01-11-2022 (Important News Clippings)

Afeias
01 Nov 2022
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Date:01-11-22

Ban Isn’t Enough

Outrages like two-finger test for rape survivors won’t stop until a central law criminalises such conduct

TOI Editorials

The Supreme Court has called out the recurring use of the “banned” two-finger test by doctors while conducting forensic examination on rape survivors. It ruled that the violators shall be guilty of misconduct. In 2013, SC said this so-called test violates the right of rape survivors. The verdict followed the sexual assault law amendments in 2013 that recognised other forms of penetration besides penile-vaginal as rape and made a woman’s sexual experience irrelevant in determining the issue of consent. Though experts have long termed it unscientific, minor girls continue to face the two-finger test, also called a virginity test.

In 2014, the Union health ministry issued detailed guidelines stipulating the “test” shouldn’t be conducted as “it had no bearing on a case of sexual violence. ” The guidelines also barred doctors’ comments on “past sexual experience or habituation to sexual intercouse”. However, many states didn’t implement these guidelines. Gujarat HC in 2020 and Madras HC earlier this year have castigated its continuing use.

States have failed in disseminating and implementing what courts have repeatedly termed unlawful. A central legislation criminalising the two-finger test may bring all states in line at one go. That many doctors are ignorant of a seminal judgment and guidelines in their field is no surprise. The lower judiciary and police seemed clueless that Section 66A, IT Act was quashed in 2015 and cases continued to be prosecuted under the provision. The 2014 guidelines advocated extensive training for medical personnel in dealing with rape survivors and a uniform method of examination through the SAFE (Sexual Assault Forensic Evidence) kit. Given the two-finger test’s continuance, GoI and SC must study what grassroots changes the guidelines were able to achieve.


Date:01-11-22

स्वास्थ्य ढांचे पर काम करने की जरूरत है

संपादकीय

उत्तर भारत के कुछ राज्यों में केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना हाशिए पर खड़ी है। वजह है दशकों से आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य ढांचे का विस्तार न होना। इसमें किसी सरकार की गलती से ज्यादा कल्याणकारी राज्य की उस अवधारणा की गलती है, जिसके तहत सरकारों को तात्कालिक दबाव के कारण कर्ज माफी, किसानों को मुफ्त बिजली या गरीबों को फ्री राशन देना पड़ता है, उद्यमियों को टैक्स में राहत देनी पड़ती है, बैंक को कर्ज माफ करने होते हैं, जिससे दीर्घकालिक स्वास्थ्य-शिक्षा की योजनाएं वरीयता में नहीं रहतीं। एक राज्य में 8.5 करोड़ की कुल आबादी में रिकॉर्ड 42% लोगों (3.1 करोड़) को कार्ड आबंटित किया गया है। लेकिन इलाज केवल 21 लाख लोगों (7%) को ही मिला। इसका कारण स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना और निजी अस्पतालों की इस योजना के प्रति उदासीनता है, क्योंकि ये महंगे अस्पताल सरकार द्वारा निर्धारित सस्ती दरों पर इलाज मुहैया नहीं कराना चाहते। 23 करोड़ की आबादी वाले एक अन्य राज्य में चार वर्षों में केवल 2.19 करोड़ (9.8 प्रतिशत) ही कार्डधारक बने लेकिन इस योजना में इलाज 16 लाख लोगों का ही हुआ। इसके ठीक उलट दक्षिण और पश्चिम भारत के कई राज्य इस योजना का लाभ लेने में काफी आगे हैं। एक ऐसा ही आर्थिक रूप से संपन्न दक्षिण भारतीय राज्य है जहां की 7.50 करोड़ की आबादी में 1.56 करोड़ कार्डधारक हैं, जिनमें से 67 लाख लोगों को (यानी हर दूसरे लाभार्थी को) इस योजना में मुफ्त इलाज मिला। इस क्षेत्र और पश्चिम भारत के कई विकसित राज्य हैं जहां कार्डधारकों का प्रतिशत भी ज्यादा है और इलाज भी हर दूसरे कार्डधारक को मिला है। सरकारों को स्वास्थ्य ढांचा मजबूत बनाना होगा।


Date:01-11-22

पूरी दुनिया में अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं स्त्रियां

नीरज कौशल, ( कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर )

ईरान में प्रदर्शनकारी औरतें ज़न, जिंदगी, आज़ादी का नारा बुलंद कर रही हैं। यह आंदोलन न केवल ईरान, बल्कि दुनिया के अनेक हिस्सों में औरतों के संघर्षों का सार है। ईरान में औरतें हिजाब के विरुद्ध सड़कों पर उतरी हैं, अफगानिस्तान में वे तालिबानी हुकूमत ‘के द्वारा लड़कियों का स्कूल बंद किए जाने की मुखालफत कर रही हैं, अमेरिका में वे गर्भपात पर रोक लगाए जाने के सर्वोच्च अदालत के निर्णय का विरोध कर रही हैं, चीन में औरतों का संघर्ष कम्युनिस्ट पार्टी के पोलितब्यूरो में बेहतर प्रतिनिधित्व पाने के लिए है। इन तमाम लड़ाइयों में कामयाबी के अवसर बहुत उजले नहीं हैं, लेकिन उन्हें अपने नतीजों के आधार पर नहीं बल्कि हौसले की बुनियाद पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए।

ईरान में औरतों ने आजादी के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी है। उनकी मांग बुनियादी मानवीय अस्मिता और समानता है। वे नहीं चाहतीं कि उन्हें बताया जाए क्या पहनना है और कैसे जीना है। इसे ईरान की पहली फेमिनिस्ट क्रांति कहा जा रहा है। बीते दो दशकों में ईरान में बहुत आंदोलन हुए हैं और उन सभी को कुचल दिया गया है। शायद स्त्रियों के इस आंदोलन की आवाज भी खामोश कर दी जाए। ईरान राइट्स ग्रुप की रिपोर्टों के मुताबिक पहले ही इस आंदोलन में मरने वाली स्त्रियों की संख्या दो सौ से ऊपर हो चुकी है। अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत ने 13 साल या उससे अधिक उम्र वाली लड़कियों की स्कूली पढ़ाई पर रोक लगा दी है। तालिबानी सोच कहती है कि इस उम्र की लड़कियों को घर से बाहर अकेले नहीं निकलना चाहिए। तालिबान के इतिहास को देखते हुए लगता नहीं कि स्कूल जाने के लिए आंदोलन कर रही लड़कियां कामयाब हो सकेंगी। साथ ही वैसा करके वे अपने जीवन और सुरक्षा के लिए भी खतरे को न्योता दे रही हैं। इसके बावजूद लड़कियां हिम्मत हारने को तैयार नहीं हैं और यह जोखिम उठा रही हैं।

अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। सर्वोच्च अदालत ने रो वर्सेस वेड केस निर्णय को उलटते हुए गर्भपात कराने के महिलाओं के संवैधानिक अधिकार को समाप्त कर दिया था। अमेरिका में अनेक राज्यों में स्टेट लॉ हैं, जो गर्भपात की अनुमति देते हैं. लेकिन 13 राज्यों में यह प्रतिबंधित है। सर्वोच्च अदालत के निर्णय ने इन राज्यों में गर्भपात को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों को प्रभावी बना दिया है। कुछ शहरों में अदालतों ने गर्भपात पर बैन को ब्लॉक कर दिया, लेकिन कुछ अन्य शहरों में बैन ही अब नई पॉलिसी बन गया है। गर्भपात-विरोधी कार्यकर्ता एबॉर्शन क्लिनिकों पर धरना दे रहे हैं, जिनमें से अनेक अब बंद हो चुके हैं। इसी महीने हो रहे मिड-टर्म चुनावों में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। इसके बावजूद रोल-बैक की लड़ाई बहुत लम्बी और कशमकश भरी रहने वाली है। भारत में भी महिलाएं रोज ही लड़ाइयां लड़ती हैं- चाहे वो धर्मगुरुओं के विरुद्ध हो या कानून-प्रवर्तन की एजेंसियों के, लेकिन सबसे ज्यादा जद्दोजहद उन्हें अपने घरों में करना पड़ती हैं, ताकि उन्हें बराबरी का हक मिल सके।

धर्म और संस्कृति द्वारा निर्धारित नियमों से लड़ना आसान नहीं है। अकसर तो सर्वोच्च अदालत भी इन्हें चुनौती नहीं दे सकती। केरल के सबरीमला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के मामले में सर्वोच्च अदालत का आदेश भी पर्याप्त साबित नहीं हुआ था। 2017 में सर्वोच्च अदालत ने ट्रिपल तलाक को अमान्य करार दे दिया था, इसके बावजूद आज भी इसका पालन किया जा रहा है। दहेज तो छह दशक पहले ही गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था, इसके बावजूद आज भी दहेज-प्रथा जारी है। हर रोज दहेज-प्रताड़ना के मामलों में बीस औरतों की मृत्यु होती है। भारत की महिलाएं रोजाना जिस तरह का संघर्ष कर रही हैं, वह किसी बड़े नारीवादी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है, बल्कि वे अपनी जिंदगी और आजादी के लिए लड़ाई लड़ रही हैं। इनमें से अधिकतर चुपचाप ही संघर्ष करती हैं।


Date:01-11-22

हम मानव मूल्यों वाला देश चाहते हैं या सिर्फ आर्थिक पैमाने वाला?

नंदितेश निलय, ( लेखक और वक्ता )

विकसित देश की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं होती। ये उच्च आय वाले देश होते हैं। अन्य मानक में जीवन की उच्च गुणवत्ता, विकसित अर्थव्यवस्था और उन्नत तकनीकी होती है। विश्व बैंक की 2018 की रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया था कि भारत 2047 तक क्या हासिल कर सकता है। इसके अनुसार, 2047 तक यानी स्वतंत्रता की शताब्दी तक- भारत के कम से कम आधे नागरिक वैश्विक मध्यम वर्ग की रैंक में शामिल हो सकते हैं। अधिकांश परिभाषाओं से इसका मतलब यह होगा कि घरों में बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल, साफ पानी, बेहतर स्वच्छता, बिजली, एक सुरक्षित वातावरण, किफायती आवास और अवकाश के कार्यों पर खर्च करने के लिए पर्याप्त विवेकाधीन आय होनी चाहिए।

विकसित देशों के साथ इस तुलना से यह पता चलता है कि अगर भारत उस लक्ष्य को हासिल करना चाहता है तो उसे अभी बहुत ही लंबा सफर तय करना है। 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 7333.5 डॉलर थी, यह चीन के आधे से भी कम है। यह आर्थिक सहयोग और विकास देशों (ओईसीडी) के संगठन की प्रति व्यक्ति आय 48,482 डॉलर का सातवां हिस्सा था। लेकिन यह भी सत्य है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय पिछले 25 वर्षों में ओईसीडी देशों की दर से दोगुनी बढ़ी है, और अगले 25 वर्षों में उस बिंदु तक पहुंचने के लिए इसे लगातार 12.4 प्रतिशत की दर से बढ़ने की आवश्यकता होगी। यहां तक कि भारत को सामाजिक संकेतकों के संदर्भ में भी बहुत कुछ करना होगा ।

अगर हम महिला श्रम शक्ति की बात करें तो पिछले 25 वर्षों में महिला श्रम शक्ति भागीदारी में गिरावट आई है, जबकि ओईसीडी देशों में इसमें वृद्धि हुई है। भारत को अगर विकसित देश बनाना है तो उसे पहले इस गिरावट को रोकना होगा और फिर इसे ओईसीडी के स्तर पर ले जाना होगा। ओईसीडी की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर भारत की तुलना में 2.7 गुना है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या एक विकसित देश के यही मापदंड होंगे? अगर हैं तो क्या अन्य विकसित देशों मे सब कुछ ठीक-ठाक नजर आता है? अगर नहीं तो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और आत्मिक स्तर पर एक विकसित देश बनने के लिए भारत को कुछ तो करना पड़ेगा। हम ह्यूमन वैल्यूज वाले देश बनना चाहते हैं या इकोनॉमिक और प्रोफाइल वैल्यू वाले नागरिक ?

भारत का विकास महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक विकास पर भी निर्भर है। यह बड़ा ही विरोधाभास है कि एक तरफ हम स्वतंत्रता और समानता की बात करते हैं तो दूसरी ओर गांवों में लड़कियां स्कूल जाने से भी डरती हैं। हम विकसित देश तब बनेंगे जब हम ग्राहक कम और नागरिक ज्यादा बनने की कोशिश करेंगे। हमारा व्यक्तित्व नैतिकता और जीवन मूल्यों से निर्देशित होगा। एक विकसित देश के लिए नीति की राह पर चलना ही व्यावहारिकता होगी। और इसे आदर्शवाद के नाम पर अलग नहीं माना जाएगा। हम तभी विकसित बन पाएंगे जब स्वच्छता हमारी नैतिक जिम्मेदारी बन जाएगी। सड़क और समाज के प्रति एक स्वाभाविक स्वच्छता का भाव पैदा होगा। हम तभी विकसित होंगे जब हमारे बच्चे अच्छे इंसान सबसे पहले घरों में ही पाएंगे। पेड़ लगाने से लेकर दिलों को जोड़ने तक, हम बनते रहेंगे। नदी हो या हवा, मिट्टी हो या पत्ते, हम उनसे जुड़ेंगे और उनका भी खयाल रखेंगे। हम पहले इंसान, फिर नागरिक, फिर परिवार, समाज और तब हम देश बनेंगे। और तभी हम वास्तविक रूप से विकसित भी होंगे।


Date:01-11-22

लापरवाही की हद

संपादकीय

गुजरात के मोरबी शहर में एक नदी पर बना झूले वाला पुल टूटने से 130 से अधिक लोगों की जान जाना हर स्तर पर बरती जाने वाली उस भयावह लापरवाही को बयान करता है, जो अपने देश में बहुत आम हो चुकी है और जिसके चलते रह-रहकर हादसे होते ही रहते हैं। यह जितना अकल्पनीय है, उतना ही अस्वाभाविक भी कि सौ साल से अधिक पुराने झूले वाले पुल की मरम्मत के बाद किसी ने उसकी जांच-पड़ताल करने की आवश्यकता नहीं समझी। इसी तरह किसी ने भी इस पुल पर सुरक्षा के प्रबंध देखने-समझने की जहमत नहीं उठाई। स्थानीय प्रशासन से बिना अनुमति के पुल को जनता के लिए खोल दिया जाना तो लापरवाही की पराकाष्ठा ही है। इसी लापरवाही के कारण मरम्मत के पांच दिन बाद ही यह पुल टूट गया। उसके टूटने का कारण यह भी रहा कि उसमें आवश्यकता से अधिक लोग जमा हो गए। इस पुल की क्षमता सौ लोगों की थी, लेकिन उस पर कई गुना अधिक लोग चले गए। चूंकि ये सारे टिकट लेकर गए, इसलिए यह स्पष्ट है कि टिकट बेचने वालों ने इसकी परवाह नहीं की कि पुल पर क्षमता से अधिक लोग जा रहे हैं। यह एक तरह से मौत को जानबूझकर दावत देने का काम था। लापरवाही का सिलसिला यहीं नहीं थमा। पुल पर गए लोगों ने उसे हिलाना शुरू कर दिया, लेकिन कोई उन्हें रोकने-टोकने वाला नहीं था- न पुलिस और न ही पुल के लिए टिकट बेचने वाली कंपनी के सुरक्षा कर्मी।

यह पहली बार नहीं है जब किसी पुल के टूटने से इतना बड़ा हादसा हुआ हो। अपने देश में कभी पुल टूटने, कभी उन पर भगदड़ मचने से जानलेवा हादसे होते ही रहते हैं। इसी तरह कभी धार्मिक और पर्यटन स्थलों पर सार्वजनिक सुरक्षा को लेकर बरती जाने वाली लापरवाही से भी लोगों की जान जाती रहती है। इससे भी सभी परिचित हैं कि अपने देश में सड़कों पर होने वाले हादसों के कारण भी हर वर्ष एक लाख से ज्यादा लोगों की जान जाती है। इन हादसों की एक बड़ी वजह लापरवाही ही होती है। सार्वजनिक स्थलों पर लोगों की सुरक्षा की जैसी घोर अनदेखी की जाती है, उसके चलते न जाने कितने लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं, लेकिन कोई नहीं चेतता-न शासन-प्रशासन, न ऐसे स्थलों की देखरेख करने वाले ठेकेदार और न ही आम लोग। इस सबके चलते एक ऐसी स्थिति बनती जा रही है, जिसमें घर से बाहर निकलना एक तरह से जान हथेली पर लेकर चलने जैसा हो गया है। विडंबना यह भी है कि मोरबी जैसे बड़े हादसों से कोई सीख नहीं ली जाती। प्रायः यही देखने को मिलता है कि जांच, मुआवजे और दोषियों को बख्शे न जाने की घोषणा के साथ ही सब कुछ भुला दिया जाता है।


Date:01-11-22

सवालों के घेरे में भुखमरी सूचकांक

डा. सुरजीत सिंह गांधी, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

कोई भी सांख्यिकीविद् या अर्थशास्त्री यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगा कि भारत गंभीर भुखमरी की स्थिति में है, लेकिन आयरलैंड और जर्मनी के गैर-सरकारी संगठनों द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत को अफ्रीकी देशों के साथ गंभीर भुखमरी की स्थिति में दिखाया गया है और यूक्रेन युद्ध, कोविड महामारी, जलवायु परिवर्तन और क्षेत्रीय संघर्षों से खाद्य कीमतों में वृद्धि और वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान आदि कारणों को वैश्विक स्तर पर भुखमरी बढ़ने का प्रमुख कारण बताया गया है। भारत ने हमेशा ही अपनी खाद्य प्रणाली को सर्वोच्च प्रथमिकता दी है। इसी कारण वह कोविड महामारी में प्रत्येक गरीब परिवार को भोजन उपलब्ध कराने में सफल रहा। इस दौरान सरकार द्वारा किए गए प्रयासों की प्रशंसा पूरे संसार ने की है। आइएमएफ ने कहा है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के कारण 2020 में गरीब लोगों की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। इन परिस्थितियों में 2022 का वैश्विक भुखमरी सूचकांक स्वयं को ही संदेह के कठघरे में खड़ा करता है। उसकी रपट भविष्य में खाद्य संकट से निपटने के लिए सरकारों को अधिक न्याययंगत, समावेशी, टिकाऊ और लचीला बनाने का सुझाव देते हुए जिन नीतियों का प्रस्ताव करती है, वे सभी नीतियां पहले से ही भारत का हिस्सा हैं। इसके बावजूद यह सूचकांक म्यांमार को 71वां, पाकिस्तान को 99वां एवं श्रीलंका को 64वां और भारत को 107वां स्थान देता है। ध्यान रहे कि पाकिस्तान विश्व बैंक के ऋण जाल में फंसा हुआ है और वहां महंगाई उच्चतम स्तर पर है। श्रीलंका के आर्थिक हालात इतने खराब हो चुके हैं कि 75 प्रतिशत लोगों के पास दो वक्त की रोटी के लिए पैसे नहीं हैं। भारत ने श्रीलंका को आर्थिक एवं खाद्यान्न मदद उपलब्ध करवाई है। ऐसे में भारत को गंभीर हालत की भुखमरी की श्रेणी में रखना गलत चित्र को प्रस्तुत करना है।

भारत सरकार ने भुखमरी सूचकांक तैयार करने की विधि को अवैज्ञानिक करार दिया है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय का तर्क है कि यह सूचकांक जिन चार मानकों पर आधारित है, उनमें से तीन मानक पांच वर्ष के बच्चों से संबधित हैं, इसलिए मात्र एक मानक द्वारा और वह भी केवल 3000 लोगों के सर्वे के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि भारत गंभीर भुखमरी की स्थिति में है, असंगत है। भुखमरी सूचकांक के सर्वे के दौरान एक प्रश्न यह पूछा गया कि ‘पिछले 12 महीनों में क्या कोई समय था, जब पैसे या अन्य संसाधनों की कमी के कारण आप इससे चिंतित थे कि आपके पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन न होगा या फिर आपने जितना सोचा, उससे कम खाया।’ ऐसे प्रश्नों के आधार पर किसी भी देश में भुखमरी का मापन सही परिणाम नहीं देगा। इस सूचकांक की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह भुखमरी और कुपोषण में अंतर नहीं करता। वास्तव में इस सूचकांक में भुखमरी की स्थिति का आकलन न तो वैज्ञानिक है और न ही तर्कसंगत।

चूंकि वैश्विक भुखमरी सूचकांक के चार मानकों में से तीन मानक पांच वर्ष के बच्चों से ही संबधित हैं, इसलिए इसे बच्चों की स्थिति का आकलन माना जाना चाहिए। जब भूख एवं पोषण से संबंधित अनेक आंकड़े राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा अपनी-अपनी रपट में प्रस्तुत किए जाते हैं तो फिर एक एनजीओ की रपट को इतनी तव्वजो देने का कोई कारण नजर नहीं आता। स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन के जल, सफाई एवं स्वच्छता कार्यक्रम आदि के संयुक्त प्रयासों से भारत में शिशु मृत्यु दर कम हुई है। भारत में शिशु मृत्यु दर 90 प्रति हजार से घटकर 32 प्रति हजार रह गई है। बच्चों को मरने से बचाया तो जा रहा है, पर जनसंख्या के आनुपातिक रूप से उन्हें अच्छा स्वास्थ्य देने की दिशा में बहुत कार्य किया जाना शेष है। इस तथ्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि पांच साल तक के बच्चों में वेस्टिंग (ऊंचाई के हिसाब से कम वजन) की समस्या है। भारत में 6.7 लाख परिवारों के सर्वे का डाटा भी उपलब्ध है, जो यह बताता है कि 48 प्रतिशत महिलाओं में एवं 52 प्रतिशत पुरुषों में कुपोषण कम हुआ है। यूएन चार्टर के अनुसार भुखमरी घटाने की दिशा में भारत ने अच्छा काम किया है। भारत सरकार सतत विकास लक्ष्य के अंतर्गत यह प्रयास कर रही है कि 2030 तक देश से भुखमरी को समाप्त कर दिया जाए। भारत सरकार दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चला रही है।

निःसंदेह गरीब कल्याण अन्न योजना, प्रधानमंत्री मैत्री वंदना योजना, इंद्रधनुष, पोषण अभियान आदि के तहत पोषण के स्तर को बढाने हेतु अभी लंबा सफर तय किया जाना बाकी है, लेकिन भारत की स्थिति उतनी गंभीर नहीं, जितनी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में दिखाई गई है। इसके चलते यह रैंकिंग संदेह को जन्म देती है। भारत में प्रति व्यक्ति आहार ऊर्जा आपूर्ति में वृद्धि हो रही है और आजादी के बाद खाद्यान्न का उत्पादन पांच गुना बढ़ गया है। ऐसे में यह आवश्यक है कि खाद्य सुरक्षा के साथ कुपोषण सुरक्षा को भी जोड़ा जाए। कैलोरी की कमी को पूरा करने हेतु खाने में प्रोटीन एवं पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि की जाए। केंद्र एवं राज्य सरकारें पोषण संबंधी जागरूकता के साथ-साथ प्रत्येक गांव को पोषण सुरक्षा चक्र से सुरक्षित करने हेतु मिलकर कार्य करें। मौजूदा पोषण कार्यक्रमों को प्रभावी बनाने हेतु उसे स्वयं सहायता समूहों के साथ जोड़ना होगा, जिससे 2030 तक सभी प्रकार के कुपोषण को समाप्त किया जा सके। हमें किसी एनजीओ की लकीर को मिटाने के बजाय एक बड़ी लकीर खींचनी चाहिए।


Date:01-11-22

टूटते पुल

संपादकीय

गुजरात के मोरबी में झूलता पुल टूट जाने से करीब डेढ़ सौ लोगों की मौत से स्वाभाविक ही व्यवस्था पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गई हैं। करीब एक सौ चालीस साल पहले बना यह पुल मरम्मत के बाद चार दिन पहले ही खोला गया था। बताते हैं कि दिवाली के बाद की छुट्टियां और रविवार का दिन होने की वजह से उस पुल पर भारी भीड़ इकट्ठा हो गई और वजन सहन न कर पाने से पुल की रस्सियां टूट गर्इं। इस पुल पर लोग सैर-सपाटे के लिए ही जाते हैं। इसके लिए टिकट भी लगता है। विशेषज्ञों का कहना है कि पुल की क्षमता करीब डेढ़ सौ लोगों का भार सहन करने की है, जबकि उस पर पांच सौ से अधिक लोग पहुंच गए, जिसकी वजह से पुल टूटा। पुल पुराना पड़ गया था, इसलिए इसे छह-सात महीने बंद रखा गया था। एक निजी कंपनी को इसकी मरम्मत और रखरखाव की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसलिए संबंधित कंपनी को लेकर सवाल अधिक उठ रहे हैं। सात महीने पहले भी लोग उस पुल पर सैर-सपाटे के लिए जाया करते थे, मगर ऐसा हादसा नहीं हुआ। ऐसा क्या हुआ कि मरम्मत के बाद पुल चरमरा कर टूट गया!

सवाल है कि क्या पुल के रखरखाव के लिए तैनात कर्मचारियों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि पुल पर एक समय में कितने लोगों को भेजा जाना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि एक बार टिकट लेकर लोग जब तक मर्जी पुल पर घूमते-फिरते रहें। उन्हें अधिकतम आधे घंटे का समय दिया जाता है। उसी के अनुसार टिकट जारी किए जाते और लोगों को बारी-बारी से छोड़ा जाता है। अगर पुल पर एक जगह अधिक लोग जमा हो गए या पुल के साथ कुछ छेड़छाड़ करते नजर आए, तो उन्हें रोका और उतारा क्यों नहीं गया? एक बार में इतने लोगों को पुल पर भेजा ही क्यों गया? अभी इन सवालों के जवाब जांच के बाद मिलेंगे, मगर इस हादसे ने एक बार फिर पुल बनाने वाली कंपनियों की निष्ठा और तकनीकी पक्षों की अनदेखी को रेखांकित किया है। फिर सवाल यह भी कि क्या आगे वे इससे कोई सबक ले पाएंगी। ऐसे पुल गुजरात के दूसरे शहरों में भी हैं, जिनका निर्माण सैलानियों को आकर्षित करने के लिए किया गया है, क्या उनके रखरखाव और तकनीकी पक्षों पर नए सिरे से ध्यान दिया जा सकेगा?

हर साल बरसात के वक्त देश के विभिन्न शहरों में पुलों के बाढ़ में बह जाने के समाचार आते हैं। इस साल भी कई पुल बाढ़ में बह गए। उनमें से कुछ दो-तीन साल पहले ही बने थे। ऐसी घटनाओं के बाद स्वाभाविक ही लोग पूछते नजर आते हैं कि क्या वजह है कि सौ साल से ऊपर के बने पुल अभी तक बने हुए हैं और नए पुल दो-चार साल में ही जमींदोज हो जाते हैं। जाहिर सी बात है कि पुलों और सड़कों के निर्माण में भ्रष्टाचार व्याप्त है, जिसके चलते उनमें इस्तेमाल सामग्री की गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता और अधिक से अधिक लाभ कमाने के लोभ में उनकी भार क्षमता आदि का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता। इससे संबंधित सरकारों के ईमान पर भी अंगुलियां उठती ही हैं। ऐसे पुल बना कर भले सरकारें कुछ देर को अपनी उपलब्धियों में शुमार कर लेती हैं, मगर इनकी कीमत आखिरकार लोगों को अपना धन और जान गंवा कर चुकानी पड़ती है।


Date:01-11-22

साइबर खतरा

संपादकीय

तकनीक ने लोगों की जिंदगी को जितना आसान और सुविधाजनक बनाया है, उसी अनुपात में जोखिम भी पैदा किए हैं। आज हालत यह हो चुकी है कि एक ओर व्यक्ति, उसकी निजी जानकारियां और सार्वजनिक गतिविधियां साइबर तंत्र के तहत ब्योरों और आंकड़ों में दर्ज होने लगी है, तो दूसरी ओर इन आंकड़ों तक कुछ अवांछित समूहों या लोगों की पहुंच हो जाती है और वे उसका इस्तेमाल आपराधिक तौर पर भी अपने मुनाफे के लिए करने लगते हैं। तकनीक पर निर्भरता के समांतर इसके बेजा इस्तेमाल के मामले भी तेजी से बढ़ने लगे हैं। भारत में अभी आंकड़ों की सुरक्षा की दीवार बहुत मजबूत नहीं है, इसलिए यहां साइबर खतरे का दायरा बड़ा होता जा रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरे विकसित देश ऐसे जोखिम से पूरी तरह सुरक्षित हैं। बीते हफ्ते शुक्रवार को इनर्जी आस्ट्रेलिया में हुई आंकड़ों की चोरी उन घटनाओं की महज एक कड़ी है, जिनमें सिर्फ बीते एक महीने के दौरान आस्ट्रेलिया के सात प्रमुख व्यवसाय आंकड़ों की सेंधमारी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। साइबर अपराधों की बढ़ती संख्या ने दुनिया भर में यह चिंता पैदा की है कि आधुनिक होती तकनीकी की दुनिया में डेटा की चोरी क्या एक बड़ी चुनौती बनने जा रही है!

दरअसल, आंकड़ों में सेंधमारी की लगातार बढ़ती घटनाएं दुनिया भर में गैरकानूनी तौर पर चल रहे समूहों या कंपनियों के जरिए अंजाम दी जा रही हैं जो लोगों का डेटा हासिल करके उनका सौदा करती हैं। पहले वे अपनी जरूरत के लक्षित तबकों के आंकड़ों में सेंध लगाती हैं, फिर उन्हें अन्य साइबर अपराधियों को बेच देती हैं। हालांकि इस तरह आंकड़ों में सेंधमारी करने वाले लोग आज विस्तृत साइबर अपराध के बड़े संजाल का एक छोटा-सा हिस्सा भर हैं। मुश्किल यह है कि अगर दुनिया भर में इस अपराध से निपटने के लिए कोई ज्यादा सक्षम और उपयोगी तरीका और तंत्र विकसित नहीं किया जाता है तो यह चुनौती किसी एक देश या वहां के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के एक बड़े हिस्से के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगी। यह छिपा नहीं है कि पिछले कुछ समय से आनलाइन अपराध खासतौर पर आंकड़ों की चोरी के मामले में तेजी से अपने पांव फैलाता जा रहा है और इसके सहारे बड़े साइबर हमलों को अंजाम देने की कोशिश की जा रही है।

गौरतलब है कि साइबर अपराधों की दुनिया में आंकड़ों की चोरी के जरिए मुख्य रूप से बड़ी फिरौती हासिल करने की कोशिश की जाती है। तकनीकी दक्षता के साथ किसी व्यक्ति या फिर कंपनी के उपकरण या उसकी कंप्यूटर और इंटरनेट व्यवस्था को पूरी तरह ठप कर दिया जाता है और इसके बदले फिरौती वसूली जाती है। यह साइबर अपराधों की दुनिया में ज्यादा परिष्कृत तरीके के फैलता जाल है। ज्यादातर आम लोग तकनीक का इस्तेमाल तो करते हैं, मगर आमतौर पर उनके पास इसके सुरक्षित उपयोग का प्रशिक्षण नहीं होता है। तकनीकी के विकास की रफ्तार इतनी तेज है कि जब एक यंत्र या उसके स्वरूप के साथ कोई व्यक्ति अभ्यस्त होने लगता है, तब तक कोई नई या बदली हुई तकनीक आ जाती है। जरूरत इस बात की है कि आधुनिक तकनीकी के फैलते दायरे को अगर एक व्यवस्था के तौर पर स्वीकृत किया गया है तो हर स्तर पर इसके उपयोगकर्ताओं और आम लोगों के आंकड़ों या डोटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारें जरूरी कदम उठाएं। वरना यह आम लोगों के साथ खुद सरकारों के लिए भी एक बड़ा जोखिम पैदा करेगा।


Date:01-11-22

हादसों से सबक

संपादकीय

कोई भी हादसा, जिसमें किसी की जान जाती है, मानवता और उसकी ताकत-तरक्की पर प्रश्नचिह्न लगा जाता है। गुजरात के मोरबी शहर में केबल पुल टूटने की वजह से 140 से ज्यादा लोगों का काल के गाल में समा जाना पूरे देश को झकझोर गया है। उधर, दक्षिण कोरिया में हैलोवीन उत्सव पर एक संकरी गली में मची भगदड़ ने 150 से ज्यादा लोगों को अपना ग्रास बना लिया है। अब यह अफसोस ही है कि दुनिया में ऐसे हादसों से हम बच सकते थे। जब हम पड़ताल करेंगे, तो कदम-कदम पर लापरवाही की उतरती सीढ़ियां नजर आएंगी। यह निस्संदेह गहरी संवेदना जताने का समय है, जिन लोगों ने अपने परिजन खोए हैं, उनके साथ हर तरह से खड़े होने का समय है। हम गौर करें, तो पाएंगे कि कदम-कदम पर लापरवाहियों ने ऐसा जाल बुना कि मानवता लहूलुहान हो गई। अब यह हादसा भुलाए न भूलेगा।

यह जानकर आश्चर्य होता है कि 142 साल से भी ज्यादा पुराने इस पुल के जीर्णोद्धार का काम घड़ी बनाने वाली एक कंपनी को दिया गया था। क्या ऐसे केबल पुलों का जीर्णोद्धार करने वाली विशेषज्ञ कंपनियां अपने देश में नहीं हैं, अगर अपने देश में किसी कंपनी के पास फुरसत न थी, तो किसी विशेषज्ञ विदेशी कंपनी को भी यह काम दिया जा सकता था। अपनी पसंद के आधार पर किसी भी कंपनी को ठेका देने का इधर जो चलन प्रभावी हुआ है, वह कितना घातक हो सकता है, मोरबी केबल पुल हादसा मिसाल है। अगर हम किसी भी कंपनी को किसी भी काम का ठेका देने लगे हैं, तो हम यह सुनिश्चित नहीं कर रहे हैं कि हमें विशेषज्ञ सेवाएं या सुविधाएं हासिल हों। ऐसे सवाल लंबे समय तक शासन-प्रशासन का पीछा करेंगे कि पुल बिना फिटनेस प्रमाणपत्र के कैसे खोला गया? मच्छू नदी पर बना यह केबल पुल लगभग सात महीने मरम्मत के लिए बंद रहा था। 26 अक्तूबर को गुजराती नववर्ष के मौके पर इसे फिर से खोला गया था। रविवार को पुल पर बेहिसाब भीड़ जुटी। बताते हैं कि 150 लोगों का भार सहने में सक्षम पुल पर चढ़ने के लिए पांच सौ लोगों का टिकट काट दिया गया। क्या कमाई के लोभ में पुल की वास्तविक ताकत को भुला दिया गया था? अनेक लोगों को इस हादसे के लिए गिरफ्तार किया गया है, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दोषियों के खिलाफ कोई नरमी न बरती जाए। भारतीय राजनीति में ऐसे हादसों पर भी राजनीति करने की परंपरा है, तो जाहिर है, मोरबी मामले में भी राजनीति होगी। गुजरात में सत्तारूढ़ भाजपा आज निशाने पर है, तो वह राजनीति न करने की नसीहत दूसरी पार्टियों को दे रही है।

मोरबी हो या दक्षिण कोरिया हादसे के लिए शासन-प्रशासन के जो भी अपराधी-लापरवाह तत्व जिम्मेदार हैं, उन्हें अगले हादसे की गुंजाइश पैदा करने के लिए खुला नहीं छोड़ना चाहिए। कॉरपोरेट और सरकारी महकमों में एक बड़ी जमात है, जिसने लापरवाही, कोताही को अपना बुनियादी स्वभाव बना लिया है। निस्संदेह तब मानवता रो रही होगी, जब दक्षिण कोरिया में महज चार मीटर चौड़ी गली में एक लाख से ज्यादा लोग घुस गए और भगदड़ मच गई। जिस हिसाब से दुनिया में आबादी बढ़ रही है, जिस मात्रा में भीड़ जुट रही है, हर जगह सतर्क रहने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि सजग लोग किसी भी भीड़ का हिस्सा होने से बचें और अपने आसपास किसी भी हादसे की आशंका के विरुद्ध पुरजोर खड़े हो जाएं। लोगों की सजगता से ही शायद सरकारों की नींद खुलेगी।


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