02-11-2019 (Important News Clippings)
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Climb this mountain
Ladakh delivers the entire women’s ice hockey team
TOI Editorials
There are countless opportunities lurking in the nooks and crannies of this country, which but await someone seeing them. In the newly minted Union territory of Ladakh, the summer is short while the winter is long, harsh and mind-bending. But for 19 women who form our national ice hockey team, it is the time when the region turns into their playground.Did you even know that India boasts a women’s ice hockey team? Theirs is an archetypal against-the-odds story. The team’s goalkeeper Noor Jahan says that they started out with equipment borrowed from the men’s team, where the gear would be oversized sometimes or the skates too tight. What they did have were local lakes and ponds that would helpfully freeze and let them practise. Even if this surface is completely different from the artificial one of many international competitions, they could play ice hockey on it, when weather made the likes of football or cricket out of the question. Plus, of course, the women had grit and a resolute dream – to play for India.The demanding high-altitude terrain may not be for the tender of lungs or spirit. Team captain Tsewang Chuskit says, even now the young girls who look to her for inspiration would think this game is not reaching anywhere. Officially it is not recognised in India, neither by IOA nor the sports ministry. But possibilism is a potent force – so that mountain too shall be climbed.
Date:02-11-19
India’s spygate
We need answers on severe breach of citizen privacy
TOI Editorials
The controversy over the use of spyware Pegasus by unidentified entities to violate the privacy of some Indians highlights multiple risks. Foremost among them is that India is in the midst of an unprecedented personal data collection drive by both public and private entities without a reasonable legislative architecture to safeguard privacy.
If data is the new oil, India’s political executive and legislature are guilty of being flippant in safeguarding it. We still don’t have a personal data protection legislation though it’s about two years since Supreme Court emphatically upheld the citizen’s fundamental right to privacy.The apex court verdict was all encompassing. Not only did it set limits on state intervention, it also pointed out the state has an obligation to safeguard the fundamental right to privacy of individuals. When it comes to enhancing accountability when state surveillance is called for, we currently have a private member’s bill in Parliament which seeks to bring in judicial oversight in surveillance process. This must be taken up and passed into law. The fact is that India’s surveillance laws are crafted for the analog age. Given the radical evolution in technology, the existing legal architecture is all but useless.
Government has indicated that a personal data protection bill will be introduced in the winter session of Parliament. It should permit debate to improve the quality of legislation. This is necessary to put in place a framework which can adapt to the evolution of technology. Attendant to a legislative framework will be the creation of a data protection regulator. The quality of the regulator will be critical in upholding the apex court verdict on privacy. NDA has its work cut out to create this framework. In the interim, we do need credible answers on who used Pegasus to violate citizens’ fundamental rights.
The case for better health statistics
Official reports must leverage technology
ET Editorials
The 2019 National Health Profile, which should provide a snapshot of the country’s performance in terms of key outcome indicators, access to healthcare and financing, is outdated and offers bad publicity for India’s capability to marshal and deploy data at the speed of the electron.What is clear is that public expenditure on health continues to be low — at 1.28% of GDP (2017-18 Budget estimates) —behind the figure for countries in the Southeast Asia region. The continued low level of spending — health has accounted for 1% of GDP since 2009-10 — is reflected in performance indicators.
The report relies on old data: 2011for the sex ratio, 2016 for birth and death rates, and 2014 and 2015-16 for financing. It fails to take into account the granular impact of policy and programmes geared to universalising healthcare. Even the government’s flagship healthcare initiative, Ayushman Bharat, has not been properly accounted for. This diminishes the report’s utility.The nearly 350-page long report does ascertain certain trends. The cost of treatment has been rising, resulting in inequity in access to healthcare. But the report does not have much information on the impact of Ayushman Bharat in this regard. Even though it states that in 2017-18, 48 crore individuals — that is, 37.2% of the population — were covered under any health insurance, 80% of the insured were covered by government schemes.
India clearly has its work cut out on improving health outcomes and indicators. However, a crucial component of improved planning and allocation is the availability of robust data. It is the failure to provide reliable, up-to-date data that is the biggest drawback of the 2019 National Health Profile.Even as the government works on improving health infrastructure and augmenting healthcare personnel in the country to improve outcomes, it must focus on addressing data gaps.Has Swachh Bharat reduced incidence of intestinal parasites? How much has Ayushman Bharat reduced out-of-pocket expenditure for the common man? Without this, policy interventions will fail to get the best bang for every buck.
बेरोजगारी की समस्या से हमारी अर्थव्यवस्था
सृजन पाल सिंह , (एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं)
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़े यह कहते हैं कि भारत में 2018 में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत थी। इसे बीते 45 वर्षों में सबसे अधिक बताया गया। बेरोजगारी दर से मतलब होता है कामकाजी आयु वर्ग में से कितने लोग एक तय समय में रोजगार की तलाश कर रहे थे, पर उन्हें काम नहीं मिल सका। 2018 में सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर 10.8 प्रतिशत शहरी महिलाओं में पाई गई। इसके बाद यह शहरी भारत में पुरुषों में 7.1 प्रतिशत, ग्रामीण पुरुषों में 5.8 प्रतिशत और ग्रामीण महिलाओं में 3.8 प्रतिशत पाई गई।देखा जाए तो ये आंकड़े स्वयं में भ्रामक हैं, क्योंकि भारत में न तो कड़ाई से न्यूनतम मजदूरी दर लागू होती है और न ही काम करने के घंटे पर कोई अंकुश होता है। पूर्णत: बेरोजगार लोगों के अलावा भारत का एक और बड़ा हिस्सा वह भी है जो बहुत कम मजदूरी या फिर अनुबंध पर काम करता है। इसके अलावा वह तबका भी है जो उचित रोजगार के अभाव में कम समय के लिए किसी न किसी व्यावसायिक इकाइयों से जुड़ जाता है। यह भी एक आंशिक बेरोजगारी है जो औपचारिक आंकड़ों में नहीं दिखती। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि बेरोजगारी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि कई विकसित देशों की भी समस्या है। फ्रांस में बेरोजगारी दर 8.8 प्रतिशत, इटली में 10.7 प्रतिशत, स्पेन में 18.6 प्रतिशत और अमेरिका में 4.4 प्रतिशत है।
हालांकि यह दर चीन में 3.6 प्रतिशत और जापान में 2.6 प्रतिशत है। इसकी एक वजह यह है कि जापान और चीन में युवाओं का प्रतिशत भारत की तुलना में कम है। वैसे तो बेरोजगारी के कई कारण हैं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि बेरोजगारी की समस्या की जड़ हमारी शिक्षा प्रणाली है, चाहे वह औपचारिक शिक्षा हो या अनौपचारिक। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत हर साल सबसे अधिक संख्या में इंजीनियर तैयार करने के लिए जाना जाता है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि 82 प्रतिशत भारतीय इंजीनियरों के पास वह मूलभूत कौशल नहीं है जिसकी आज के तकनीकी युग में आवश्यकता है। बेरोजगारी की समस्या में हमारी अर्थव्यवस्था की भी भूमिका है।
हमारा आर्थिक विकास मॉडल कुछ महानगरों पर केंद्रित है। देश के चुनिंदा 8-10 महानगरों के अलावा अन्य इलाकों में नौकरियों के बहुत कम अवसर पैदा हो रहे हैं। इसकी वजह से छोटे शहरों से निकलने वाले युवाओं को भी अपनी पहली नौकरी महंगे महानगरों में ढूंढनी पड़ती है। बढ़ती बेरोजगारी का एक बड़ा कारण हमारे गांवों की स्थिति भी है। हमारा कृषि क्षेत्र मंदी के लंबे दौर से गुजर रहा है। 1993 से 2016 तक किसानों की आय में दो प्रतिशत से भी कम की सालाना बढ़ोतरी हुई है। हालांकि कृषि रोजगार का एक बड़ा जरिया है, लेकिन कृषि क्षेत्र में चल रही निरंतर मंदी के कारण शायद ही कोई युवा उसे करियर के रूप में चुनना चाहेगा। जाहिर है कि निराश युवा किसान भी बेरोजगारी के आंकड़ों में दिखेंगे। बेरोजगारी का एक अन्य कारण तकनीकी बदलाव भी है। पिछले तीन-चार दशकों में तकनीक के क्षेत्र में काफी तेज विकास हुआ है। आज अधिकतर कंपनियां अपने कॉल सेंटरों पर इंसान नहीं, कंप्यूटर का प्रयोग कर रही हैं। टैक्सी बुक करने से लेकर खाना और सामान मंगाने का कार्य एप से हो रहा है। औद्योगिक क्षेत्र में ऑटोमेशन या एक रोबोट छह इंसानों का काम अकेले कर सकता है। ऐसा माना जा रहा है कि 2030 तक विश्व भर में 80 करोड़ लोगों की नौकरियां रोबोट द्वारा ले ली जाएंगी। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों जैसे कि जर्मनी और अमेरिका में एक तिहाई कर्मचारियों की नौकरी रोबोट के हाथों में चले जाने का अनुमान है। यही प्रवृत्ति भारत और अन्य विकासशील देशों में भी दिखेगी।
आज इस सवाल से दो-चार होने की जरूरत है कि क्या हम बदलती तकनीक के साथ कदम से कदम मिलकर चल पा रहे हैं? ध्यान रहे कि भारत में इलेक्ट्रिक कारों का आगमन हो चुका है। अनुमान है कि 2030 तक भारत में पेट्रोल या डीजल की कारें नहीं बिकेंगी। आने वाले वक्त में स्वचालित कारें आएंगी जिसमें स्टीयरिंग भी नहीं होगा। इसका असर यह होगा कि टैक्सी ड्राइवर का कार्य करने वाले लोगों की नौकरियां समाप्त हो जाएंगी। इसके साथ ही कम शिक्षा स्तर वाले लाखों मोटर मैकेनिकों के रोजगार पर भी संकट आ सकता है। जाहिर है कि हमें वक्त के साथ हो रहे बदलाव के ढांचे में खुद को ढालना पड़ेगा। हमें युवाओं के कौशल पर ध्यान देना होगा और रोजगार के नए अवसर भी तलाशने होंगे। सबसे पहले हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को कौशल विकास पर केंद्रित करना होगा। इसके साथ ही नए प्रयोग करने पर भी ध्यान देना होगा। देश में लाखों शिक्षण संस्थान हैं, लेकिन सरकार केवल कुछ अच्छे संस्थानों पर ध्यान केंद्रित किए हुए है, जिसकी वजह से कौशल विकास का केंद्रीकरण हो गया है। यह आवश्यक है कि आइआइटी का स्थान विश्व में अच्छा हो, मगर यह अति आवश्यक है कि हमारे छोटे शहरों में स्थित आइटीआइ भी विश्व स्तरीय हों। तकनीकी परिवर्तन के कारण रोजगार में गिरावट का सामना करने के लिए माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने रोबोट टैक्स लगाने की बात की है। उन्होंने कहा है कि जिस भी उद्योग में एक रोबोट से लोगों की नौकरियां जाएं वहां सरकार एक विशेष कर लगा सकती है। इस कर का उपयोग बेरोजगार हुए व्यक्तियों के कौशल विकास और जीवनयापन के लिए किया जा सकता है। भारत जैसे देश को इस सुझाव पर विचार करने की आवश्यकता है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि रोबोट की चुनौती का सामना करने के लिए युवाओं में रचनात्मक कौशल और संवेदना के स्तर को विकसित करने की आवश्यकता होगी, क्योंकि रोबोट के पास इसका अभाव होता है। बेशक नए आविष्कार तमाम दरवाजे खोल सकते हैं, परंतु रचनात्मकता और मानवीय संवेदना का कोई विकल्प नहीं है। अगर हम आने वाले युग में अपना अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो हमें रचनात्मकता और संवेदना पर ध्यान देना होगा। हमें इसकी शुरुआत स्कूलों और घरों से करनी होगी और बच्चों में रचनात्मक प्रतिभा का विकास करना होगा।
गरीब के लिए बढ़े कॉर्पोरेट मदद
देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने हेतु सीएसआर व्यय का योगदान बढ़े तो बेहतर होगा।
डॉ. जयंतीलाल भंडारी
हाल ही में दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) पुरस्कार समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कहा कि भारतीय कंपनियों को अपने सामाजिक उत्तरदायित्व की पूर्ति हेतु गरीबों तक पहुंच बढ़ानी चाहिए ताकि उन्हें भूख और कुपोषण जैसी पीड़ाओं से राहत पहुंचाई जा सके। गौरतलब है कि भुखमरी और कुपोषण के उन्मूलन हेतु कोई व्यय किया जाना सीएसआर के निर्धारित लक्ष्यों में शामिल है। सीतारमण ने यह भी कहा कि देश में सीएसआर के तहत किया जाने वाला खर्च तेजी से बढ़ना सामाजिक कल्याण के मद्देनजर एक सुकूनभरा संकेत है। विगत वित्त वर्ष में सीएसआर के तहत 13 हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
वित्त मंत्री सीतारमण की इस अपील पर कॉर्पोरेट जगत को निश्चित ही गौर करना चाहिए। देश में कई इलाकों में अब भी भूख और कुपोषण की गंभीर समस्या है। हाल ही में प्रकाशित वैश्विक स्वास्थ्य, कुपोषण और भूख से संबंधित रिपोर्ट्स भी इसकी ताकीद करती हैं। ऐसे में इन क्षेत्रों की ओर सीएसआर व्यय का प्रवाह बढ़ाकर बड़ी संख्या में लोगों को कुपोषण और भूख जैसी पीड़ाओं से राहत दी जा सकती है। गौरतलब है कि 25 अक्टूबर को घोषित वैश्विकस्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक में 195 देशों में भारत को 57वें स्थान पर रखा गया। इसी तरह 16 अक्टूबर को यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वल्र्ड्स चिल्ड्रेन में भी कहा गया है कि भारत में 5 साल से कम उम्र के 69 फीसदी बच्चों की मौतों का कारण कुपोषण है। यूनिसेफ का यह भी आकलन है कि महज 42 फीसदी बच्चों को ही समय पर खाना मिलता है।इसी तरह भारत में भूख की समस्या से संबंधित रिपोर्ट वैश्विक भूख सूचकांक के रूप में 15 अक्टूबर, 2019 को प्रकाशित हुई है। वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई)-2019 में 117 देशों की सूची में भारत 102वें पायदान पर पाया गया। रिपोर्ट में भारत की निम्न रैंकिंग का एक बड़ा कारण यह बताया गया है कि यहां पांच साल से कम उम्र के बच्चों में ऊंचाई के अनुपात में कम वजन वाले बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। साथ ही भारत के 6 से 23 महीने तक के सभी बच्चों में से मात्र 9.6 फीसदी बच्चों को ही न्यूनतम स्वीकार्य आहार मिल पाता है।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का भी कहना है कि भारत में भूख से पीड़ित लोगों तथा कुपोषित बच्चों की बढ़ती तादाद चिंताजनक है। बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, झारखंड और असम जैसे राज्यों में यह समस्या लंबे समय से चिंताएं बढ़ाती दिख रही है। जन्म के बाद बच्चों को जिन पोषक तत्वों और स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता होती है, वे बच्चों को मिल नहीं पाते हैं। स्थिति यह है कि न तो बच्चों का ढंगसे टीकाकरण हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज।देश में विकास के साथ-साथ आर्थिक असमानता का परिदृश्य भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अभी जो भूख और कुपोषण की चुनौती सामने खड़ी है, उससे निपटने के लिए तात्कालिक रूप से सीएसआर व्यय राहतकारी भूमिका निभा सकता है।
ऐसे में इस समय कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के परिपालन के तहत स्वास्थ्य, कुपोषण और भूख की चिंताएं कम करने के लिए सीआरआर व्यय बढ़ाने को प्राथमिकता देना जरूरी है। उल्लेखनीय है कि 500 करोड़ रुपए या इससे ज्यादा नेटवर्थ अथवा पांच करोड़ रुपए या इससे ज्यादा मुनाफे वाली कंपनियों को पिछले तीन साल के अपने औसत मुनाफे का दो प्रतिशत हिस्सा हर साल सीएसआर के तहत उन निर्धारित गतिविधियों में खर्च करना होता है, जोसमाज के पिछड़े या वंचित लोगों के कल्याण के लिए जरूरी हों। इनमें भूख, गरीबी और कुपोषण पर नियंत्रण, कौशल प्रशिक्षण, शिक्षा को बढ़ावा, पर्यावरण संरक्षण, खेलकूद प्रोत्साहन, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, तंग बस्तियों के विकास आदि पर खर्च करना होता है। लेकिन विभिन्न् अध्ययन रिपोर्ट्स में पाया गया कि बड़ी संख्या में कंपनियां सीएसआर के उद्देश्य के अनुरूप खर्च नहीं करती हैं। वे सीएसआर के नाम पर मननाने तरीके से खर्चे कर रही हैं।
हालांकि विगत अगस्त में सरकार ने जिस कंपनी (संशोधन) विधेयक-2019 को पारित किया है, उसमें उन कंपनियों पर जुर्माना लगाने के प्रावधान भी शामिल हैं जो सीएसआर के लिए अनिवार्य दो फीसदी का खर्च नहीं करती हैं। नए संशोधनों से कंपनियों की सीएसआर गतिविधियों में जवाबदेही तय करने में आसानी होगी। कंपनी अधिनियम की धारा 135 के नए सीएसआर मानकों के मुताबिक यदि कोई कंपनी अपने मुनाफे का निर्धारित हिस्सा निर्धारितसामाजिक गतिविधियों पर खर्च नहीं कर पाए तो जो धनराशि खर्च नहीं हो सकी उसे कंपनी से संबद्ध बैंक में सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी एकाउंट में जमा किया जाना होगा। कंपनियों को सीएसआर का बगैर खर्च किया हुआ धन स्वच्छ भारत कोष, क्लीन गंगा फंड और प्रधानमंत्री राहत कोष जैसी मदों में डालना होगा।
ऐसे में अभी तक जो कंपनियां सीएसआर को रस्मअदायगी मानकर उसके नाम पर कुछ भी कर देती थीं, उनके लिए अब मुश्किल हो सकती है। सीएसआर के मोर्चे पर सरकार सख्ती करने जा रही है। अब कंपनियां केवल यह कहकर नहीं बच पाएंगी कि उन्होंने सीएसआर पर पर्याप्त रकम खर्च की है। अब उन्हें यह बताना पड़ेगा कि खर्च किस काम में किया गया? उस खर्च का नतीजा क्या निकला और समाज पर उसका कोई सकारात्मक असर पड़ा या नहीं? उन्हें यह भी बताना होगा कि क्या यह खर्च कंपनी से जुड़े किसी संगठन पर हो रहा है? नए नियमों के तहत निचले स्तर पर शामिल कंपनियों के लिए सीएसआर में हुए न्यूनतम खर्च के खुलासे की बाध्यता होगी, खर्च की रकम बढ़ने के साथ-साथ अधिक से अधिक जानकारी देनी होगी।
जिस तरह देश में कॉर्पोरेट जगत निरंतर नई बुलंदियों की ओर बढ़ रहा है, उसी के मुताबिक उसके सामाजिक उत्तरदायित्व में भी इजाफा होना लाजिमी है।देश में कॉर्पोरेट जगत के सामाजिक उत्तरदायित्व की नई जरूरतें उभरकर सामने आई हैं। ज्ञातव्य है कि सीएसआर किसी तरह का दान नहीं है। दरअसल यह सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ कारोबार करने की व्यवस्था है। कॉर्पोरेट जगत की यह जिम्मेदारी है कि वह स्थानीय समुदाय और समाज के विभिन्न् वर्गों के बेहतर जीवन और रहन-सहन के लिए सकारात्मक भूमिका निभाए। खासतौर से देश में कुपोषण एवं भूख की चिंताओं को कम करने के लिएसीएसआर के दायरे का विस्तार प्रमुख सामाजिक जरूरत है।
इसी तरह हमें श्रम कौशल से जुड़ी योजनाओं पर भी सीएसआर व्यय बढ़ाना होगा। श्रम कौशल के आधार पर देश में बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देकर उन्हें कुपोषण और भूख से बचाया जा सकेगा। हम आशा करें कि समाज के कमजोर, वंचित लोगों के जीवन को बेहतर बनाने तथा देश में मौजूद कुपोषण एवं भूख की समस्या से निपटने में कॉर्पोरेट जगत अपना योगदान बढ़ाएगा और सीएसआर व्यय के माध्यम से अधिक सार्थक भूमिका निभाने की दिशा में आगे बढ़ेगा।
Deciphering Greta’s climate message
There is more to the Swedish teenager-activist’s point of view than mere emotion and passionate commitment
Krishna Kumar , is a former director of the National Council of Educational Research and Training (NCERT)
She is being looked at as an emotionally charged icon of environmental struggles, but there is more to Greta Thunberg’s point of view than mere emotion and passionate commitment. If we decipher all the issues raised in her brief presentation at the UN General Assembly, we can notice how it expands the familiar contours of the discussion over climate change. Some of the issues she raised were a regular feature in many debates over natural resources, but there were other, new issues as well.
One well-recognised issue is the direct connection between economic growth and the state of the environment. Devotees of speedy and high economic growth have been indifferent to the limits that nature imposes on the theoretical scope of growth. Nearly half a century has passed since the idea of ‘limits to growth’ was recognised and proposed as a ground for change in development policies. Apparently, political leaders and the civil servants who serve them do not feel constrained by that idea. The younger ones may not be acquainted with the 1972 report wherein the paradox of economic development was examined.
Victims of indifference
“All you can talk about is money and fairy tales of economic growth,” Ms. Thunberg told her audience at the UN headquarters in New York. She accused world leaders of ignoring or deliberately looking away from the responsibility they have towards the young today and in the future. Her argument would have pleased Mahatma Gandhi. He too thought that economics concerned solely with wealth undermines ethical responsibilities. It ignores justice as a primary human yearning and, in today’s terminology, a right.This was also the underlying theme of Ms. Thunberg’s presentation to the leaders and representatives of different countries. She presented herself as a victim of their indifference to climate change. “You have stolen my childhood with your empty words,” she said. As an activist-teenager, she had reasons to feel that way. Her campaign on climate change had cost her more than just school attendance.
Being young implies being part of a future. Ms. Thunberg was referring to the collective future of those who are young today and also to future generations. These futures are bleak — not in the context in which economic slowdown affect prospects of prosperity and comfort. Ms. Thunberg’s focus was on climate change, a composite idea that imparts bleakness to everybody’s future. She suggested that higher income or status would not help to avoid the consequences of climate change. That is an important point, and not everyone today is convinced about its correctness. Not only the richer nations, but also the richer people in every nation continue to believe that they can buy relief and escape from the consequences of climate change for their progeny.
It is in adult-child relations that Ms. Thunberg struck a new, unfamiliar note. It is hardly surprising that this aspect of her presentation has elicited no commentary. One reason is its novelty; another is the unsettling nature of her point. Human beings are used to deriving hope from their progeny. Children give us a sense of continuity, a symbolic conquest over death. They also give us the prospect of our unfinished tasks being pursued after us. As parents, we not only want to do the best for our children, but we also want their lives to go beyond ours in terms of worldly gains and fulfilment.
Childhoods stymied
Parents invest huge amounts of money in their children’s education to make sure that they lead better lives. So do nations. Their leaders talk eloquently about the younger generation taking the nation forward. Societies expect their long-pending problems to be solved by members of the young generation, with their creative and intellectual strength. It was this sentiment that Ms. Thunberg was referring to when she said: “You all come to us young people for hope. How dare you!”
Ms. Thunberg reminded her audience that carbon emissions are crippling the capacities of the young in the early years. This is a familiar note to us in India. In cities like Delhi, doctors have been warning us that children suffering from asthma cannot be expected to have a normal adolescence and youth. The limits that air and water pollution place upon a young person’s health and capacities are all too palpable to citizens in many parts of India. What Ms. Thunberg did was to place these limits in a newer, more public context.
It is easy to miss her message or misconstrue it because her presentation was strident. While she was so visibly emotional during her brief speech, her message was that we must stop being emotional about our children. Although she was addressing an audience of political leaders, she wanted all of us to recognise and accept the bitter truth that we — and those who represent us — have compromised the future of our children. It is not the distant generations that will face the consequences of climate change. No, the crisis is already upon us. It will unfold in the lives of those who are growing up today. The steps currently under consideration for containing the consequences of climate change are far too inadequate to cope with the crisis. And even these modest steps are being taken with great reluctance, which proves Ms. Thunberg’s point was that we are not mentally ready to accept the challenge.
It is perhaps obvious that Ms. Thunberg was not speaking on behalf of the children and youth in any particular country. She was representing the voice of the young in a generic sense. This is a paradox worth dwelling on. Among millions of teenagers like her, not all are as apprehensive about the impending future. Nor is everybody as dissatisfied or disgusted with the hypocrisy of politicians and the policies they have framed, nationally or globally. Indeed, the contrary may be true and youngsters like her may be an exception. The growth-centric model of progress and the promise of greater production of consumer goods probably appeals to the vast population of the young in many countries today. They might also feel quite confident that their leaders will find the way forward against climate change Nationalist sentiments do inspire a vast section of the young to have positive feelings when it comes to the future.
Ms. Thunberg does not represent this vast crowd. But she does represent the young in a deeper, generic sense as she is someone who has overcome the illusions that childhood and adolescence usually create, often in the garb of idealism. Her Swedish education has made her critically aware of what is going on, imparting to her a sense of urgency and impatience to act. This is not exactly an exceptional case. Nor is Ms. Thunberg alone any more. In many countries, countless children have begun to identify with her. Thanks to the new curricular initiatives taken in all national systems of education, school-going children know a lot more about the meaning of climate change than their parents have the leisure to learn.
It is the adults and older people today who might feel rattled by Ms. Thunberg’s speech. When she spoke in the UN General Assembly, many in the audience could be heard laughing. They saw her more as a spectacle than as a real person. They were accustomed to routine expressions of concern about climate change.
Many such leaders are quite pleased with the efforts by the UN and its various bodies to pursue the policies related to sustainable development. They find long, comfortable targets for reduction of carbon emissions quite sufficient and satisfactory. We can hardly imagine that Ms. Thunberg woke them up. If that were possible, we wouldn’t be where we are in our encounter with nature’s fury for which we have coined the euphemism of ‘climate change’.