03-07-2019 (Important News Clippings)

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03 Jul 2019
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Date:03-07-19

Don’t hug Huawei

Beware of allowing Chinese firms entry into India’s 5G market

TOI Editorials

Principal scientific adviser to the government K Vijay Raghavan, who also heads a high-level committee on 5G, has opined that India should proceed with 5G trials with all vendors straightaway, but must drop Chinese companies from the list. The government must heed Raghavan. What should ring alarm bells is that Huawei, Chinese telecom giant which is a top 5G contender, has close ties to the People’s Liberation Army and the Chinese Communist Party. Indeed all Chinese companies are supposed to have Party cells embedded in them. There is hardly much separation between Chinese private companies and the state – all of whom work together as China Inc under the Chinese state capitalist model.

What must be clearly understood by Indian policy makers is that 5G is not just an economic but also a strategic decision with large security ramifications. 5G will be the backbone of tomorrow’s digitally enabled industrial infrastructure, and it is also uniquely vulnerable to cyberwarfare due to which security safeguards must be built in. India has opposed the China-led Belt and Road Initiative (BRI) as the latter intrudes on its sovereignty. But China now plans to take BRI into the virtual dimension by building a ‘digital silk road’ of 5G enabled systems – built to Chinese standards – that will knit together BRI infrastructure.

Being part of such a virtual network could lay India open to cyberwarfare and intrude on its sovereignty far more drastically than any physical ‘silk road’ infrastructure. Consider a future Doklam standoff-like scenario where Beijing threatens to cripple India’s industrial infrastructure unless New Delhi meets all its demands. Or another one: Chinese intelligence services snoop on Indian institutions and individuals and pass the information on to Pakistan’s ISI. These entirely plausible scenarios are good enough reason to deny Chinese firms entry into 5G.


Date:03-07-19

विविधता को कुचल रही है यूपीएससी

यूपीएससी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करता है। परीक्षा में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रश्नों के उत्तर कितने सही और सटीक तरीके से दिए गए।

डॉ. विजय अग्रवाल, (लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)

अब जबकि देश में एक बार फिर से हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति सकारात्मक विचार एवं संवेदनशीलता रखने वाली मोदी सरकार आ गई है तब यह उम्मीद की जाती है कि भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए सभी आवश्यक कदम भी उठाए जाएंगे। इसकी जरूरत इसलिए महसूस हो रही है, क्योंकि भारतीय प्रशासनिक सेवा उत्तीर्ण करने वाले भारतीय भाषा भाषी अभ्यर्थियों की संख्या में गिरावट आती दिख रही है। यह गिरावट कोई शुभ संकेत नहीं। गिरावट के कारणों की तह तक जाने और उनका निवारण करने की आवश्यकता है।

पिछले दस वर्षों से सिविल सेवा परीक्षा में, जो लोगों के बीच आइएएस की परीक्षा के नाम से ज्यादा लोकप्रिय है, धीरे-धीरे दो बड़े बदलाव आते रहे। इन बदलावों ने अब एक स्थायी रूप ले लिया है। पहला तो यह कि इस परीक्षा के जो द्वार सन् 1979 से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोले गए वे अब एक बहुत छोटे से झरोखे में तब्दील हो गए हैैं। सिविल सेवा परीक्षा अंग्रेजीमय हो चुकी है। गैर-अंग्रेजी भाषा से चयनित होने वाले परीक्षाथियों की संख्या जो आठवें दशक में लगभग 40-50 प्रतिशत के आसपास हुआ करती थी अब अनुमानत: पांच प्रतिशत के आसपास रह गई है। जब आप सफल परीक्षार्थियों की अकादमिक पृष्ठभूमि देखेेंगे तो आप भ्रम में पड़ जाएंगे कि कहीं यह इंजीनियरिंग प्रशासनिक सेवा तो नहीं बन गई है। सफल अभ्यर्थियों में जिसे देखो वही इंजीनियर।

अब यह प्रवृत्ति राज्यों की सिविल सेवा परीक्षाओं में भी दिखाई देने लगी है। ऐसी स्थिति में गैर-अंग्रेजी एवं गैर- इंजीनियर युवाओं का चिंतित होना स्वाभाविक है। उनकी चिंता को महसूस करने के बाद मैंने सूचना अधिकार के जरिये इस बारे में सूचना एकत्र कराने की कोशिश की। इसके लिए संघ लोकसेवा आयोग को जो आवेदन किया गया उसमें दो मुख्य बिंदुओं पर जानकारी मांगी गई। पहली यह कि सिविल सेवा परीक्षा के अभ्यार्थियों की परीक्षा का माध्यम कौन सी भाषा थी? दूसरी यह कि इनमें से सफल या चयनित अभ्यार्थियों की संख्या कितनी रही? यूपीएससी से जवाब तो आया, लेकिन उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। पहली बात तो यह कि आवेदन हिंदी में किया गया था जबकि जवाब केवल अंग्रेजी में आया।

दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि जो जवाब आया वह अत्यंत अफसोसजनक था। यूपीएससी ने अंग्रेजी में यह तो बता दिया कि 2015 तक हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं से कितने विद्यार्थी शामिल हुए। यह आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में भी है, लेकिन 2016, 2017 एवं 2018 के बारे में सूचित किया गया कि अभी जानकारी एकत्र की जा रही है। इसके बारे में आयोग ने पूरी तरह चुप्पी साध ली कि 2015 तक कितने गैर अंग्रेजी भाषी विद्यार्थी सफल हुए?

सच तो यह कि जिसे आयोग भी अच्छी तरह जानता है कि मुख्य प्रश्न उन सफल प्रतियोगियों की संख्या जानना था जो गैर-अंग्रेजी भाषी थे। यह जानकारी न देकर आयोग ने स्वयं को बेवजह संदेह के घेरे में डालने का काम किया। आखिर जब आयोग 1980 से ही अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भाषावार सफल प्रतियोगियों के आंकडे़ उपलब्ध कराता था तो ऐसा क्या हुआ कि अब उसे अचानक बंद कर दिया गया? ऐसा क्यों किया गया, मुझे नहीं मालूम, लेकिन यह पक्का है कि 2015 से तो बंद है ही।

आयोग अपनी रिपोर्ट विशेषकर सिविल सेवा परीक्षा के बारे में बहुत ही विस्तार के साथ तैयार करता है। वह सफल अभ्यर्थियों की उम्र, शिक्षा, लिंग, शहरी-ग्रामीण, विषय, प्रयास यानी अटेंप्ट, विश्वविद्यालयों के साथ-साथ अन्य भी कई जरूरी एवं रोचक जानकारी उपलब्ध कराता है। वह यह भी बताता है कि मुख्य परीक्षा के किस-किस वैकल्पिक विषय में भाषानुसार कितने-कितने प्रतियोगी बैठे। इनकी कळ्ल संख्या दस-बारह हजार के करीब होती है। जब ये आंकड़ें मौजूद हैं तो फिर भाषा के आधार पर सफल प्रतियोगियों के आंकड़े होंगे ही। चूंकि सफल युवाओं की संख्या घटकर एक हजार से भी कम रह जाती है इसलिए इस आंकड़े को तैयार करना (यदि तैयार नहीं किया जाता है तो) सबसे आसान है। समझना कठिन है कि यूपीएससी के लिए इसे सार्वजनिक करना इतना कठिन क्यों है? वह क्यों अकारण ही अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रहा है? जैसे अन्य आंकड़े सार्वजनिक हो रहे हैं वैसे ही ये आंकड़े भी सार्वजनिक होने चाहिए कि भाषा के आधार पर सफल प्रतियोगियों की संख्या कितनी रही?

सिविल सेवा परीक्षा इस देश की सर्वोच्च परीक्षा है। इसके जरिये ही उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों की भर्ती होती है। इस प्रशासन का सीधा संबंध देश के लोगों के दैनिक जीवन और देश की व्यवस्था और विकास से है। इस प्रशासन को एक ही प्रकार के फूलों का (बतौर उदाहरण इंजीनियर्स का) गुलदस्ता नहीं बनाना है। इसकी शक्ति, इसकी क्षमता और इसकी विश्वसनीयता इसकी विविधता में निहित है, फिर चाहे वह भाषा एवं क्षेत्र की विविधता हो या फिर शैक्षणिक पृष्ठभूमि की विविधता हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस परीक्षा की वर्तमान प्रणाली ने इस विविधता की संभावना को पूरी तरह कुचल दिया है। जब समाज के पास भाषावार आंकड़े आएंगे तभी सही मायनों में इस विषय पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार किया जा सकेगा। ऐसा करना व्यक्तिगत रूप से किसी के भी विरोध में न होकर सार्वजनिक हित में ही होगा। बेहतर होगा कि यूपीएससी संबंधित आंकडे़ सार्वजनिक करे ताकि वस्तुस्थिति से अवगत हुआ जा सके। सभी जरूरी आंकड़ों का सार्वजनिक होना इसलिए भी अपेक्षित है, क्योंकि कुछ ही दिनों पहले उच्चतम न्यायालय ने भारतीय रिजर्व बैंक को इस बात के लिए कड़ी फटकार लगाई थी कि उसने न्यायालय के आदेश के बावजूद बैंकों संबधी कुछ सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कीं।

हाल में केंद्रीय सूचना आयोग ने भी यूपीएससी की इस मामले में खिंचाई की है कि उसने भूगर्भशास्त्र के एक परीक्षार्थी को उसकी उत्तर पुस्तिका दिखाने से इन्कार कर दिया। समय के जिस दौर में पारदर्शिता के प्रति इतना अधिक आग्रह हो उस दौर में यूपीएससी का भ्रम पैदा करने वाला रवैया समझ से परे है। यूपीएससी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करता है। परीक्षा में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रश्नों के उत्तर कितने सही और सटीक तरीके से दिए गए। ऐसा लगता है कि इस मामले में आयोग ने या तो प्रश्न को सही तरह से समझा या फिर समझने के बावजूद उसने सही उत्तर देना जरूरी नहीं समझा।


Date:03-07-19

युवा नशे की चपेट में

देश को बर्बादी के रास्ते पर ले जाने वाले नशे की आमद रुकनी ही चाहिए। आज शायद ही देश का कोई हिस्सा हो जहां नशे की आमद और उसका इस्तेमाल बढ़ न रहा हो।

संपादकीय

अटारी सीमा पर पकड़ी गई 532 किलो हेरोइन के पीछे अगर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का हाथ दिख रहा है तो इस पर हैरानी नहीं। आइएसआइ एक अर्से से भारत में पंजाब और जम्मू-कश्मीर के रास्ते हेरोइन और अन्य मादक पदार्थ भेजने में लगी हुई है। इसका मकसद युवा पीढ़ी को नशे की लत लगाकर बर्बादी के रास्ते पर धकेलने के साथ ही इस धंधे से हासिल पैसे के जरिये किस्म-किस्म के आतंकी संगठनों की मदद करना है।

अफगानिस्तान और साथ ही पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के वित्तीय स्रोत का एक बड़ा जरिया अफीम, चरस, हेरोइन आदि का धंधा ही है। हमारी विभन्न एजेंसियां इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि इस धंधे की एक कड़ी भारत बना हुआ है, लेकिन इस कड़ी को तोड़ने के वैसे प्रयास नहीं हो रहे हैं जैसे आवश्यक है। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान से आ रहे मादक पदार्थों की आमद रुकने का नाम नहीं ले रही है।

अटारी सीमा पर बड़ी मात्रा में हेरोइन की बरामदगी के बाद यह कहा जा रहा है कि यह अब तक की सबसे बड़ी खेप है, लेकिन आखिर इसकी क्या गारंटी कि इसके पहले इससे बड़ी खेप नहीं आई होगी? आशंका यही है कि पाकिस्तान से विभिन्न वस्तुओं की आड़ में पहले भी मादक पदार्थों की बड़ी खेप आई होगी। वैसे भी इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते दो महीने में सेब की पेटियों के जरिये दिल्ली लाई गई करीब 60 किलो हेरोइन पकड़ी जा चुकी है।

चिंता की बात केवल यही नहीं कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब के जरिये मादक पदार्थों की खेप आ रही है, बल्कि यह भी है कि यही काम पूर्वोत्तर भारत के सीमावर्ती राज्यों के जरिये भी हो रहा है। वहां मादक पदार्थों की तस्करी से अर्जित पैसा अलगाववाद को हवा देने में खपाया जा रहा है तो कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद की आग भड़काने में। सीमावर्ती इलाकों से नशे की आपूर्ति जारी रहना नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के साथ अन्य एजेंसियों की नाकामी को ही बयान करता है।

देश को बर्बादी के रास्ते पर ले जाने वाले नशे की आमद रुकनी ही चाहिए। आज शायद ही देश का कोई हिस्सा हो जहां नशे की आमद और उसका इस्तेमाल बढ़ न रहा हो। इसका एक कारण भारतीय समाज में पहले से तंबाकू, शराब आदि का चलन है। इस तरह के नशे के आदी लोग कहीं आसानी से अफीम, चरस, हेरोइन, कोकीन आदि घातक नशे की गिरफ्त में फंस जाते हैं। ऐसे लोग मुश्किल से ही इस गिरफ्त से निकल पाते हैं।

स्पष्ट है कि जितनी जरूरत नशे की तस्करी पर सख्ती से रोक लगाने की है उतनी ही इसकी भी कि देश के लोग और खासकर युवा पीढ़ी नशे की लत से बची रहे। इसके लिए समाज को भी सक्रियता और जागरूकता दिखानी होगी। यह कोई शुभ संकेत नहीं कि रेव पार्टियों के आयोजन की खबरें अब रह-रहकर आने लगी हैं। ऐसी पार्टियों का आयोजन एक तरह की पतनशीलता का ही परिचायक है। जिस देश का युवा वर्ग नशे की चपेट में आ जाए वह अपने उज्ज्वल भविष्य के प्रति सुनिश्चित नहीं हो सकता।


Date:03-07-19

ये है मोदी ब्रांड कूटनीति का कमाल

जापान के ओसाका में हुए जी-20 सम्मेलन में मोदी ब्रांड कूटनीति की झलक कई तरह से देखने को मिली।

कमलेंद्र कंवर, (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही उनके आलोचक व विरोधी उनके विदेशी दौरों की यह कहते हुए खिल्ली उड़ाते रहे हैं कि इन दौरों का देश के लिए कोई खास फलितार्थ नहीं होता और मोदी सिर्फ अपने आनंद के लिए विदेशी सैर-सपाटा करते हैं। अलबत्ता, उनका ऐसा कहना पूरी तरह गलत है। हमने मोदी के पिछले कार्यकाल में भी देखा कि किस तरह उन्होंने विदेशी दौरे करते हुए विभिन्न् देशों के नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए और दुनिया में भारत की छवि को चमकाने का काम किया। यह प्रधानमंत्री मोदी और उनके प्रमुख सलाहकारों (जिनमें विदेश मंत्री भी शामिल हैं) की मेहनत और सामरिक प्रयासों का ही असर है कि आज दुनिया का कोई देश भारत के नजरिए को नजरअंदाज नहीं करता।

लेकिन मोदी के विरोधियों को यह सब दिखाई नहीं देता। उनके विरोधियों के अगुआ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैं, जिनकी अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रति समझ काफी सीमित है और उनकी यह भी प्रवृत्ति है कि वे अपने दायरे से बाहर नहीं देख पाते। हालिया लोकसभा चुनाव नतीजों ने यह दर्शाया कि पांच साल बाद भी लोगों के बीच मोदी की लोकप्रियता घटने के बजाय बढ़ी ही है और यह आज के उच्च अपेक्षाओं वाले दौर में सामान्य बात नहीं। इस लिहाज से मोदी के विदेशी दौरों को ‘निजी आनंद के लिए सैर-सपाटा करार देने का विरोधियों का तर्क भी औंधे मुंह गिरा नजर आता है।

मोदी अपने विदेशी दौरों के दौरान जिस तरह विदेशों में बसे भारतीयों के साथ संवाद स्थापित करते हुए उनके मन को छूते हैं और उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, वह अद्भुत है। लंबे समय के बाद प्रवासी भारतीयों के मन में अपने मूल देश यानी भारत के प्रति गौरव की अनुभूति जाग्रत हुई है।

लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल करने के बाद वैश्विक नेताओं में मोदी का कद और भी बढ़ गया है। यह वाकई शानदार है कि किस तरह साधारण पृष्ठभूमि से आया एक शख्स आज दुनियाभर की सराहना अर्जित कर रहा है और बड़ी सहजता से विश्व के नेताओं के बीच अपनी धाक जमाने में कामयाब है।

हां, यह सही है कि देश की अर्थव्यवस्था को संभालने के मामले में मोदी सरकार पर सवाल उठते रहे हैं और अब तो तकरीबन सभी यह मानते हैं कि नोटबंदी की कवायद खराब तैयारियों और लचर क्रियान्वयन की वजह से बड़ी विफलता साबित हुई। लेकिन यदि विदेशी संबंधों की बात करें तो मोदी ने इस मोर्चे पर अपनी अलग छाप छोड़ी है।

जापान के ओसाका में जी-20 सम्मेलन अमेरिका-चीन के मध्य गहराते कारोबारी तनाव के माहौल में हो रहा था, लेकिन यह भारत ही था जिसने इस सम्मेलन में उत्साह और गर्मजोशी का प्रभाव पैदा किया। मोदी वहां जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ एक त्रिपक्षीय समूह के रूप में मिले। इसके बाद उन्होंने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन से मुलाकात की, जहां पर फोकस वैश्वीकरण, ‘व्यापार में उदारीकरण को बरकरार रखने और संरक्षणवादी प्रवृत्ति का विरोध करते हुए और डब्ल्यूटीओ सुधारों को समुचित दिशा देने पर केंद्रित था। मोदी वहां पर ‘ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका) नेताओं की बैठक में भी शामिल हुए और इसके बाद उनका शिंजो आबे, डोनाल्ड ट्रंप, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जाए-इन, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान, तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन तथा जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल के अलावा कुछ अन्य नेताओं के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय मुलाकातों का सिलसिला चला। दो दिन के शिखर सम्मेलन में कोई नेता इससे ज्यादा और क्या हासिल कर सकता था।

मोदी सरकार की ऐसी अग्र-सक्रिय रणनीति के फायदे हमें मिल भी रहे हैं। कुछ ही महीने पूर्व हमने देखा कि किस तरह चीन भारत के लगातार दबाव के चलते पाकिस्तान में रह रहे आतंकी सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने पर सहमत हो गया। यदि चीन को यह नहीं लगता कि वो इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग पड़ सकता है तो वह कभी भारतीय दबाव के आगे नहीं झुकता, जिसके चलते उसकी साख को भी धक्का लग रहा था।

बहरहाल, डोनाल्ड ट्रंप ने जी-20 सम्मेलन से पूर्व भारत द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क को लेकर चाहे जो भी ट्वीट किया हो, लेकिन ओसाका में उनके सुर सधे हुए नजर आए, जब उन्होंने कहा कि भारत-अमेरिका के संबंध इतने बेहतर कभी नहीं थे। कारोबारी मसलों को लेकर भी उनका समझौतावादी रुख लगा। ट्रंप भले ही अप्रत्याशित रुख के व्यक्ति हों, लेकिन ओसाका सम्मेलन में मोदी के लिए जिस तरह व्यापक स्वीकृति का भाव दिखा, उसे वह भी नजरअंदाज नहीं कर पाए।

जैसा कि विदेश सचिव विजय गोखले ने मोदी की जिनपिंग और पुतिन से मुलाकात के बाद मीडिया ब्रीफिंग में कहा भी कि भारत एक ‘बहुध्रुवीय दुनिया को बढ़ावा देना चाहता है, जिसमें ‘स्थिरता और बहुत से प्रभुत्व-केंद्र हों।

कहना होगा कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में प्रभुत्वकारी भूमिका निभाने के लिहाज से एक नई भारतीय चेतना नजर आ रही है। अब एक ऐसी दुनिया में जहां अपना सर्वोच्च स्तर बरकरार रखने के लिए अमेरिका कोई कसर नहीं छोड़ रहा है और वहीं चीन अमेरिका को टक्कर देने के लिए ज्यादा बड़ी भूमिका निभाना चाहता है, वहां भारत की ये कोशिशें कैसे आकार लेती हैं, यह देखना अभी बाकी है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया को साथ लेकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की दुस्साहसिक कार्रवाइयों को काफी हद तक हतोत्साहित कर दिया है। इसके अलावा अब दक्षिण चीन सागर के मोर्चे पर भी शांति है, जहां पर अतीत में बीजिंग की अनेक गतिविधियां चलती रहती थीं।

हालांकि चीन पर एक हद तक ही भरोसा किया जा सकता है, किंतु हालिया दौर में चीन का यह कहना कि भारत को उससे डरने की जरूरत नहीं, इस बात का संकेत है कि भारत का दबदबा बढ़ रहा है और कैसी भी स्थितियों से निपटने की इसकी सैन्य तैयारियों से चीन वाकिफ है। जहां तक रूस की बात है तो वह बीते कुछ समय से पाकिस्तान की तरफ झुक रहा था, लेकिन मोदी सरकार ने जिस तरह अमेरिकी दबाव को दरकिनार कर रूस से एस-400 मिसाइल का सौदा किया, उससे उसका यह झुकाव रुक सकता है।

जी-20 सम्मेलन में मोदी ब्रांड कूटनीति की झलक कई तरह से मिली, जिसमें सबसे उल्लेखनीय तो यह बात रही कि एक तरह से सभी ने यह माना कि पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवाद का प्रायोजक है। यहां तक कि कई मुस्लिम देश भी आज इसे स्वीकार कर रहे हैं तो यह भारत के लिहाज से बड़ी सफलता है।


Date:03-07-19

न्यायसंगत सवाल

न्याय में देरी की समस्या समाज को अनुशासित बनाने में भी बाधक बन रही है। न्यायिक तंत्र की मौजूदा स्थिति देश के अपेक्षित विकास में रोड़े अटकाने का काम कर रही है।

संपादकीय

न्यायपालिका के अंदर से ही जवाबदेही और पारदर्शिता की आवाजें उठना स्वागतयोग्य है। पहले मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपने कामकाज का विवरण सार्वजनिक करते हुए न्यायपालिका में जवाबदेही की जरूरत को रेखांकित किया। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर कोलेजियम व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करते हुए साफ तौर पर कहा कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में परिवारवाद और जातिवाद का बोलबाला है।

यह पहली बार नहीं जब कोलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल उठे हैैं, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि अब ऐसे सवाल उच्चतर न्यायपालिका के जज ही उठा रहे हैैं। देखना है कि इन सवालों पर सुप्रीम कोर्ट गौर करता है या नहीं? वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात के आरोप थमने का नाम नहीं ले रहे हैैं। कोलेजियम व्यवस्था का विकल्प बनने वाले राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग को खारिज करते समय सुप्रीम कोर्ट ने यह तो माना था कि इस व्यवस्था में खामियां हैैं, लेकिन उन्हें दूर करने का काम अब तक नहीं हो सका हैै।

यह न्यायसंगत नहीं कि जिस कोलेजियम व्यवस्था की खामियों को खुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया हो उसके आधार पर ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां होती रहें। ऐसा होना इसलिए भी ठीक नहीं, क्योंकि दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करते। आखिर जैसा दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में नहीं होता वैसा भारत में क्यों होना चाहिए? यह वह सवाल है जो न तो सुप्रीम कोर्ट का पीछा छोड़ने वाला है और न ही सरकार का।

जरूरी केवल यही नहीं है कि न्यायाधीशों की ओर से अपने साथियों की नियुक्ति की अलोकतांत्रिक व्यवस्था खत्म हो, बल्कि यह भी है कि न्यायिक क्षेत्र में इस तरह के सुधार बिना किसी देरी के किए जाएं कि समय पर न्याय मिलना संभव हो सके। न्याय में देरी और लंबित मुकदमों के बोझ का उल्लेख एक अर्से से अवश्य किया जा रहा है, लेकिन कोई नहीं जानता कि लोगों को समय पर न्याय कब सुलभ होगा? न्याय में देरी के सिलसिले के कारण करोड़ों लोग न्याय से ही वंचित नहीं हैैं, बल्कि विकास के काम भी बाधित हैैं।

न्याय में देरी से भारतीय समाज कानून के शासन के प्रति वैसा प्रतिबद्ध नहीं दिखता जैसा उसे दिखना चाहिए। केवल इतना ही नहीं, न्याय में देरी की समस्या समाज को अनुशासित बनाने में भी बाधक बन रही है। बेहतर होगा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और साथ ही विधायिका यह महसूस करें कि न्यायिक तंत्र की मौजूदा स्थिति देश के अपेक्षित विकास में रोड़े अटकाने का काम कर रही है।

आज चाहे आम लोग हों या खास, वे इस पर भरोसा नहीं कर पाते कि अदालतों से उन्हें समय पर न्याय मिलेगा। भरोसे की यह कमी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गरिमा पर एक सवाल ही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने जो कुछ कहा उस पर केवल चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि ऐसे कदम भी उठाए जाने चाहिए जिससे न्यायपालिका भरोसे की कमी के संकट से मुक्त हो। बेहतर होगा कि न्यायिक नियुक्त आयोग के गठन की पहल नए सिरे से की जाए।


Date:02-07-19

नशे का कारोबार

यह बेहद गंभीर बात है कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान से आ रहे मादक पदार्थों की आमद रुकने का नाम नहीं ले रही।

संपादकीय

अटारी सीमा पर पकड़ी गई 532 किलो हेरोइन के पीछे अगर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ दिख रहा है, तो इस पर हैरानी नहीं। आईएसआई एक अरसे से भारत में पंजाब और जम्मू-कश्मीर के रास्ते हेरोइन व अन्य मादक पदार्थ भेजने में लगी हुई है। इसका मकसद युवा पीढ़ी को नशे की लत लगाकर बर्बादी के रास्ते पर धकेलने के साथ ही इस अवैध धंधे से हासिल से पैसे के जरिए किस्म-किस्म के आतंकी संगठनों की मदद करना है। यह हकीकत है कि अफगानिस्तान और साथ ही पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के वित्तीय स्रोत का एक बड़ा जरिया अफीम, चरस, हेरोइन आदि का धंधा ही है। हमारी विभिन्न एजेंसियां इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि इस धंधे की एक कड़ी भारत बना हुआ है, लेकिन इस कड़ी को तोड़ने के वैसे प्रयास नहीं हो रहे हैं जैसे आवश्यक हैं। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान से आ रहे मादक पदार्थों की आमद रुकने का नाम नहीं ले रही है।

अटारी सीमा पर बड़ी मात्रा में हेरोइन की बरामदगी के बाद यह कहा जा रहा है कि यह अब तक की सबसे बड़ी खेप है, लेकिन आखिर इसकी क्या गारंटी कि इसके पहले इससे बड़ी खेप नहीं आई होगी? आशंका यही है कि पाकिस्तान से विभिन्न् वस्तुओं की आड़ में पहले भी मादक पदार्थों की बड़ी खेप आई होगी। वैसे भी इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते दो महीने में सेब की पेटियों के जरिए दिल्ली लाई गई करीब 60 किलो हेरोइन पकड़ी जा चुकी है।

चिंता की बात केवल यह नहीं कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब के जरिए मादक पदार्थों की खेप आ रही है, बल्कि यह भी है कि यही काम पूर्वोत्तर भारत के सीमावर्ती राज्यों के जरिए भी हो रहा है। वहां मादक पदार्थों की तस्करी से अर्जित पैसा अलगाववाद को हवा देने में खपाया जा रहा है तो कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद की आग भड़काने में। सीमावर्ती इलाकों से नशे की आपूर्ति जारी रहना नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के साथ अन्य एजेंसियों की नाकामी को ही बयान करता है। देश को बर्बादी के रास्ते पर ले जाने वाले नशे की आमद रुकनी ही चाहिए। आज शायद ही देश का कोई हिस्सा हो, जहां नशे की आमद और उसका इस्तेमाल बढ़ न रहा हो। इसका एक कारण भारतीय समाज में पहले से तंबाकू, शराब आदि का चलन है। इस तरह के नशे के आदी लोग कहीं आसानी से अफीम, चरस, हेरोइन, कोकीन आदि घातक नशे की गिरफ्त में फंस जाते हैं। ऐसे लोग मुश्किल से ही इस गिरफ्त से निकल पाते हैं। स्पष्ट है कि जितनी जरूरत नशे की तस्करी पर सख्ती से रोक लगाने की है, उतनी ही इसकी भी कि देश के लोग और खासकर युवा पीढ़ी नशे की लत से बची रहे। इसके लिए समाज को भी सक्रियता और जागरूकता दिखानी होगी। यह कोई शुभ संकेत नहीं कि रेव पार्टियों के आयोजन की खबरें अब रह-रहकर आने लगी हैं। ऐसी पार्टियों का आयोजन एक तरह की पतनशीलता का ही परिचायक है। जिस देश का युवा वर्ग नशे की चपेट में आ जाए, वह अपने उज्ज्वल भविष्य के प्रति सुनिश्चित नहीं हो सकता।


Date:02-07-19

पर्यावरण संरक्षण व आर्थिक विकास के लिए चार विचार

राज्यों को जलवायु जोखिमों की गहरी समझ रखते हुए जलवायु परिवर्तन पर अपनी कार्य योजनाओं को अद्यतन बनाना चाहिए। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं 

अरुणाभ घोष, (लेखक ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद के सीईओ हैं)

अब चुनाव पूरे हो चुके हैं, इसलिए चुनावी घोषणा-पत्रों के ‘पर्यावरण’ से संबंधित वादों को भूलना आसान होता है क्योंकि आम तौर पर पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास को परस्पर विरोधी माना जाता है। यहां ऐसे चार विचार पेश किए जा रहे हैं, जो न केवल पर्यावरण जोखिमों से निपटते हैं बल्कि आर्थिक लागत को घटाते हैं और निवेश एवं वृद्धि के लिए नए मौके पैदा करते हैं।

 

जलवायु जोखिम खत्म करने की मुहिम

जलवायु जोखिम एक रफ्तार से नहीं बढ़ते हैं, जिनमें तापमान में बढ़ोतरी होने पर अचानक भारी बढ़ोतरी होगी। रिकॉर्ड गर्म हवाएं, तटीय क्षेत्रों में बार-बार बाढ़, सूखे से कृषि उत्पादन पर असर गर्मी, पानी, फसल नुकसान और पारिस्थितिकी बिगडऩे के मिश्रित दबावों का संकेत देते हैं। जलवायु जोखिम आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के जोखिम भी पैदा कर देते हैं। अन्य किसी गंभीर जोखिम की तरह हमें अनुमान से अधिक विकट हालात के लिए तैयार रहना चाहिए, बजाय कम नुकसानदेह परिणामों की उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के। जलवायु जोखिम खत्म करने की मुहिम का लक्ष्य एक दशक में भारत के जलवायु जोखिम में अहम कमी लाना होना चाहिए।

सबसे पहले हमें भारत के लिए जलवायु जोखिम मानचित्र विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा अहम जोखिमों जैसे तट, शहरों में गर्मी के दबाव, जल के दबाव, फसल को नुकसान और जैवविविधता को नुकसान पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके बाद 2020 के मध्य तक राष्ट्रीय जलवायु जोखिम सूचकांक विकसित किया जाना चाहिए। इस सूचकांक की पद्धतियों को हर साल अद्यतन एवं परिष्कृत बनाया जाना चाहिए। इस मुहिम में बीमा कंपनियों को शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि अगर वे विकट मौसमी घटनाओं के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होंगी तो शहरी और तटीय क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा कारगर साबित नहीं होगा।

इस राष्ट्रीय मुहिम के साथ हर राज्य के लिए सूचकांक बनाए जाने चाहिए। राज्यों को जलवायु परिवर्तन पर अपनी कार्ययोजनाओं को अद्यतन बनाना होगा और जलवायु जोखिमों की गहरी समझ रखनी होगी। शुरुआत में जलवायु जोखिम खत्म करने की रणनीति राष्ट्रीय स्तर और सबसे अधिक जोखिम वाले पांच राज्यों के लिए तैयार की जानी चाहिए। इससे जलवायु जोखिम सूचकांक को राष्ट्रीय और राज्य आपदा नियंत्रण प्राधिकरणों की आपदा जोखिम कम करने की योजनाओं से जोड़ा जा सकेगा।

भारत उत्सर्जन कारोबार योजना

भारत ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन को प्रोत्साहन देकर जलवायु के क्षेत्र में अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है। लेकिन उभरती अर्थव्यवस्थाओं के जलवायु को बेहतर बनाने से संबंधित कार्यक्रमों में विदेशी निवेश सीमित बना हुआ है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में जलवायु की पहल सुस्त पड़ रही हैं। ऐसे समय में भारत भारतीय उत्सर्जन कारोबार योजना (आईईटीएस) स्थापित करने के इरादे जाहिर कर अपनी अगुआ स्थिति को मजबूत कर सकता है। आईईटीएस के बहुत से फायदे मिलेंगे। यह उद्योग को दीर्घकालिक एवं विश्वसनीय नीतिगत दिशा देगी और नवोन्मेष को प्रोत्साहित करेगी। इसके अलावा यह भरोसेमंद ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कारोबार के बाजार का खाका तैयार करने, इसे लागू करने और निगरानी में रोजगार पैदा करेगी। इससे सरकार के लिए भी राजस्व का एक नया स्रोत बनेगा। साथ ही उत्सर्जन कम करने के निर्धारित लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा। कुछ राज्यों और प्रमुख शहरों को शामिल कर एक प्रायोगिक आईईटीएस वर्ष 2022 तक लागू किया जा सकता है। देश भर में आईईटीएस को लागू करने का लक्ष्य 2025 तय किया जा सकता है।

आईईटीएस भारत के वर्तमान ऊर्जा दक्षता कारोबार के ढांचे (यानी प्रदर्शन, हासिल करना और कारोबार योजना) के प्रशासनिक स्वरूप का लाभ उठा सकती है। इसमें नवीकरणीय ऊर्जा प्रमाणपत्र जैसे नाम मात्र के अन्य कार्बन बाजारों को एक योजना में शामिल किया जाएगा ताकि पारदर्शिता और दक्षता बढ़े। अगर आईईटीएस ठीक से डिजाइन की जाती है तो यह नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, ऊर्जा भंडारण या जलवायु अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने वाली अन्य योजनाओं के लिए भी लाभकारी हो सकती है। अच्छी निगरानी और सत्यापन नियमों के साथ लागू होने के बाद आईईटीएस अन्य देशों या क्षेत्रों की उत्सर्जन कारोबारी योजनाओं के साथ जुड़ सकती है ताकि अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त का प्रवाह बढ़े।

प्लास्टिक घटाओ, प्लास्टिक हटाओ

वर्ष 2018 में भारत ने घोषणा की थी कि वह 2022 तक एक बार इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक को खत्म करना चाहता है। हालांकि केवल प्रतिबंध ही पर्याप्त नहीं होगा। इसमें विकल्पों के विकास और व्यवसायीकरण को बढ़ाने के आर्थिक मौके भी हैं, जो नई हरित औद्योगिक नीति का अहम हिस्सा होने चाहिए। प्लास्टिक की हमारे जीवन में गहरी पैठ है। अगर लोग तकनीकी विकल्पों की मांग नहीं करेंगे तो वे उभरेंगे नहीं । प्रधानमंत्री को ‘प्लास्टिक घटाओ प्लास्टिक हटाओ’ अभियान की अगुआई करनी चाहिए।

इसके बाद प्लास्टिक के उन स्थायी विकल्पों के बड़े पैमाने पर उत्पादन एवं इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने की बात आती है, जो व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं। वेंचर निवेश और जोखिमों का आंशिक भार उठाने के लिए सरकारी वित्त पोषण से प्रयोगशालाओं में तैयार विकल्पों का बाजारों में परीक्षण करने और उन्हें व्यावसायिक पैमाने पर पहुंचाने में मदद मिलेगी। अंत में प्लास्टिक पर रोक के लिए पुरस्कार देने से वैकल्पिक पैकेजिंग सामग्रियों के लिए शोध एवं विकास, रिसाइक्लिंग के कारोबारी मॉडलों और प्लास्टिक के दोबारा इस्तेमाल के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था शुरू करने को समर्थन मिल सकता है।

राष्ट्रीय एयरशेड प्रबंधन प्राधिकरण

हाल में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के लिए दस्तावेज पेश किया गया है, जिसमें राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर व्यापक पहलों और क्रियान्वयन एजेंसियों का ब्योरा दिया गया है। लेकिन यहां एक शीर्ष संस्था का अभाव है, जो एनसीएपी को क्रियान्वित करने में सहायता, समन्वय और नियमन कर सके। सरकार को 2019 के अंत तक एक राष्ट्रीय एयरशेड प्रबंधन प्राधिकरण (एनएएमए) स्थापित करना चाहिए, जिसके पास वैधानिक शक्तियां होनी चाहिए। शहरी-ग्रामीण और राज्यों के बीच की दूरी खत्म करने के लिए एयरशेड पर ध्यान देना जरूरी है। इससे एनएएमए को शहरी स्थानीय संस्थाओं और ग्राम पंचायतों से समन्वय स्थापित करने का अधिकार मिलेगा। राज्य सरकारों की सक्रिय भागीदारी के बिना एनसीएपी के तहत क्षेत्रीय हस्तक्षेप असफल रहेंगे। इसी तरह अगर वैज्ञानिक एयरशेड अवधारणा को नहीं अपनाया गया तो क्षेत्रों में दखल सफल नहीं होगी। एनएएमए को संबंधित एजेंसियों को निर्देश देने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

वायु प्रदूषण से निपटने की प्रवर्तन क्षमता का अत्यंत अभाव है। एनएएमए को राज्यों के स्तर पर संख्या और तकनीकी क्षमता दोनों लिहाज से प्रवर्तन क्षमता बनाने और मूल्यांकन करने की जिम्मेदारी दी जा सकती है। इस तरीके से ढांचा बनाने से एनएएमए में सरकारी, निजी और तकनीकी या नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व होगा। यह केवल तभी प्रभावी होगा, जब इसकी वैधानिक शक्तियों को वास्तविक संसाधनों का सहारा मिलेगा। वायु प्रदूषण को खत्म करने से जन स्वास्थ्य लागत में अहम कमी आ सकती है। इससे हमारे शहर रहने लायक बनेंगे और ज्यादा निवेश आकर्षित करेंगे।

जब तक हम पर्यावरण पहल को महज एक लागत समझेंगे तब तक लोग, उद्योग और सरकार पूरी व्यवस्था के साथ खेलते रहेंगे या कोई कदम उठाने से बचते रहेंगे। पर्यावरण बाह्यता तब तक किसी की जिम्मेदारी नहीं है, जब तक सार्वजनिक नीति निर्माता इसे किसी का काम नहीं बनाते हैं। पर्यावरण को लगातार अच्छा बनाए रखने और आर्थिक विकास के लिए प्रोत्साहन दिए जा सकते हैं, बाजार बनाए जा सकते हैं और व्यक्तिगत एवं सामूहिक व्यवहार में बदलाव लाया जा सकता है।


Date:02-07-19

ट्रंप के कदम

संपादकीय

अंतरराष्ट्रीय राजनय में कभी-कभी ऐसा कुछ दुर्लभ घट जाता है, जो न केवल चौंकाता है, बल्कि उम्मीद का एहसास भी देता है। ऐसी ही एक बड़ी परिघटना है, उत्तर कोरिया की जमीन पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कदम पड़ना। ऐसा करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने वहां कोरियाई नागरिकों की आंखों में आंसू देखे। यह अलग से ध्यान देने योग्य खुशनुमा बात है कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली नेता दूसरों की आंखों में आंसू देख पा रहा है। अभी साल भर पहले ही एक ऐसा समय आया था, जब लगा था कि अमेरिका किसी भी क्षण उत्तर कोरिया पर हमला बोल देगा और आशंका यहां तक थी कि उत्तर कोरिया भी अकल्पनीय प्रतिउत्तर देगा।

एक ओर, उत्तर कोरिया के तानाशाह राष्ट्राध्यक्ष किम जोंग-उन थे, तो दूसरी ओर, अमेरिकी राष्ट्रवाद और श्रेष्ठता से प्रेरित डोनाल्ड ट्रंप। दोनों ही मुखर मिजाज नेताओं ने दुनिया के दिलो-दिमाग को एक नए युद्ध की आशंका से भर रखा था। अब ट्रंप और किम की जो तीसरी मुलाकात हुई है और इसके फलस्वरूप कोरियाई लोगों की आंखों में जो आंसू आए हैं, वो दरअसल राहत के आंसू हैं। युद्ध की विनाशकारी आशंका जब टलती महसूस होती है, तो अनायास आंसू निकल पड़ते हैं। किम ने ट्रंप को अपने सीमावर्ती शहर पनमुनजोम आमंत्रित करके जो बड़ी पहल की, उससे भी कारगर कार्य ट्रंप ने उनके आमंत्रण को स्वीकारते हुए किया है। डोनाल्ड ट्रंप के साथ दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मुन-जे-इन भी थे और असैन्यीकृत क्षेत्र में इनकी किम से मुलाकात हुई है।

ट्रंप इससे पहले जून 2018 में सिंगापुर में किम से मिले थे और फिर दोनों नेताओं की मुलाकात हनोई में इसी वर्ष फरवरी में हुई थी। मिलने और संवाद करने की यह उच्चस्तरीय कोशिश मात्र युद्ध को टालने की मंशा का ही नहीं, दुनिया में परिपक्व होते राजनय का भी एक संकेत है। राजनय की यह परिपक्वता हम जी-20 के सम्मेलन में सबसे बेहतर अंदाज में देख चुके हैं। अमेरिका व्यापार विवाद सुलझाने के लिए चीन से भी संवाद करेगा और भारत से भी। निस्संदेह, राजनय की सांसें संवाद के सहारे ही चलती हैं और संवाद के जरिए ही आधुनिक दुनिया में सामरिक शांति और समेकित आर्थिक विकास संभव है।

हालांकि इस परिघटना का एक आश्चर्यजनक पक्ष भी है। स्वयं अमेरिका में ट्रंप के आलोचकों और मीडिया के एक हिस्से ने ट्रंप के उत्तर कोरिया में पांव रखने को ड्रामा (मास्टरपीस ऑफ ड्रामा) करार दिया है। उत्तर कोरिया से जब बातचीत संभव है, तब ईरान के साथ धमकी की बातें क्यों? अंतरराष्ट्रीय राजनय में तार्किक सभ्यता और शालीनता का समावेश होना ही चाहिए। ऐसा न हो कि उत्तर कोरिया से सकारात्मक ऊर्जा अर्जित करके उसे ईरान में नकारात्मक ढंग से खर्च कर दिया जाए? युद्ध, संघर्ष, शत्रुता का रास्ता सबसे पहले अमेरिका को ही छोड़ना पड़ेगा।

आज के समय में शत्रुता का ही एक स्वरूप आतंकवाद है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर वैश्विक मंच पर आतंकवाद के विरुद्ध जिस व्यापक ईमानदारी की मांग कर रहे हैं, उसे सुनिश्चित करने की सर्वाधिक जिम्मेदारी अमेरिका पर ही है। ट्रंप जब इस दिशा में चलेंगे, तब उन्हें अनेक ऐसी जगहों पर कदम रखने के मौके मिलेंगे, जहां उनका स्वागत खुशी के आंसू करेंगे।


Date:02-07-19

त्वरित न्याय का बढ़ता अन्याय

विभूति नारायण राय, (पूर्व आईपीएस अधिकारी)

फौरी न्याय का जिन्न एक बार फिर बोतल के बाहर निकल आया है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में विधायकों या उनके परिवारी जनों ने मौके पर ही इंसाफ के नमूने पेश कर दिए हैं। इंदौर में तो विधायकजी ने आवेदन, निवेदन और फिर दनादन को अपनी पार्टी के प्रशिक्षण का अंग भी घोषित कर दिया। यानी निवेदन न स्वीकार करने वाले को मौके पर ही दनादन पीट देना चाहिए। उन्होंने क्रिकेट बल्ले का उदारतापूर्वक उपयोग करते हुए यही किया भी। इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब यह सज्जन जेल से बाहर निकले, तो उनका ‘वीरोचित’ स्वागत हुआ। भीड़ न्याय हमारी परंपरा का अभिन्न अंग है। यह एक सामान्य और देश के किसी भी भाग में दिखाई दे सकने वाला दृश्य हो सकता है, जिसमें भीड़ द्वारा दुर्घटना करने वाले ड्राइवर को पीट-पीटकर मार डाला जा रहा हो या कोई जेबकतरा पकड़े जाने पर पिट रहा हो। राममनोहर लोहिया इस प्रवृत्ति को क्रूर कायरता कहते थे। उनके मुताबिक, वे लोग जो भीड़ का अंग बनकर कैद में असहाय व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डालते हैं, खुद अपने मोहल्ले के गुंडे के सामने दुम दबाए दिखते हैं। सड़कों पर एक आम अनुभव है कि कोई वाहन चालक दुर्घटना करने के बाद रुककर घायल की मदद नहीं करता, बल्कि वहां से भागने की कोशिश करता है। इसमें खुद को कानून से बचाने की कोशिश की जगह भीड़ के त्वरित न्याय का भय अधिक होता है।

मुंबई की एक संस्था ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी ऐंड सेकुलरिज्म’ ने 2018 में भीड़ हिंसा की घटनाओं का विश्लेषण किया, तो पाया कि इस साल ऐसी कुल 84 घटनाएं देश के विभिन्न भागों मे हुईं, जिनमें चोरी से संबंधित आठ, अंतरधार्मिक विवाह के नौ, गोरक्षकों द्वारा 16, बच्चे चुराने के संदर्भ में 41 और दस मामले अन्य प्रसंगों से जुड़े थे। इसी संस्था द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक, साल 2019 में अब तक ऐसी चार घटनाएं हुई हैं, जिनमें प्रभावित सात व्यक्तियों मे से एक की मृत्यु हो गई। हिंसा के शिकार व्यक्तियों में तीन मुसलमान और चार ईसाई थे। इसी तरह, ‘इंडिया स्पेंड’ नामक एक अन्य संस्था ने 2012 से 2019 तक भीड़ द्वारा हिंसा की कुल 127 घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया, तो पाया कि इनमें 302 भुक्तभोगी थे, जिनमें से 47 व्यक्ति मारे गए। किसी भी सभ्य समाज के लिए इतनी बडी संख्या मे लोगों को पीट-पीटकर मार दिया जाना सिर्फ चिंता का नहीं, शर्म का बायस होना चाहिए।

इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट होती है कि भीड़ के फौरी न्याय के शिकार सबसे अधिक हाशिये के लोग होते हैं। मसलन, चुड़ैल कहकर बड़ी संख्या में औरतों को मारा जाता है। खास तौर से झारखंड, छत्तीसगढ़ या ओडिशा के आदिवासी इलाकों में अकेली, बूढ़ी औरतों को डायन घोषित कर मार दिया जाता है। भीड़ हिंसा के शिकार कई मामलों में सेक्स वर्कर या समलैंगिक समुदाय के लोग भी होते हैं। गांवों में अक्सर और कई बार तो शहरों में भी छोटे-मोटे चोर या नकबजन पिटते दिख जाते हैं।

अपने हाथ में कानून लेकर न्याय करने की भीड़ की प्रवृत्ति को समझने के लिए उसका मनोविज्ञान समझना होगा। बहुत से मामलों में हिंसा के पीछे यह धारणा काम कर रही होती है कि देश का कानून और न्यायिक प्रक्रिया किसी अपराधी को सजा दिलाने में सक्षम नहीं हैं। उसे सजा मिली भी, तो यह एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया के बाद ही संभव हो सकेगी। छोटी-मोटी चोरी करते पकड़ा जाने वाला चोर या बस के जेबकतरे के साथ होने वाला सुलूक इसी श्रेणी मे आएगा। मुझे सत्तर या अस्सी के दशक के वे दृश्य याद हैं, जब गांवों में किसी डकैत या नकबजन को फौरी न्याय के तहत मार डालने वाले ग्रामीणों को पुलिस प्रमाणपत्र और शील्ड प्रदान करती थी। इससे भीड़ न्याय को वैधता मिलती थी। कानून-कायदों से इतर अपराधी को स्वयं दंड देने की प्रवृत्ति का ही विस्तार पुलिस एनकाउंटर है, जिनके दौरान बहुत से मामलों में पुलिस जज और जल्लाद, दोनों का रोल खुद निभाते हुए किसी अपराधी को पकड़कर मार डालती है।

आंकड़े बताते हैं कि हिंसा के सबसे अधिक मामले बच्चा चोरों या कथित डायनों के खिलाफ हुए। देश में हजारों नहीं, लाखों की संख्या में बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं। इनमें काफी बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की भी होती है, जिन्हें संगठित गिरोहों द्वारा भीख मंगवाने या देह व्यापार जैसे अपराधों की दुनिया में धकेलने के लिए अपहृत किया जाता है। ज्यादातर गरीबों के इन बच्चों का अपहरण संवेदनहीन तंत्र के लिए किसी सामान्य घटना से अधिक महत्व नहीं रखता, इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लोग किसी बच्चा चोर को खुद ही सजा देने पर उतारू हो जाते हैं। यह और बात है कि उनकी गाज अक्सर किसी निर्दोष भिखमंगे, पागल या नशेड़ी पर गिरती है। डायन घोषित कर भीड़ द्वारा सजा देने के मामलों में ज्यादातर बूढ़ी और असहाय औरतें शिकार बनती हैं। इस हिंसा के पीछे भी मुख्य रूप से वह संवेदनशून्य व्यवस्था है, जो न तो शैक्षणिक रूप से पिछड़े समाजों को शिक्षित और विवेकवान बनाने की कोशिश करता है, और न ही हिंसा के दोषियों को कठोर दंड या पीड़ितों के पुनर्वास की गंभीर कोशिश।

पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक उन्मादियों द्वारा हेट क्राइम या घृणा अपराध की श्रेणी में आ सकने वाला भीड़ न्याय किया जा रहा है। यह मुख्य रूप से गोरक्षकों द्वारा पशु व्यापारियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा है। किसी को भी यह कहकर मारा जा सकता है कि वह काटने के लिए गोवंश के पशु ले जा रहा है या उसके घर में गोमांस पक रहा है। सिर्फ आंकड़ों की बात करें, तो गोरक्षकों की हिंसा के मामले डायन या बच्चा चोरों के मुकाबले कम हैं, पर उनका असर समाज पर अधिक होता है।

भीड़ हिंसा को सामाजिक स्वीकृति के साथ उसमें शरीक लोगों को समाज में खास तरह का सम्मान भी हासिल है। इंदौर में फौरी न्याय देने वाले विधायक का जेल से छूटने के बाद जैसा भव्य सत्कार हुआ, वह यही बताता है। अपराधी गोरक्षकों के सार्वजनिक अभिनंदन भी होते ही रहते हैं। जब तक समाज में भीड़ न्याय के प्रति जुगुप्सा नहीं पैदा होगी, भीड़ हमारे यहां न्याय करती रहेगी।


Date:02-07-19

ट्रंप की रणनीति

संपादकीय

अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच पिछले दो साल के घटनाक्रम हैरत में डालने वाले रहे हैं। कोई लंबा वक्त नहीं बीता, जब दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर था और लग रहा था कि तीसरे विश्व युद्ध के हालात बन रहे हैं। दोनों में से अगर किसी भी देश ने जरा भी संयम खोया तो दुनिया बड़ी तबाही देखेगी। लेकिन संतोषजनक यह रहा कि ऐसी किसी अनहोनी का खतरा तब टल गया था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन को समझ आ गया था कि बातचीत से ही कोई रास्ता निकल सकता है। इसके बाद ही शिखर वार्ताओं का सिलसिला चला। हालांकि इनके नतीजे उत्साहजनक नहीं निकले थे। लेकिन हाल में ट्रंप ने अचानक उत्तर कोरिया जाकर पूरी दुनिया को चौंका दिया। आधिकारिक तौर पर कहा तो यही जा रहा है कि उत्तर कोरिया जाने और किम जोंग उन से मुलाकात करने की ट्रंप की पहले से कोई योजना नहीं थी। तब सवाल है कि ट्रंप को अचानक उत्तर कोरिया जाने की क्यों सूझी, क्यों उन्होंने ट्वीट कर उत्तर कोरिया के शासक से मिलने की इच्छा जताई? कभी उत्तर कोरिया को मिटा देने की धमकी देने वाले ट्रंप का आखिर हृदय परिवर्तन कैसे हो गया और क्यों किम को लेकर इतना प्रेम उमड़ आया? जापान में जी-20 सम्मेलन से निपट कर ट्रंप सीधे दक्षिण कोरिया पहुंचे और रविवार को किम जोंग उन से उस जगह मिले, जिसे धरती की सबसे खतरनाक जगह कहा जाता है। यह खतरनाक जगह उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच असैन्यीकृत क्षेत्र है।

ट्रंप और किम दोनों में भले कितनी असमानताएं हों, लेकिन एक समानता जरूर है। दोनों कुछ न कुछ ऐसा करते हैं जिससे दुनिया चौंके। रविवार को ट्रंप ने वही किया। आज न केवल अमेरिका, बल्कि दुनिया के इतिहास में उन्होंने अपने को ऐसे पहले राष्ट्रपति के रूप में दर्ज करवा लिया जो पद पर रहते हुए उत्तर कोरिया की यात्रा पर गया। दरअसल, ट्रंप की उत्तर कोरिया की इस यात्रा को अचानक हुए दौरे के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसके पीछे निश्चित ही कुछ खास रणनीतियां हैं। ट्रंप इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि उन्होंने एक साथ कई मोर्चे खोल लिए हैं। ईरान से टकराव चल रहा है, उत्तर कोरिया का संकट पहले से है, रूस-चीन जैसे देश अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं, दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में चीन के दबदबे से अमेरिका की नींद उड़ी हुई है, दुनिया के कई देशों के साथ व्यापार युद्ध के हालात अलग बने हुए हैं। ऐसे में ट्रंप कहां-कहां और किससे उलझेंगे?

किम से मिल कर ट्रंप ने दुनिया को यह संदेश दिया है कि वे शांति के पक्षधर हैं, उत्तर कोरिया के साथ कोई टकराव नहीं चाहते और शांति वार्ता के लिए अपनी ओर से पहल कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने किम को अमेरिका आने का न्योता भी दिया। अगर सब कुछ ठीक-ठाक चला तो उत्तर कोरिया और अमेरिका के रिश्तों में यह बदलाव बड़ा मोड़ साबित हो सकता है। अगर ट्रंप किम को अमेरिका बुला कर वार्ता की मेज तक ले आए तो उनके कार्यकाल की यह बड़ी उपलब्धि होगी। उत्तर कोरिया अपने को एक परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित कर चुका है। ट्रंप के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि वे उत्तर कोरिया को परमाणु हथियारों से मुक्त बनाने के लिए किम को झुकाने में कहां तक सफल हो पाते हैं। इसलिए ट्रंप का इस बार उत्तर कोरिया पहुंचना हैरानी पैदा करने के साथ उम्मीदें भी जगाता है।


Date:02-07-19

निशाने पर अधिकारी

संपादकीय

दौर के बाद अब तेलंगाना में सरकारी अफसर की पिटाई की खबर वाकई परेशान और चिंतित करने वाली है। तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के समर्थकों ने एक गांव में पौधरोपण के लिए गई वन विभाग की टीम और पुलिस पर हमला बोल दिया। हमले में फारेस्ट रेंजर सी अनीता घायल हो गई। आरोप है कि टीआरएस विधायक के भाई ने समर्थकों के साथ सरकारी कर्मचारियों और अफसरों पर हमला बोला। इससे पहले इंदौर में इसी तरह की वारदात ने कइयों का ध्यान खींचा था। दुखद बात यह है कि जेल से रिहा होने के बाद आकाश विजयवर्गीय का स्वागत पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने किसी हीरो की तरह किया। पार्टी कार्यालय में जश्न मनी। क्या इस तरह के कृत्य से सरकारी अधिकारियों के मनोबल पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा? पार्टी और सरकार को इस बारे में संजीदगी के साथ विचार करने की जरूरत है। पिछले हफ्ते पूरे देश ने देखा कि डॉक्टरों के साथ मारपीट करने का अंजाम क्या होता है। देशव्यापी हड़ताल से स्वास्य सेवाएं किस कदर चरमरा गई, यह जगजाहिर है। सो, ऐसी नौबत न आए इसलिए जनप्रतिनिधियों को खास सतर्कता बरतनी होगी। किसी भी अधिकारी को सरेआम पीटना जनता के अधिकार के लिए लड़ने की आड़ में सिर्फ-और-सिर्फ गुंडागर्दी कही जा सकती है। अधिकारियों को अगर ऐसे ही जलील किया जाता रहेगा तो तंत्र कैसे काम करेगा? तब तो कोई भी विधायक, सांसद, नेता या उसका रिश्तेदार काम न होने की थोथी दलील देकर अफसरों को पीट देगा। इंदौर और तेलंगाना की घटना बताती है कि नेताओं के काम करने का तरीका कितना सही है? ‘‘करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ ये कि ऐसे बल्लामार नेताओं की र्भत्सना के बजाय उसका सम्मान किया जाता है, उसके आचरण को जायज ठहराया जाता है, पार्टी कार्यालय में रिहाई की खुशी में मतांध कार्यकर्ता हवाई फायर करते हैं और घर की महिलाएं उसकी आरती उतारती हैं। इससे अफसर हतोत्साहित नहीं होंगे क्या? कल को कोई भी अफसर इस नाते काम करने से कतराएगा कि उसकी पिटाई न हो जाए या उसे भीड़ के सामने बेइज्जत न कर दिया जाए। सरकार को ऐसे मामलों को यथाशीघ्र निपटाने का फामरूला लाना होगा वरना कल के दिन कोई भी खादी वाला ‘‘आवेदन व निवेदन’ के बदले ‘‘दनादन’ करने लग जाएगा।


Date:02-07-19

Re-imagining india and Africa

Delhi’s strategy for Indo-Pacific needs to recognise the importance of the continent

C. Raja Mohan, [Director, Institute of South Asian Studies, National University of Singapore]

Although scepticism about the idea of Indo-Pacific endures, the new geopolitical construct continues to gain ground. In embracing the concept late last month, the Association of South East Asian Nations has taken a big step towards bridging the eastern Indian Ocean with the Pacific. If South East Asia has been central to the Indo-Pacific debate, Africa remains a neglected element.

The ASEAN’s Indo-Pacific vision has come after a prolonged internal debate among its ten member states. The initiative came from Indonesia — the largest member of the ASEAN and an early champion of the Indo-Pacific. After all, Indonesia is the land link between the Indian and Pacific Oceans. Almost all the maritime traffic between the two oceans passes through the narrow straits formed by the Indonesian archipelago.

As in India, so in the ASEAN, there was much initial suspicion about the meaning of and the motivations behind the term Indo-Pacific. If India’s preferred focus was on the Indian Ocean, the ASEAN had grown accustomed to the idea of the Asia-Pacific. If the UPA government was deeply divided on the notion of the Indo-Pacific, many in the ASEAN saw little reason to replace Asia-Pacific with Indo-Pacific.

The Modi government, which has shed so many hesitations of the UPA era, eventually adopted the Indo-Pacific framework. In the east, Indonesia’s initiative is an important landmark in the way South East Asia rethinks its geography. Delhi and Jakarta are also well-placed to recognise the growing importance of Africa for the security and prosperity of the Indo-Pacific.

Delhi and Jakarta remember that the 1955 Bandung Conference was not just about Asia or non-alignment, but promoting Afro-Asian solidarity. India and Indonesia can’t forget Africa’s role in shaping the outcome of the World War II in Asia. Nearly 1,00,000 African soldiers participated in the war to liberate Burma and South East Asia from Japanese occupation.

Today, the rise of Asia and Africa is beginning to reconstitute the geographies of the eastern hemisphere and break down the artificial mental maps that emerged in the 20th century between different sub-regions of the Indo-Pacific, stretching from Africa to the Western Pacific.

If Europe and North America dominated Africa’s economic relationship in the past, China, India, Japan, South Korea and the ASEAN share the honours today with the US and EU. China, Japan, Korea and India are also major investors in Africa as well as providers of development assistance.

China and Japan are also playing a major role in the modernisation and expansion of infrastructure in Africa. China certainly has strong reservations about the Indo-Pacific terminology; but no one is doing more to integrate the two oceans than Beijing. China’s maritime silk road is about connecting China’s eastern seaboard with the Indian Ocean littoral. According to publicly available information analysed by the Washington-based Centre for Strategic and International Studies, China is involved in the development of 47 ports in sub-saharan Africa. African energy and mineral resources and the sea lines of communication bringing them to China are now seen as vital lifelines in Beijing.

Japan’s prime minister, Shinzo Abe, who reinvented the Indo-Pacific has also underlined the importance of connecting Africa to Asia through growth corridors. If the dynamic economic interaction between the “two continents and two seas” in Abe’s words) has been widely noted, the increasing strategic nexus between the eastern and western ends of the Indo-Pacific has not drawn adequate attention.

Consider for example, China’s expanding defence and security engagement in Africa. Over the last few years, China has emerged as the largest major arms supplier to Sub-Saharan Africa. According to the Stockholm International Peace Research Institute, China accounted for nearly 27 per cent of all arms imports by Sub-Saharan Africa during 2013-17. China is a major champion of peacekeeping in Africa, not in manpower contribution that is dominated by Subcontinent, but in financial, material, logistical and institutional support.

China is ramping up its support for internal security structures, including national law enforcement and police organisations, in Africa. In 2017, Beijing established its first foreign military base in Djibouti in the Horn of Africa. And China is not the only one.

Japan has run a small military facility in Djibouti since 2011. This is Japan’s first foreign base since the Second World War. South Korea, following a similar track, stationed about 150 troops in the UAE for African military missions, including peacekeeping.

China, Japan and Korea had all come to the region in the late 2000s on anti-piracy missions. As piracy declined, they have found it necessary to stay on amidst what is now being called the “new scramble for Africa”. Former colonial powers like France and Britain are no longer taking their position in Africa for granted and are recasting their military act in the western edge of the Indo-Pacific.

The US, which was focused on terrorism and other non-military threats after 9/11, is paying attention to Africa’s new geopolitics. Russia, which seemed to turn its back on Africa after the collapse of the Soviet Union, is now returning with some vigour. Meanwhile, many regional actors like Iran, UAE, Qatar, Saudi Arabia and Turkey are taking growing interest in African security affairs.

During his first term, Prime Minister Narendra Modi elevated the engagement with Africa by hosting a summit in Delhi for all the African leaders, unveiling sustained high level political contact, expanding India’s diplomatic footprint, strengthening economic engagement and boosting military diplomacy. But the scale and speed of Africa’s current transformation means the PM has his African tasks cut out in the second term.


Date:02-07-19

Deepening the unease

By stoking insecurities on Article 370, BJP-led Centre takes a wrong turn in J&K

ET Editorial

The Jammu & Kashmir Reservation (Amendment) Bill, passed by the Lok Sabha last week, and introduced in Rajya Sabha on Monday, is an ill-advised stirring of the pot on Article 370. The Bill amends the Jammu and Kashmir Reservation Act, 2004 and replaces the March 1, 2019 ordinance providing for reservation in appointment and promotions in state government posts, and admission to professional institutions for certain categories. The Bill will extend to J&K, as did the Ordinance, the 77th amendment (reservation in promotion for the Scheduled Castes and Scheduled Tribes) and the 103rd amendment (reservation for economically-weaker sections of society). The big change from the 2004 Act is that it includes in the eligible categories persons in the state living close to the international border, which in J&K extends from Kanachak to Kathua in the Jammu region, while the original Act applied only to people living close to the LoC, which begins in Rajouri and runs north through Kashmir. No centrally legislated Act can be extended to J&K until the state government gives its assent to such legislation. However, in the absence of a state government, this is being done on the basis of the governor’s assent. Although there is enough by way of precedent on this, such actions further erode the autonomy guaranteed by Article 370, and could be seen as a reason for the troubles in the state.

Of course, Union Home Minister Amit Shah has made no secret of the fact that Article 370, which he describes as a “temporary” provision, needs to be done away with. This is what he told the Lok Sabha during the debate to extend President’s rule in the state. This is also a promise the BJP has made in its election manifesto. There seems to be an impression among influential sections of the ruling regime that doing away with Article 370 (and 35 A), will resolve the Kashmir problem “once and for all”. There could be no more mistaken notion. In all the ideological eagerness to see demographic engineering as the solution to Kashmir, it should not be forgotten that Article 370 is the constitutional provision that mediates the conditional accession of J&K to India in 1947. Doing away with it would be akin to breaking a bridge between Kashmir and the rest of India.

Shah, who visited the Valley last week, would have been briefed about the uneasy calm in the state. Since the Pulwama outrage and the Indian action inside Pakistan, there have been fewer attacks by militants in Kashmir, and virtually no cross-border infiltration, but home-grown radicalism and alienation remain high. Even the security agencies, which have implemented the Centre’s policy of using force to keep a grip on Kashmir for four straight years, know that this cannot be the only instrument. Moderates in the Hurriyat have said they are ready for a dialogue. Rejecting that, and pursuing a divisive and polarising agenda in J&K may yield the BJP some political dividend, but it does not serve the national interest.


Date:02-07-19

Lessons from Bhutan

The incentive of an enviable income for teachers could mitigate many ills that affect India’s education system

Louis Jude Selvadoray, [Communications Consultant with the World Bank Group]

Bhutan’s teachers, doctors and other medical staff will earn more than civil servants of corresponding grades, if a policy recently announced by the country’s government is implemented. The new salary scales will benefit about 13,000 teachers and doctors. This is a novel move. No other country has accorded teachers and doctors such pride of place in its government service, both in terms of remuneration and symbolism. Remarkably, the proposal was announced by Bhutan’s Prime Minister Lotay Tshering, himself a qualified doctor — which suggests that professional experience informs the policy.

Inspired or fanciful?

Let us examine the policy’s educational aspect. Is the proposal part of a coherent strategy, or an inspired announcement that is resolute in intent but likely effete in effect?

The policy’s tonal reference is to be found in Bhutan’s 12th Five Year Plan (2018-23), published by its Gross National Happiness Commission, the country’s highest policy-making body. The commission’s strategy to achieve desired national outcomes through education opens with the notation, “making teaching a profession of choice”. The proposal then is evidently at the core of a larger governmental strategy to achieve the country’s human developmental objectives. The decision also comes in the wake of high levels of teacher attrition, especially the best. Clearly, the government has formulated the policy as a styptic to stop the serious haemorrhage.

Intuiting the correlation, as Bhutan has, between attracting the best talent to a profession and the renumeration it potentially offers is easy. But importantly, is it possible to demonstrate that improving the status of the teaching profession positively influences educational outcomes?

The Organisation for Economic Co-operation and Development’s Programme for International Student Assessment (PISA) is a worldwide study that measures and compares student ability in reading, mathematics, science and global competence, with financial literacy an option. Accordingly, it ranks educational systems of countries. An independent study led by the economist, Peter Dolton, has demonstrated a distinct correlation between student outcomes in a country, as measured by PISA scores, and the status that its teachers enjoy. The initiative’s latest report, Global Teacher Status Index 2018, based on its own surveys across 35 countries, goes on to make a strong case for high wages to improve teacher status.

Policies act as levers that governments use to achieve desired results in focus areas. The results of Bhutan’s policy, if implemented, will take a few years to emerge for critical evaluation. It is, however, based on credible research.

The fiscal implications

Bhutan already spends about 7.5% of its GDP on education. The fiscal implications of the new salary structure are unclear now. Generally, teachers constitute a considerable portion of government employees. Therefore, governments looking to emulate Bhutan’s lead will inevitably be asked questions about the financial viability of such a momentous administrative decision. For instance, the Minister concerned in Tamil Nadu, one of India’s better performing States on educational indices, turned down demands of striking teachers for better pension explaining that wages, pensions, administrative costs and interest repayments already amounted to 71% of the State’s expenditure. He asserted it leaves little for other developmental programmes.

Can India afford a similar policy?

India currently spends about 3% of its GDP on education, accounting for about 10% of the Centre’s and States’ budgetary expenses. Salaries constitute a large portion of this expenditure. The NITI Aayog in its report last year recommended that India raise this to 6% of GDP by 2022. Paying teachers (and doctors) significantly higher salaries may seem like a tall order, but the Central and State governments could consider rationalising both teacher recruitment and allocation of funds to existing programmes. Some programmes may have outlived their purpose, while others could be pared down or better directed. In fact, improving accountability in the system could free up huge savings. A World Bank study found that teacher absenteeism in India was nearly 24%, which costs the country about $1.5 billion annually. Absenteeism could be the result of many factors, including teachers taking up a second job or farming to boost incomes, providing parental or nursing care in the absence of support systems, or lacking motivation. The incentive of an enviable income which is girded with unsparing accountability could mitigate many ills that plague the system, free fiscal space and help meet important national developmental objectives.

Piloting a policy of such consequence may also be easier in a smaller State, say Delhi. Education is a key focus area for the Delhi government; the State invests 26% of its annual budget in the sector (much more than the national average). The administration has also worked on improving teacher motivation as a strategy for better educational outcomes. The base has been set. The political leadership in the State, which is unafraid of the bold and big in the social sector, could build on this. Moreover, since the State is highly urban and well-connected, it would be easier to enforce accountability measures, which must underpin so heavy an expenditure.

Ultimately, no investment that enables an educated, healthy, responsible and happy community can be deemed too high by any society. The short-term GDP-minded would do well to consider these words in OECD’s ‘Education at a Glance 2018’ report: “The quality of education can be a strong predictor of a country’s economic prosperity. Shortfalls in academic achievement are extremely costly, as governments must then find ways to compensate for them, and ensure the social and economic welfare of all.” Governments intent on improving the quality of education they offer must step out of incrementalism in policy-making. Improving teacher status by offering top notch salaries to attract the best to the profession could be that revolutionary policy-step forward, which Bhutan has shown a willingness to take.


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