03-03-2021 (Important News Clippings)
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Date:03-03-21
Another Front Opens ?
Since Galwan, cyber threats to Indian infrastructure have also escalated
TOI Editorials
Chinese hostilities at the border are by no means the only intrusions India needs to be alert to. A new study by the American company Recorded Future underlines systematic cyberintrusions by Chinese state-sponsored groups attempting to gain a foothold in “critical nodes across the Indian power generation and transmission infrastructure”. The October 12 blackout in our financial capital is being linked to this cause, with the Maharashtra energy minister affirming the possibility of sabotage. Recorded Future does say that the link remains unsubstantiated. But as the Biden administration’s caution in calling the widespread SolarWinds hack a ‘Russian attack’ also suggests, plausible deniability is a key feature of successful state-sponsored cyber espionage and hostilities.
It bears reminding that Mumbai’s grid failure brought its trains and financial markets to a screeching halt, leaving hospitals scrambling for generators in the high noon of the pandemic, making it plain in just a couple of hours how extensive economic damage can be caused by digitally crippling the power infrastructure. Actually, the vulnerabilities are everywhere. Other recent reports point to Chinese groups targeting Serum Institute and Bharat Biotech. Over the past decades a lot of the dragon’s fire has derived from looting intellectual property. Now its geopolitical ascendancy and aggression portend higher levels of threat and harm.
Indian government insiders say additional safeguards have been deployed after October to protect the national power grid, with CERT-In helping deflect various malware. Cybersecurity also needs a broader strengthening because the pandemic has pushed many sectors through an unprecedented digital transformation. For this, international collaboration is necessary and urgent. Although talk of a Digital Geneva Convention will not go far in today’s polarised world, India must work closely with like-minded countries to share intelligence and neutralise cyberattacks, while protecting the privacy of citizens.
Date:03-03-21
Declare a Cyber Security Emergency
Tap India’s startup ecosystem to fortify defences
ET Editorials
An expert report that cited a cyberattack as cause for the massive grid failure and blackout that hit Mumbai and adjoining areas on October 12 has been countered by Union Power Minister R K Singh. GoI has attributed the blackout to ‘human error’, not a hacking attempt. Whatever be the cause of that specific outage, shoring up cybersecurity is of critical import. With rapid digitisation, our vital installations, dam sluice-gate operations or financial markets, and even government accounts, are all vulnerable to cyberattacks, which are mostly anonymous and difficult to attribute to specific actors, either State, non-State, or both. In cyberspace, Advance Persistent Threats (APT) executed by anonymous hackers can often go unnoticed for long periods. Hence the need for proactive policy to resolutely address rising cyberthreats.
The National Cyber Security Strategy 2020 does call for an index of cyber preparedness, and attendant monitoring of performance. A separate budget for cybersecurity is suggested, as also to synergise the role and functions of various agencies with the requisite domain knowledge. In tandem, we do need to better allocate resources for developing cybersecurity capability, technology and training infrastructure, by, for instance, setting up testing labs and duly participating in standards-setting protocols and performance norms. India is the second-fastest digital adopter among 17 of the most-digital economies globally, and rapid digitisation does require forward-looking measures to boost cybersecurity, which is, in fact, fundamental to our national security.
We need to envisage cyber deterrence on the lines of strategic deterrence to dissuade cyberattackers. Cyber defences must be duly raised to protect our networks, and we do need to acquire offensive capabilities for effective deterrence in cyberspace. A whole ecosystem of nurturing talent and expertise needs to be speedily designed and followed through. India’s startup ecosystem and its bubbling energy and bounteous talent must be tapped for cyber reinforcement, with the State acting as venture capitalist.
Date:03-03-21
आत्मनिर्भर बनने का रास्ता निजीकरण से होकर जाता है !
डॉ. एम. चंद्र शेखर, ( असि. प्रोफेसर, इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइज, हैदराबाद )
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण पर देश में बहस जारी है। विशाखापट्टनम में वाइजेग स्टील के निजीकरण के खिलाफ पिछले कुछ दिनों से PSU में काम कर रहे लोग, विभिन्न राजनीतिक पार्टियां और छात्र भी प्रदर्शन कर रहे हैं। इन रैलियों में स्लोगन है- ‘वाइजेग स्टील भारतीयों का अधिकार है।’
ऐसा नहीं है कि सिर्फ वाइजेग स्टील ही लोगों का अधिकार है, सार्वजनिक उपक्रमों की संपत्तियां देश के लोगों की संपत्ति हैं। ऐसी सार्वजनिक संपत्तियों का निजीकरण किया गया और जिसके कारण उद्यमों को बंद तक कर दिया गया। स्वाभाविक है कि पिछले एक दशक से सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण के लिए कई कमजोर तर्क दिए जा रहे हैं। पहले हैदराबाद कई नामी PSU जैसे IDPL, HCL, एल्विन, HMT आदि के लिए जाना जाता था। आज उनमें से अधिकांश विभिन्न कारणों से बंद हो गई हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या यह प्रबंधकों की अक्षमता थी या मानव संसाधनों की असफलता या वित्तीय संसाधनों की गंभीर कमी? या कारण नौकरशाही और राजनीति का हद से ज्यादा हस्तक्षेप। क्या बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसके लिए जिम्मेवार है। या कारण आधुनिक तकनीकी कौशल की कमी है? इन संस्थाओं की हालत के पीछे क्या अप्रत्यक्ष रूप से लोग ही जिम्मेदार नहीं है? सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण देश के अमीर और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए समस्या है? इन सारे सवालों को इकट्ठा किया जाए, तो लोगों की संपत्ति का निजीकरण सारे प्रश्नों के मूल में है।
निजी एयरलाइन जैसे जेट-किंगफिशर भारी कर्ज के कारण डूब गईं। परिणाम ये हुआ कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का NPA बढ़ा और कई PSU बैंक का विलय हुआ। पिछले पांच सालों में दूरसंचार क्षेत्र की कई कंपनियां रसातल में चली गई हैं और कई अभी भी कर्ज से जूझ रही हैं। निजी क्षेत्र का यस बैंक डूब गया और बड़े भाई की तरह स्टेट बैंक ने इसे सहारा दिया। सरकारें सब्सिडी से हुए नुकसान की पूर्ति करने में असफल रही हैं, ऐसे में सार्वजनिक क्षेत्र की तेल और गैस कंपनियां भी निजीकरण के लिए दबाव डाल रही हैं। क्या निजीकरण सफलता का सूचक है? अगर ऐसा है तो नोकिया और कोडैक जैसी प्रतिष्ठित और बड़ी कंपनियां आज कहां हैं?
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां सरकार को वार्षिक डिविडेंड के रूप में मुनाफा बांटती हैं। विनिवेश तंत्र के हिस्से के रूप में कई कंपनियां शेयर बायबैक के जरिए भी सरकार को नकद भुगतान कर रही हैं। वे परोपकारी कामों का विस्तार भी कर रही हैं। क्या LIC और BPCL जैसी कंपनियों का निजीकरण उचित है? अगर सरकार गंभीर है, तो इन सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का प्रदर्शन भी सुधारा जा सकता है। उदाहरण के लिए पूर्व रेल मंत्री लालू यादव ने जब रेलवे भारी घाटे से गुजर रही थी, उन्होंने रेलवे की दक्षता में सुधार किया। स्टेट बैंक के पूर्व चेयरमैन रजनीश कुमार ने अपने अनुभव से पांच महत्वपूर्ण स्टेट बैंक के विलय की प्रक्रिया को आसान बनाया और घाटे में चल रही बैंकिंग को मुनाफे में लाया ।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम इसलिए मुश्किलों से गुजर रहे हैं, क्योंकि कई सरकारों ने इनकी कमियां दूर करने के लिए समय पर नीतिगत निर्णय नहीं लिए। बेहतर है कि हम संबंधित उपक्रम के असफल होने के कारण खोजें, कुशल लोगों की नियुक्ति करें और आधुनिक तकनीक लाने की दिशा में निर्णय लें। दशकों तक निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भारत के लिए दो आंखों की तरह रही हैं। एक आंख से यात्रा में छोटी अवधि के दौरान तो फायदे मिल सकते हैं, लेकिन लंबी अवधि में नहीं। इसलिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों पर ध्यान देना चाहिए और निजी कंपनियों को रेगुलेट करना चाहिए। नहीं तो आय में असमानता का खतरा हो सकता है , जो एकजुट समाज को कोई आधार नहीं देता ।
Date:03-03-21
मर्यादा में रहे अभिव्यक्ति
सभी को यह समझना होगा कि कोई भी अपने एजेंडे के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या नहीं कर सकता
ए. सूर्यप्रकाश, (लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ हैं)
भारत सरकार और ट्विटर में रार के बीच सरकार ने इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म और ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा देने वाली आपत्तिजनक ऑनलाइन सामग्री से निपटना है। ये दिशा-निर्देश इसलिए आवश्यक थे, क्योंकि ओटीटी समेत इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म किसी नियमन के दायरे में नहीं हैं। इसीलिए उनकी मनमानी पर लगाम नहीं लग पा रही थी। इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म न तो फेक न्यूज रोकने के लिए कुछ कर रहे थे और न ही हिंसा, वैमनस्य आदि पर लगाम लगाने के लिए। ऐसे दिशा-निर्देश इसलिए आवश्यक हो गए थे, क्योंकि इस संदर्भ में जैसे नियम-कानून विभिन्न देशों ने बना लिए हैं वैसे भारत में नहीं हैं। जहां फेसबुक ने इन दिशा-निर्देशों का स्वागत किया है, वहीं ट्विटर मौन साधे हुए है। उसके कर्ताधर्ता मुख्यबिंदु से भटक रहे हैं। मुख्यबिंदु यह है कि भारत में कारोबार करने की इच्छुक कंपनियों को देश के संविधान और संसद द्वारा पारित कानूनों के दायरे में ही काम करना होगा। भले ही कंपनी के अपने कायदे-कानून हों, पर भारतीय कानूनों के समक्ष वे बेमानी हैं। यह सब कहने की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है, क्योंकि ट्विटर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमारे संविधान पर अपनी सोच थोपने की फिराक में है। इस प्रकरण की शुरुआत सरकार द्वारा ट्विटर से उन 1178 अकाउंट पर कार्रवाई के निर्देश के साथ हुई, जिनके तार पाकिस्तान और खालिस्तानी समर्थकों से जुड़े हुए थे। वे फर्जी सूचनाओं से किसानों को भड़का रहे थे। सरकार ने ट्विटर से कहा कि वह न केवल ऐसे अकाउंट हटाए, बल्कि ‘फार्मर्सजेनोसाइड’ यानी किसानों का संहार जैसे नितांत आपत्तिजनक हैशटैग भी हटाए। ट्विटर ने इस निर्देश पर तात्कालिक कार्रवाई नहीं की। बाद में भी उसने महज खानापूíत करने का ही काम किया।
उस कुख्यात टूलकिट को लेकर भी सरकार और ट्विटर के बीच तल्खी बढ़ी, जिसका मकसद कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान देश में आक्रोश की नई चिंगारी भड़काना था। ट्विटर को इस बात को लेकर भी सूचित किया गया कि भारत में असंतोष को हवा देने और सौहार्द की भावना बिगाड़ने में उसके मंच का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसके साथ ही सरकार ने उसे दो-टूक लहजे में चेताया कि ट्विटर एक माध्यम मात्र है और उसे भारतीय संविधान और संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करना ही होगा। इलेक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी सचिव ने ट्विटर के अधिकारियों से कहा कि उनकी कंपनी उन लोगों का पक्ष ले रही है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठाकर भारत में माहौल बिगाड़ना चाहते हैं। सरकार का पक्ष गलत नहीं है, क्योंकि अक्सर ट्वीट बहुत अश्लील, भद्दे और गाली-गलौज से भरे होते हैं। उनमें शिष्टता की बलि चढ़ जाती है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं रही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भी ट्विटर ने दोहरा रवैया दिखाया। भारत सरकार और जनता ने इसका संज्ञान तब लिया जब 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हमले और 26 जनवरी को दिल्ली के लालकिले पर हुई ¨हसा को लेकर ट्विटर ने अलग-अलग तेवर दिखाए। इन दोनों मामलों पर ट्विटर के रुख से यही स्पष्ट हुआ कि वह केवल ‘दक्षिणपंथी’ विचार वालों पर कार्रवाई करेगा। वहीं अगर सरकार भी ‘दक्षिणपंथी’ विचार से जुड़ी दिखाई दे और उसके विरोधी वामपंथी हिंसक गतिविधियां करें तो उनका कोई अपराध न माना जाए। उन्हें मूल अधिकारों का चोला पहना दिया जाए। ट्विटर की प्रतिक्रिया भी बहुत विचित्र है। अमेरिकी संसद और लाल किला प्रकरण से स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर उसका कोई वैश्विक मानदंड नहीं है। ट्विटर के अधिकारी यह समझ लें कि भारत में अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। हालांकि इसी अनुच्छेद में ‘युक्तियुक्त र्निबधन’ का भी प्रविधान है, जहां सरकार भारत की एकता-अखंडता, राज्य की सुरक्षा, मित्र राष्ट्रों के साथ संबंध, अदालत की अवमानना, लोक व्यवस्था और मानहानि जैसे कुछ मामलों में इस अधिकार को सीमित कर सकती है। ये युक्तियुक्त निर्बंधन भी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में पहले संविधान संशोधन में जोड़े थे, क्योंकि उनकी दृष्टि में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वच्छंद होकर लोक व्यवस्था को बिगाड़ने, नागरिकों की मानहानि करने और अपराधों को भड़काने का निमित्त बन रही थी। संसद द्वारा इस संशोधन को विधिक स्वरूप प्रदान करने के बाद न्यायालय द्वारा यह निर्धारित करने की भूमिका शेष रह जाती है कि सरकारी प्रतिक्रिया युक्तियुक्त थी अथवा नहीं? इसके बावजूद ट्विटर ने सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट, नेताओं और मीडिया से जुड़े अकाउंट बंद नहीं किए, क्योंकि इससे उनके मूल अधिकार का ‘उल्लंघन’ होता। उसने यही राग अलापा कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को समर्थन देना जारी रखेगा।
ट्विटर को समझना होगा कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या अपने एजेंडे के अनुसार नहीं कर सकता। उसे हमारे संविधान और कानूनों का सम्मान करना ही होगा। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्या मापदंड है? इसकी सटीक व्याख्या एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मुखर्जी के विख्यात फैसले के आलोक में दुर्गादास बसु ने की है। उसका सार यही है, ‘ऐसी कोई असीमित या अनियंत्रित स्वतंत्रता नहीं हो सकती जो पूरी तरह अंकुश से मुक्त हो, जिससे अराजकता और व्यवस्था भंग होने की नौबत आ जाए। संविधान का यही उद्देश्य है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता और सामाजिक सुरक्षा में एक सही संतुलन हो।’ अनुच्छेद 19 की व्याख्या में उन्होंने यही कहा कि इसमें वैयक्तिक स्वतंत्रता और उस पर संभावित प्रतिबंधों की व्यवस्था भी है, ताकि वैयक्तिक स्वतंत्रता का लोक कल्याण या सार्वजनिक नैतिकता के साथ कोई टकराव न हो। यही हमारा संवैधानिक रुख है और हमारे लिए सुप्रीम कोर्ट के शब्द ही मायने रखते हैं। इसमें हम किसी इंटरनेट माध्यम को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं देंगे। हमारा संविधान सर्वोच्च है और वही कानून मान्य है, जिसे हमारा सुप्रीम कोर्ट मान्यता देता है। कोई भी देसी-विदेशी कंपनी या संस्था खुद को उनसे ऊपर न समङो। हम भारतीय अपनी और अपनी संप्रभुता का खयाल रखने में पूरी तरह सक्षम हैं।
Date:03-03-21
जैव विविधता पर मंडराता खतरा
यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा अन्य जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो
योगेश कुमार गोयल , (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवनयापन के योग्य बनाती है, किंतु विडंबना है कि निरंतर बढ़ता प्रदूषण रूपी राक्षस वातावरण पर इतना खतरनाक प्रभाव डाल रहा है कि जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 दिसंबर, 2013 को अपने 68वें सत्र में तीन मार्च के दिन को विश्व वन्यजीव दिवस के रूप में अपनाए जाने की घोषणा की।
अगर देश में प्रमुख रूप से लुप्त होती कुछेक जीव-जंतुओं की प्रजातियों की बात करें तो कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या सिर्फ दो सौ के आसपास रह गई है, जिनमें से करीब 110 दाचीगाम नेशनल पार्क में हैं। इसी प्रकार आमतौर पर दलदली क्षेत्रों में पाई जाने वाली बारहसिंगा हिरण की प्रजाति अब मध्य भारत के कुछ वनों तक ही सीमित रह गई है। वर्ष 1987 के बाद से मालाबार गंधबिलाव नहीं देखा गया है। हालांकि माना जाता है कि इनकी संख्या पश्चिमी घाट में फिलहाल दो सौ के करीब बची है। दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाया जाने वाला दुनिया का सबसे छोटा स्तनपायी सफेद दांत वाला छछूंदर लुप्त होने के कगार पर है। एशियाई शेर भी गुजरात के गिर वनों तक ही सीमित हैं। देश में हर साल बड़ी संख्या में बाघ मर रहे हैं, हाथी कई बार ट्रेनों से टकराकर मौत के मुंह में समा रहे हैं। इनमें से कइयों को वन्य तस्कर मार डालते हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आइयूसीएन) के मुताबिक भारत में पौधों की करीब 45 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से भी 1336 प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इसी प्रकार फूलों की पाई जाने वाली 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं ।
पर्यावरण विज्ञानियों के मुताबिक प्रदूषण तथा स्मॉग भरे वातावरण में कीड़े-मकौड़े सुस्त पड़ जाते हैं। प्रदूषण का जहर अब मधुमक्खियों तथा सिल्क वर्म जैसे जीवों के शरीर में भी पहुंच रहा है। रंग-बिरंगी तितलियों को भी इससे काफी नुकसान हो रहा है। यही नहीं, अत्यधिक प्रदूषित स्थानों पर तो पेड़-पौधों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। हवा में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन तथा ओजोन की अधिक मात्र के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां भी जल्दी टूट जाती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि अगर इस ओर जल्द ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। माना कि धरती पर मानव की बढ़ती जरूरतों और सुविधाओं की पूíत के लिए विकास आवश्यक है, पर यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो।
Date:03-03-21
बाजारोन्मुख कृषि की ओर
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि किसानों के लिएकृषि उपज बेचने के नये रास्ते‚ नये विकल्पों का विस्तार किया जाना जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि क्षेत्रके लिए बजटीय प्रावधानों पर एक वेबिनार को संबोधित करते हुए यह बात कही। कहा कि कृषि उपज के मूल्यवर्धन और खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाना जरूरी हो गया है। जरूरी है कि कृषि क्षेत्र में शोध एवं विकास कार्यों समेत दूसरे क्षेत्रों में भी निजी क्षेत्रकी भागीदारी बढ़े । दरअसल‚ आने वाला समय कृषि क्षेत्र के लिहाज से बदलाव का होगा। सरकार कृषि क्षेत्र का कायाकल्प कर देने के लिए संकल्पबद्ध है। किसानों की आमदनी दोगुना करने का वादा कर चुकी है। इस संकल्प के क्रियान्वयन के क्रम में उसे महसूस हो रहा है कि कृषि में लीक से हटकर कुछ करना ही होगा। चूंकि कोई भी बदलाव सहज नहीं होता इसलिए उसका विरोध भी होने लगता है।
किसानों ने तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ जो आंदोलन छेड़़ रखा है‚ उसे भी बदलाव के विरोध का ही एक स्वरूप माना जा सकता है। गौरतलब है कि सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किए हैं‚ ताकि किसानों की आमदनी को दोगुना करने की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सके। लेकिन इसके विरोध में चालीस से ज्यादा किसान संगठन उतर आए हैं। उनके साथ कुछ राजनीतिक दलों के आ जाने से किसानों की ये कानून वापस लेने की मांग राजनीतिक ज्यादा नजर आने लगी है। लगने लगा है कि कानून वापसी के पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है‚ बल्कि किसानों को बरगला दिया गया है कि इन कानूनों के लागू होने से उन्हें अपनी जमीन तक से बेदखल होना पड़़ सकता है। जबकि हकीकत यह है कि इन कानूनों में ऐसा कानून भी है‚ जो किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने की आजादी देता है। किसान की आर्थिक स्थिति बेहतर होने की इस शर्त को पूरा करता है कि कृषि उपज बेचने के लिए ज्यादा से ज्यादा विकल्प किसान के पास होने चाहिए। लेकिन किसान इस व्यवस्था को समझने के बजाय यह मान रहे हैं कि इस व्यवस्था के अमल में आने से उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर सरकारी खरीद की व्यवस्था से वंचित होना पड़े़गा। बहरहाल‚ किसानों के लिए यह दौर तकलीफदेह है क्योंकि ढर्रा बदलते समय की यही खासियत होती है।
Date:03-03-21
संतुलित रखने की चुनौती
डॉ ब्रह्मदीप अलूने
चावल‚ नारियल और मसालों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में कड़े प्रतिस्पर्धी भारत और श्रीलंका सामान्य मामलों में एक दूसरे को प्रतिद्वंद्वी मानने से परहेज कर सकते हैं‚ लेकिन तमिलों के मुद्दों पर ऐसा नहीं कहा जा सकता। यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बैचलेट की श्रीलंका में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर आधारित रिपोर्ट को लेकर श्रीलंका चिंतित है‚ और चाहता है कि भारत श्रीलंका के खिलाफ आने वाले ऐसे प्रस्तावों का विरोध करे। श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे इस मामले में चिट्ठी भी प्रधानमंत्री मोदी को भेज चुके हैं।
श्रीलंका की सामरिक स्थिति हिंद महासागर की सुरक्षा के लिए बेहद महkवपूर्ण है‚ और भारत इसीलिए श्रीलंका से संतुलित रिश्ते रखना पसंद करता है‚ लेकिन भारत के लिए यह इतना आसान नहीं है। अतिराष्ट्रवाद और तमिल विरोध को राजनीतिक हथियार बनाकर श्रीलंका की सत्ता पर काबिज राजपक्षे बंधुओं की भारत को लेकर नीति बेहद असामान्य रही है। इस साल भारत ने वैक्सीन मैत्री के तहत श्रीलंका को 50 हजार कोरोना वैक्सीन की डोज भेज कर मजबूत रिश्तों का इजहार किया तो इसके कुछ दिनों बाद ही राजपक्षे सरकार ने भारत के साथ एक ट्रांसशिपमेंट परियोजना के करार को ठंडे बस्ते में डाल कर दोनों देशों के मधुर होते रिश्तों को प्रभावित करने से कोई गुरेज नहीं किया। इस ट्रांसशिपमेंट परियोजना को ईस्ट कंटेनर टर्मिनल नाम से जाना जाता है। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना और पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की सरकार के दौरान 2019 में यह महत्वपूर्ण समझौता हुआ था जिसमें जापान की भी सहभागिता थी।
श्रीलंका में रहने वाले तमिलों के भारत से मजबूत संबंध हैं‚ और वे कई दशकों से श्रीलंका में उत्पीड़न झेलने को मजबूर हैं। श्रीलंका में सिंहली बहुसंख्यकों द्वारा उत्पीडि़त श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी भारत में पनाह के लिए आते हैं‚ और इसका प्रभाव भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु पर पड़ना स्वभाविक है‚ जो ऐतिहासिक रूप से तमिलों की मातृभूमि समझा जाता है। श्रीलंका द्वीप का उत्तरी भाग भारत के दक्षिण पूर्वी समुद्र तट से मात्र कुछ किमी. दूर है‚ और तमिलनाडू के रामनाथपुरम जिले से जाफना प्रायद्वीप तक का समुद्री सफर छोटी–छोटी नौकाओं में आसानी से प्रति दिन लोग करते हैं। मध्य कोलंबो से तूती कोरिन और तेलई मन्नार से रामेश्वरम के मध्य समुद्री नाव सेवा प्राचीन समय से रही है। श्रीलंका की आबादी का 20 फीसदी तमिल हैं‚ और वे भारतीय मूल के हैं। दक्षिणी तमिलनाडु से इन तमिलों के रोटी–बेटी के संबंध हैं। श्रीलंका सालों से तमिलों की राष्ट्रीयता और उनके अधिकारों के प्रति दुर्भावना जताता रहा है‚ भारत को लेकर भी आशंकित रहता है‚ जबकि भारत की नीति उसके प्रति ऐतिहासिक–सांस्कृतिक कारणों से मित्रवत है।
तमिलों के अल्पसंख्यक और गरीब होने के कारण श्रीलंका की सरकारें इनके मौलिक अधिकारों की अनदेखी करती रही हैं‚ इस प्रकार इस देश में बसने वाले लाखों तमिलों में असुरक्षा‚ अविश्वास और आतंक की भावना विद्यमान है। श्रीलंका के 13वें संविधान संशोधन में कहा गया है कि हम तमिलों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए कई तरह के अधिकार प्रदान करेंगे। लेकिन श्रीलंका सरकार का रुख इसे लेकर सकारात्मक नहीं है। तमिलों के हितों को देखते हुए भारत के सामने चुनौती है कि श्रीलंका की सरकार से इन्हें लागू करवाए। राजपक्षे जिस प्रकार संकीर्ण राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं‚ उससे लगता है कि तमिलों पर अत्याचार बढ़ सकता है। श्रीलंकाई तमिलों पर अत्याचारों को लेकर श्रीलंका की वैश्विक आलोचना होती रही है। भारत श्रीलंका की तमिल विरोधी नीति का मुखर विरोध करता है‚ और संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद में उसके खिलाफ अनेक बार मतदान कर चुका है जबकि चीन और पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के पक्ष में मतदान करके भारत के खिलाफ कूट युद्ध को बढ़ावा दिया है। 2009 में श्रीलंका में एलटीटीई (लिट्टे) के खात्मे के साथ 26 साल तक चलने वाला गृह युद्ध समाप्त हुआ तो चीन पहला देश था जो उसके पुनÌनर्माण में खुलकर सामने आया था। चीन ने श्रीलंका में हंबनटोटा पोर्ट का निर्माण कर हिंद महासागर में भारत की चुनौती को बढ़ा दिया है। श्रीलंका ने चीन को लीज पर समुद्र में जो इलाका सौंपा है‚ वह भारत से महज 100 मील की दूरी पर है। हंबनटोटा बंदरगाह दुनिया के व्यस्ततम बंदरगाहों में है‚ और महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल में बने इस बंदरगाह में चीन से आने वाले माल को उतार कर देश के अन्य भागों तक पहुंचाने की योजना थी। चीन भारत का सामरिक प्रतिद्वंद्वी है‚ और स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स से समुद्र में भारत को घेरने की उसकी सामरिक महवाकांक्षा साफ नजर आती है‚ चीन भारत को हिंद महासागर में स्थित पड़ोसी देशों के बंदरगाहों का विकास कर चारों ओर से घेरना चाहता है। हंबनटोटा पोर्ट पर उसके अधिकार से भारत की समुद्र में चिंताएं बढ़ी हैं।
दक्षिण एशिया में श्रीलंका पहला देश था जहां भारतीय तेल कंपनियों ने पेट्रोल पंप खोले थे लेकिन अब यहां चीन हावी हो गया है। श्रीलंका के दूरदराज के हिस्सों में स्कूलों में बच्चों को चीनी भाषा सिखाई जा रही है। भारत से परंपरागत रूप से जुड़े श्रीलंका के नौनिहालों पर चीनी संस्कृति का प्रभाव बढ़ाने का प्रयास बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। चीन श्रीलंका का सबसे बड़ा आÌथक–सामरिक साझेदार बन गया है।
पाकिस्तान और श्रीलंका के संबंध भी भारत की चिंता बढ़ा रहे हैं। श्रीलंका और पाकिस्तान के सामरिक संबंध मजबूत रहे हैं‚ और दोनों देशों की सेनाएं संयुक्त अभ्यास करती रही हैं। 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध में श्रीलंका ने भारत के खिलाफ जाकर पाकिस्तान को अपना हवाई क्षेत्र उपलब्ध कराया था। पाकिस्तान श्रीलंका को छोटे हथियारों का मुख्य आपूÌतकर्ता रहा है‚ और यह सहयोग लिट्टे के खिलाफ गृह युद्ध में बड़े पैमाने पर किया गया था। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान श्रीलंका का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। श्रीलंका पहला देश है‚ जिसने पाकिस्तान के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। भारत को अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए जहां तमिलों के हितों को लेकर सजग रहना है वहीं अपनी बाह्य और समुद्री सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए श्रीलंका में चीन और पाकिस्तान के बढ़ते प्रभाव को भी नियंत्रित करना है। भारत की वैदेशिक नीति का झुकाव इस समय अमेरिका की ओर नजर आता है और बाइडेन प्रशासन मानव अधिकार जैसे मसलों पर ज्यादा मुखर है। भारत के हितों की रक्षा के लिए फिलहाल रुûको और देखों की नीति ज्यादा मुफीद नजर आती है।