02-02-2018 (Important News Clippings)
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राजकोषीय दबाव
संपादकीय
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐसा बजट पेश किया है जो हर तरह से अच्छा प्रतीत होता है लेकिन राजकोषीय गणित को ठीक से समझने के लिए इसे थोड़ा गहराई से पढऩा होगा। तभी आर्थिक वृद्घि पर इसके प्रभाव का भी आकलन हो पाएगा। सरकार के ऋण कार्यक्रम को लेकर बॉन्ड बाजार की प्रतिक्रिया पर खास ध्यान देना होगा। उच्च ब्याज दर व्यवस्था अगर फलीभूत होती है तो इसमें आर्थिक सुधार की गति धीमी होने का जोखिम भी होता है। बदलावों की बात करें तो वित्त मंत्री ने व्यक्तिगत आय पर कर के मामले में चरणबद्घ सुधार का सिलसिला जारी रखा है। कॉर्पोरेट कर ढांचे में ऐसा बदलाव किया गया है जो छोटे और मझोले उद्यमों के लिए फायदेमंद साबित होगा। उन्होंने शेयरों और इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश के रूप में लंबी अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर लगाकर अच्छा कदम उठाया है। कर बढ़ाने पर यह ध्यान स्वागतयोग्य है क्योंकि वृद्घि के लाभ में असमानता बढ़ती जा रही है।
सबसे अहम कर बदलाव वे नहीं हैं जिन पर वित्त मंत्री ने अच्छा-खासा समय दिया बल्कि वे हैं जिन पर उन्होंने चलताऊ अंदाज में टिप्पणियां कीं। खपत वाली वस्तुओं की तमाम श्रेणियों पर लगने वाले सीमा शुल्क में महत्त्वपूर्ण इजाफा किया गया है। जबकि इसका असर सीमा शुल्क राजस्व के अनुमानों में नजर नहीं आता। चाहे जो भी हो उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढऩे तय हैं। इससे उद्योग आधारित संरक्षणवाद को लेकर चिंता बढ़ेगी। हालांकि यह भी सच है कि कुल वस्तुओं के आयात में सीमा शुल्क राजस्व की हिस्सेदारी बमुश्किल 4 फीसदी है। शायद इसके पीछे इरादा ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को बढ़ावा देने का है।
व्यय के मोर्चे पर जेटली ने भौतिक बुनियादी ढांचे, मूलत: परिवहन पर निवेश को बढ़ावा दिया है। अगले वर्ष आम चुनाव को देखते हुए उन्होंने स्वास्थ्य बीमा को लेकर एक ऐसी योजना की घोषणा की है जो मौजूदा सरकार की पहचान बन सकती है। देश की 40 फीसदी आबादी इस योजना के दायरे में आएगी। राजकोषीय घाटे के तय लक्ष्य से विचलन को इस तरह स्पष्टï किया गया है कि एक ओर जहां अन्य लाभ-हानि एक दूसरे को समायोजित कर देते हैं वहीं वस्तु एवं सेवा कर का एक महीने का राजस्व पूरी तरह गंवा दिया गया क्योंकि भुगतान की समय-सारणी में बदलाव आया है। उत्पाद शुल्क और सेवा कर से इतर गत जुलाई में लागू वस्तु एवं सेवा कर का भुगतान समान माह के बजाय अगले माह किया जाता है।
जेटली ने सही कहा है कि करदाताओं की तादाद में और खुद कर संग्रह में उछाल आई है। इससे कर जीडीपी अनुपात 12.1 फीसदी के साथ अब तक के उच्चतम स्तर पर आ गया है। पिछली सरकार के अंतिम बजट में यह 10.1 फीसदी था। अगर वर्ष 2016-17 को आधार वर्ष मानते हुए अगले बजट अनुमान (चालू वर्ष उथलपुथल भरा रहा) पर ध्यान दिया जाए तो ढाई साल की अवधि में प्रत्यक्ष कर राजस्व के 28 फीसदी की दर से बढऩे का अनुमान है और अप्रत्यक्ष कर के 29.5 फीसदी की दर से। यह 14 फीसदी की सालाना वृद्घि के बराबर है जो उल्लेखनीय है। वित्त मंत्री कुछ गलतियों के बाद जीएसटी के सफल क्रियान्वयन पर भी नजर डाल सकते हैं।
विस्तृत आंकड़े सवाल अवश्य खड़े करते हैं। स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम की लागत 25,000 करोड़ रुपये या उससे अधिक हो सकती है। फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट एकदम पहले जैसा ही है। इस वर्ष राजकोषीय घाटे के स्तर को नकदी कम करने की वजह से मदद मिली है। अगर उसे राजकोषीय गणित में शामिल कर दिया जाए तो घाटा बढ़कर 3.7 फीसदी नजर आने लगेगा। अगले वर्ष के बजट में व्यापक नकदी का संग्रहण नजर आता है। अगर उसे ध्यान में रखा जाए तो वर्ष 2018-19 का राजकोषीय घाटा केवल 3.1 फीसदी रहेगा जबकि घोषणा 3.3 फीसदी की है। दोनों वर्षों को मिलाकर देखें तो 3.4 फीसदी का औसत राजकोषीय घाटा नजर आएगा। हालांकि सरकार अब उस राजकोषीय राह को त्याग चुकी है जिसके तहत यह लक्ष्य तय किया गया था।
ऐसा तब है जब बड़े और अहम व्यय मसलन स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास और शहरी विकास पर एक तरह से रोक है। रक्षा समेत इनका आवंटन बहुत कम बढ़ाया गया है। मोदी सरकार की प्राथमिकता बड़े बुनियादी व्यय मसलन राजमार्ग और रेलवे हैं। इनमें बड़े निवेश की आवश्यकता है लेकिन इसकी कीमत अन्य मदों को चुकानी पड़ती है। व्यय पर रोक के बावजूद अगले वर्ष के बजट उधार ने बॉन्ड बाजार को सहारा दिया। ब्याज दरें एक साल पहले की तुलना में एक फीसदी अधिक हैं। यह रिजर्व बैंक के संकेतों से उलट है। प्रश्न यह है कि क्या आरबीआई नीतिगत दरों में इजाफा करना शुरू करेगा। वित्त मंत्री ने संकेत दिया कि मुद्रास्फीति का बढ़ता दबाव और खरीफ फसल के उच्च मूल्य की संभावना इसे बढ़ावा दे सकती है। बढ़ती ब्याज दरों के बीच आर्थिक स्थिति में पूर्ण सुधार हासिल कर पाना मुश्किल है।
क्रियान्वयन को लेकर कुछ प्रश्न हैं जो आगे स्पष्ट हो जाएंगे। देखना होगा कि स्वास्थ्य बीमा योजना के 50 करोड़ लाभार्थी कैसे चुने जाते हैं। यह भी देखना होगा कि निजी अस्पतालों के खराब रिकॉर्ड को देखते हुए सरकार गड़बडिय़ां कैसे रोकेगी? सरकार अगर ज्यादा सरकारी अस्पताल बनाने में निवेश करती तो बेहतर होता क्योंकि मौजूदा अस्पतालों में पहले ही मरीजों की भीड़ हद से ज्यादा है।
न्यायिक सुधार का मसौदा
संपादकीय
इस बार की आर्थिक समीक्षा जिन कारणों से कुछ खास है, उनमें एक कारण यह भी है कि उसमें न्यायिक सुधारों को गति देने पर भी जोर दिया गया है। आर्थिक समीक्षा तैयार करने वाले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम को इसके लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने दोस्तों की ओर से चेताए जाने के बाद भी न्यायिक सुधार का मसौदा तैयार किया। उनकी इस मान्यता से शायद ही कोई असहमत हो सके कि कारोबारी माहौल सुगम बनाने के लिए यह जरूरी है कि आर्थिक क्षेत्र से जुड़े मामलों का निपटारा तेजी से किया जाए। विवाद निपटाने की सुस्त प्रक्रिया न केवल निवेश को हतोत्साहित कर रही है, बल्कि कर संग्रह का लक्ष्य हासिल करने में भी बाधक बन रही है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न् अदालतों और न्यायाधिकरणों में प्रत्यक्ष कर से संबंधित 1.37 लाख और अप्रत्यक्ष कर संबंधी 1.45 लाख मामले लंबित हैं। इसके चलते 7.58 लाख करोड़ रुपए का राजस्व फंसा हुआ है। यह राशि कुल जीडीपी की 4.7 फीसदी है। ये आंकड़े स्थिति की गंभीरता को बयान करने के लिए पर्याप्त हैं। आर्थिक समीक्षा में न्यायिक सुधारों पर बल देते हुए न केवल कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं, बल्कि इसे भी रेखांकित किया गया है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को मिलकर समाधान निकालने के लिए आगे आना चाहिए। यह कहना कठिन है कि बजट में न्यायिक सुधारों को गति देने वाले कोई प्रावधान होंगे या नहीं, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह काम केवल संसाधनों की ही मांग नहीं करता। न्यायिक तंत्र को सुगम बताने के लिए संसाधनों की आवश्यकता से इनकार नहीं, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है इस दिशा में आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति। विडंबना यह है कि कार्यपालिका और विधायिका की ओर से तो इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जा रहा है, लेकिन न्यायपालिका के रवैये से ऐसी प्रतीति कठिनाई से ही होती है कि वह अपने ढांचे में सुधार लाने के लिए प्रतिबद्ध है।
न्यायिक सुधारों को केवल इसलिए ही गति नहीं दी जानी चाहिए कि उनके अभाव में आर्थिक विकास प्रभावित हो रहा है, बल्कि इसलिए भी कि आम जनता की मुश्किलें बढ़ रही हैं। अनुमान है कि करीब तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। यदि प्रति परिवार पांच सदस्य ही गिने जाएं तो एक तरह से 15 करोड़ लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं। तमाम लोग ऐसे मुकदमों में फंसे हुए हैं, जो दशकों से लंबित हैं। बेहतर हो कि न्यायपालिका के नीति-नियंता यह समझे कि उनके सहयोग और समर्थन के बिना न्यायिक सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता और महज न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने की मांग के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका न्यायिक सुधारों को लेकर गंभीर है। यदि मुकदमों के निपटारे के तौर-तरीके नहीं बदले जाते और तारीख पर तारीख का सिलसिला इसी तरह कायम रहता है तो अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाए जाने से भी अभीष्ट की पूर्ति होने वाली नहीं है। अच्छा होगा कि कार्यपालिका और विधायिका के साथ ही न्यायपालिका आर्थिक समीक्षा का हिस्सा बने न्यायिक सुधार के मसौदे पर चिंतन-मनन करने में और देर न करे। इस पर पहले ही बहुत देर हो चुकी है।
The power of many
One-nation-one-poll flattens political diversities in a federal democracy, undermines accountability.
Editorials
Bad ideas seldom wither away — they can resurface and return to haunt in the President’s address to the joint sitting of the two Houses of Parliament, or in the Prime Minister’s meeting with allies. The notion of simultaneous elections to the Lok Sabha and state legislative assemblies, in the public domain for long, has in the past been advocated by the Election Commission, examined by the parliamentary standing committee and the Niti Aayog, and promoted by senior politicians. Now, it seems to be acquiring a troubling new momentum. Frequent elections “adversely impact the economy and development” said President Ram Nath Kovind to Parliament this week, as he called for a “sustained debate” and “a consensus” on simultaneous polls.
And PM Narendra Modi reportedly urged the BJP’s allies to create an atmosphere in its favour. Simultaneous polls is a bad idea not just because it is impractical and unworkable in the current constitutional framework, but more because it is anti-democratic and disrespectful of the spirit of federalism at its core.
Elections were simultaneously held to the Lok Sabha and to state assemblies when independent India first began holding them, but the cycles diverged after 1967 due to premature dissolution of some assemblies and because general elections were called early in 1970. Ever since, and especially after the splintering of the Congress system, the rise of regional parties, the intensification of multi-party competition and onset of coalition politics, different states have evolved their own formats and electoral cycles that may or may not coincide with each other or with the Centre.
Imposing an artificial uniformity and fixity on the several election calendars in the name of reducing expenses, or greater convenience or better governance — arguments for which no persuasive case has been made yet — will have costs that must be seen to be fundamental and intolerable in a diverse, federal democracy. Amendments will be required to the Constitution and to laws like the Representation of the People Act to fix the terms of legislatures and to ensure that a no-confidence motion should also propose an alternative governing arrangement.
In effect, that will mean a dilution of the representativeness and accountability of governments. It will also potentially flatten out political diversities and smooth the way for a more presidential, more unitary system that would ill fit a country as plural as India.
That different sets of issues and players are salient at different levels of a federal polity should be seen as a sign of the deepening of democracy. “One nation, one poll” may sound like a promise of more neatness and order, but its underlying threat of forcible homogenisation must be recognised and resisted.And then, in a country where accountability structures are still only weakly institutionalised, elections offer vital opportunities for the people to confront their elected representatives, demand answers from them and a hearing.
Testing waters
We need to evolve credible and institutionalised practices to resolve inter-State river disputes
Srinivas Chokkakula (Srinivas Chokkakula is a Fellow with the Centre for Policy Research, New Delhi)
Last week, the Supreme Court directed the Centre to constitute a tribunal within a month to adjudicate the Mahanadi river water dispute between Odisha and Chhattisgarh. The Centre had resisted constituting a tribunal, instead advocating a political resolution through talks. During the recent winter session of Parliament, the Union Road Transport Minister Nitin Gadkari had even asked Odisha to engage with Chhattisgarh through his or the Prime Minister’s office. Odisha, however, insisted on a legal route. Why was the Centre unsuccessful in getting Odisha to the table? It is time we invest in right, credible and institutionalised practices for enabling inter-State mediation, coordination and cooperation.
Political rationalities
To be clear, there is little doubt about substantive reasons for contention over the Mahanadi between Odisha and Chhattisgarh. The States’ escalation of the dispute for pursuing their respective interests is legitimate. However, the underlying political rationalities of actors present a typical paradox of multi-party federal democracies that produce the stalemate. This is for two reasons.The first is the political opportunism in federal democracies. The parties in power in both States — the Bharatiya Janata Party (BJP) in Chhattisgarh and the Biju Janata Dal (BJD) in Odisha — will be fighting tough elections in 2018 and 2019. As both have been in power for long, they will have to survive anti-incumbency. Both need fresh grounds for political mobilisation, and the Mahanadi dispute is an enticing opportunity. The governments cannot afford to be seen as compromising their respective States’ interests in resolving the dispute. On the other hand, parties in opposition find it rewarding to accuse the governments of compromising the States’ interests.
The second is the political subjectivity of the contemporary Indian state. The mechanism of the Centre’s mediation before constituting a tribunal for adjudication — prescribed by the current Inter-State River Water Disputes Act, 1956 — is outdated. This was conceived when a single party dominated Indian politics, and the Centre could exercise power and influence over States. The times are different now (though with a different kind of single-party dominance). The Centre-States engagement has turned politically subjective with polarised and assertive regional powers. The BJD is unlikely to trust a BJP-led Central government’s initiatives – irrespective of how sincere those efforts might be – with the BJP’s own government in Chhattisgarh. The challenge thus is securing credibility of mediation practices — of institutionalising neutrality and objectivity.
Inter-State cooperation
Odisha’s unwillingness to engage in talks might not necessarily be for political reasons. It can be for the uncertainties associated with the apparent ad hoc framing of the practice of mediation by the Centre. Much of the failure of Mr. Gadkari’s efforts may be attributed to this. Inter-State river waters governance is a classic case of collision between Central and State powers. This conundrum of federal governance is not new.Jenna Bednar recalls a warning by James Madison, considered the father of the U.S. Constitution, way back in 1821: “The Gordian Knot of the Constitution seems to lie in the problem of collision between the federal & State powers… If the knot cannot be untied by the text of the Constitution it ought not, certainly, to be cut by any political Alexander.” We have to rely on the Constitution to untie the knot, and cannot resort to the Alexander’s sword, as the legend goes.
The success or failure of the ‘political Alexanders’ efforts, as attempted by Mr. Gadkari, would be politically subjective and contingent. They may, more likely, lead to more tribunals. For better outcomes, it is imperative that we look for more credible forms of inter-State engagement. This, however, has not been an explicit strategy in our policy-making. Instead, inter-State cooperation has always been approached from the other direction — by resolving disputes. Here is a telling contrast. The Act of 1956 for resolving disputes has been amended at least a dozen times since its inception. But the River Boards Act, 1956, drafted simultaneously for inter-State collaboration, has not been amended even once since then.
The drive for political resolution suggests a welcome realisation to push the envelope beyond legal routes. But the practices need to be structured within the constitutional realm. For example, the mediation practices may be structured under the Inter-State Council, provided by the Constitution for the exclusive purpose of inter-State coordination. This has to be, however, part of a larger ecosystem for enabling and nurturing inter-State cooperation, which will involve policy reforms (such as revisiting River Boards Act). The ecosystem has to enable not just inter-State dialogue for collaboration, but also other goals of executing agreements and projects for river development, conservation and restoration.
Date:01-02-18
For a clean judiciary:the importance of in-house mechanisms
The process to remove Justice Shukla shows the importance of in-house mechanisms
EDITORIAL
With an in-house committee concluding that a judge of the Allahabad High Court had committed judicial impropriety serious enough to warrant his removal, the subject of corruption in the higher judiciary is in the news. Justice Shri Narayan Shukla had come under adverse notice before a Supreme Court Bench headed by Chief Justice of India Dipak Misra last year. The Bench had found he had violated a restraining order from the apex court by allowing the GCRG Memorial Trust, Lucknow, to admit students. The Supreme Court observed that the Bench headed by Justice Shukla had violated judicial propriety. The CJI formed a three-member committee, comprising Chief Justices Indira Banerjee of the Madras High Court and S.K. Agnihotri of the Sikkim High Court and Justice P.K. Jaiswal of the Madhya Pradesh High Court, to examine his conduct. The committee has now found substance in the allegations and that the judge had deviated from the “values of judicial life”. It is unfortunate that Justice Shukla has not tendered his resignation or sought retirement, the options available to him to avoid the ignominy of impeachment in Parliament. His position has paved the way for the CJI to recommend his removal.
The allegations against him appear to correspond to the claims in a first information report registered by the CBI against another medical college trust and alleged middlemen, including a retired judge of the Orissa High Court, that there was a plot to influence public servants to obtain favourable orders. The allegation had set off a storm in the judiciary, as some orders related to medical colleges in Uttar Pradesh were also passed by Supreme Court Benches headed by Chief Justice Misra himself.
The climactic event was the unprecedented press conference at which four senior-most judges alleged the CJI had departed from convention while using his power to draw up the roster. It is important for the institution that the charges against Justice Shukla are properly investigated. It may have a sobering effect on those who desire that the institution be cleansed as well as those who feel there is an unwarranted onslaught on it. The process of removing a judge is too elaborate and somewhat cumbersome. However, an in-house finding may help hasten it in flagrant cases. The possibility of getting a motion passed in Parliament is brighter, and the charge of the process being misused for partisan ends is reduced. The removal of a serving judge is undoubtedly a sad development, but one that the institution should not fight shy of in appropriate cases. That internal mechanisms work with due regard for institutional integrity is something that should be welcomed.