03-05-2019 (Important News Clippings)
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Date:03-05-19
Babu’s Day Out
A Karnataka civil servant shows how an upright bureaucracy can make a big difference
TOI Editorials
A tehsildar in Karnataka’s Shivamogga district went undercover as a labourer to work at a stone quarry and check for irregularities, then returned to raid the place. This exemplifies the critical role of the bureaucracy in India. Since January 2017, BN Girish has been on a crusade against illegal stone and sand mining in the taluk, following up tips from local people, conducting raids and seizing vehicles. Sand mining owing to the construction boom has become a lucrative industry in rural India but the state’s limited capacity for regulation has inflicted severe ecological damage to hills, rivers and forests.
Imagine, for a moment, if a corrupt or indifferent officer was in Girish’s place. Now size up the damage such rapacious mining in just one taluk wreaks on the environment, the losses to public exchequer, and the weakening of law and order machinery when illegal activity gains impunity and profit. Then multiply this by the thousands of taluks in India and we get a sense of the importance of the lower bureaucracy. Politics was meant to take power to the people and cut through red tape. But in India a neta-babu nexus has for long taken advantage of hierarchical inequalities to subvert the system.
This has run its course and must now change. The RTI Act, the spread of education, ubiquitous smartphones, rising aspirations, and worries over environmental degradation are empowering communities to speak up against illegality. It also helps when honest officers come to the aid of hapless citizens. Not surprisingly, the struggles of bureaucrats like Ashok Khemka against successive Haryana governments struck a chord with the public. A new breed of civil servants with a can-do attitude has emerged in recent years with popular following that even rivals politicians. But the likes of BN Girish who go the extra mile must become the norm, not the exception.
Date:03-05-19
मदद के रास्ते बंद करके ही खत्म होगा नक्सलवाद
संपादकीय
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में नक्सली हमले में 16 जवानों के शहीद होने के साथ ही यह समस्या एक बार फिर सुर्खियों में आ गई है। तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद नक्सलवाद पर लगाम कसना कठिन होता जा रहा है। इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा सिर्फ इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले 20 वर्षों में नक्सली हमलों में 12 हजार से ज्यादा जानें गई हैं। इनमें 2700 जवान और 9300 आम नागरिक शामिल हैं। इसके इतर चिंता इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि केंद्र सरकार एक तरफ तो दावा कर रही है कि नक्सलवाद तेजी से सिमट रहा है, लेकिन आंकड़े कुछ और ही चुगली कर रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2015 में नक्सली हमले में 101, 2016 में 107 और 2017 में 130 लोगों की जान गई थी। जबकि एक साल पहले ही केंद्र सरकार ने दावा किया था कि नक्सलवाद अब 126 जिलों से सिमटकर सिर्फ 82 जिलों तक ही सीमित रह गया है। यानी 44 जिलों को नक्सलवाद मुक्त घोषित कर दिया गया था। इतना ही नहीं नक्सलवाद को लेकर अति संवेदनशील जिलों की संख्या भी 35 से घटाकर 30 कर दी गई थी। ऐसे में जबकि केंद्र सरकार इस तरह के दावे कर रही हो, लगातार हो रहे नक्सली हमले चिंता बढ़ाने वाले हैं। हालांकि, केंद्र और राज्यों की सरकारें इस दिशा में लगातार कोशिशों कर रही हैं और इसमें कोई दो राय नहीं हैं, लेकिन उनके ये प्रयास कितने फलीभूत हो रहे हैं, इस पर सवालिया निशान जरूर लग रहे हैं। पिछले साल केंद्र सरकार ने नक्सली प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों के साथ एक बैठक भी की थी। इस बैठक में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दो टूक कहा था कि हम नक्सलवाद के खिलाफ न केवल आक्रामक रणनीति अपनाएंगे, बल्कि गोली का जवाब गोली से ही देंगे। केंद्र और राज्य सरकारें इस बारे में बयानबाजी तो खूब करती हैं, लेकिन नक्सलवाद पर बातचीत के जरिये या राज्य की ताकत आजमाकर रोक लगा पाने में नाकाम दिख रही है। असल में सरकारों को सबसे पहले ये तलाशना होगा कि नक्सलियों की सैन्य ताकत (असला, बारूद, हथियार, ट्रेनिंग), आर्थिक मदद, संगठन की सुविधाएं, संसाधन और इस सब से बढ़कर सहानुभूति कहां से मिल रही है? जब तक इन जरियों को सुखाया नहीं जाएगा, तब तक नक्सलवाद पर रोक लगाना नामुमकिन ही रहेगा।
Date:03-05-19
ऐसे ही लड़नी होगी आतंक से जंग
महेंद्र वेद, (लेखक सामरिक मामलों के जानकार हैं)
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करना निश्चित ही भारत सरकार की एक ऐसी कूटनीतिक सफलता है, जिसके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह सफलता दस साल के लंबे इंतजार और खासकर पिछले तीन साल से किए जा रहे गहन प्रयासों से हासिल हुई है। हमारा देश इस वक्त आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है और कहना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा उनकी पार्टी के लिए यह खबर बिलकुल सही समय पर आई है। उन्हें इसका चुनावी लाभ मिल सकता है। पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आतंकी हमले के जवाब में बालाकोट में जबर्दस्त एयर स्ट्राइक की गई, जिसका देश में बहुत अच्छा संदेश गया। अब जैश सरगना मसूद अजहर के खिलाफ इस कार्रवाई से राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा नए सिरे से चुनावी विमर्श में छा जाएगा।
मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने से जहां भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा सुदृढ़ करने और वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिहाज से एक अहम कूटनीतिक बढ़त हासिल की है, वहीं पाकिस्तान के लिए यह बड़ा झटका है, जो आतंकवाद को प्रश्रय देने के साथ इसे भारत के खिलाफ एक ‘संपदा की तरह इस्तेमाल करता है। जहां तक चीन की बात है तो उसने वैश्विक अभिमत और बढ़ते कूटनीतिक दबाव के चलते इस मुद्दे पर अपने कदम वापस खींचने में ही भलाई समझी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बाकी चारों सदस्य उसके ऊपर इस बात के लिए लगातार दबाव डाल रहे थे। रूस जरूर थोड़ा कम उत्साही लगा, लेकिन बाकी तीनों सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन व फ्रांस समिति में बार-बार प्रस्ताव लाते हुए चीन पर दबाव बनाते रहे।
यूं तो मोदी सरकार वर्ष 2016 से ही मसूद अजहर को वैश्विक आतंकियों की सूची में डलवाने का प्रयास कर रही थी, लेकिन 14 फरवरी को कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद उसने इस पर नए सिरे से जोर दिया। पुलवामा हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ली थी। पहले तो पाकिस्तान ने यह मानने से ही इनकार किया कि जैश की ओर से ऐसा कोई दावा भी किया गया है। इसके बाद वह ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि मसूद अजहर और जैश उसकी जमीन से आतंकी गतिविधियां संचालित करते हैं। जब इससे भी बात नहीं बनी तो पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने वक्तव्य दिया कि मसूद अजहर तो इतना बीमार है कि अपने घर से बाहर भी नहीं निकल सकता। यूएन की बड़ी ताकतों ने इस पर भरोसा नहीं किया क्योंकि उन्हें पता है कि आतंकवाद को पालने-पोसने और उसके निर्यात के मामले में पाकिस्तान का रिकॉर्ड कैसा है।
चीन मसूद अजहर के मामले में तकनीकी अड़ंगे डालते हुए इस प्रक्रिया को रोकता रहा। उसने तीन बार ऐसा किया। इस मामले में भारत और यूएन के बाकी सदस्य देशों के समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। आखिर जब अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश अड़ गए और उस पर दबाव ज्यादा हो गया, तब जाकर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पिछले हफ्ते आयोजित दूसरी बीआरआई कांफ्रेंस के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ अलग से बैठक की। यह इस बात का पहला संकेत था कि चीन का रुख बदल सकता है। जो हुआ, असका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था। पिछले साल भी चीन ने मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकी संगठनों की फंडिंग के मुद्दे पर पाकिस्तान से दूरी बना ली थी। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की इस महीने के अंत में बैठक होने वाली है और यह संभव है कि आतंकी संगठनों के वित्तीय लेन-देन को न रोक पाने और इस संदर्भ में समुचित नियम-कायदे न तय कर पाने की वजह से पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लग जाएं। इस लिहाज से भी अजहर के मामले का जल्द निपटारा जरूरी था।
पाकिस्तान के लिए हालात वाकई विकट हैं, जिसे अपने अंतरराष्ट्रीय कर्जों को चुकाने के लिए वित्तीय मदद की सख्त दरकार है। इमरान खान इस खातिर जिस तरह दर-दर भटक रहे हैं, उससे उन्हें ‘भिखारी की भी संज्ञा दी जाने लगी है। इस मामले में उसे सबसे बड़ी वित्तीय मदद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से मिल सकती है, जिसने उसे बीते 30 साल में एक दर्जन बार फंड्स उपलब्ध कराए हैं। लेकिन इस बार आईएमएफ का रवैया सख्त है। आईएमएफ ने पाकिस्तान के समक्ष यह शर्त रख दी कि वह उसके द्वारा दिए गए फंड का इस्तेमाल चीन के भारीभरकम कर्जों को चुकाने में नहीं करेगा। बहरहाल, मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने के बाद अब पाकिस्तान जैश के इस सरगना के खिलाफ किस हद तक और कैसे इन प्रतिबंधों को लागू करता है, यह देखना अभी बाकी है। क्या मसूद अजहर के साथ भी पाक का बर्ताव मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद की तरह रहेगा, जो तमाम प्रतिबंधों के बावजूद पाकिस्तान में आज भी खुला घूमता रहता है।
पाकिस्तान का हाल तो इस वक्त खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे जैसा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैजल ने कहा कि भारतीय मीडिया द्वारा इस घटनाक्रम को ‘भारत की जीत और उसके रुख पर संयुक्त राष्ट्र की मुहर के रूप में पेश या प्रचारित करना ‘गलत व निराधार है। फैजल ने कहा – ‘हमारा रुख वही है, जो हमारे प्रधानमंत्री इमरान खान कह चुके हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ऐसे किसी भी संगठन या उससे संबद्ध समूह के लिए हमारे यहां कोई जगह नहीं है। हम आतंकवाद के सभी स्वरूपों के खिलाफ लड़ने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। हालांकि यह अलग बात है कि पाकिस्तान अपने तीन पड़ोसियों भारत, अफगानिस्तान और ईरान के लिए लगातार दिक्कतों का सबब रहा है। पुलवामा हमले के एक दिन पहले ही पाकिस्तान-स्थित बलूच उग्रवादियों ने सिस्तान प्रांत में ईरान रिवोल्यूशनरी गार्ड के 27 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को कभी पाकिस्तान ने ही पैदा किया था, जो अब अफगान जमीन से अपनी गतिविधियां चलाता है और कुछ अन्य ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स की तरह अफगानिस्तान व पाकिस्तान के बीच तनाव की वजह है।
पाकिस्तान को उस वक्त लगा था कि मसूद अजहर व उसके संगठन के खिलाफ कार्रवाई को टाला नहीं जा सकता, जब उसने इस साल 5 मार्च को जैश के 44 सदस्यों को हिरासत में लिया था। इनमें मसूद का भाई मुफ्ती अब्दुल रऊफ और उसका बेटा हमाद अजहर भी शामिल था। इन्हें एहतियातन हिरासत में लिया गया था। यदि मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के साथ पाकिस्तान के बर्ताव को संकेत मानें तो लगता है कि पाकिस्तान की ये कार्रवाइयां महज दिखावा ही थीं, ताकि बाहरी जगत को खुश किया जा सके। लिहाजा, लगता नहीं कि मसूद अजहर के खिलाफ यूएन के इस कदम से भी पाकिस्तान के रुख में कोई बहुत ज्यादा बदलाव आएगा। भारत को इस मामले में लगातार अपना रुख सख्त रखना होगा, साथ ही साथ उसे अपने घर यानी जम्मू-कश्मीर में भी हालात संभालने होंगे। और कौन जानता है कि आगे चलकर किसी दिन अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम भारत के शिकंजे में आ जाए?
Date:02-05-19
Power shift
Inspired by the ruling on Delhi, the Madras HC bats in favour of elected regime in Puducherry
Editorials
The Madras High Court verdict that the Lieutenant Governor of Puducherry should not interfere in the day-to-day administration of the Union Territory is a serious setback to the incumbent Administrator, Kiran Bedi. She has been locked in a prolonged dispute over the extent of her powers with Chief Minister V. Narayanasamy, who says she has been disregarding the elected regime and seeking to run the Union Territory on her own. The court has laid down that “the decision taken by the Council of Ministers and the Chief Minister is binding on the Secretaries and other officials.” Inspired by the Supreme Court’s appeal to constitutional morality and trust among high dignitaries, the High Court has also reminded the Centre and the Administrator that they should be true to the concept of democratic principles, lest the constitutional scheme based on democracy and republicanism be defeated. The judgment is based mainly on the principles that were laid down in last year’s Constitution Bench decision on the conflict between the elected regime in the National Capital Territory (NCT) and its Lt.Governor. The five-judge Bench had ruled that the L-G has to either act on the ‘aid and advice’ of the Council of Ministers, or refer to the President for a decision any matter on which there is a difference with the Ministry, but has no independent decision-making powers. The High Court also says the Administrator is bound by the ‘aid and advice’ clause in matters over which the Assembly is competent to enact laws. The L-G’s power to refer any matter to the President to resolve differences should not mean “every matter”, the court has cautioned.
Justice R. Mahadevan, who delivered the Madras High Court judgment, is conscious of the difference in status between Delhi and Puducherry. The Puducherry legislature is the creation of a parliamentary law, based on an enabling provision in Article 239A of the Constitution, whereas the NCT legislature has been created by the Constitution itself under Article 239AA. The Supreme Court had described the NCT as sui generis. At the same time, the NCT Assembly is limited in the extent of its legislative powers, as it is barred from dealing with the subjects of public order, police and land. However, looking at the Business Rules as well as other statutory provisions on Puducherry, the judge has sought to give greater credence to the concept of a representative government. He has set aside two clarifications issued by the Centre in 2017 to the effect that the L-G enjoys more power than the Governor of a State and can act without aid and advice. In view of the Constitution Bench judgment on Delhi, he has differed with another Madras High Court decision of 2018 in which the LG’s power to act irrespective of the Cabinet’s advice was upheld. In the event that the latest judgment is taken up on appeal, a key question may be how far the decision of the five-judge Bench on the limits of the Delhi L-G’s powers would indeed apply to Puducherry.
Date:02-05-19
Clarity In Puducherry
Madras High Court upholds a first principle of democracy: Elected government must run the administration, not the LG.
Editorials
The Madras High Court on Tuesday settled the question on who ought to run the administration in the Union Territory of Puducherry in favour of the legislature and the elected government. It has ruled that the office of the Lieutenant Governor should not interfere in the day-to-day administration when an elected government is in place. The court also clarified that government secretaries should report to the Council of Ministers headed by the chief minister on all official matters and are not empowered to issue orders on their own or upon the instructions of the administrator, namely the LG. The ungainly confrontation involving Puducherry LG Kiran Bedi and Chief Minister V Narayanaswamy should henceforth cease.
The order has come on a petition filed by K Lakshminarayanan, a Congress MLA, in 2017 which suggested that the LG ran a parallel government in Puducherry by conducting review meetings with officers and giving on-the-spot orders. The LG’s office responded by claiming that the law bestowed on it powers to act independently of the government. It also sought to draw a parallel with the National Capital Territory of Delhi. The HC did not accept the claim and clarified that the laws that concerns the two regions are different: Puducherry is governed by provisions of Article 239A of the Constitution while Article 239AA pertains to Delhi. Article 239AA has specific provisions that limits the administrative remit of the Delhi government since the NCT of Delhi is also the seat of the central government. Such exceptions are irrelevant in the case of Puducherry. The elected government is entrusted with the task of running the administration and it should be left to the electorate to punish the government if it fails to execute its mandate. The LG, an appointee of the Centre and the representative of the President, ought to exercise powers only in the event of a constitutional breakdown. This is the spirit that underlies parliamentary democracy, which the Madras High Court invoked. The court said: “The Central government as well as the Administrator (the term used in the Constitution to refer to the LG) should be true to the concept of democratic principles. Otherwise, the constitutional scheme of the country of being democratic and republic would be defeated.”
The UT Act was formulated in 1963 and much has changed in Puducherry — and Delhi — since. The electorate perceives the legislature as the rightful body for making law and formulating policy and holds the elected government accountable for administration. As the court has said, the LG and the Council of Ministers must “avoid logjam and facilitate the smooth functioning of the government in public interest, leaving political differences apart”.
Date:02-05-19
Whose right is it anyway?
PepsiCo’s attempt to sue farmers highlights the lacunae in IPR laws
Rajshree Chandra, [The writer is senior visiting fellow, CPR, Delhi.]
There could not have been a better heading for the IE editorial (April 30) on PepsiCo’s infringement suit against the farmers who have been accused of illegally cultivating a licensed variety of potato used for PepsiCo’s chips brand, “Lays”. “Lay off”, it said. It could have been saying, “back off Pepsi, the Indian farmer has rights under the Protection of Plant Variety and Farmers Rights (PPV&FR) Act”. Or, resonating with the boycott Pepsi brigade on social media, it could have been saying, “lay off the chips and other associated Pepsi products”. However it spoke to us, this should not be just an occasion to take easy sides in this David vs Goliath story. It should also occasion a more serious questioning.
Who is the rightful owner of the potato variety, FL 2027? Is it the farmer who bought, planted, harvested the potatoes from his own farm, or is it the innovator who cross-bred and modified the potato to have a low moisture content for crispier chips? Who should be the rightful bearer of rights is central to the conduct of liberal democracies and free markets.
Once upon a (capitalism) time, transnational corporations were the biggest votaries of a free-market economy (or so we thought). They wanted a level playing field, wanted trade barriers to be removed so that every corporation, irrespective of their country of origin, could participate freely without being discriminated against. This is the kernel of the GATT agreement and the driving logic of the WTO. So, why can’t the farmer be left free to cultivate a variety of potato that he considers as a profitable proposition? In this “free world”, why is it that a PepsiCo India feels emboldened to take away this freedom from nine farmers?
The dominant framework of international intellectual property (IP) law — TRIPS (Trade Related Aspects of Intellectual property Rights) and the UPOV (Union for the Protection of Plant Varieties) — gives plant breeders exclusive rights over the varieties they develop, and mostly disregards customary rights of indigenous and farming communities to their genetic resources and associated knowledges. This bias has percolated to various national laws, rendering ownership claims of farmers subordinate to corporate breeders’ rights.
Unlike other realms of IP, the biological realm is self-propagating. The technology of propagation is not external but internal to the plant system. Therefore, it is never rational for a farmer, as Berland and Lewontin point out, to pay a second time for something he has already bought and still possesses in the form of his seed crop. This creates a barrier for full commodification and monopoly profits. So, in order to prevent free replication of seeds, IP law creates enclaves of prohibition and protection, making the farmer’s natural right to save, re-use and sell seeds illegal in many countries.
Recognising the bias in international law, the Indian PPV & FRA law (2001), entitles not just the breeder but also the farmer. The conjoining of the two rights, it was argued, would facilitate the growth of the seed industry, ensure the availability of high-quality seeds, as well as secure the livelihood and plant varieties of the farmers. Accommodating these twin purposes meant granting recognition of the proprietary claims of both the farmers and breeders, more accurately, of farmers as breeders (Section 2(c)). It gives the farmer the right to “save, use, sow, re-sow, exchange, share or sell” produce/seeds (S. 39 (1)(iv)). Importantly, the Indian farmer is permitted to even “brown bag seeds” — sell any variety of seed on the condition that they are sold in an unbranded form. This means that the nine farmers were well within their rights to cultivate the potato FL 2027 variety without entering into a licencing or technology agreement with PepsiCo.
With the farmers refusing to back down, and with PepsiCo now offering an out-of-court settlement, the latter has effectively withdrawn the threat of the infringement suit. Perhaps it was never about legality, just brute economic might masquerading as legality. That PepsiCo was on weak legal ground may have been a matter well-known to its lawyers. But interestingly, even the worst-case scenario may have held the promise of dividends. How a legal provision plays out is seldom a foregone conclusion. It is contingent on a number of factors coming together — political, legal, financial, media attention, to name just a few — not an easy conjuncture to replicate, especially for the small guys. A precedent like this will always hang like a sword, possibly deterring future farming of these “hot potatoes”.
Indian law grants the farmers and breeders co-equal rights. But the PPV&FRA law is mired in conflicting claims and jurisdictions, may not be able to enact a similar redress in future contests. Beyond legalities, it’s time we, as a society, understood a simple truth — unfettered IP rights will always have the capacity to hurt the small farmers. It’s time we understood that they also serve who only stand and wait. Put contextually, they also innovate who plant and cultivate.