
02-07-2025 (Important News Clippings)
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Get Aggro on Agri Via Specialty Fertilisers
China’s pushed, reform FCO to push back
ET Editorials
India’s farm sector, heavily reliant on imported fertilisers, is again bearing the brunt of external manipulations — this time due to delay of shipments of soluble fertilisers under China Entry-Exit Inspection and Quarantine (CIQ) process. These ‘designer’ fertilisers are essential for fruit and vegetables. Of the 6 lakh tonnes of nonsubsidised specialty fertilisers imported annually, about 80% is from China. Domestic production accounts for 10%, with the remaining sourced from other countries. During June-Dec crop cycle alone, India imports 1.5-1.6 lakh tonnes. China’s low-grade economic sanctions shouldn’t surprise India. Over the past four years, Beijing has intermittently imposed restrictions on fertiliser exports, underscoring risk of concentrated dependencies in a geopolitically fractured world.
Unlike bulk fertilisers like urea, diammonium phosphate (DAP) or muriate of potash (MoP), soluble fertilisers are high-value, low-volume products designed for precision farming. They allow nutrients to be delivered through drip irrigation systems, improving yield, reducing runoff and preserving soil health. As India shifts towards protected cultivation and high-value agriculture, demand for these inputs is expected to grow to around 1 mn tonnes by 2029. So, it can’t afford to treat this delay as a one-off.
A starting point is reforming the outdated Fertiliser (Control) Order (FCO), which heavily penalises Indian manufacturers. They must secure multiple licences, set up state-wise warehouses and comply with onerous paperwork. Foreign suppliers enjoy a far smoother path to market entry. India must now take serious steps to scale up domestic production. This includes reviving idle fertiliser plants, supporting innovation in nanoand specialty fertilisers, and strengthening PPPs. Diversifying import sources is essential. But equally important is promoting balanced nutrient use, including organics and biofertilisers. Fertiliser security is key to food security. The clock is ticking.
अमेरिकी उत्पादों को लेकर नीतिगत निर्णय लेना होगा
संपादकीय
आजाद भारत में पहली बार विदेश व्यापार, उद्योग, कृषि व रक्षा सामर्थ्य के भविष्य को लेकर सरकार को बड़ा फैसला करना है। ट्रम्प काल का अमेरिका अड़ा है अपना कृषि और डेयरी उत्पाद भारत में बेचने पर क्योंकि चीन ने खरीदने से मना कर दिया है। अगर अमेरिका की जिद नहीं मानी तो 9 जुलाई से टैरिफ 10 से बढ़कर 26% हो जाएगा। अगर मान ली तो राजनीतिक घाटा जरूर होगा पर अपना माल 10% पर बेच कर भारत एक समृद्ध व्यापारी देश बन सकता है। इससे उद्योग बढ़ेंगे, रोजगार मिलेगा और रक्षा जरूरतें पूरी होंगी। यानी सरकार को बड़ा नीतिगत फैसला लेना होगा। यही नहीं, कृषि पर बढ़ते बेरोजगार युवाओं के दबाव को कम करने का एक ही रास्ता है- उन्हें उद्योगों में नियोजित करना। इसके लिए उन्हें टेक्निकल ट्रेनिंग देनी होगी। अगर राजनीतिक नुकसान के डर से अमेरिकी सोया, मक्का, सेब, डेयरी उत्पाद नहीं खरीदे गए, ताकि भारतीय किसानों को घाटा न हो तो ट्रम्प की नाराजगी झेलनी पड़ेगी । उसका असर भारत को बेहतर रक्षा उपकरण न देने से लेकर पाकिस्तान की जंगी क्षमता बढ़ाने तक कई स्तर पर होगा। तरीका एक ही है- किसानों को सीधे आर्थिक राहत मिले और उनके बच्चों को कौशल की ट्रेनिंग देकर एमएसएमई और बड़े स्टील / एल्युमीनियम उद्योगों में खपाया जाए। चीन के 26% टैरिफ के मुकाबले 10% टैरिफ पर अपना माल अमेरिका को बेचकर भारत एक बड़ा विकल्प भी बन सकता है। पर इसके लिए राजनीतिक इच्छा-शक्ति जरूरी है।
Date: 02-07-25
भारत में डिजिटल-क्रांति का एक दशक
नरेंद्र मोदी, ( प्रधानमंत्री )
दस साल पहले हमने एक ऐसे क्षेत्र में पूर्ण विश्वास के साथ ऐसी यात्रा शुरू की थी, जहां पहले कोई नहीं गया था। जहां दशकों तक यह संदेह किया गया कि भारतीय तकनीक का उपयोग कर पाएंगे कि नहीं, हमने उस सोच को बदला और भारतीयों की तकनीक का उपयोग करने की क्षमता पर विश्वास किया।
जहां दशकों तक सिर्फ यह सोचा गया कि तकनीक का उपयोग अमीर और गरीब के बीच की खाई को और गहरा करेगा, हमने उस मानसिकता को बदला और तकनीक के माध्यम से उस खाई को खत्म किया। जब नीयत सही होती है, तो नवाचार वंचितों को सशक्त करता है।
जब दृष्टिकोण समावेशी होता है, तो तकनीक हाशिए पर खड़े लोगों के जीवन में परिवर्तन लाती है। यही विश्वास डिजिटल इंडिया की नींव बना- एक ऐसा मिशन जो सभी के लिए पहुंच को लोकतांत्रिक (आसान) बनाने, समावेशी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने और अवसरों को उपलब्ध कराने के लिए शुरू हुआ।
2014 में इंटरनेट की पहुंच सीमित थी, डिजिटल साक्षरता कम थी और सरकारी सेवाओं की ऑनलाइन पहुंच बेहद सीमित थी। कई लोगों को संदेह था कि भारत जैसा विशाल और विविध देश वास्तव में डिजिटल बन सकता है या नहीं। आज, इस प्रश्न का उत्तर डेटा और डैशबोर्ड में नहीं, बल्कि 140 करोड़ भारतीयों के जीवन के माध्यम से दिया जा चुका है।
शासन से लेकर शिक्षा, लेन-देन और निर्माण तक, डिजिटल इंडिया हर जगह है। 2014 में भारत में लगभग 25 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन थे। आज यह संख्या बढ़कर 97 करोड़ से अधिक हो चुकी है। 42 लाख किलोमीटर से अधिक ऑप्टिकल फाइबर केबल, जो पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी का 11 गुना है, अब दूरस्थ गांवों को भी जोड़ रही है।
भारत का 5जी रोलआउट विश्व में सबसे तेज रोलआउट्स में से एक है और मात्र दो वर्षों में 4.81 लाख बेस स्टेशंस स्थापित किए गए हैं। हाई-स्पीड इंटरनेट अब शहरी केंद्रों से लेकर अग्रिम सैन्य चौकियों जैसे गलवान, सियाचिन और लद्दाख तक पहुंच चुका है।
इंडिया स्टैक- जो हमारा डिजिटल बैकबोन है- ने यूपीआई जैसे प्लेटफॉर्म को सक्षम बनाया है, जो अब सालाना 100 बिलियन से अधिक लेन-देन करता है। विश्व में होने वाले कुल रियल-टाइम डिजिटल ट्रांजैक्शन में से लगभग आधे भारत में होते हैं।
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) के माध्यम से 44 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि सीधे नागरिकों को हस्तांतरित की गई है, जिससे बिचौलियों की भूमिका समाप्त हुई और 3.48 लाख करोड़ रुपए की लीकेज रोकी गई है। स्वामित्व जैसी योजनाओं ने 2.4 करोड़ से अधिक प्रॉपर्टी कार्ड्स जारी किए हैं और 6.47 लाख गांवों को मैप किया है, जिससे भूमि संबंधी अनिश्चितता का अंत हुआ है।
भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था अब पहले से कहीं अधिक एमएसएमई और छोटे उद्यमियों को सशक्त बना रही है। ओएनडीसी (ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स) एक क्रांतिकारी प्लेटफॉर्म है, जो विक्रेताओं और खरीदारों के विशाल बाजार से सीधा संपर्क स्थापित कर नए अवसरों की खिड़की खोलता है।
जीईएम (गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस) आमजन को सरकार के सभी विभागों को सामान और सेवाएं बेचने की सुविधा देता है। इससे न केवल आम नागरिक को एक विशाल बाजार मिलता है बल्कि सरकार की बचत भी होती है। कल्पना कीजिए, आप मुद्रा लोन के लिए ऑनलाइन आवेदन करते हैं। आपकी क्रेडिट योग्यता को अकाउंट एग्रीगेटर फ्रेमवर्क के माध्यम से आंका जाता है।
आपको लोन मिलता है, आप अपना व्यवसाय शुरू करते हैं। आप जीईएम पर पंजीकृत होते हैं, स्कूलों और अस्पतालों को सप्लाई करते हैं और फिर ओएनडीसी के माध्यम से इसे और बड़ा बनाते हैं। ओएनडीसी ने हाल ही में 20 करोड़ लेन-देन का आंकड़ा पार किया है- जिसमें पिछले 10 करोड़ सिर्फ 6 महीनों में हुए हैं।
बनारसी बुनकरों से लेकर नगालैंड के बांस शिल्पियों तक, अब विक्रेता बिना बिचौलियों के पूरे देश में ग्राहक तक पहुंच रहे हैं। जीईएम ने 50 दिनों में एक लाख करोड़ रुपए का जीएमवी पार किया है, जिसमें 22 लाख विक्रेता शामिल हैं। इनमें 1.8 लाख से अधिक महिला संचालित एमएसएमई हैं, जिन्होंने 46,000 करोड़ रुपए की आपूर्ति की है।
भारत का डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (डीपीआई)- जैसे आधार, कोविन, डिजिलॉकर, फास्टैग, पीएम-डब्ल्यूएएनआई और वन नेशन वन सब्स्क्रिप्शन को अब वैश्विक स्तर पर पढ़ा और अपनाया जा रहा है। कोविन ने दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान को सक्षम किया, जिससे 220 करोड़ क्यूआर-सत्यापित सर्टिफिकेट जारी हुए।
डिजिलॉकर- जिसके 54 करोड़ उपयोगकर्ता हैं- 775 करोड़ से अधिक दस्तावेजों को सुरक्षित और निर्बाध तरीके से होस्ट कर रहा है। भारत ने अपनी जी20 अध्यक्षता के दौरान ग्लोबल डीपीआई रिपॉजिटरी और 25 मिलियन डॉलर का सोशल इम्पैक्ट फंड लॉन्च किया, जिससे अफ्रीका और दक्षिण एशिया के देश समावेशी डिजिटल इकोसिस्टम अपना सकें।
भारत अब विश्व के शीर्ष 3 स्टार्टअप इकोसिस्टम में शामिल है, जिसमें 1.8 लाख से अधिक स्टार्टअप हैं। लेकिन यह सिर्फ एक स्टार्टअप आंदोलन नहीं है, यह एक टेक्नोलॉजी पुनर्जागरण है। भारत में युवाओं के बीच एआई स्किल्स और टैलेंट के मामले में बड़ी प्रगति हो रही है।
1.2 बिलियन डॉलर इंडिया एआई मिशन के तहत भारत ने 34,000 जीपीयू की पहुंच ऐसे मूल्य पर सुनिश्चित की है, जो वैश्विक स्तर पर सबसे कम है- 1 डॉलर से भी कम प्रति जीपीयू ऑवर। इससे भारत न केवल सबसे सस्ती इंटरनेट इकोनॉमी, बल्कि सबसे किफायती कंप्यूटिंग हब बन गया है। अगला दशक और अधिक परिवर्तनकारी होगा। हम डिजिटल गवर्नेंस से आगे बढ़कर वैश्विक डिजिटल नेतृत्व की ओर बढ़ रहे हैं- इंडिया फर्स्ट से इंडिया फॉर द वर्ल्ड तक।
Date: 02-07-25
आर्थिक विषमता और दुर्बल लोकतंत्र
कौशिक बसु, ( विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट )
किसी भी देश में आर्थिक असमानता कुछ हद तक एक उपयोगी भूमिका जरूर निभाती है, क्योंकि यह इनोवेशन और कड़ी मेहनत के लिए प्रोत्साहन प्रदान करती है। उद्यमियों को अकसर नए उपक्रमों में निवेश करने के लिए जोखिम उठाना पड़ता है। यदि उपक्रम सफल होता है, तो उन्हें जोखिम के लिए उचित मुआवजा मिलेगा।
इसी तरह, जो व्यक्ति कड़ी मेहनत करना चुनता है, उसे उन लोगों की तुलना में अधिक आय मिलनी चाहिए, जो अधिक आरामदायक जीवन शैली अपनाते हैं। यही वे प्रोत्साहन हैं, जो किसी देश की आर्थिक वृद्धि को आगे बढ़ाते हैं। इसलिए, एक निश्चित स्तर की आर्थिक असमानता स्वाभाविक है और अर्थव्यवस्था के बढ़ते रहने के लिए जरूरी भी।
हालांकि, आज दुनिया में जिस स्तर की आर्थिक असमानता देखने को मिल रही है, वह जितनी होनी चाहिए, उससे कहीं ज्यादा है। ऑक्सफैम द्वारा 20 मई 2025 को प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया के 10 सबसे अमीर लोगों की संपत्ति में एक साल में 365 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई। यह तंजानिया की पूरी आबादी (लगभग 6.6 करोड़) द्वारा एक वर्ष में अर्जित कुल आय से चार गुना अधिक है।
मान लें कि सबसे अमीर लोगों की सालाना आय उनकी कुल संपत्ति की 5% है तो आज दुनिया के तीन सबसे अमीर व्यक्तियों- मस्क, जकरबर्ग और बेजोस की कुल आय नेपाल की पूरी आबादी यानी 2.96 करोड़ लोगों की आय के बराबर है। अगर हम सब-सहारन अफ्रीका के देशों की बात करें तो इतनी आय वहां की और बड़ी आबादी के बराबर होगी।
हम जानते हैं ब्रिटिश राज के समय भारत में बहुत असमानता थी। आजादी के बाद भी रही, लेकिन यह न केवल अंग्रेजों के दौर, बल्कि दुनिया के कई और देशों के मुकाबले भी काफी कम थी। जब मैं कोलकाता और दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था, तो अकसर पाकिस्तान के उन 22 परिवारों की बातें सुनता था, जो अपनी दौलत के जरिए पूरे देश को चलाते थे।
हम फिलीपींस और कई मध्य-पूर्वी देशों में क्रोनी कैपिटलिज्म (मिलीभगत वाले पूंजीवाद) के बारे में पढ़ते थे, जहां कुछ गिने-चुने लोग देश और सरकार को अपने कब्जे में लिए रहते थे। उस दौर में भारत इन सबसे अलग लगता था।
लेकिन हालिया अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में अब क्रोनीवाद तेजी से बढ़ रहा है। थॉमस पिकेटी और उनके सह-लेखकों द्वारा किए एक अध्ययन के अनुसार भारत में आर्थिक असमानता उस स्तर तक पहुंच चुकी है, जो ब्रिटिश राज के दौर में देखी गई थी।
इस तरह की असमानता दुनिया के किसी भी हिस्से में ठीक नहीं मानी जाती, लेकिन यहां मैं एक नई और गंभीर समस्या की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं : आर्थिक असमानता और लोकतंत्र के कमजोर पड़ने के बीच का संबंध।
आज की दुनिया में असमानता का असर कुछ अलग ही रूप ले रहा है, और इसकी एक बड़ी वजह है डिजिटल कनेक्टिविटी का बढ़ना, सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का उभरना। पहले के समय में जो लोग बहुत अमीर होते थे, उनके पास कई घर, कारें और जेवर होते थे। आज भी उनके पास ये सब कुछ है, लेकिन इसके अलावा अब उनके पास प्लेटफॉर्म्स पर नियंत्रण और ऐसा प्रभाव डालने की ताकत भी है, जो पहले मुमकिन नहीं थी।
भारतीय ग्रामीण जीवन पर काम करने वाले मानवशास्त्रियों ने लिखा है कि गांव की बैठकों में जब आम लोग खुलकर अपनी बातें रख रहे होते थे, तो जैसे ही गांव का कोई अमीर जमींदार आता था, सब चुप हो जाते थे।
आज जब पूरी दुनिया एक तरह से डिजिटल रूप से एक ही बड़ी बैठक में जुड़ी हुई है, तो वही बात वैश्विक स्तर पर हो रही है। कुछ अरबपतियों के हाथों में जब असर डालने के सारे साधन आ जाते हैं, तो आम लोगों की आवाज दब जाती है। और यही लोकतंत्र को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है।
व्यापार समझौते की आशा
संपादकीय
भारत और अमेरिका के बीच शीघ्र ही व्यापार समझौता होने की आशा जगी है। इस कारण जगी है, क्योंकि अमेरिका की ओर से कहा गया है कि दोनों देशों के बीच शीघ्र ही कोई अंतरिम व्यापार समझौता हो सकता है। विदेश मंत्री जयशंकर का भी यह कहना है कि भारत और अमेरिका के बीच होने वाले व्यापार समझौते पर नजर है। यह समझौता 8 जुलाई के पहले हो जाना चाहिए, अन्यथा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से टैरिफ पर तीन माह की जो कथित मोहलत दी गई थी, उसकी अवधि खत्म हो जाएगी।
भारत चाहेगा कि इस अवधि के खत्म होने के पहले दोनों देशों के बीच कोई अंतरिम व्यापार समझौता हो जाए, लेकिन इसमें बाधा यह है कि अमेरिका अपने हितों को प्राथमिकता दे रहा है और स्वाभाविक रूप से भारत अपने हितों को। होना तो यह चाहिए कि दोनों देश एक-दूसरे का हित देखें और बीच का कोई रास्ता निकालें। दोनों देशों के संबंधों को आगे बढ़ाने में ऐसा ही करना होता है, लेकिन ट्रंप के बारे में यह कहना कठिन है कि उन्हें अपने और अमेरिका के हितों के आगे किसी अन्य देश और यहां तक कि मित्र देशों के हितों की परवाह है।
हाल में ट्रंप के विचित्र और एक तरह के भारत विरोधी रवैये को तब देखा गया था, जब उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना के आपरेशन सिंदूर को थामने का श्रेय ले लिया था। यह अनावश्यक था और भारत ने इससे दो टूक इन्कार भी किया, लेकिन इसके बावजूद उनके सुर नहीं बदले। इतना ही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान को अपना प्रिय देश बताना शुरू कर दिया। इससे भी बुरी बात यह हुई कि उन्होंने पाकिस्तान में पाले जा रहे आतंकियों की अनदेखी कर पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को अमेरिका बुला कर उनकी तारीफ की।
हो सकता है कि इसका कारण ईरान के खिलाफ पाकिस्तान की मदद लेना हो, लेकिन वह भारत की तो अनदेखी करते ही नजर आए। आतंकवाद के साथ-साथ व्यापार नीति और विशेष रूप से उनकी टैरिफ नीति भी भारतीय हितों के प्रतिकूल है। यह अच्छा हुआ कि कुछ दिनों पहले भारत ने यह कहने में संकोच नहीं किया था कि उसे अमेरिका के साथ अंतरिम व्यापार समझौते की कोई जल्दी नहीं है।
आगे भी उसे जल्दबाजी दिखाने से बचना होगा। भारत अपने हितों की रक्षा पर जोर देकर ही ट्रंप को मनमानी करने से रोक सकता है। ध्यान रहे कि उन्हें कुछ अन्य देशों के मामले में भी अपनी व्यापार नीति में फेरबदल करना पड़ा है। इससे यही पता चलता है कि उन्हें मनमानी करने से रोका जा सकता है। भारत ने पिछले दिनों जैसी दृढ़ता चीन के खिलाफ दिखाई, वैसी ही अमेरिका के खिलाफ भी दिखानी चाहिए और यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि व्यापार समझौते में उसके भी हितों की रक्षा होनी चाहिए।
संवाद के समांतर
संपादकीय
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता वार्ता महत्त्वपूर्ण चरण में है। दोनों पक्ष इस समझौते के अंतरिम प्रारूप को नौ जुलाई से पहले अंतिम रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। कई मसलों पर द्विपक्षीय सहमति बन गई है, लेकिन कृषि और डेयरी क्षेत्र से जुड़े मुद्दों पर पेच फंसता नजर आ रहा है। अमेरिकी ‘शुल्क नौ जुलाई से लागू हो जाने की संभावना के बावजूद भारत अपने हितों से कोई समझौता नहीं करना चाहता है। इस सिलसिले में वाणिज्य विभाग के विशेष सचिव की अगुवाई में वाशिंगटन गए भारतीय दल ने इसके साफ संकेत दिए हैं। हालांकि, भारत चाहता है कि यह व्यापार समझौता जल्द से जल्द हो, लेकिन किसी दबाव में देश के हित की कीमत पर नहीं इसमें दोराय नहीं कि अगर यह व्यापार समझौता सिरे चढ़ता है तो इससे दोनों देशों को फायदा होगा। मगर, इसके लिए दोनों पक्षों को परस्पर हितों का सम्मान करना होगा, जो अमेरिकी पक्ष की ओर से फिलहाल कुछ मुद्दों पर नजर नहीं आ रहा है।
दरअसल, अमेरिका अपने उत्पादों के लिए भारतीय कृषि और डेयरी बाजार में व्यापक पहुंच और शुल्क छूट की मांग कर रहा है। चीन के साथ बढ़ते व्यापार तनाव के कारण अमेरिका अपने कृषि और डेयरी उत्पादों को भारत में निर्वात करना चाहता है। लेकिन भारत के लिए इन क्षेत्रों में अमेरिका को शुल्क छूट देना कठिन और चुनौतीपूर्ण है। इसका कारण यह है कि भारत में करोड़ों किसान अपनी आजीविका के लिए खेती में लगे हैं और उनकी जोत का आकार काफी छोटा है। भारत इन क्षेत्रों को लेकर संतुलित समझौते की मांग कर रहा है, ताकि ग्रामीण रोजगार और खाद्य सुरक्षा जैसे अहम मुद्दे सुरक्षित रह सकें। ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआइ) की एक रपट में भी भारत की इन चिंताओं का समर्थन कर इन्हें तथ्यों पर आधारित माना गया है। रपट के मुताबकि, अमेरिका को कृषि और डेयरी क्षेत्रों में व्यापक पहुंच उपलब्ध कराने से भारत में कृषि पर निर्भर करोड़ों लोगों की आजीविका प्रभावित होगी।
अमेरिका और भारत के बीच प्रस्तावित व्यापार समझौते के लिए इस चरण की वार्ता को इसलिए भी अहम माना जा रहा है, क्योंकि अमेरिका की ओर से लगाया गया 26 फीसद अतिरिक्त शुल्क नौ जुलाई के बाद लागू हो सकता है। अमेरिका ने इस साल दो अप्रैल को भारतीय वस्तुओं पर वह अतिरिक्त शुल्क लगाया था, लेकिन बाद में इसे नब्बे दिन के लिए टाल दिया गया। हालांकि, अमेरिका का दस फीसद मूल शुल्क अभी भी लागू है भारत अतिरिक्त 26 फीसद शुल्क से पूरी छूट की मांग कर रहा है। यहां गौर करने वाली बात है कि भारत ने अब तक हस्ताक्षरित किसी भी मुक्त व्यापार समझौते में अपने डेयरी क्षेत्र को नहीं खोला है। ऐसे में अमेरिका को भारत की चिंताओं को लेकर गंभीरता से विचार करना होगा। अमेरिका डेयरी और कृषि क्षेत्र के अलावा मोटर वाहन विशेषकर इलेक्ट्रिक वाहन और पेट्रोरसायन उत्पादों पर शुल्क में भी रियायत चाहता है। वहीं, भारत प्रस्तावित व्यापार समझौते में कपड़ा, रत्न एवं आभूषण, चमड़े के सामान, परिधान, प्लास्टिक, रसायन और श्रम-प्रधान क्षेत्रों के लिए शुल्क छूट की मांग कर रहा है। इस समझौते का उद्देश्य द्विपक्षीय व्यापार को मौजूदा 191 अरब अमेरिकी डालर से बढ़ाकर वर्ष 2030 तक 500 अरब डालर तक पहुंचाना है। यह बेहद महत्त्वपूर्ण साझेदारी हो सकती है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरका, भारत की चिंताओं को समझकर कदम आगे बढ़ाएगा।