02-11-2024 (Important News Clippings)
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Healthy Healthcare, Unhealthy Politics
ET Editorials
In India’s federal structure, health is a state subject. This means state governments are primary providers of healthcare services. But GoI also plays a crucial role in policy design and financing. This shared responsibility often leads to conflicts with states, intensified by political turf wars. Earlier this week, the PM highlighted this issue, stating that the ‘walls of the political profession’ are preventing the elderly in Delhi and West Bengal from benefiting from Ayushman Bharat.
Importance of any state-supported health scheme can’t be overstated. About 63 mn people fall below the poverty line each year due to out-of-pocket (OOP) healthcare expenditure. Playing politics with such support structures does little to help. Delhi still can boast of a decent health support structure, but Bengal’s system, as the recent RG Kar episode shows, is in tatters.
Opposition-led states need not always obstruct for the sake of obstructing. Data from Tamil Nadu, Karnataka, Kerala, Jharkhand, Punjab, Telangana and Himachal Pradesh show that the scheme is providing relief for families struggling with specialised treatments, especially for life-threatening conditions.
While states should find ways to best use the scheme and avoid politicising health, Ayushman Bharat does have its share of shortcomings: limited empanelled hospitals, low coverage (only 56% of the eligible population covered), varying level usage across states, continuing high OOP expenses, groundlevel corruption, private hospitals’ reluctance to fully participate in delivering the full suite of services, and data mismatch. These holes need urgent fixing. This can only happen if GoI and states work together to keep the proverbial baby healthy while throwing away the bathwater.
पर्यावरण हित के लिए मिशन मोड में काम जरूरी
संपादकीय
लगातार छोटी होती जोत के कारण भारत के किसानों के पास नए प्रयोग में निवेश करने का हौसला या दो तीन साल की वर्किंग कैपिटल नहीं होती, जो उद्योगों या सेवा क्षेत्र में उपलब्ध होती है। लिहाजा किसान नए प्रयोगों से, नए बीज-खाद के इस्तेमाल से बचता है। इसलिए खेती में भेड़चाल की आदत सदियों से है। लेकिन हरियाणा के इलाके के सात सौ किसानों ने एक संस्था की बात मानते हुए खेतों में पराली जलाना वर्षों से बंद कर दिया। ऐसा सकारात्मक सामूहिक फैसला अन्य प्रमुख गेहूं-उत्पादक राज्यों- जैसे पंजाब, हरियाणा, यूपी और एमपी के किसानों को भी लेना चाहिए। खेत में पराली जलाने से ग्रीन हाउस गैस- खासकर पार्टिकुलेट मैटर, कार्बनिक गैसें, सल्फर डाई ऑक्साइड का भारी उत्सर्जन होता है, जो मानव जीवन के लिए इतना खतरनाक है कि दिल्ली और आसपास के लोगों का जीवनकाल दस वर्ष घट गया है। फिर आईसीएआर ने ऐसे डिकम्पोजर्स तैयार किए हैं, जो खेत में ही पराली को गलाकर खाद बना देते हैं। इसके अलावा अन्य विधियां भी हैं, जिनके तहत पराली के रहते हुए भी फसल बोई जाती है। यह सच है कि इसके खिलाफ कानून बनाए गए हैं और सुप्रीम कोर्ट भी अपना चाबुक चला रही है, लेकिन राजनीतिक कारणों से सरकारें किसानों के खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठातीं। मिशन मोड में काम करना जरूरी है।
Date: 02-11-24
सौहार्द की सीमा
संपादकीय
वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध फिलहाल दूर हो गया लगता है दोनों देशों के सैनिकों ने दिवाली पर मिठाइयों का आदान-प्रदान किया और भारतीय सेना ने पूर्वी लाख के डेमचोक इलाके में गश्त भी शुरू कर दी। जल्दी ही डेपसांग इलाके में भी भारतीय सैनिक गश्त करना शुरू कर देंगे। रूस में आयोजित इस बार के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने द्विपक्षीय बातचीत की थी। उसके वो दिन पहले एलएसी पर पूर्व स्थिति बनाने को लेकर सहमति बनी थी। इससे फिर दोनों देशों के बीच रिश्तों में गर्मी लौटने की उम्मीव जताई जा रही है। जून 2020 में गलवान घाटी में चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में घुस आए थे और हमारे सैनिकों के साथ उनका खूनी संघर्ष हुआ था, जिसमें दोनों तरफ के सैनिक हताहत हुए थे तब से राजनीतिक गतिरोध बना हुआ था। हालांकि दोनों देशों के सैन्य अधिकारी इस विवाद को सुलझाने के लिए बैठकें करते रहे और उन बैठकों में सकारात्मक नतीजे भी निकले थे। उन्हीं बैठकों के चलते पांच में से तीन क्षेत्रों से चीन ने अपनी सेनाएं पीछे लौटा ली थीं। वो क्षेत्रों में विवाद बना हुआ था, जो अब समाप्त हो गया है।
असल में चीन और भारत के बीच तनावपूर्ण रिश्तों का असर रूस और दक्षिण एशिया के अन्य देशों पर भी पड़ रहा था। जिस तरह रूस- यूक्रेन संघर्ष लगातार बना हुआ है, उसमें रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के मोनजर भारत से उसके मजबूत रिश्ते बहुत अहमियत रखते हैं। चीन से भारत की तनातनी के चलते यह समीकरण ठीक से बैठ नहीं पा रहा था इसलिए माना जा रहा है कि रूस के प्रयत्नों से ही भारत-चीन के रिश्तों में आई खटास चूर हुई है। मगर यह अच्छी बात है कि एलएसी पर बेवजह तनाव बने रहने से जो दोनों देशों का ध्यान उस तरफ लगा रहता था, उससे आजादी मिलती दिख रही है। अमेरिका इस तनाव का लाभ उठाने का प्रयास कर रहा था। जबसे चीन के साथ भारत के संबंध कुछ मधुर होने शुरू हुए हैं अमेरिका की मीहें कुछ उनी नजर आने लगी हैं। रूस के साथ भारत की नजदीकी से वह पहले से खफा है। अभी अमेरिका ने जिन उन्नीस भारतीय कंपनियों पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाए हैं कि वे रूस को मच पहुंचा रही थीं, उससे उसकी खीझ समझी जा सकती है।
मगर भारत ने अपने रिश्तों में संतुलन बनाए रखा है। रूस के साथ अपने रिश्तों में किसी तरह की खटास नहीं आने दी है और अमेरिका से भी नजदीकी बनाए रखी है। इसलिए कि भारत अपने को किसी गुट में शामिल नहीं किया है। फिर, जिस तरह भारत की आर्थिक हैसियत लगातार बढ़ रही है, और वह वैश्विक दक्षिण देशों के लिए लगातार भरोसेमंद साझीदार बना हुआ है, उसमें कोई भी भारत को फिलहाल नजरअंदाज नहीं कर सकता। चीन का बहुत बड़ा व्यापार भारत के साथ है, वह उसे किसी भी रूप में गंवाना पसंद नहीं करेगा। माना जा रहा है कि सीमा विवाद संबंधी ताजा समझौते से इस समस्या का कोई स्थायी समाधान निकल सकता है। मगर संशय इसी बात को लेकर बना हुआ है कि चीन अपने इस लचीले रुख को कब तक कायम रख पाता है जब तक वह अपनी विस्तारवादी नीतियों को सिकोड़ने का प्रयास नहीं करेगा, उसके किसी भी कदम की बहुत भरोसे के साथ देखना मुश्किल है।
Date: 02-11-24
हम साथ-साथ हैं
संपादकीय
भारत और चीन के बीच देमचौक और देपसांग में विवाद और टकराव को खत्म करने के लिए कुछ दिन पहले जो सहमति बनी है उसका दीपावली के अवसर पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) समेत कई सीमाओं पर सकारात्मक असर दिखाई दिया। दोनों देशों के सैनिकों ने एक दूसरे को मिठाइयां बांटकर प्रेम और सद्भाव का परिचय दिया। 4 साल पहले गलवान घटनाक्रम के बाद यह प्रथा बंद हो गई थी। अब यह पुनर्जीवित हो गई है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय एकता दिवस के अवसर पर देशवासियों को बताया कि भारत और चीन पहले एलएसी के साथ कुछ क्षेत्रों में मतभेद को हल करने के लिए राजनयिक और सैन्य दोनों स्तरों पर बातचीत कर रहे हैं। वातचीत के परिणाम स्वरूप सामान और पारस्परिक सुरक्षा के आधार पर एक व्यापक सहमति विकसित हुई। इस सहमति के आधार पर दिन देमचौक और देपसांग में सैनिक टकराव के दोनों अग्रिम मोर्चे से सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया पूरी हो गई है। इन दोनों जगह से अस्थाई ढांचे और टेंट आदि हटा लिए गए हैं। सामान्य तौर पर जब दोनों पड़ोसी देशों के बीच एक लंबे समय से विश्वास और संदेह के जो रिश्ते चले आ रहे हैं उसे देखते हुए कोई यह दावा नहीं कर सकता कि भारत और चीन के वीच विवादों का स्थाई समाधान हो गया है। लेकिन दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व सहित सैन्य स्तर पर जो सहमति बनी है उसे यह आशा बंधती है कि भविष्य में सैन्य संघर्ष की स्थिति नहीं बनेगी। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि आर्थिक स्तर पर भी पारस्परिक रिश्तों को सुधारने का दोनों देशों पर दबाव था। वैश्विक स्तर पर अनेक क्षेत्रों में संघर्ष चल रहे हैं। नए समीकरण वन रहे हैं। अभी कुछ महीने पूर्व विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि दुनिया में अमेरिका का प्रभुत्व समाप्त हो रहा है। उनकी इस बयान की भारत की स्थिति राजदूत ने प्रशंसा की थी। भारत का अमेरिका और कनाडा के साथ रिश्तों में तनाव पैदा हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दीपावली के अवसर पर सेनाओं के बीच वह कहना काफी अर्थपूर्ण है कि भारत के अंदर और बाहर कुछ तकतें देश को अस्थिर करना चाहती हैं। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है। पिछले दिनों वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी यह संकेत दिया था कि भारत चीन से निवेश का इच्छुक है। जाहिर है अंतरराष्ट्रीय और अर्थव्यवस्था दोनों ही स्थान पर यह दवाव वन रहा है कि भारत और चीन अपने द्विपक्षीय रिश्तों को सहज करें। आशा पंचती है कि आने वाले दिनों में ये रिश्ते और अधिक प्रगाढ़ एवं मधुर होंगे।
Date: 02-11-24
‘धरती पुत्रों’ की बढे भागीदारी
प्रह्लाद सबनानी
भारत की भूमि का एक बड़ा भाग वनों एवं वनों से आच्छादित है। इसे भारतीय नागरिकों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार माना जा सकता है। इन वनों एवं वनों का रख-रखाव मुख्यतः आदिवासी समाज द्वारा किया जाता है। आदिवासी समाज की विकास यात्रा अपनी भूख मिटाने और खुद को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ही जंगलों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। इसीलिए इसे वास्तविक अथरे में आदिवासी समाज का धरतीपुत्र भी कहा जाता है।
प्राचीन काल से ही प्रकृति को आदिवासी समाज की संपत्ति माना गया है, जिससे उनकी सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक आवश्यकताएं पूरी होती हैं। कहा जाता है कि आदिकाल से ही आदिवासी संस्कृति और जंगल चोली-दामन के साथ रहे हैं और आदिवासी समाज का निवास स्थान जंगल ही रहा है। कहा जा सकता है कि आदिवासी जीवन और संस्कृति के उद्भव, विकास और संरक्षण में वनों ने अपनी मूल भूमिका निभाई है। भील वनवासियों का जीवन भी वनों पर निर्भर रहा है।
आदिवासी समाज जंगलों में पैदा होने वाले विभिन्न प्रकार के उत्पादों का उपयोग अपनी आजीविका के लिए करते रहे हैं। शुरुआती दौर में आदिवासी समाज उपर्युक्त पौधों एवं उत्पादों का उपयोग केवल अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करता था, लेकिन हाल के दिनों में इन पौधों का उपयोग व्यावसायिक तौर पर भी किया जाने लगा है। व्यावसायिक उपयोग का लाभ आदिवासी समाज को नहीं मिल पाता है, बल्कि समाज के अन्य लोग इसका पूरा लाभ उठा रहे हैं।
पौधों और उत्पादों के व्यावसायिक उपयोग के बाद प्रकृति का दोहन की जगह शोषण होने लगा है क्योंकि कई उद्योगों ने इन उत्पादों को कच्चे माल के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया है। इससे पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था के विकास को गति देने के उद्देश्य से आदिवासी समाज बहुत ही सफल तरीके से अपनी भूमिका निभा रहा है, लेकिन आर्थिक विकास का लाभ जनजातियों तक सही मात्रा में नहीं पहुंच पाया है। हालाँकि, अब आदिवासी समाज धीरे-धीरे खुद को कृषि और पशुपालन जैसी अन्य गतिविधियों में शामिल करने लगा है। आदिवासी समाज ने सबसे पहले कृषि कार्य के लिए जंगलों को काटा और जलाया।
भूमि को साफ कर कृषि योग्य बनाया तथा पशुपालन को बढ़ावा दिया। विकास की धारा में आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों और कस्बों का निर्माण हुआ। आज भी आदिवासी समाज की अधिकांश आबादी सुदूर इलाकों में रहती है। इन क्षेत्रों में संचार के साधनों का अभाव है। हालाँकि अब इन सुदूर इलाकों में हर तरह की सुविधाएँ पहुंचाई जा रही हैं, लेकिन अभी भी आदिवासी समाज कृषि से जुड़ी उन्नत विधियों से अनभिज्ञ है। सिंचाई सुविधाओं की कमी और उपजाऊ भूमि की कमी के कारण ये लोग पारंपरिक कृषि प्रणाली अपना रहे हैं और उनकी उत्पादकता कम है। आदिवासी समाज ने वनों की सहायता से ही अपनी संस्कृति का विकास किया। घने जंगलों में घूमते हुए उन्होंने जंगली जानवरों से बचने के लिए शिकार को अपनाया।
जंगलों और पहाड़ियों के भीतरी भागों में रहते हुए भील समुदाय आज भी शिकार करके अपना जीवन यापन करता है। भील समुदाय खेती, पशुपालन और जंगलों में शिकार करके अपने परिवार का पालन-पोषण करता रहा है। घने जंगलों में आदिवासी समाज को प्राकृतिक वातावरण, साफ पानी, नदियाँ, नाले, झरने, पशु-पक्षियों का शोर, सीमित तापमान, हरियाली, नमी, समय पर बारिश, मिट्टी के कटाव को रोकना, आँधी-तूफान से सुरक्षा, प्राकृतिक खाद उपलब्ध है। , बाढ़ नियंत्रण, शिकार और जंगली जानवरों का मनोरंजन आदि प्राकृतिक रूप से प्रदान किया गया है। इससे आदिवासी समाज घने जंगलों में भी संतोष और प्रसन्नता के साथ रहता है। आज भी आदिवासी समाज को भारतीय संस्कृति का वाहक माना जाता है क्योंकि यह समाज पूरे अनुशासन के साथ सनातन हिंदू संस्कृति का पालन करता हुआ पाया जाता है। आदिवासी समाज आज भी आधुनिक चकाचौंध से खुद को बचाए हुए है। इसके विपरीत शहरों में रहने वाला समाज भारतीय परंपराओं को समय-समय पर अपनी सुविधा के अनुसार बदलता रहता है। हाल के दिनों में अत्यधिक आर्थिक महत्वाकांक्षाओं के कारण वनों का अदूरदर्शी तरीके से दोहन किया जा रहा है।
विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के अनुसार विश्व में हर साल 110 मिलियन हेक्टेयर जंगल नष्ट हो रहे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक देश में उपलब्ध भूमि का लगभग 33 प्रतिशत भाग वनाच्छादित होना चाहिए। यदि इसी प्रकार जंगल कटते रहे तो आदिवासी समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इस संदर्भ में भारत की ओर से कई प्रयास किये जा रहे हैं। देश में वनों की कटाई को रोकने के लिए 2015 से 2017 के बीच पेड़ों और जंगलों के क्षेत्र में 8 लाख हेक्टेयर भूमि की वृद्धि दर्ज की गई है। साथ ही, भारत ने वनों की कटाई को रोकने के लिए 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर भूमि को उपजाऊ बनाने का लक्ष्य बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर कर दिया है।
भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10.43 करोड़ है, जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। आदिवासी समाज को देश के आर्थिक विकास में शामिल करने के उद्देश्य से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कई योजनाएं लागू की जा रही हैं ताकि इस समाज की कठिन जीवनशैली को कुछ हद तक आसान बनाया जा सके।