन बैंकों का कारोबार भी इसी तरह के धन से चलता है। भारत के भ्रष्ट अधिकारियों, राजनेताओं और कारोबारियों आदि के लिए भी ये बैंक एक प्रकार से सुरक्षित तिजोरी साबित होते रहे हैं। यह छिपी बात नहीं है कि भारत अन्य मामलों में भले निचले पायदान पर रहता आया हो, पर भ्रष्टाचार के मामले में कुछ अव्वल देशों में शुमार है। रिश्वत और कर चोरी करके जमा काले धन को लोग स्विस बैंक जैसे विदेशी बैंकों में जमा कराते रहे हैं। स्विस बैंक में जमा कुल धन का 0.07 फीसद पैसा अकेले भारतीय नागरिकों का है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूसरे विदेशी बैंकों में कितना भारतीय काला धन जमा होगा।
हालांकि स्विस बैंक इससे पहले भी सौ भारतीय नागरिकों की पहचान साझा कर चुका है, जिनके स्विस बैंक में खाते हैं। अब इस बैंक के सभी भारतीय खाता धारकों के बारे में जानकारी मिल सकेगी। जिन लोगों ने पिछले साल अपने बैंक खाते बंद करा दिए, उनके बारे में भी जानकारी मिल सकेगी। लंबे समय से इस पर परदा पड़ा हुआ था, अब वह उठ जाएगा। मगर अभी सरकार के सामने बड़ी चुनौती यह है कि स्विस बैंक में जमा काले धन को वापस कैसे लाया जाए। स्विट्जरलैंड सरकार बैंकों पर शायद ही दबाव बनाए कि वे भारतीय नागरिकों के पैसे भारत सरकार को सौंप दें। फिर भी केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को स्विस बैंक से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई का आधार तो बनेगा। वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक लगाने को प्रतिबद्ध है, इसलिए कर चोरी और रिश्वत आदि से जमा धन विदेश भेजने वालों पर कड़े कदम उठाने की उम्मीद स्वाभाविक है।
Date:02-09-19
नागरिकता पर सवाल
संपादकीय
असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की आखिरी सूची भले जारी हो गई हो, लेकिन नागरिकता संबंधी विवादों का मूल वहीं का वहीं है। अब भी लाखों लोगों के सामने यह सवाल है कि वे भारत के नागरिक हैं या नहीं। इसलिए बुनियादी सवाल यही बना हुआ है कि इस अंतिम सूची में जो उन्नीस लाख लोग अब छूट गए हैं, क्या वे विदेशी हैं, घुसपैठिए हैं या भारतीय नागरिक नहीं हैं? जब तक वे विदेशी पंचाट के समक्ष अपने भारतीय नागरिक होने के दस्तावेजी सबूत पेश नहीं कर देते तब तक उनकी स्थिति क्या होगी? पिछले साल जुलाई में जब एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी हुआ था तो उसमें से चालीस लाख से ज्यादा लोगों के नाम गायब थे। यानी साल भर में करीब बीस लाख और लोगों को एनआरसी में शामिल कर उन पर से विदेशी होने का कलंक मिटाया गया। दरअसल, जिस तरह से एनआरसी बनाने और उसे अद्यतन करने का काम हुआ है उसमें व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है कि सही मायने में किसी घुसपैठिए की पहचान की जा सके। इसीलिए अंतिम सूची के जारी होते ही इसकी आलोचना शुरू हो गई। आसू से लेकर सारे दल और कई संगठनों ने इसकी प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं।
असम के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है। यह राज्य भारत की आजादी के बाद से ही घुसपैठियों की समस्या से जूझ रहा है। इसीलिए 1951 में पहली बार राज्य में एनआरसी की शुरुआत की गई थी, ताकि बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) से आने वाले घुसपैठियों का पता लगा कर वापस उनके देश के हवाले किया जा सके। हालात तब बिगड़े जब बांग्लादेशियों को खदेड़ने के लिए सातवें दशक के आखिर में असम में हिंसक आंदोलन शुरू हुआ और असम समझौते के बाद बंद हुआ। तभी यह तय हुआ था कि 1971 के बाद असम में आने वाले को बाहरी, विदेशी माना जाएगा। लेकिन एनआरसी की लंबी-चौड़ी कवायद बता रही है कि ऐसी सूचियों से यह फैसला हो पाना मुमकिन नहीं है कि कौन घुसपैठिया है और कौन नहीं। हालांकि सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन उन्नीस लाख लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं वे विदेशी नहीं माने जाएंगे, उन्हें एक सौ बीस दिन के भीतर विदेशी पंचाट के समक्ष पक्ष रखने का मौका मिलेगा।
एनआरसी पर जैसी त्रुटियां आई हैं, उससे साफ है कि इसे बनाने में भारी लापरवाही तो हुई ही है, साथ ही राजनीतिक स्तर पर भी इसे प्रभावित करने की कोशिशें होती रही हैं। एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम सूची में हैं तो कुछ के नहीं। इनमें ज्यादातर लोग तो वे हैं जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर और वंचित तबके से हैं और इन्हें नागरिकता के दस्तावेजों की जानकारी तक नहीं है। इन्हें ही हिरासत केंद्रों में रखा गया है। इसलिए ऐसे लोगों में खौफ पैदा होना स्वाभाविक है। सवाल है कि अगर घुसपैठियों का पता लग भी जाता है तो उन्हें कैसे उनके देश भेजा जाएगा। ऐसे में एनआरसी जैसी कवायद पर सवाल क्यों नहीं खड़े होंगे !
Date:02-09-19
कालाधन पर प्रहार
संपादकीय
भारत और स्विट्जरलैंड के बीच बैंकिंग सूचनाओं के स्वत: आदान-प्रदान के समझौते के एक सितम्बर से प्रभावी हो जाने के साथ ही भारतीयों के स्विस बैंक खातों के रहस्य पर पड़े पर्दे के उठने की संभावना है। इससे यह पता चल सकेगा कि वहां किन-किन भारतीयों के कितने पैसे जमा हैं? जिन लोगों ने पिछले साल वहां अपने खाते बंद करा लिये थे, वे भी इस व्यवस्था के तहत बच नहीं पाएंगे, क्योंकि उनकी जानकारी भी भारत सरकार को मिल जाएगी। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड का मानना है कि अब स्विस बैंक से जुड़ी गोपनीयता का दौर समाप्त हो जाएगा। इसीलिए कालेधन के खिलाफ लड़ाई में इस कदम को काफी अहम माना जा रहा है। लेकिन स्विस बैंक की ओर से अपने कामकाज में पारदर्शिता लाने की प्रक्रिया पहले ही शुरू की जा चुकी थी। यही कारण है कि इसी साल स्विस सरकार ने वहां कालाधन रखने वाले दर्जनों भारतीय कारोबारियों के नाम उजागर किए थे और उन्हें नोटिस भेजा था। हालांकि भारत सरकार द्वारा वित्तीय एवं कर संबंधी गड़बड़ी के सबूत पेश करने पर स्विस सरकार वहां भारतीयों के बैंक खाते का ब्योरा देती थी, लेकिन इस नई व्यवस्था के बाद यह सूचना उसके पास स्वत: पहुंच जाएगी। देखना है कि इससे कालाधन को उजागर करने में कितनी सफलता मिलती है, मगर इससे ज्यादा उम्मीद पालना भी ठीक नहीं होगा। दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में स्विस बैंक में भारतीयों के काफी कम पैसे जमा हैं और इसमें भी उतार-चढ़ाव दिख रहा है। स्विस राष्ट्रीय बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारतीयों द्वारा वहां जमा पैसों के हिसाब से भारत का स्थान 74वां है। नई उभरती अर्थव्यवस्था वाले ब्रिक्स के पांच देशों में भारत सबसे निचले स्थान पर है। इसलिए इस पर ज्यादा हर्षित या शोर मचाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। तय यह है कि विदेशों से ज्यादा कालाधन देश के भीतर ही है। हालांकि काला धन पर प्रामाणिक आंकड़ों का अभाव है, लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक 90 प्रतिशत से ज्यादा कालाधन देश के भीतर है। ऐसे में अगर स्विस बैंक से पूरी जानकारी मिल भी जाए, तो उससे कालाधन के खिलाफ लड़ाई पर खास फर्क नहीं पड़ेगा। फिर भी यह स्वागत योग्य है। देश में छिपे कालाधन पर कार्रवाई और तेज करने की जरूरत है। यह एक कारण बताया जाता है, जिससे प्रेरित होकर मोदी सरकार ने नोटबंदी की घोषणा की थी।
Date:02-09-19
ऑनलाइन का पंथ
संपादकीय
अगर आप फेसबुक पर हैं या ट्विटर के संदेशों को गौर से देखते हैं या फिर आपके स्मार्टफोन पर वाट्सएप के संदेश आते-जाते रहते हैं, तो आप इन जगहों पर की जाने वाली पोस्ट या भेजे जा रहे संदेशों के राजनीतिक रुझान को देखें। आप पाएंगे कि वहां आपको बहुतायत में उग्र किस्म का राष्ट्रवाद दिखेगा। हर धर्म के प्रचारक और कट्टर विरोधी भी मिलेंगे। गो-रक्षा के लिए मर-मिटने वाले भी दिखेंगे और बच्चा चोरी की बातें फैलाने वाले भी। लेकिन वहां आपको महिलाओं और मजदूरों के अधिकारों की बात करने वाले बहुत कम दिखेंगे। कृषि संकट और किसान आत्महत्याओं की खबरें जब हर तरफ होंगी, तब भी सोशल मीडिया में इनकी चर्चा बहुत कम ही दिखेगी। किताबी भाषा में कहें, तो जिन्हें दक्षिणपंथी कहा जाता है, सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता सबसे ज्यादा दिखती है, जबकि वामपंथी कहलाने वाले लोग उस तरह से सक्रिय नहीं दिखते। माना जाता है कि कोई भी माध्यम आमतौर पर पंथनिरपेक्ष होता है, अगर यह सच है, तो फिर ऐसा क्या है कि एक तरह की राजनीतिक सोच सोशल मीडिया पर तेजी से फल-फूल रही है, जबकि दूसरी तरह की सोच उसकी आक्रामकता से अपना बचाव करती हुई ही दिख रही है।
फ्रांस की समाजशास्त्री जेन शेरिडी ने पिछले दिनों इसका अध्ययन किया, तो काफी दिलचस्प नतीजे सामने आए। उन्होंने अपने शोध के लिए अमेरिका के नॉर्थ कैरोलिना को चुना। यह ऐसा राज्य है, जहां 2008 के चुनाव में बराक ओबामा बहुत मामूली अंतर से जीते थे और अगले चुनाव में तो इस राज्य में ठीक-ठाक अंतर से हार गए थे। शेरिडी ने पाया कि इन नतीजों में एक बड़ी भूमिका दक्षिणपंथी संगठनों की ऑनलाइन सक्रियता ने निभाई। इन संगठनों ने न सिर्फ ऑनलाइन माध्यम को गंभीरता से लिया, बल्कि बड़े पैमाने पर इसमें संसाधन भी खपाए। इतना ही नहीं, इसके लिए सांगठनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी तैयार किया। वे इस सोच पर काम कर रहे थे कि परंपरागत मीडिया उनकी बातों को दबा देता है और अब उन्हें ऑनलाइन स्वतंत्रता का फायदा उठाना चाहिए। वे अपनी पोस्ट में भी इसी स्वतंत्रता की बात करते रहे और बाद में यह पाया गया कि उन्हें इसके लिए ज्यादा लाइक मिले, उनके संदेश ज्यादा फॉरवर्ड हुए, मुकाबले उनके, जो विभिन्न वर्गों के लिए अधिकार की बात कर रहे थे। हालांकि ऑनलाइन माध्यम जब आकार ले रहा था, तब अरब स्प्रिंग और ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट जैसे कुछ आंदोलन इसी माध्यम से खड़े हुए थे और कुछ लोगों ने अनुमान लगाना शुरू कर दिया था कि इंटरनेट वामपंथ की वापसी का नया रास्ता तैयार करेगा। लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उल्टा ही।
यह ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर तुरंत किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता और यह ज्यादा पड़ताल की मांग करता है। प्रिंटिंग व प्रसारण के युग में वामपंथ ने इन माध्यमों पर ठीक-ठाक पकड़ बनाई थी, हालांकि वहां भी बाजी अंत में मध्यमार्गियों के हाथ ही रही थी। हम कह सकते हैं कि यह अभी ऑनलाइन युग का शैशव काल है, अंतत: बाजी किसके हाथ लगेगी, यह भविष्यवाणी अभी मुमकिन नहीं है। आज के समय का बड़ा सच सिर्फ इतना है कि अभासी दुनिया में दक्षिणपंथ ने वामपंथ को काफी पीछे छोड़ दिया है।
Date:02-09-19
A new ethics for a sustainable planet
Viewing the transnational challenge of climate change through the narrow lens of nationalism will only spell disaster
Sujatha Byravan is a scientist who studies science, technology and development policy
Brazil’s Amazon forests are ablaze with dozens of fires, most of them set intentionally by loggers and others seeking greater access to forest land. How long the fires can continue is unclear. But at this scale, they are paving the way for a global climate catastrophe. While European leaders and civil society in many places are organising protests to oppose policies that encourage the fires, the Brazilian President Jair Bolsonaro has stated that they are an internal matter and that they were actually started by the very non-governmental organisations who are now shouting “fire”.
The American President Donald Trump has withdrawn from the Paris Climate Agreement stating that it is against the national interests of the U.S. Across the Atlantic, British Prime Minister Boris Johnson, a vocal critic of European integration, has spoken from both sides of his mouth on climate change, receiving funding from climate science denial groups while saying that he would lobby the U.S. to take climate change more seriously.
Meanwhile, many cities in Europe and elsewhere have seen high temperatures never before experienced. Heat waves have also accelerated melting of glaciers in Greenland at a rate that was not anticipated by scientific models until much later this century.
The burning of the world’s largest forest reserves, the withdrawal of the world’s leading polluter from a major international treaty and the U.K.’s isolationist policies may appear to be the triumph of nationalist ideology. But these actions have consequences that far transcend national boundaries and impact all creatures that share life on the planet.
While energy and transport are mainly responsible for the accumulation of greenhouse gases (GHGs) in the atmosphere, changes in land use patterns too have made significant contributions. Deforestation, industrial agricultural systems and desertification are major drivers of climate change. Agriculture, forestry and other land use activities accounted for a little less than a quarter (23%) of the total net anthropogenic emissions of GHGs between 2007-2016.
The Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) recently brought out a special report on Climate Change and Land that covers desertification, land degradation, sustainable land management, food security and greenhouse gas fluxes in terrestrial ecosystems. Very wide in its scope, the report makes it clear that unless land is managed in a sustainable manner, the diminishing chance that humanity will survive climate change will become smaller still.
Land management
Land is part and parcel of people’s lives. It provides food, water, livelihoods, biodiversity and a range of other benefits from its ecosystems. Land use is indeed interlocked with several aspects of life on earth. For example, decades of poor land management in the agricultural system are coming back to haunt us. Soils have become depleted with heavy use of chemicals, farms have few or no friendly insects, monoculture has led to a reduction in the use of indigenous crop varieties with useful characteristics, groundwater is depleted and polluted farm runoffs are contributing to contaminated water bodies while destroying biodiversity. We have created a system that no longer supports agricultural households, and the stresses have led to farmer suicides.
Managing land better for farming would entail implementing more sustainable agricultural practices. It would mean, for instance, reducing chemical input drastically, and taking the practice of food production closer to natural methods of agroecology, as these would reduce emissions and enhance resilience to warming. The report calls for avoiding conversion of grassland to cropland, bringing in equitable management of water in agriculture, crop diversification, agroforestry and investment in local and indigenous seed varieties that can withstand higher temperatures. It also recommends practices that increase soil carbon and reduce salinisation.
Establishing sustainable food systems means reducing food waste, which is estimated to be a quarter of the food produced. It also necessitates eating locally grown food and cutting meat consumption. Alongside these changes, it is important to put an end to deforestation, while conserving mangroves, peatland and other wetlands.
To make these significant changes and reduce inequality and poverty, land use policy should incorporate better access to markets for small and marginal farmers, empower women farmers, expand agricultural services and strengthen land tenure systems. Sustainable land management can reduce multiple stressors on ecosystems and societies. It will also help societies adapt better to warmer climates and reduce their greenhouse gas emissions.
Fresh template needed
In thinking about how to address the transnational challenges of climate change and land, the narrow lens of nationalism is no longer serving us. We need a new planetary ethics that supports alternative systems for the future, for a sustainable earth. It is one that cultivates the growth of ecological sensibilities, supports pluralism, enhances quality of life, shifts values away from consumerism and creates new identities and cultures that transcend conventional boundaries.
A plea for such values is not new, and there have been successful civil society movements that have transcended borders, for example, La Via Campesina, The Transition Network, and Ecoregionalism. More recently, Fridays for Future and Fossil Fuel Divestment are part of such evolving sensibilities. How we move forward with these successes to create a sense of solidarity across boundaries, instead of building fortress worlds, will contribute to the path we build.
In the Great Transition Initiative, Paul Raskin has said that seeing our place as part of the web of life, instead of at its centre, requires a Copernican shift in world views. Just as Copernicus changed the perception of the earth from the centre of the universe to being one among many planets, so too will our sensibilities have to shift. If we fail to see our place as being part of the planet, we may well go down with it.