03-04-2024 (Important News Clippings)

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03 Apr 2024
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          Date:03-04-24

Helping the hills breathe easy

Restricting traffic on the ghat roads leading to Ooty and Kodaikanal is welcome

Mohamed Imranullah S.

Ooty and Kodaikanal, known respectively as the ‘Queen of Hill Stations’ and the ‘Princess of Hill Stations’, in Tamil Nadu have been choking with traffic for some time now. Heavy and unregulated tourist movement has taken a heavy toll on these hills forcing the Madras High Court and the State government to step in and contemplate certain restrictions.

Nudged by a special Division Bench of Justices N. Sathish Kumar and D. Bharatha Chakravarthy, constituted to hear forest-related cases, the State government has in-principle agreed to control vehicular movement by fixing a ‘carrying capacity’ for the ghat roads after conducting scientific studies through IIT Madras and Anna University.

Advocate General P.S. Raman recently informed the court that the decision was taken at a high-level committee meeting chaired by Chief Secretary Shiv Das Meena. If the plan fructifies, the government will fix a cap on the number of motor vehicles that will be permitted to ply on the ghat roads every day.

The Bench was seized of a number of cases related to several issues in both Nilgiris and Dindigul districts, where the two hill stations are located. These include elephant poaching, electrocution of elephants, deaths of elephants on railway tracks, eradication of exotic and invasive species from forests, and the banning of plastics.

It was while hearing the plea to ban plastics in the hill stations that the Bench ordered the establishment of check posts at all the entry points to frisk tourists and disallow harmful plastics, including plastic water bottles. Alternatively, it promoted the establishment of paid water dispensers in the hill stations through corporate social responsibility (CSR) initiatives.

On learning that glass pieces of empty liquor bottles left behind in the forests lead to serious injuries to the animals, the Bench prodded the Tamil Nadu State Marketing Corporation (TASMAC), which has a monopoly over wholesale retail and vending of alcoholic beverages in the State, to introduce a bottle buy-back scheme to encourage consumers to return empty bottles.

As part of the ongoing exercise to protect the forests, amicus curiae Chevanan Mohan and Rahul Balaji brought to the notice of the Bench an order passed by the Himachal Pradesh High Court, and followed up by the National Green Tribunal, fixing a cap on the number of motor vehicles allowed to ply between Manali and Rohtang Pass. The lawyers suggested that a similar cap could be fixed for the ghat roads leading to Ooty and Kodaikanal as well. The idea found favour with the Bench, which felt that increasing vehicular traffic to the hill stations, especially during the tourist seasons, had caused great damage to the flora and fauna.

On being asked to submit data on vehicular movement, Nilgiris Collector M. Aruna told the court that while on average, around 2,000 vehicles ply on the ghat roads every day, during tourist seasons the number increases to about 20,000 a day.

Providing a rough estimate of the accommodations available in the district, she said 1,035 commercial buildings had 5,620 rooms which could accommodate approximately 20,000 people at a time. However, a detailed scientific assessment would have to be carried out before fixing the carrying capacity for the ghat roads, she said.

After taking note of her submissions and finding that the ultimate decision on fixing carrying capacity could be taken only by the State government, the judges requested the Advocate General to assist the court in the matter by taking the issue to the notice of the Chief Secretary.

The Advocate General reverted saying the government had in-principle accepted the court’s suggestion on fixing a carrying capacity. He said scientific assessments would be carried out on the ghat roads leading to both Ooty and Kodaikanal and orders for commencing the work would be issued after the completion of the Lok Sabha polls.

This is a welcome initiative. The two popular hill stations, which are picturesque and boast of a pleasant climate, have been bursting at their seams and struggling to cope with the pressure on their infrastructure for a few decades now. What Ooty and Kodaikanal, which are tourism-dependent economies, urgently need are these measures that will ensure sustainable tourism and enable the protection of the environment.


Date:03-04-24

जीवन की राह कोई नरम गलीचा नहीं, गिरने से क्यों डरें

रश्मि बंसल, ( लेखिका और स्पीकर )

आजकल एक नए तरह का एमबीए चल पड़ा है। इसमें प्लेसमेंट की गारंटी नहीं होती, वो आपको बिजनेस सेटअप करना सिखाएंगे। शार्क टैंक के जमाने में युवा पीढ़ी को ये बात काफी आकर्षक लगती है, बड़े-बड़े सपने दिखते हैं। किसी और की गुलामी नहीं करनी, अपना ही बॉस बनूंगा।

बात में दम तो है, मगर एक छोटी-सी समस्या। कोर्स की फीस कुछ 29 लाख रुपए है। कोई नहीं, पापा दे देंगे। पढ़ाई के लिए तो इस देश के मां-बाप किसी भी हद तक जा सकते हैं। लोन ले लेंगे, घर गिरवी रख देंगे। बस एक सर्टिफिकेट मिल जाए। अब हमारा बिट्टू ‘क्वालिफाई’ हो गया। अगर वही बिट्टू कहे, पापा मुझे अपना बिजनेस खोलना है, आप मुझे दो लाख रु. दे दो, तो दैया रे दैया। दो लाख ऐसे ही दे दूं, डूबने के लिए? नहीं, कोर्स कर लो तो बेहतर रहेगा। वैसे भी हम नहीं चाहते कि तुम दर-दर फिरो, ठोकरें खाओ।

इसलिए आज हर छोटी-बड़ी चीज हम करते हैं किसी और के सहारे। ये है कोचिंग का कल्चर। जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, ट्यूशन में सिर्फ वो बच्चे जाते थे जो कमजोर थे। बाकी अपनी टीचर्स से थोड़ी हेल्प मांग लेते, और अपने ही बल पर पढ़-लिख कर पास होते थे। सबसे पहले एंट्रेंस एग्जाम की कोचिंग शुरू हुई, उसके बाद बोर्ड एग्जाम के लिए। अब तो केजी से पीजी तक हर विद्यार्थी एक ट्यूशन क्लास से दूसरी में भाग रहा है। स्कूल के बाद खेलने-कूदने का समय ही नहीं। पर अगर खेलना भी हो तो भाई, वहां भी कोचिंग तो जरूरी है।

बचपन में मुझे स्केटिंग का शौक था। खूब जिद करी तो मम्मी-पापा ने स्केट्स दिलवा दिए। पहनकर जब पहली बार पैर रखा, तो पहुंची सीधी जमीन पर। लेकिन 10-15 दिन में बैलेंस बनाना सीख लिया। और फिर जो स्पीड से मैंने स्केटिंग की, सब हैरान। आज देख रही हूं कि स्केटिंग के लिए बच्चों की कोचिंग होती है। वो हेलमेट भी पहनते हैं, घुटने के पैड भी। गिरेंगे, तो चोट नहीं लगेगी। फिसलेंगे, तो कोई संभाल लेगा। लेकिन गिरने-फिसलने से इतना डर ​क्यों? अगर मखमली कारपेट पर स्केटिंग करना मुमकिन होता तो शायद मां-बाप को और भी सुकून मिलता।

लेकिन जीवन की राह एक नरम गलीचा नहीं। वहां पत्थर भी मिलते हैं, गड्ढे भी। बिना चप्पल भी इस राह पर कभी चलना पड़ेगा। कांटे घुसेंगे, दर्द सहना पड़ेगा। जिसने डिजाइनर जूतों में चलना सीखा, रुक जाएगा, जब तक उसका हाथ पकड़ने कोई नहीं आएगा। स्केटिंग हो या बिजनेस, फॉर्मूला सिंपल है। कुछ करो, गिरो, पढ़ो, उठो। फिर कुछ करो, गिरो, पढ़ो, उठो। ऐसा करते-करते आपको सीख मिल जाएगी। कुछ लॉस भी होगा पर अक्ल आएगी। कस्टमर को कैसे पटाना है, कम पैसे में कहां से मटेरियल लाना है। खाता कैसे लिखा जाता है, किसमें फायदा किसमें घाटा है।

महाभारत में पांडवों-कौरवों ने द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु माना और मिट्टी से उनकी प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा के सामने एकलव्य ने श्रद्धा-भक्ति से अभ्यास किया और कहा जाता है उसकी तीरंदाजी से अर्जुन भी चकित हो गया। कहने का मतलब ये है कि जो महंगे कोर्स की फीस ना दे सके, उसे निराश नहीं होना चाहिए। आज मिट्टी की प्रतिमा नहीं, सिर्फ इंटरनेट कनेक्शन की जरूरत है। हर फील्ड की जानकारी वहां है, उसे सींचकर, अंदर खींचकर, बस अभ्यास कीजिए। आपकी स्क्रिप्ट कौन लिख रहा है, उसमें दम है या बोर लग रहा है। कहानी में ट्विस्ट लाना है तो कौन रोक रहा है, शायद अंदर का डर टोक रहा है। लेकिन प्रकृति का एक उसूल है, स्थिर रहना तो भूल है। आप चुप-चाप खड़े रहेंगे, पर धरती हिलेगी, ओले पढ़ेंगे। गिरकर उठना तो जरूरी है, नहीं तो लाइफ अधूरी है। परमवीर है वो इंसान, जिसके मुंह पर है मुस्कान। गिरकर उठना उसकी शान।


Date:03-04-24

कच्चातिवु पर तकरार

संपादकीय

चुनावों के समय कब कोई नया मुद्दा उठ जाए या किसी पुराने मुद्दे को नए सिरे धार दे दी जाए, इसका ठिकाना नहीं होता। कच्चातिवु का मुद्दा ऐसा ही है। भाजपा इस मुद्दे पर इसीलिए आक्रामक है, क्योंकि तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक जब-तब यह मांग करती रही है कि एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपे गए इस द्वीप को वापस लिया जाए। वह इस मांग को लेकर मोदी सरकार पर दबाव भी बनाती रही है, लेकिन सूचना अधिकार कानून से मिली इस जानकारी ने उसे निरुत्तर सा कर दिया है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब इस द्वीप को श्रीलंका को देने का समझौता किया था तो उस समय तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक भी इसके पक्ष में थी। भाजपा ने इस तथ्य को सामने रखकर जो सवाल उठाए हैं, उनका जवाब न तो द्रुमुक को देते बन रहा और न ही कांग्रेस को। जहां द्रमुक के पास केवल यही कहने को है कि आखिर भाजपा को अब यह मसला क्यों याद आ रहा है, वहीं कांग्रेस कच्चातिवु समझौते पर कुछ कहने के स्थान पर यह आरोप उछाल रही है कि मोदी सरकार ने भी तो बांग्लादेश को कुछ इलाके दिए थे। वह यह भूल रही है कि बांग्लादेश को कुछ इलाके दिए गए थे तो कुछ उससे लिए भी गए थे। कच्चातिवु को श्रीलंका को सौंपने से तो भारत घाटे में ही रहा।

यह ठीक है कि कच्चातिवु को श्रीलंका को सौंपने के दशकों पुराने समझौते को आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता, लेकिन इसकी तह तक तो जाना ही चाहिए कि आखिर इस द्वीप को श्रीलंका को देने के बदले भारत को हासिल क्या हुआ? इस समझौते के चलते तमिलनाडु के मछुआरों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि पहले उन्हें इस द्वीप तक जाने और वहां अपने जाल सुखाने की सुविधा थी। समझौते के बाद भारतीय मछुआरों से न केवल यह अधिकार छिन गया, बल्कि श्रीलंका की नौसेना को उन्हें तंग करने और गिरफ्तार करने का अधिकार मिल गया। श्रीलंका की नौसेना आए दिन तमिलनाडु के मछुआरों की गिरफ्तार करने के साथ उनकी नौकाएं भी जब्त कर लेती है। साफ है कि इन मछुआरों के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा भी है और उनकी रोजी-रोटी से जुड़ा मसला भी। कांग्रेस जिस तरह कच्चातिवु समझौते से भारत को होने वाले लाभ गिनाने की स्थिति में नहीं, उसी तरह उसके पास इस सवाल का भी कोई ठोस जवाब नहीं कि जम्मू-कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तानी सेना के कब्जे में बने रहने के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने युद्धविराम करना क्यों तय किया? यह प्रश्न इसलिए विचलित करता है, क्योंकि भारतीय सेना इस इलाके में घुस आई पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने की स्थिति में थी और यदि उसे कुछ दिन का समय और मिल जाता तो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा होता और कश्मीर समस्या सिरदर्द नहीं बनी होती।


Date:03-04-24

बदलाव की प्रतीक्षा में नौकरशाही

प्रेमपाल शर्मा, ( लेखक पूर्व संयुक्त सचिव एवं शिक्षाविद् हैं )

भारत की जिस नौकरशाही को देश के पहले गृहमंत्री ‘लौहपुरुष’ सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ‘इस्पाती ढांचे’ की संज्ञा दी थी, उसी ढांचे को लेकर अब सरकार के भीतर से ही सवाल उठे हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने बीते दिनों कहा, ‘20 से 30 साल के लाखों युवा अपने जीवन के बहुमूल्य आठ साल सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में बर्बाद कर देते हैं। आइएएस, आइपीएस और दूसरी सेवाओं में जाने की मृगतृष्णा हर वर्ष लाखों युवाओं की ऊर्जा को बर्बाद कर रही है। कोचिंग संस्थान भी इसी रवैये की उपज हैं।’ सान्याल की बातों के आलोक में सिविल सेवा परीक्षा से संबंधित कुछ बुनियादी बातों पर गौर करना उपयोगी होगा।

वर्तमान में इस परीक्षा में बैठने की आयु 21 वर्ष से 37 वर्ष के बीच है। सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए आयुसीमा 32, ओबीसी के लिए 35 और एससी-एसटी के लिए 37 वर्ष है। सामान्य वर्ग का अभ्यर्थी छह बार परीक्षा दे सकता है। ओबीसी नौ बार और एससी-एसटी से 16 बार। पहला प्रश्न आयुसीमा और प्रयासों की संख्या को लेकर ही उठता है। 1979 में दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिश पर सभी परीक्षाओं को मिलाकर एक सिविल सेवा परीक्षा शुरू की गई और उम्र 26 से बढ़कर 28 वर्ष की गई। उसमें तीन प्रयास सामान्य वर्ग के लिए और शेष के लिए रियायत के साथ दिए गए। उससे पहले उम्र 24 और 26 तक ही सीमित थी। 28 वर्ष करने के पीछे तर्क था कि तब तक देश में साक्षरता दर कम थी और ग्रामीण क्षेत्र के अभ्यर्थियों को मौका देने के लिए इसकी जरूरत थी। वस्तुत:, मौजूदा आइएएस परीक्षा ब्रिटिशकालीन आइसीएस परीक्षा का बदला हुआ नाम है। ब्रिटिश शासन में इस सेवा में भर्ती की उम्र 19 वर्ष और फिर बढ़ाकर 21 वर्ष की गई थी। इसके पीछे यही सोच रहा कि प्रशासन चलाने के लिए हमें युवा चाहिए और युवाओं के बल पर ही ब्रिटेन ने दुनिया पर राज किया।

स्वतंत्रता के बाद हमारी गरीबी और विशेष परिस्थितियों में सुधार की जरूरत थी, लेकिन सुधार के नाम पर बिगाड़ की नहीं। हमारी साक्षरता बढ़ी है, समाज के सभी वर्ग उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। बावजूद इसके प्रशासनिक क्षमता को दरकिनार करते हुए राजनीतिक रेवड़ी के नाम पर उम्र लगातार बढ़ाई जाती रही। मंडल आयोग के बाद उम्र 28 से बढ़ाकर 30 की गई। फिर संप्रग सरकार ने 2004 में आयुसीमा बढ़ाकर 30 से 32 कर दी। प्रश्न यह है कि क्या 30 की उम्र पार कर चुके अभ्यर्थी आइआइटी आदि से निकले हुए उन नौजवानों का मुकाबला कर सकते हैं, जिनकी उम्र 21 से 25 साल की होती है। अधिक आयुसीमा और प्रयासों पर कई बार अंगुली उठाई गई है। यह स्वाभाविक प्रतिभाशाली का चुनाव नहीं है। सुविधाओं के लिए देश के नीति-नियंता बनने की चाह में रट्टा मारकर कोचिंग संस्थानों में डेरा डाले चंद युवाओं का मैदान ज्यादा है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भी आयु की सीमा और प्रयासों को कम करने की बात कही है। इस संबंध में कई समितियों की सिफारिशें भी लंबित पड़ी हैं। आयुसीमा घटाने के सवाल पर कुछ लोग गरीबों की दुहाई देने लगते हैं, लेकिन यह समझने की आवश्यकता है कि गरीबों का भला एक सक्षम, पारदर्शी और योग्य नौकरशाही ही कर सकती है। लुंज-पुंज और अपेक्षाकृत उम्रदराज लोग नहीं।

कुछ और सुधारों की भी जरूरत लगती है। यूपीएससी को इसका अहसास होगा कि 2011 में शुरू हुई सीसैट परीक्षा लगभग लाटरी का खेल बन चुकी है। उससे पूर्व के आंकड़े बताते हैं कि पहले ऐसा नहीं था। मौजूदा प्रारंभिक परीक्षा में एक तरह की तुक्केबाजी हो रही है। पहली बार में इन सेवाओं में सफल होने वाला कई-कई बार प्रारंभिक परीक्षा में भी फेल होता रहता है और लगातार प्रारंभिक परीक्षा में फेल होने वाला अचानक टापर्स में भी शामिल हो जाता है। नौजवानों की मानसिक स्थिति पर भी इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है और आत्महत्या तक की खबरें आती हैं। कोठारी समिति की मूल सिफारिशों में मुख्य परीक्षा का एक विषय प्रारंभिक परीक्षा में भी शामिल था। या तो उसे तुरंत वैसे ही वापस लाया जाए या मुख्य परीक्षा से भी वैकल्पिक विषय को बाहर किया जाए। 2000 में प्रोफेसर अलघ कमेटी ने कानून और लोक प्रशासन जैसे विषय जोड़े जाने की बात कही थी, जिनकी जरूरत हर नौकरशाह को अपने पूरे कार्यकाल में रहती है। ट्रेनिंग के दौरान इन विषयों को फिर से पढ़ने की जरूरत भी नहीं रहेगी। पिछले 10 वर्षों में इस सुझाव को भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया है कि जो भी अभ्यर्थी मुख्य परीक्षा पास करके साक्षात्कार देते हैं, उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें राज्य स्तर और दूसरे संस्थान मौका दें। आखिर लाखों उम्मीदवारों में से यूपीएससी जैसे संस्थान से इस स्तर तक पहुंचे हुए नौजवानों में कुछ तो योग्यता होगी ही। उन्हें ऐसा अवसर न मिलने पर वे शहर दर शहर दूसरी परीक्षा में बैठते रहेंगे और कोचिंग संस्थान भी कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते रहेंगे।

सरकार और यूपीएससी को इसका अहसास होना चाहिए कि फिलहाल देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं की पहली प्राथमिकता यूपीएससी नहीं है। 21वीं सदी के अनुकूल उनकी योग्यता का फायदा अमेरिका, इंग्लैंड से लेकर पूरी दुनिया उठा रही है, लेकिन हम उन्हें सही अवसर देने में असफल रहे हैं। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों की तरफ भागते छात्रों की भीड़ और दुनिया की दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीर्ष पर आसीन भारतीय नौजवान इसका प्रमाण हैं। आत्मनिर्भर भारत के लिए सुधार के कदम उठाने की जरूरत है-केंद्र के स्तर पर भी और राज्य के प्रशासनिक स्तर पर भी। संजीव सान्याल का सुझाव सही है और उचित होगा कि आम चुनाव के बाद नई सरकार ‘स्टील फ्रेम’ में लगी हुई जंग को सबसे पहले ठीक करे। भारतीय प्रशासनिक सेवा की रीढ़ कही जाने वाली नौकरशाही को ठीक किए बिना अमृतकाल में विकसित भारत का सपना साकार होना मुश्किल है। मोदी सरकार ने आजादी के बाद के उलझे हुए कई मसलों को सुलझाने में अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखाई है। अब समय आ गया है कि नौकरशाही में भी आमूलचूल बदलाव किया जाए।


Date:03-04-24

जांच का दायरा

संपादकीय

पिछले कुछ वर्षों से केंद्रीय जांच एजंसियों की कार्यप्रणाली लगातार प्रश्नांकित होती रही है। कई मौकों पर अदालतें भी उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही याद दिला चुकी हैं। उसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने भी कहा कि जांच एजंसियों को उन अपराधों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो देश की सुरक्षा, आर्थिक स्थिति और लोकव्यवस्था के लिए असल में खतरा पैदा करते हों। उन्होंने इस पक्ष को भी रेखांकित किया कि जांच अनिवार्यताओं और व्यक्तिगत गोपनीयता अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की तत्काल आवश्यकता है। प्रधान न्यायाधीश के इस कथन को प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो और आयकर विभाग की पिछले कुछ सालों में की गई छापेमारी और गिरफ्तारियों, जब्ती वगैरह के मद्देनजर देखें, तो स्थितियां स्वत: स्पष्ट हो जाती हैं। हालांकि प्रधान न्यायाधीश की इस नसीहत को जांच एजंसियां कितनी गंभीरता से लेंगी और उस पर कितना अमल करेंगी, कहना मुश्किल है। बेशक प्रधान न्यायाधीश ने ये बातें सीबीआइ के ही एक आयोजन में कहीं। मगर जैसा कि अनेक मामलों में देखा जाता है, सार्वजनिक मंचों से कही बातों को अक्सर आदर्श वक्तव्य की तरह केवल सुन लिया जाता है, उन पर अमल करना जरूरी नहीं समझा जाता। सीबीआइ भी ऐसा ही करे, तो हैरानी की बात नहीं।

केंद्रीय जांच एजंसियों पर लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि वे सरकार के इशारे और उसकी इच्छा के अनुरूप काम करती हैं। पिछले कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के इरादे से लगातार की जा रही कार्रवाइयों के मद्देनजर ये आरोप निरंतर गाढ़े होते गए हैं। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि अधिकतर कार्रवाइयां विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ ही की गई हैं। उसमें कई नेताओं को सलाखों के पीछे भी डाला गया। अनेक मामलों में आरोप लगते रहे कि गलत तरीके से जब्ती की गई, पूछताछ के नाम पर लोगों को नाहक परेशान और प्रताड़ित किया गया। यह सवाल भी लगातार पूछा जाता है कि जांच एजंसियां जितने छापे मारती और कार्रवाइयां करती हैं, उनमें से पांच फीसद मामलों में भी दोष सिद्ध नहीं हो पाते। धनशोधन निवारण कानून की धाराएं इतनी सख्त हैं कि उनके तहत गिरफ्तार किए गए लोगों को तब तक जमानत नहीं दी जाती, जब तक कि वे निर्दोष साबित नहीं हो जाते। इसलिए सर्वोच्च अदालत ने पहले भी कहा था कि इस कानून के तहत गिरफ्तारी से पहले जांच एजंसियों को पूरी तरह आश्वस्त होना चाहिए कि मामले में दोषसिद्धि की कितनी संभावना है। मगर इसे भी गंभीरता से नहीं लिया गया।

ताबड़तोड़ छापों से परेशान होकर विपक्षी दलों ने इन पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई, तब अदालत ने कहा था कि धनशोधन का मामला आतंकवादी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से भी जुड़ा हो सकता है, इसलिए एजंसियों को इस काम से रोका नहीं जा सकता। अब प्रधान न्यायाधीश ने जांच एजंसियों का दायरा स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें उन्हीं मामलों पर अपना ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, जिनसे राष्ट्र की सुरक्षा, आर्थिक स्थिति और लोकव्यवस्था को खतरा पैदा होता हो। उसमें व्यक्ति के निजी अधिकारों की सुरक्षा का भी ध्यान रखने की जरूरत है। जांच एजंसियां जांच के नाम पर अक्सर व्यक्तियों के फोन, कंप्यूटर जैसे निजी उपकरण भी जब्त कर लेती हैं, जिनमें उनकी व्यक्तिगत सामग्री हो सकती है। इन नैतिक और कानूनी तकाजों का ध्यान एजंसियां तभी रख सकती हैं, जब उनमें वास्तव में स्वतंत्र रूप से काम करने की इच्छाशक्ति हो।


Date:03-04-24

सौर ऊर्जा क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम

सीमा अग्रवाल

बढ़ती ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर सरकार ने ‘सूर्योदय योजना’ शुरू की है। इसका उद्देश्य देश में एक करोड़ घरों की छतों पर सौर ऊर्जा प्रणाली स्थापित करना है। सूरज की रोशनी से बनी इस बिजली के उपयोग से दैनिक जीवन में बिजली की खपत को कम किया जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह पहल जल्द ही भारत को विश्व पटल पर अक्षय ऊर्जा के निर्यातक के रूप में स्थान दिलाएगी। भारत के अधिकांश भागों में वर्ष में 250-300 धूप निकलने वाले दिनों सहित हर दिन प्रति वर्गमीटर लगभग 4-7 किलोवाट घंटे का सौर विकिरण मिलता है। अगर इसे वर्ष भर के उत्पादन से जोड़ें तो भारतीय भूभाग पर लगभग प्रतिवर्ग मीटर पांच हजार लाख करोड़ किलोवाट सौर ऊर्जा मिलती है।

‘नेशनल इंस्टीट्यूट आफ सोलर एनर्जी’ के आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 748 गीगावाट सौर ऊर्जा की क्षमता है। इसे ‘सोलर पैनल’ की मदद से बिजली में बदल कर बढ़ती ऊर्जा की मांग को पूरा किया जा सकता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रकाशित बंजर भूमि एटलस 2019 के अनुसार देश में कुल बंजर भूमि लगभग 5,57,665 वर्ग किलोमीटर है। इस भूमि का उपयोग सोलर पैनल लगाने में किया जा सकता है। इससे अच्छी मात्रा में सौर ऊर्जा पैदा की जा सकती है। ‘काउंसिल आन एनर्जी एनवायरमेंट एंड वाटर’ द्वारा जारी एक रपट में कहा गया है कि भारत के 25 करोड़ घरों की छतों पर 637 गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है।

भारत ने अपने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के अंतर्गत 11 जनवरी, 2010 को राष्ट्रीय सोलर मिशन शुरू किया था। इस मिशन का उद्देश्य देश के सामने उभर रही ऊर्जा चुनौतियों से लड़ना है। गौरतलब है कि ‘काप-28’ के दौरान भारत ने लक्ष्य रखा था कि वह 2030 तक अपनी कुल स्थापित विद्युत ऊर्जा का पचास फीसद गैर-जीवाश्म स्रोतों से प्राप्त करेगा। इस लक्ष्य को पूरा करने में सौर ऊर्जा का विस्तार और विकास बेहद आवश्यक है। इसके लिए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन में तीव्रता लाने के लिए कई योजनाएं चलाई हैं। इनमें सोलर पार्क योजना, फोटोवाल्टिक सेल के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने हेतु ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ योजना, ‘ग्रिड कनेक्टेड सोलर फोटोवोल्टिक प्रोजेक्ट्स’ आदि प्रमुख हैं। इन योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के कारण आज भारत की कुल सौर ऊर्जा क्षमता 70 गीगावाट तक पहुंच गई है। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी वैश्विक स्थिति रपट 2023 के अनुसार विश्व में सोलर पैनल उपलब्ध कराने में आज भारत पांचवें नंबर पर है।

सौर ऊर्जा के उपयोग में बड़ी भूमिका फोटोवोल्टिक सेल की होती है। इन्हीं के जरिए सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलकर ग्रिड तक पहुंचाया जा सकता है। फोटोवोल्टिक सेल सोलर पैनल को ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने, इनके आयात पर होने वाले विदेशी मुद्रा के खर्च को कम करना एक बड़ी चुनौती थी। इसलिए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा के क्षेत्र में ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम’ की शुरुआत की है। इसमें ऐसे उद्यमियों को सबसिडी दी जाती है, जो सोलर पैनल या सौर ऊर्जा से जुड़े किसी भी उपकरण का निर्माण घरेलू स्तर पर कर रहे हैं।

आज भारत के सौर ऊर्जा क्षेत्र में काफी वृद्धि देखी जा सकती है। इसमें बड़ा योगदान सरकार की ‘सोलर पावर बैंक’ योजना का है। इस योजना के तहत सरकार कई सौ हेक्टेयर भूमि पर सौर संयंत्र लगाती है। अब तक इस योजना के तहत कई सोलर पार्क बन चुके हैं। इसमें राजस्थान का भादला सोलर पार्क सबसे बड़ा है। इसकी सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 2.25 गीगावाट है। वहीं कर्नाटक के पाबागाड़ा सोलर पार्क की क्षमता 2.05 गीगावाट है। इसे भविष्य में तीन गीगावाट तक करने की योजना है। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की वर्षांत समीक्षा 2022 के अनुसार जनवरी से अक्तूबर 2022 के दौरान विभिन्न सौर पार्कों में 832 मेगावाट क्षमता की सौर परियोजनाएं चालू की गई हैं। 17 पार्कों में 10 गीगावाट से अधिक की कुल क्षमता वाली सौर ऊर्जा परियोजनाएं पहले ही शुरू की जा चुकी हैं। इन योजनाओं और नीतियों का परिणाम है कि वर्ष 2022 में गुजरात का मोढेरा भारत का पहला सोलर ग्राम बना। सितंबर 2023 में मध्यप्रदेश का सांची देश का पहला सोलर नगर बन गया। 2018 में दीव देश का पहला सोलर द्वीप बन गया था।

सौर ऊर्जा को नवीकृत और सतत ऊर्जा का मुख्य स्रोत कहा जाता है, जो पर्यावरण के अनुकूल विद्युत उत्पादन का विकल्प देती है। आज सौर ऊर्जा से घरों और उद्योगों दोनों को सस्ती दरों पर बिजली दी जा रही है। सस्ती दरों पर उद्योगों को बिजली मिलने से उत्पादन की लागत घटेगी। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक सन 2000 से भारत में ऊर्जा का उपभोग दोगुनी गति से बढ़ रहा है। लगभग दो दशक में 90 करोड़ नागरिकों को बिजली का कनेक्शन मिल चुका है, जो भविष्य में भारत की ऊर्जा मांग को हर साल 5-6 फीसद बढ़ा रहा है। गौरतलब है कि भारत की अस्सी फीसद ऊर्जा की जरूरत तीन महत्त्वपूर्ण र्इंधनों- कोयला, तेल और ठोस बायोमास से पूरी होती है। ऊर्जा के लिए जीवाश्म र्इंधन पर निर्भरता लगातार भारत के विदेशी मुद्रा कोष को खाली करती जा रही है। ऐसे में सौर ऊर्जा का विकास और वृद्धि ही भारत के विदेशी मुद्रा कोष को खाली होने से रोक पाएगी।

सौर ऊर्जा निसंदेह बहुउद्देशीय उपयोग वाली अक्षय ऊर्जा है, लेकिन अभी इसके विकास में अनेक चुनौतियां सामने आ रही हैं। सौर ऊर्जा के लिए सोलर पैनल की जरूरत होती है। पिछले वर्ष देखा गया कि भारत के सोलर पावर डेवलपर्स सोलर सेल को चीन, कंबोडिया, मलेशिया, थाईलैंड, विएतनाम से आयात कर रहे हैं। जनवरी से अगस्त 2022 में लगभग 2.5 अरब रुपए के सोलर सेल हमने विदेशों से आयात किए हैं। भारतीय सोलर पावर डेवलपर्स का तर्क है कि हमारे देश में बने सोलर सेल महंगे और कम दक्षता वाले हैं, इसलिए हमें ये आयात करने पड़ते हैं। दरअसल, भारत में बने सोलर सेल अन्य देशों की तुलना में महंगे हैं, क्योंकि सोलर सेल में इस्तेमाल होने वाले सिलिकान वेफर सेमीकंडक्टर से बनते हैं, जिनका भारत में काफी अभाव है। सौर ऊर्जा विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में सौर उद्योग की वृद्धि नए रोजगारों का सृजन करेगी। इससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। अगर भारत में सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाया जा सकेगा, तो इससे जीडीपी दर भी बढ़ेगी। सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली उत्पादन, तापन और प्रकाश तीनों के लिए हो सकता है।

भारत में दूरदराज के क्षेत्रों तक बिजली पहुंचाने के लिए इन क्षेत्रों में ग्रिड स्थापित करनी होगी, जिसकी लागत बहुत अधिक होती है। इन क्षेत्रों में सौर संयंत्र स्थापित करने से यह खर्च कम किया जा सकता है। इससे गांवों को भी सस्ती दरों पर बिजली मिल सकेगी।