02-12-2019 (Important News Clippings)
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सही मिश्रण जरूरी
संपादकीय
पेट्रोल के साथ मिलाने के लिए एथनॉल की उपलब्धता और आवश्यकता के बीच भारी अंतर को देखते हुए इसमें दो राय नहीं कि इसका उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है। परंतु सरकार इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जो प्रयास कर रही है वे पर्याप्त नहीं प्रतीत होते। इनमें सबसे बहसतलब है एथनॉल निर्माताओं (अधिकांशतया चीनी मिल मालिक जो इसे राब से बनाते हैं) द्वारा गन्ने के रस को सीधे अल्कोहल में बदलना। इसके अलावा वे अधिशेष चीनी और खाद्यान्न मसलन गेहूं, चावल और मक्के को भी इसके लिए प्रयोग में लाते हैं। इतना ही नहीं सरकार ने इन कच्चे मालों के प्रयोग को बढ़ावा देने वाले कदम के रूप में इनसे बनने वाले एथनॉल की अपेक्षाकृत ऊंची कीमत तय की है।
ऐसे में किसान गन्ने की खेती और चीनी मिलें गन्ने की खरीद, चीनी बनाने के बजाय इस जैव ईंधन के लिए करेंगी। चूंकि गन्ना, गेहूं और चावल के उत्पादन में खूब पानी लगता है इसलिए कहा जा सकता है कि जैव ईंधन उत्पादन में इनका इस्तेमाल पर्यावरण के लिए किसी त्रासदी को आमंत्रण देने के समान है। इनके उत्पादन में लगने वाले पानी की लागत को केवल आर्थिक संदर्भ में नहीं आंका जा सकता। इसकी सामाजिक कीमत, पेट्रोल में एथनॉल मिलाने से होने वाली आर्थिक बचत से कहीं अधिक हो सकती है।
इतना ही नहीं भारत जैसे देश में जहां बुनियादी ढांचे, उद्योग धंधों और अन्य उद्देश्यों के लिए भी जमीन मुश्किल से मिलती है वहां जैव ईंधन फसल के उत्पादन में इसका इस्तेमाल समझदारी भरा नहीं होगा। जहां तक खाद्यान्न की बात है, फिलहाल ऐसा लग सकता है कि अधिशेष अन्न को आसानी से जैव ईंधन बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन देश में व्याप्त कुपोषण और भूख को देखते हुए इसे उचित ठहराना मुश्किल होगा। हकीकत में कई भूसंपदा समृद्ध और औद्योगिक देश, जो गैसोलीन में फसल से बनने वाला जैव ईंधन मिलाते हैं, वे भी अपनी नीतियों की समीक्षा कर रहे हैं। अध्ययन बताते हैं कि इससे फसल बुआई के तरीके बदल गए हैं और खाद्यान्न कीमतें बढ़ी हैं। जैव ईंधन वाली फसल उगाने के लिए वनों की कटाई की सलाह को भी पर्यावरणविद चुनौती दे रहे हैं। गौरतलब है कि ब्राजील तथा कुछ अन्य देश ऐसा कर रहे हैं।
एक अन्य बात जिस पर ध्यान देना जरूरी है वह यह कि भारत में गन्ने तथा खाद्यान्न से इतर तरीकों से भी एथनॉल तैयार करने की काफी संभावना मौजूद है जिसका पूरा दोहन होना अभी बाकी है। वर्ष 2009 की राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति जिसे 2018 में संशोधित किया गया, वहां ग्रामीण और शहरी कचरे, सेलूलोसी और लिंगो सेलुलोसी बायोमास (कृषि के शुष्क पदार्थ) तथा गेहूं और धान के अवशेषों से एथनॉल का कच्चा माल तैयार किया जा सकता है। हालांकि ऐसा एथनॉल राब से बनने वाले एल्कोहल की तुलना में थोड़ा महंगा हो सकता है लेकिन फसल अवशेष जलाने के कारण होने वाले पर्यावरण नुकसान को रोककर यह भरपाई भी कर देता है। अच्छी बात यह है कि तेल विपणन कंपनियों ने इस विचार का समर्थन किया है और 11 राज्यों में ऐसी एथनॉल रिफाइनरी लगाने का काम चल रहा है। इस पर आगे और जोर देने की आवश्यकता है। गैर खाद्य और तेजी से विकसित होने वाले शैवालों की मदद से एथनॉल बनाने की दिशा में शोध ने सकारात्मक परिणाम दिए हैं। ऐसी नवाचारी तकनीक की मदद से पर्यावरण के अनुकूल जैव ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है। ऐसा करने से पर्यावास अथवा खाद्य सुरक्षा पर कोई बुरा असर भी नहीं होगा।
नीति बने बुजुर्गों की सेवा-संभाल के लिए
जयश्री सेनगुप्ता, (लेखिका ऑब्जर्वर रिसर्च फांउडेशन में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं।)
भारत की पारंपरिक रिवायतों में एक यह भी रीत थी कि बड़े बुजुर्ग अपने जिन बच्चों के साथ रहते थे, पुत्रों की ऊपर-नीचे होती आमदनी के बावजूद संयुक्त परिवार प्रणाली के चलते उनकी आर्थिक जरूरतें किसी तरह पूरी हो जाया करती थीं। घर-समाज में बुजुर्गों का सम्मान भी किया जाता था और उन्हें परिवार के फैसलों में आदर वाला महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। तेजी से बढ़ते शहरीकरण की वजह से संयुक्त परिवारों की जगह एकल-सूक्ष्म परिवारों ने ले ली और बुजुर्ग अपनी जरूरतों के लिए किसी एक बेटे या बेटी पर निर्भर होकर रह गए। अब लगातार बढ़ती महंगाई, दीगर ऊपरी खर्चों के चलते बच्चों के लिए भी अपने माता-पिता को मदद देने में मुश्किल होती जा रही है, तिस पर अगर आमदनी गिर जाए या नौकरी चली जाए या फिर आर्थिकी मंद पड़ जाए तो मुश्किलें गहरा जाती हैं।
फिलहाल भारत आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, जिसकी वजह से अगले कुछ महीनों में और अधिक नौकरियों में छंटनी और उद्योग-धंधे बंद होने की संभावना है। हालांकि सरकार ने मंदी से उबरने हेतु अनेक कदम उठाए हैं लेकिन हाल-फिलहाल नतीजे उत्साहवर्धक नहीं हैं। अब अगर कोई त्वरित और प्रभावशाली उपाय कारगर नहीं हो पाया तो समाज पर इसके गंभीर नतीजे होंगे।
ऐसी खबरें अक्सर देखने को मिल रही हैं, जिनमें बच्चे अपनी आमदनी कम होने पर खुद पर आश्रित बुजुर्गों से दुर्व्यवहार कर रहे हैं, वे आगे अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च की एवज में वृद्ध माता-पिता की देखभाल को गौण करते हैं। दूसरी ओर ऐसे मामले भी हैं जब गंभीर बीमारी से जूझ रहे मां-बाप की देखभाल के लिए बच्चों ने नौकरी तक छोड़ दी और सीमित संसाधनों में भी उनकी सेवा कर रहे हैं।
साठ साल से ऊपर के बुजुर्गों के लिए भारत में विकसित देशों के मुकाबले हालात बहुत खराब हैं क्योंकि कोई निजी आमदनी न होने पर वे अपनी संभाल के लिए पूरी तरह से परिवार के युवा सदस्यों पर आश्रित होते हैं। अपनी बचत को उन्होंने घर बनाने में लगा दिया होता है और उसे स्वेच्छा से पुत्र-पुत्रियों को सौंप चुके होते हैं। बच्चों में कुछ ऐसे हैं भी जो इन घरों को बेच देते हैं और सारा पैसा हड़प लेते हैं। अपने पोते-पोतियों की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने में सहयोग देने की खातिर उन्हें छोटी जगहों में सिकुड़कर रहना पड़ता है, तिस पर कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं। इस तरह जिंदगी के आखिरी साल बहुत दयनीय हालात में गुजरते हैं।
पश्चिमी देशों के खुदमुख्तार बुजुर्गों के बरअक्स भारत में आज भी अधिकांश वृद्ध अपने परिवार के साथ रहते हैं, केवल 2.2 प्रतिशत अकेले बुजुर्ग अपने बूते पर जीने की समर्था रखते हैं और 10 फीसदी वृद्ध दंपति ही अपने भरण-पोषण-जीवनशैली हेतु आत्मनिर्भर हैं। लगभग 87.8 प्रतिशत बुजुर्ग अपने बच्चों के साथ रह रहे हैं। इसकी तुलना में पश्चिमी देशों में लगभग सभी उम्रदराज लोग अलग रहते हैं जहां वे अपनी अधिकांश जरूरतें बिना किसी खास मदद या बाहरी सहायता के पूरी कर लेते हैं। शारीरिक तौर पर भी वे हमारे वृद्धों का अपेक्षा ज्यादा चुस्त और सक्रिय हैं। उनके मुल्कों के स्वास्थ्य तंत्र में बुजुर्गों की माकूल स्वास्थ्य देखभाल, प्रतिरोधात्मक शारीरिक जांच और अन्य किस्म की स्वास्थ्य सेवाएं जैसे कि फिजियोथेरैपी बिना शुल्क प्राप्त है। इधर भारत में चूंकि परिवार ही बुजुर्गों के भरण-पोषण-स्वास्थ्य का मुख्य जरिया है और जैसे-जैसे वे वृद्ध और कमजोर होते जाते हैं वैसे-वैसे उनकी आश्रिता बढ़ती जाती है।
दुर्भाग्य से भारत में बुजुर्गों की देखभाल का तंत्र लगभग नगण्य है और हमारी सामाजिक सुरक्षा प्रणाली विश्व भर में सबसे कमजोर व्यवस्थाओं में से एक है। वृद्धों का आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना उनकी अच्छी हालत का एक मुख्य पैमाना होता है, परंतु वृद्धों में केवल 26.3 प्रतिशत ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और 20.3 फीसदी आंशिक रूप से, लेकिन बहुत बड़ी तादाद यानी 53.4 प्रतिशत बुजुर्ग आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा मामलों में पूरी तरह अपने बच्चों पर निर्भर हैं। कम खर्च में मिलने वाले वृद्ध आश्रमों की बहुत कमी है। जो बढ़िया हैं, वे बहुत मंहगे हैं।
तेजी से बदलते उम्र वर्गीकरण के अंतर्गत आज के युवाओं की औसत आयु 27.1 वर्ष आंकी गई है, इसका मतलब औसत भारतीय युवा आर्थिक रूप से सक्षम होने से पहले ही प्रौढ़ों की श्रेणी में आ जाता है! बच्चे पैदा करने की समर्था में लगातार होते ह्रास ने भारतीयों में पहले वक्त की अपेक्षा समय से पहले बूढ़े होने की गति बढ़ा दी है। श्रीनिवासन गोली, भीमेश्वर रेड्डी, केएस जेम्स और वेंकटेश श्रीनिवासन के सयुंक्त अध्ययन : ‘आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सुरक्षा’ के मुताबिक भारतीय बुजुर्ग वर्ग के अनेक पहलू हैं, जिन्हें सावाधानीपूर्वक समझने के बाद इस वर्ग पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है। उन्होंने इंगित किया है कि बच्चे पैदा करने की गिरती समर्था के चलते भारत की आबादी में उम्र आधारित वर्ग की संरचना करने के पैमानों में तेजी से बदलाव आ रहा है और इससे बूढ़ों में शामिल होने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्ष 2011 में देश में कुल 10.3 करोड़ नागरिक बुजुर्ग वर्ग में थे लेकिन आज इनकी संख्या नि:संदेह कहीं अधिक है। जब आज के युवा उस समय कामकाजी वर्ग से बाहर हो जाएंगे तो इस श्रेणी यानी बड़े-बुजुर्गों में आने वालों की संख्या में खासा इजाफा हो जाएगा।
बुजुर्गों की देखभाल का स्तर अलग-अलग राज्यों में एक-दूसरे से भिन्न है। ज्यादातर मामलों में बुजुर्गों को मिलने वाली सरकारी पेंशन के अंतर्गत विभिन्न मदों में दी जाने वाली सहायता राशि बहुत कम है। 17 राज्य बुजुर्ग पेंशन के रूप में 1000 रुपये से कम देते हैं, इसमें राज्य सरकार के बजट में रखी मद नगण्य है। निम्न आय वर्ग के लगभग सभी उम्रदराज लोग बिना इज्जत जी रहे हैं, तिस पर कुपोषण एवं कमजोर स्वास्थ्य तंत्र के चलते अनेक बीमारियों से ग्रस्त होकर लाचार हो जाते हैं।
राज्यों की ओर से बुजुर्गों की सहायता के लिए ज्यादा सहृदयता दिखाने की जरूरत है। उनके लिए वहन करने योग्य और ज्यादा घर बनाने की जरूरत है, जहां वे स्वतंत्र रूप से जी सकें। ऐसा स्वास्थ्य तंत्र बनाया जाए जहां उम्रदराज लोगों के इलाज के विशेषज्ञ नियुक्त हों। कई बुजुर्ग जो आज भी काम करने में सक्षम हैं, उन्हें रोजगार के वैकल्पिक अवसर मुहैया करवाए जाएं। बुजुर्ग मर्दों की अपेक्षा वृद्ध घरेलू औरतों को तो और भी ज्यादा उपेक्षित किया जाता है। अधिक आर्थिक पेंशन देकर इनकी सहायता की जानी चाहिए। कर में विशेष छूट और बचत खातों पर अतिरिक्त ब्याज दर बुजुर्गों को आर्थिक-सामाजिक संबल देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। अन्य उपायों में बुजुर्गों को रेल-हवाई यात्रा किराये में छूट देकर उनकी जिंदगी को ज्यादा खुशनुमा और विविधतापूर्ण बनाया जा सकता है।
जो वृद्ध बहुत गरीब वर्ग में हैं, उनके लिए बृहद स्वास्थ्य बीमा प्रणाली बनाने की जरूरत है। आयुष्मान भारत के अंतर्गत हाशिए पर आने वाले लगभग 50 करोड़ लोग आते हैं, इनमें कई बुजुर्ग भी होंगे। सामाजिक कार्यकर्ताओं को एकाकीपन या अवसाद से जूझ रहे वृद्ध लोगों तक पहुंच करनी चाहिए ताकि उनके नित्य कर्म जैसे कि नहाना, वर्जिश और खाना पकाने जैसी सामान्य दिनचर्या में मदद मिल सके। जो बुजुर्ग गरीब और केवल बच्चों पर निर्भर हैं, उनकी जरूरतें बहुत ज्यादा हैं और उन्हें जल्द सहायता देने की दरकार है।
आभासी की हकीकत
संपादकीय
अब हकीकत उजागर होने लगी है कि हाल के वर्षों में अमूमन हर हाथ में मौजूद स्मार्टफोन ने किस स्तर पर समाज के सहज आचार-विचार को प्रभावित किया है। लगभग चारों तरफ फैल गए सोशल मीडिया ने सामाजिक माहौल को कितना प्रभावित किया है, यह लोगों की समझ और उनके बर्ताव तक में झलकने लगा है। हालत यह है कि वे वयस्क हों, किशोर या फिर बच्चे, आज आधुनिक तकनीकी के इन संसाधनों की वजह से समाज ही नहीं, परिवार तक से कटते जा रहे हैं और इसके खमियाजे का उन्हें अहसास भी नहीं है। यह समस्या सरकारों की चिंता में भी शुमार नहीं हो पा रही है। जबकि मोबाइल फोन और कम्प्यूटर के स्क्रीन का दायरा अब जिस तरह बच्चों को भी बुरी तरह चपेट में ले रहा है, उसके संकेत और निष्कर्ष आने वाले वक्त की बेहद चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। अमेरिका के वाशिंगटन शहर में कराए गए एक ताजा अध्ययन में पाया गया है कि बच्चों के भीतर मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर ज्यादा समय बिताने की वजह से चिंता के लक्षण बढ़ रहे हैं। बारह से सोलह साल के बच्चों और किशोरों के बीच कराए गए इस अध्ययन के मुताबिक जब किशोरों और बच्चों ने सोशल मीडिया, टीवी, मोबाइल और कम्प्यूटर में गुम रहने की अवधि कम की तो उनके भीतर चिंता के लक्षण कम होते पाए गए।
जाहिर है, पहले छोटे परदे की शक्ल में टीवी ने बच्चों के स्कूल के बाद अपने दोस्तों के साथ खेलने-कूदने का वक्त खा लिया, फिर उस परदे के हाथ में सिमटने यानी स्मार्टफोन में व्यस्तता ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इन आधुनिक तकनीकी संसाधनों या गजटों ने बच्चों और किशोरों के दिमाग को इतना ज्यादा व्यस्त कर दिया कि उनके पास जीवन के दूसरे पहलुओं पर सोचने की गुंजाइश ही खत्म हो गई। आंखों और दिमाग के सोचने-समझने की समूची प्रक्रिया स्मार्टफोन और कम्प्यूटर के स्क्रीन में इस कदर उलझ रही है कि बाकी वैसे मसले सोचने के दायरे से भी पीछे छूट रहे हैं, जो जीवन और भविष्य को गहरे प्रभावित करते हैं। नतीजतन, जब अचानक ही किसी रोजमर्रा की दूसरी बातों का सामना करना पड़ जाता है, तो बच्चे सहजता से उससे नहीं निपट पाते हैं और इस तरह उनके दिमाग में चिंता घर बनाने लगती है। यह बेवजह नहीं है कि आजकल फोन और कम्प्यूटर स्क्रीन को ही दुनिया मानने वाले बहुत सारे बच्चे आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल में तो काफी तेज-तर्रार होते हैं, लेकिन बहुत छोटी समस्या पैदा हो जाने पर भी आत्मविश्वास के मोर्चे पर खुद को कमजोर पाते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच अपनी भावनाएं, विचार और यहां तक कि समस्याएं साझा करने की सुविधा मुहैया कराते हैं, पर एक आभासी दुनिया में इस व्यस्तता के साथ ही बच्चों की निजी दुनिया सिमटने लगती है। अपने विचारों पर प्रत्यक्ष रूप से समय पर उचित प्रतिक्रिया नहीं होने की वजह से उसके भीतर निराशा के भाव का संचार होता है। अगर समय पर इसकी पहचान करके इससे निटपने की कोशिश नहीं होती है तो यह अवसाद में तब्दील हो जाता है। स्मार्टफोन और कम्प्यूटर पर व्यस्तता किशोरों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा कर रही है। विडंबना यह है कि जो स्थितियां भावी समाज की जमीन तैयार कर रही हैं, उसमें आई विकृतियां सरकारों और समूची व्यवस्था के लिए चिंता का विषय नहीं बन पा रही हैं।
और कितनी निर्भया
संपादकीय
सात साल पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ घृणित सामूहिक बलात्कार हुुआ था, तब पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। देश भर के युवा सड़कों पर उतर आए थे। सरकार, समाज के एक बडे़ तबके और सभी राजनीतिक दलों ने यह संकल्प लिया था कि अब कोई और निर्भया नहीं होगी। उस आंदोलन और उन संकल्पों से एकबारगी लगने लगा था कि अब सूरत बदलेगी ही, देश में महिलाएं पहले से सुरक्षित होंगी। यह उस समय का आवेग था, जो सरकार पर कुछ करने का दबाव भी बना रहा था और हमें कई तरह के आश्वासन भी दे रहा था। पिछले चार दिनों के भीतर रांची और हैदराबाद में हुए दो जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड बता रहे हैं कि देश में लड़कियां अभी भी सुरक्षित नहीं हैं। ये घटनाएं किसी दूर-दराज के इलाके की नहीं हैं, ये दो बडे़ प्रदेशों की राजधानी की हैं। रांची में एक छात्रा का अपहरण करके उसे ले जाया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, जबकि हैदराबाद में पशु चिकित्सक की स्कूटी का टायर पंक्चर हो जाने के बाद उसे घर तक पहुंचने के लिए मदद लेनी पड़ी और मदद मिलने की बजाय वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस गई, जिन्होंने न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि उसकी निर्मम हत्या भी कर दी। दोनों ही घटनाएं सीधे तौर पर बताती हैं कि निर्भया कांड के बाद जो भी कदम उठाए गए, वे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए नाकाफी साबित हुए हैं।
निर्भया कांड के बाद जो बदलाव हुए, उसमें मुख्य था बलात्कार से जुडे़ कानूनों में बदलाव। बदलाव सुझाने के लिए जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। समिति ने इसके लिए न सिर्फ भारतीय दंड संहिता में बदलाव के सिफारिशें कीं, बल्कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी बदलाव के कई सुझाव दिए। उस समय जो आंदोलन चल रहा था, उसकी एक प्रमुख मांग थी कि बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड दिया जाए। हालांकि इसे लेकर कई मतभेद थे, लेकिन अंत में इसकी सिफारिश भी की गई। अगले तीन महीनों के अंदर ही कानून में इस बदलाव का अधिनियम भी जारी हो गया। कानून में इस बदलाव के पीछे कडे़ दंड का सिद्धांत था। सोच यही थी कि अगर बलात्कारियों के बच निकलने के रास्ते बंद करने के साथ ही उनको दिया जाने वाला दंड बाकी समाज के लिए एक कठोर सबक का काम करेगा और यह अपराधी मानसिकता के लोगों को ऐसे अपराध करने से रोकेगा। लेकिन इसके बावजूद अगर ऐसी वारदात नहीं रुक रही हैं, तो यह सूचना जरूरी है कि इस दिशा में और क्या किया जाए।
समाजशास्त्र मानता है कि अपराधी के बच निकलने के रास्ते बंद करना और कड़े दंड जरूरी हैं, पर ये अपराध के खत्म होने की गारंटी नहीं हो सकते। इनके साथ सबसे जरूरी है उन स्थितियों को खत्म करना, जो ऐसे अपराधों का कारण बनती हैं। बलात्कार जैसे अपराध कुंठित मानसिकता के लोग करते हैं, लेकिन ऐसी कुंठाएं कई बार महिलाओं के प्रति हमारी सामाजिक सोच से उपजती हैं। महिलाओं को सिर्फ कानूनों में ही नहीं, सामाजिक धारणा के स्तर पर बराबरी का दर्जा देकर और उनकी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ाकर ही इस मानसिकता को खत्म किया जा सकता है। इससे हम ऐसा समाज भी तैयार करेंगे, जो कुंठित मानसिकता वालों को बहिष्कृत कर सकेगा।