01-10-2025 (Important News Clippings)
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Labour of care
Women who facilitate rural health care should get better wages
Editorial

For decades, the women who serve as Anshakalin Stri Parichars (ASPs) in Maharashtra have been performing some of the hardest, yet least acknowledged, labour in the rural health system. For a wide breadth of responsibility, their monthly wage has stagnated at ₹3,000 since 2016, decades behind inflation. They also lack job security, pensions, safety gear and travel allowance. In 2023, a labour court in Nagpur acknowledged that they deserved at least the protection of the Minimum Wages Act but left the decision to the State. In keeping with its verbal-only assurances, the State has even now only promised them ₹6,000 a month by December 2025 — much less than what multi-purpose health workers receive. The indifference is not accidental: ASPs, who predate Accredited Social Health Activists (ASHA) and anganwadi workers, have been easy to ignore because they are poor, rural women. Their neglect reveals a gendered and caste-inflected hierarchy of labour within public health, where skilled work is low status and devalued because of who performs it. Their ongoing protests are part of an arc of agitation following similar sit-ins in Kolhapur, Nagpur, Ratnagiri and Yavatmal. In this regard, their plight resonates with that of ASHAs in other States. ASHAs, created under the National Rural Health Mission in 2005, are the community’s first link to the health system and are also officially classified as “volunteers” rather than employees, compensated only through oft-delayed incentives, amounting to less than subsistence. Across States, ASHAs have repeatedly agitated for fixed honoraria, recognition as government staff and social security, and, like the ASPs’ protests, have borne the same refrain: States cannot continue to build their health systems on the underpaid labour of women.
These struggles highlight a structural contradiction. While India relies heavily on women community health workers and attendants to deliver maternal and child health care, immunisation and disease surveillance, especially in rural areas, it refuses to recognise them as workers entitled to minimum benefits and dignity. The reliance is often framed as offering rural women “opportunities” for public service. Yet, in practice, it is exploitation. These women risk snakebite while clearing hospital grounds and death in accidents en route to vaccination duty without insurance or compensation. A health system that does not value the people who keep it functional and link its margins to formal care is bound to sabotage itself. To secure rural health is to secure the rights of those women through living wages, safe working conditions and stable employment.
डिजिटल अरेस्ट की बढती घटनाएं क्या बताती हैं?
संपादकीय

समाजशास्त्रीय कथन है कि अपराध की प्रकृति समाज की पैथोलोजी (विकृति विज्ञान) बताती है। नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड पर उपलब्ध आंकड़ों से पता चला कि निचली अदालतों में आपराधिक और सिविल मुकदमों का अनुपात 81:19 का हो गया है। दस साल पहले तक यह अनुपात 70:30 का था। इसका मतलब यह नहीं है कि जमीन-जायदाद के विवाद पहले से कम हो गए हैं। एक अध्ययन के अनुसार बिहार में हर पांच हत्याओं में चार के मूल में संपत्ति (जमीन) विवाद होता है। इससे पता चलता है कि संपत्ति के विवाद की परिणति भी आपराधिक कृत्यों- जैसे डराने-धमकाने या झूठे आपराधिक आरोप लगाकर उलझाने में हो रही है। देश की सभी अदालतों में कुल 5.34 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें 4.70 करोड़ जिला और अधीनस्थ अदालतों में हैं, जबकि हाईकोर्ट्स में 63.80 लाख और सुप्रीम कोर्ट में 88251 हैं। इंटरनेट बैंकिंग या पेमेंट के प्रचलन के बावजूद एक बड़े वर्ग के पास टेक्निकल जानकारी न होने से साइबर क्राइम अपराध का नया आयाम है। भारतीय समाज में राज्य की शक्तियों की दहशत इतनी प्रभावी है कि अपराधी डिजिटल अरेस्ट के जरिए कानूनी एजेंसियों के अफसर की छद्म आवाज और शैली में फोन कर पढ़े-लिखे लोगों का भी भयादोहन कर रहे हैं। सीबीआई, इनकम टैक्स और एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट के नाम पर लोगों में व्याप्त दहशत से चल रहे डिजिटल अरेस्ट के खेल से कल्याणकारी राज्य में भी राज्य शक्तियों के असली चरित्र का पता चलता है।
अपराध के आंकड़े
संपादकीय
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो अर्थात एनसीआरबी के 2023 के आंकड़े कोई अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। यह ठीक नहीं कि हर स्तर पर अपराध बढ़ते दिख रहे हैं। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि महिलाओं को घरेलू हिंसा से लेकर यौन अपराधों से बचाने वाले कई कानूनों को कठोर किए जाने के बाद भी उनके खिलाफ अपराध कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं।
2023 में महिलाओं के खिलाफ 4.5 लाख अपराध के मामले दर्ज किए गए। ये पिछले दो वर्षों की तुलना में अधिक हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों में सबसे अधिक मामले घरेलू हिंसा के हैं। इसका मतलब है कि वे घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। निःसंदेह सार्वजनिक स्थानों पर भी उनकी सुरक्षा को लेकर सवाल उठते ही रहते हैं।
पिछले दिनों ही कर्नाटक उच्च न्यायालय ने दुष्कर्म के एक मामले में अभियुक्त को जमानत देने से मना करते हुए कहा कि जिस दिन महिलाएं रात में निर्भय होकर चल सकेंगी, उस दिन हम कह सकते हैं कि भारत ने सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। इस स्थिति के निर्माण के लिए केवल पुलिस और अदालतों को ही तत्परता का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है।
इसके साथ ही हमारे पुरुष प्रधान समाज को भी अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का एक बड़ा कारण पुरुष प्रधान समाज की महिलाओं को हीन और दोयम दर्जे का मानने की मानसिकता है। इसी मानसिकता के कारण आज भी महिलाएं बड़ी संख्या में घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं।
इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि 21वीं सदी में भी महिलाएं दहेज के लिए प्रताड़ित की जा रही हैं। यह तब है, जब सरकारें अपने स्तर पर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने और उन्हें संबल देने के लिए सामाजिक कल्याण की कई योजनाएं चला रही हैं। यह आवश्यक है कि इन योजनाओं का केंद्रीय पहलू लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना बने।
इसके साथ ही अपराधरोधी तंत्र को और सक्षम बनाने की भी गहन आवश्यकता है। इस तंत्र में पुलिस के साथ ही अदालतों की भी प्रमुख भूमिका है। अपराधी छोटा हो या बड़ा, उसे यथाशीघ्र दंड का भागीदार बनाकर ही कानून के शासन को स्थापित किया जा सकता है। अपने देश में सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के खिलाफ अपराध घटित होने का एक कारण यह है कि कई बार सक्षम लोग अपने किए की सजा इसलिए नहीं पाते, क्योंकि वे रसूख वाले होते हैं।
अपराधों का एक कारण कानूनों को अनदेखा करने की प्रवृत्ति भी है। छोटे-मोटे नियम-कानूनों की अवहेलना के बढ़ते मामले यही बताते हैं कि देश अभी सामंती प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हुआ है। अपराध रोधी तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता से इन्कार नहीं, लेकिन लोगों को नियम-कानूनों का पालन करना भी सीखना होगा।
Date: 01-10-25
सौ वर्षों की स्वर्णिम विरासत
डॉ. अजय कुमार, ( लेखक यूपीएससी के अध्यक्ष हैं )
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) अपनी स्थापना के 100वें वर्ष में प्रवेश करते हुए एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर खड़ा है। लोक सेवा आयोगों (पीएससी) की परिकल्पना हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने संवैधानिक निकायों, सिविल सेवाओं में योग्यता के संरक्षक के रूप में की थी। इसी सोच के साथ यूपीएससी को केंद्रीय सिविल सेवाओं के अधिकारियों की भर्ती, पदोन्नति और अनुशासन संबंधी मामलों में अहम भूमिका सौंपी गई।
पिछले सौ वर्षों में इसकी विकास यात्रा केवल एक संस्थान का इतिहास नहीं है, बल्कि भारत के उस गहरे विश्वास का प्रतीक है, जो निष्पक्षता, विश्वास और सत्यनिष्ठा पर आधारित है। संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग-14 में अनुच्छेद 315 से 323 तक के तहत संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों को विशेष दर्जा दिया।
इसका उद्देश्य उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करना था, ताकि भर्ती, पदोन्नति और अनुशासन संबंधी मामलों में कोई दबाव या पक्षपात न हो। यह उनके दूरदर्शी विचारों का प्रमाण है कि यह संस्था आज भी योग्यता, भरोसे और ईमानदारी के सिद्धांतों पर मजबूती से खड़ी है। इसके जरिये दुनिया के सबसे विविधतापूर्ण एवं सबसे बड़े लोकतंत्र में शासन के विशाल कार्यभार का संचालन होता है।
यूपीएससी की इस ऐतिहासिक यात्रा में केवल प्रशासनिक निरंतरता ही नहीं दिखती, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों पर बढ़ते भरोसे का भी प्रतीक है। शुरुआती वर्षों में यूपीएससी कुछ ही परीक्षाएं आयोजित करता था, पर आज यह एक बड़ा और विविध कार्यक्षेत्र संभाल रहा है। आज प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा से लेकर इंजीनियरिंग, वानिकी, चिकित्सा, सांख्यिकी और कई अन्य सेवाओं के लिए भर्ती का दारोमदार यूपीएससी के पास है।
इसका दायरा बढ़ा है, पर इसका मूल दायित्व वही है-देश की सेवा के लिए सबसे योग्य प्रतिभाओं का चयन करना। सिविल सेवा परीक्षा का लाजिस्टिक कार्य भी असाधारण है। प्रारंभिक परीक्षा 2,500 से अधिक स्थानों पर आयोजित होती है। प्रारंभिक परीक्षा के लिए लगभग 10–12 लाख अभ्यर्थी आवेदन करते हैं।
मुख्य परीक्षा में चुनौती और जटिल हो जाती है, जहां विभिन्न केंद्रों पर प्रत्येक उम्मीदवार को उसकी ओर से चयनित विषय का प्रश्नपत्र उपलब्ध कराना होता है। यह चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब दिव्यांग अभ्यर्थियों के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है, जैसे सहायक लेखक की सुविधा। दृष्टिबाधित अभ्यर्थियों को बड़े फांट में प्रश्न पत्र दिए जाते हैं।
यदि यूपीएससी का इतिहास उसकी बुनियाद है, तो भरोसा, ईमानदारी और निष्पक्षता उसके स्तंभ हैं। दशकों से लाखों अभ्यर्थियों ने आयोग पर विश्वास जताया है कि सफलता या असफलता सिर्फ उनकी योग्यता पर निर्भर करेगी। यह विश्वास यूं ही नहीं बना। इसे बड़ी मेहनत और ईमानदारी से गढ़ा गया है।
प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, मूल्यांकन में निष्पक्षता और गलत तरीकों के खिलाफ सख्त रुख से यह संभव हुआ है। प्रश्नपत्र बनाने से लेकर परीक्षा आयोजन और मूल्यांकन तक प्रत्येक चरण में ईमानदारी का परिचय दिया जाता है। ईमानदारी से आशय है संस्था को राजनीतिक या बाहरी दबावों से बचाना, गोपनीयता बनाए रखना और यह सुनिश्चित करना कि सर्वाधिक योग्य ही चयनित हों।
निष्पक्षता का अर्थ है सभी अभ्यर्थियों को समान अवसर देना-चाहे वे शहर से हों या गांव से, संपन्न हों या वंचित, अंग्रेजी में निपुण हों या न हों। हमारे जैसे विविधतापूर्ण देश में जहां कई स्तरों पर असमानता बनी हुई है, वहां यूपीएससी परीक्षाओं को समान अवसर का मैदान माना जाता है। संस्थान के लिए यह गर्व से भरी उपलब्धि है।
आज जब हम यूपीएससी का शताब्दी समारोह मना रहे हैं, तो हम उन गुमनाम नायकों को भी सम्मानित करें, जिनकी वजह से यह सफलता संभव हुई। इनमें प्रश्न तैयार करने और मूल्यांकन करने वाले विशेषज्ञ प्रमुख हैं। ये आयोग की अदृश्य रीढ़ हैं। ये देश के बेहतरीन विषय विशेषज्ञ हैं। अपने क्षेत्रों में सिरमौर होने के बावजूद बिना किसी पहचान या प्रसिद्धि की चाह में वे समर्पण के साथ काम करते हैं।
उनका सूक्ष्म कार्य, निष्पक्ष निर्णय और उत्कृष्टता के प्रति अडिग प्रतिबद्धता यूपीएससी की क्षमता का आधार रही है, जो परीक्षा प्रक्रिया को निष्पक्ष, पारदर्शी और मजबूत बनाती है। यही कारण है कि आयोग ने देश का भरोसा जीता और समय की हर कसौटी पर खरा उतरा। मैं व्यक्तिगत रूप से उनका धन्यवाद करता हूं, जिनकी निःस्वार्थ सेवा सुनिश्चित करती है कि लाखों उम्मीदवारों के सपनों और आकांक्षाओं का मूल्यांकन निष्पक्षता, कड़ाई और पूरी ईमानदारी के साथ हो।
शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहे आयोग के लिए यह क्षण केवल उत्सव का नहीं, बल्कि व्यापक मंथन का भी है। शताब्दी वर्ष हमारे लिए अतीत का सम्मान करने, वर्तमान का जश्न मनाने और अगले सौ साल की दृष्टि तय करने का भी अवसर है। जैसे-जैसे भारत दुनिया में अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करने की ओर बढ़ रहा है, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और तकनीकी प्रगति मौजूदा शासन माडल में बदलाव ला रही हैं।
ऐसे में एक संस्थान के रूप में यूपीएससी इन बदलावों के अनुसार खुद को ढालेगा, ताकि यह भारतीय लोकतंत्र में निष्पक्षता और अवसर का प्रकाश स्तंभ बना रहे। इस दिशा में समयानुकूल प्रयास भी आरंभ हो गए हैं। नए आनलाइन आवेदन पोर्टल से अभ्यर्थियों के लिए आवेदन प्रक्रिया आसान हो गई है। फेस रिकग्निशन तकनीक किसी भी धोखाधड़ी को रोकने में मददगार बनेगी।
हम चयनित उम्मीदवारों की तलाश के साथ-साथ उनकी मदद भी कर रहे हैं, जो हमारी प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। प्रतिभा सेतु जैसी पहल भी उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान कर रही है, जो फाइनल पर्सनालिटी टेस्ट तक पहुंचते हैं, पर अंतिम सूची में नहीं आ पाते। क्षमताओं को और बढ़ाने की दिशा में एआइ के प्रयोग को भी अपनाया जा रहा है।
आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों के साथ यूपीएससी के शताब्दी वर्ष का उत्सव मनाते हुए हम सभी अपनी विरासत की मजबूती और समग्र समाज द्वारा इस संस्थान में व्यक्त विश्वास से अभिभूत और प्रेरित हैं। हम दोहराते हैं कि ईमानदारी, निष्पक्षता और उत्कृष्टता के इस स्वर्ण मानक को बनाए रखेंगे। आगे बढ़ाने का हमारा संकल्प अटल है।
आतंक का दायरा
संपादकीय
कनाडा ने अपराध की दुनिया में कुख्यात माने जाने वाले लारेंस बिश्नोई गिरोह को आतंकी संगठन घोषित करके एक सख्त संदेश दिया है कि अगर किसी समूह की गतिविधियां आतंकवादियों के समकक्ष हैं, तो उसे उसी नजरिए से देखा जाएगा। दरअसल, कनाडा में कई बड़ी आपराधिक घटनाओं के पीछे लारेंस बिश्नोई गिरोह का हाथ बताया जा रहा है। इस गिरोह पर प्रवासियों से वसूली, उन्हें हिंसा की धमकी देने और कुछ विशिष्ट समुदायों को निशाना बना कर आतंक फैलाने के जरिए अपने पांव फैलाने के आरोप हैं। इन्हीं वजहों से कनाडा सरकार ने सोमवार को कहा कि वहां के लोगों के बीच भय का माहौल पैदा करने के लिए लारेंस बिश्नोई गिरोह को आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल दिया गया है। गौरतलब है कि अगर किसी गिरोह को कनाडा में आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है तो वहां के के मुताबिक उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती है, मुकदमा चलाया जा सकता है, उसकी संपत्तियां और धन को सरकार जब्त कर सकती है। इसके बाद कनाडा के कई राज्यों की पुलिस को लारेंस बिश्नोई गिरोह के खिलाफ जांच में पहले से ज्यादा अधिकार भी मिल सकेंगे।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और कई अन्य देशों में लारेंस बिश्नोई गिरोह को वसूली से लेकर हत्या तक की गतिविधियों के लिए जाना जाता रहा है। कनाडा में उसके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने की संभावना पहले से बन रही थी, क्योंकि वहां इस समूह पर प्रतिबंध लगाने की मांग काफी समय से की जा रही थी। मगर कनाडा सरकार ने इस संबंध में जो कदम उठाया है, उसकी पृष्ठभूमि बीते कुछ वर्षों के दौरान भारत और कनाडा के बीच चली खींचतान को भी माना जा सकता है। करीब साल भर पहले खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मसले पर भारत और कनाडा के बीच विवाद ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया था। उसके बाद यह मुद्दा भी उठा कि भारत से संचालित लारेंस बिश्नोई गिरोह ने कनाडा में प्रवासियों के इलाकों में भी अपने पांव फैला लिए हैं तथा वहां जबरन वसूली, धमकी, गोलीबारी और हत्या के जरिए आतंक फैलाता है। खुद भारत में भी लारेंस बिश्नोई के जेल के भीतर से गिरोह संचालित करने और उसे मिलने वाले संरक्षण पर सवाल उठते रहे हैं। यहां उसके खिलाफ यूएपीए जैसे सख्त कानून के तहत कार्रवाई चल रही है।
इसके समांतर कनाडा के इस कदम को भी आतंक और भय पैदा करने वाली गतिविधि पर लगाम कसने के रूप में देखा जाएगा। जिन हरकतों से दहशत का माहौल बनता है, उसे आतंकवाद के समकक्ष देखे जाने से शायद ही कोई असहमत होगा। मगर ऐसे सवाल भी उठ सकते हैं कि जिस तरह की सख्ती कनाडा ने लॉरेंस बिश्नोई गिरोह के खिलाफ दिखाई है, क्या वह ऐसा ही रुख अपने यहां खालिस्तान समर्थक समूहों के प्रति भी अख्तियार करेगा। कनाडा में खालिस्तान समर्थक कई समूहों की गतिविधियां छिपी नहीं रही हैं। इसके सबूतों के साथ भारत ने वहां की सरकार को सूचित भी किया है। मगर कनाडा ऐसे संगठनों के खिलाफ सख्ती बरतने को लेकर कोई बहुत उत्साह नहीं दिखाता। अब कहा जा सकता है कि लारेंस बिश्नोई गिरोह को आतंकी संगठन घोषित कर कनाडा ने बड़े अपराधों के संजाल को तोड़ने की कोशिश की है। मगर इसे इस कसौटी पर भी रख कर देखा जाएगा कि आतंक को बढ़ावा देने वाले दूसरे समूहों को लेकर उसका रुख कैसा रहता है।
Date: 01-10-25
शांति की पहल
संपादकीय
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से गाजा में युद्धविराम के लिए जो बीस सूत्रीय प्रस्ताव पेश किया गया है, वह निश्चित रूप से शांति की राह पर लौटने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इजराइल और फिलिस्तीन समेत कई देशों ने इस पहल का स्वागत किया है, जिनमें आठ अरब देश तथा भारत, चीन, रूस और पाकिस्तान भी शामिल हैं। साफ है कि ज्यादातर देश गाजा में शांति के समर्थक हैं। मगर क्या हमास भी इस प्रस्ताव को स्वीकार करेगा ? यह सवाल इसलिए अहम है, क्योंकि हमास की ओर से अभी तक कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं आई है। इस संगठन का कहना है कि वह प्रस्ताव की शर्तों का गहन अध्ययन करने के बाद ही अपना रुख स्पष्ट करेगा। दूसरी ओर इजराइल ने भी भले ही इस प्रस्ताव पर प्रथम दृष्टया सहमति जताई हो, लेकिन इसमें कई शर्तें ऐसी हैं, जिनके दूरगामी प्रभाव को देखते हुए इजराइल अपने मौजूदा रुख में बदलाव करने पर विचार कर सकता है। यानी शांति योजना सिरे चढ़ पाएगी या नहीं, अभी इस संबंध में कोई भी कयास लगाना जल्दबाजी होगी ।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से वाइट हाउस में मुलाकात के बाद शांति समझौते का यह प्रस्ताव सार्वजनिक किया है। इससे पहले नेतन्याहू ने अमीरात में हमास से जुड़े लोगों को निशाना बनाकर किए गए सैन्य हमले के लिए कतर के प्रधानमंत्री से माफी मांगी थी। इस प्रस्ताव की शर्तों में कहा गया है कि समझौता होने के बहत्तर घंटे के भीतर दोनों ओर से बंधकों और कैदियों को रिहा कर दिया जाएगा। गाजा का प्रशासन एक अस्थायी, तकनीकी और गैर-राजनीतिक फिलिस्तीनी समिति को सौंपा जाएगा, जिसकी निगरानी राष्ट्रपति ट्रंप की अध्यक्षता वाला ‘बोर्ड आफ पीस’ करेगा। यानी प्रकारांतर से इस प्रशासन की लगाम अमेरिका के हाथों में रहेगी। हमास और इजराइल की इसमें कोई भागीदारी नहीं होगी। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि इजराइल और हमास इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ेंगे और गाजा में फिर से शांति कायम होगी, क्योंकि इस युद्ध के दौरान अब तक छियासठ हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे शामिल थे।
गाजा में शांति प्रस्ताव
संपादकीय
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गाजा में शांति बहाली का जो रास्ता सुझाया है, वह निस्संदेह स्वागत के योग्य है और यही वजह है कि भारत सरकार ने इस प्रस्ताव की हिमायत में कोई वक्त नहीं लगाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सोशल मीडिया हैंडल एक्स पर उचित ही कहा कि राष्ट्रपति ट्रंप की यह पहल फलस्तीन और इजरायली लोगों के साथ- साथ समूचे पश्चिम एशिया के लिए स्थायी शांति, सुरक्षा और विकास का एक व्यावहारिक मार्ग दिखाती है। सभी पक्षों को उनकी इस कोशिश का समर्थन करना चाहिए, ताकि गाजा में संघर्ष धमे और वहां शांति कायम हो। ट्रंप के इस एलान की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है कि व्हाइट हाउस में इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की मौजूदगी में उन्होंने इस प्रस्ताव का एलान किया। यही नहीं, व्हाइट हाउस से ही नेतन्याहू ने कतर पर इजरायली हमले के लिए जिस तरह कतरी प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान बिन जसीम अल थानी से फोन पर माफी मांगी, उससे भी यही संदेश गया है कि ट्रंप वाकई अपनी इस पहल को लेकर गंभीर हैं। अगर इसके पीछे नोबेल शांति पुरस्कार की उनकी अभिलाषा हो, तब भी इस प्रयास की सफलता मानवता की बड़ी सेवा मानी जाएगी।
इस 20 सूत्री प्रस्ताव में जो मुख्य बातें कही गई हैं, उनमें यह साफ- साफ कहा गया है कि इजरायल गाजा पर कब्जा नहीं करेगा और हमास तमाम इजरायली बंधकों की रिहाई फौरन सुनिश्चित करेगा। इजरायली फौज गाजा से लौट जाएगी, मगर गाजा के शासन में हमास की किसी किस्म की कोई भूमिका नहीं होगी। यह चरमपंथी संगठन न सिर्फ अपने सारे हथियार त्याग देगा, बल्कि उसे सुरंगें और हथियार बनाने के सारे ठिकाने भी नष्ट करने होंगे। दोनों पक्षों की सहमति के बाद गाजा में राहत पहुंचाने और पुनर्निर्माण का काम शुरू होगा। हालांकि, फलस्तीन को मान्यता देने के सवाल पर इस नए प्रस्ताव में बहुत स्पष्टता नहीं है, मगर उम्मीद जताई गई है कि इससे निकट भविष्य में यह भी मुमकिन हो सकता है।
हमास-इजरायल युद्ध अब जब तीसरे वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है, तब दुनिया के लिए इससे बेहतर कोई और ख़बर हो नहीं सकती कि इसे ख़त्म करने को लेकर अब तक की यह सबसे गंभीर पहल सामने आई है। हालांकि, तस्वीर का एक अन्य रुख भी है। जिस तरह, एक के बाद दूसरे पश्चिमी देश और दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इजरायली आक्रामकता के खिलाफ लामबंद होने लगी थीं, उसमें खुद अमेरिका के लिए अपना दामन बचाना मुश्किल हो गया था। 9 सितंबर को कतर पर इजरायली हमले के बाद से ही अरब देशों में अमेरिका के प्रति नाराजगी गहराती जा रही थी। ऐसे में, ट्रंप के लिए लंबे समय तक नेतन्याहू का साथ देना कठिन होता जा रहा था, क्योंकि उसके कई मित्र देश वाशिंगटन से खफा थे। भारत समेत विश्व के तीन चौथाई देश इस समस्या का समाधान दो स्वतंत्र देश- फलस्तीन व इजरायल की स्थापना में देखते हैं। नेतन्याहू जिस तरह दुनिया भर में अलग-थलग पड़ चुके हैं, उसमें उन्हें व्यावहारिक हल की तरफ कदम बढ़ाने चाहिए। पिछले करीब तीन वर्षों में 60 हजार से अधिक फलस्तीनी इजरायल के हमले की भेंट चढ़ चुके हैं और इसमें बड़ी तादाद बेगुनाह महिलाओं और बच्चों की है। मगर मानवता के पक्ष में इजरायल पर दबाव बनाते हुए यह कहीं से भी नहीं लगना चाहिए कि आतंकी तंजीमों को किसी किस्म की रियायत मिल रही है। शांति तभी स्थायी हो सकती है।