01-05-2024 (Important News Clippings)

Afeias
01 May 2024
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Date:01-05-24

More Guts for Our Food Regulators

ET Editorials

Whether food products we ingest are safe or not continues to worry us. Or, at any rate, should worry us. Recent reports by Hong Kong and Singapore food regulators of two popular Indian brands of prepackaged spice-mix products allegedly containing ethylene oxide, a carcinogenic substancedenied by both companies does raise a flag, and brows. European food authorities reportedly found the same carcinogen in 527 Indi- an food products. The US FDA, which had raised the issue of salmonella contamination in prepackaged spice mixes, is con- ducting a fresh probe. Indian Spices Board, Gol’s regulator for spice exports, is working with companies to address the issue. Between Nestlé’s ‘added sugar in infant foods’ for Indian mar- kets controversy, Food Safety and Stand- ards Authority of India (FSSAI) stopping malted beverages and mixes from being sold as ‘health’ drinks, and now l’affaire ethylene oxide, food safety is now a hotpo- tato public health topic. Reputational da- mage that can affect exports aside, repo-rts that we may be routinely consuming harmful products is worrying. More so as growing affluence is changing our food basket and habits. This makes it more ur- gent to have a robust food regulator with the right capabilities. As gatekeepers of the nation’s alimentary system, FSSAI ne- eds more guts. It now has a network of more than 200 food test- ing labs. But more needs to be done given the range of food seg- ments. Increasing accredited labs, ensuring functional state food labs, upping trained manpower and focusing on enforce- ment of norms must be prioritised. Whether to clear allegati- ons or to clamp down on non-compliance, FSSAI must coordi- nate with other food-related regulators to ensure that what we consume and sell elsewhere is safe.


Date:01-05-24

सरकार को फटकार

संपादकीय

दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को पारित अपने आदेश में कहा है कि अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बावजूद मुख्यमंत्री बने रहने का उनका फैसला निजी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि स्कूली बच्चों के मौलिक अधिकारों को रौंद दिया जाए। अदालत ने दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में बच्चों को किताबें उपलब्ध न होने के मामले में दिल्ली सरकार को फटकार लगाते हुए निगमायुक्त को निगम के स्कूली बच्चों के लिए पाठ्यसामग्री के लिए अपनी सीमा से बाहर जाकर राशि आवंटित करने का निर्देश दिया। इस काम में केजरीवाल के जेल में होने के कारण विलंब हो रहा है। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन एवं जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की पीठ गैर-सरकारी संगठन ‘सोशल जूरिस्ट’ की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा कि दिल्ली व्यस्त राजधानी ही नहीं है, बल्कि उसका या किसी भी अन्य राज्य में मुख्यमंत्री का पद कोई औपचारिक पद नहीं है। यह ऐसा पद है, जहां पदधारक को बाढ़, आग और बीमारी जैसी प्राकृतिक आपदा या संकट से निपटने के लिए 24 घंटे सातों दिन उपलब्ध रहना पड़ता है। इसलिए राष्ट्रीय हित और सार्वजनिक हित की मांग है कि इस पद पर रहने वाला कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक या अनिश्चित समय के लिए संपर्क से दूर या अनुपस्थित न रहे। बेशक, स्कूली बच्चों को पाठ्यपुस्तकों, लेखन सामग्री और वर्दी मिलने में पेश आ रही समस्याओं का अब त्वरित समधान हो सकेगा। लेकिन आने वाले दिनों में अदालत को इस तरह के तमाम फैसले देने पड़ सकते हैं, जो आम जन के सरोकार से जुड़े हो सकते हैं। कारण, जब से केजरीवाल ईडी द्वारा दर्ज धन शोधन मामले में पीएमएलए के तहत गिरफ्तार करके जेल भेजे गए हैं, तभी से दिल्ली सरकार और उससे आवंटित धन के जरिए काम चलाने वाले नगर निगम में सारा कामकाज ठप सा पड़ गया है। केजरीवाल जेल में रहते हुए मुख्यमंत्री के रूप में दायित्व निभाना चाहते हैं। इस बाबत कोई स्पष्ट नियम न होने के कारण उन्हें अपनी जिद पर अड़े रहने में मदद मिल रही है। होना तो यह चाहिए कि उन्हें अपनी पार्टी के किसी अन्य विधायक को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा देनी चाहिए ताकि जनता के काम न रुकें। जनता से जुड़े कार्यों में भी राजनीति होने लगेगी तो आने वाले दिनों में दिक्कतें और बढ़ने वाली हैं, और कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वालों की संख्या बढ़ना भी तय है।


Date:01-05-24

हर साल जलने वाले जंगलों को भला कैसे बचाया जाए

एस पी सती, ( प्रोफेसर, वानिकी महाविद्यालय, रानीचोरी )

शीतलता और हरियाली के प्रतीक माने जाने वाले जंगल इन दिनों धधक रहे हैं। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग अब इतनी विकराल हो चुकी है कि उन पर काबू पाने के लिए सेना को उतारना पड़ा है। ऐसा नहीं है कि दावानल की घटनाएं पहले नहीं होती थीं। सदियों से पहाड़ इसके गवाह रहे हैं। उत्तराखंड का इतिहास तो यह भी है कि 1920-21 में जब जंगलों पर लोगों के हक-हुकूक खत्म कर दिए गए, तब खुद लोगों ने ही आंदोलन के तहत वनों में आग लगा दिए थे। मगर अब तो हर साल दावाग्नि की समस्या विकराल रूप में सामने आने लगी है। इसकी कुछ खास वजहें हैं।

पहली वजह, जलवायु परिवर्तन के कारण ‘ड्राई पीरियड’ यानी सूखे की अवधि बढ़ गई है। तापमान बढ़ रहा है, जिसके कारण नमी कम हो रही है। नतीजतन, जंगलों में सूखी पत्तियां या टहनियां आसानी से दहक उठती हैं। वन विभाग के आंकडे़ बता रहे हैं कि इस साल 1 जनवरी से लेकर 14 फरवरी के बीच जंगलों में आग लगने की 100 से अधिक बड़ी घटनाएं हुई हैं, जिसकी एक बड़ी वजह ड्राई पीरियड और तापमान-वृद्धि है। पहले यह अवधि छोटी होती थी, लेकिन अब जनवरी-फरवरी से लेकर मई-जून तक हम इसका एहसास करते हैं। दूसरी वजह है, सन् 1980 में वन (संरक्षण) कानून में किया गया वह प्रावधान, जिसके तहत पहाड़ों पर 1,000 मीटर ऊंचाई से ऊपर हरे पेड़ों की व्यावसायिक रूप से कटाई प्रतिबंधित कर दी गई। इसका नुकसान यह हुआ कि चीड़ के पेड़ों की संख्या असीमित बढ़ गई। चीड़ दरअसल ऐसा पेड़ है, जो आग बढ़ाने में सहायक माना जाता है। मार्च-अप्रैल से चीड़ की पत्तियां सूखकर नीचे गिरने लगती हैं और तापमान में वृद्धि होने पर आग के फैलाव का एक बड़ा कारण बनती हैं। बेशक, हरे पेड़ों की कटाई बंद होनी चाहिए, लेकिन ऐसा कोई प्रावधान तय करते समय हमें यह भी सोचना चाहिए कि किन पेड़ों की कटाई बंद होनी चाहिए और किनकी नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हर पेड़ की प्रकृति अलग होती है। चीड़ को अन्य पेड़ों के समान देखना एक गलत नजरिया साबित हुआ है।

तीसरी वजह है, जंगलों से लोगों का रिश्ता खत्म हो जाना। पहले लोगों का अपने आसपास के जंगलों से करीबी रिश्ता होता था। वे वनोपज से अपना गुजारा करते थे, इसके बदले में जंगलों का प्रबंधन किया करते थे। मगर सरकार ने जैसे ही जंगल अपने हाथों में लिया, लोगों ने खुद को इससे अलग कर लिया। इसके कारण वन बढ़ते हुए गांवों तक पहुंच गए, जो दावानल की चौथी वजह है। पहले जंगल को रोकने के तमाम उपाय अपनाए जाते थे, लेकिन अब अव्वल तो पहाड़ी गांवों में लोग रहते नहीं, और जो रहते हैं, उनके घरों में एलपीजी गैस आदि की सुविधा बढ़ने से जंगलों पर उनकी निर्भरता खत्म हो गई है। नतीजतन, वे वनों को नियंत्रित करने में खास रुचि नहीं रखते। इसी कारण जंगल की आग अब रिहायशी इलाकों तक पहुंचने लगी है और वनाग्नि की विकरालता काफी ज्यादा बढ़ गई है।

ऐसा नहीं है कि इस समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। इसके लिए सबसे पहले मजबूत इच्छाशक्ति की दरकार है, फिर सही दिशा में कदम बढ़ाना होगा। सबसे पहले 1980 के वन (संरक्षण) कानून के प्रावधान ठीक करने होंगे। इसमें 1,000 मीटर की ऊंचाई के ऊपर हरे पेड़ों की कटाई संबंधी प्रतिबंध तत्काल खत्म किए जाने चाहिए। विशेषकर चीड़ के संबंध में तो इसे जरूर हटाना चाहिए और ऐसा प्रावधान करना चाहिए कि चीड़ की कटाई हो सके। इसके साथ-साथ गांव बसाने की तरफ भी ध्यान देना अनिवार्य है। गांवों में आबादी को इतना जागरूक करना ही होगा कि वे पहले की तरह जंगलों का प्रबंधन अपने हाथों में ले लें।

तीसरा रास्ता है, वन विभाग को सक्रिय बनाना। पहले यह विभाग जंगलों का प्रबंधन किया करता था, फिर इस पर वन-संरक्षण की जिम्मेदारी डाल दी गई। इसको प्रबंधन का अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। अच्छी बात है कि सरकार अपने तईं कुछ प्रयास कर रही है, पर उसका खास असर नहीं पड़ रहा, इसलिए उसका बहुत फायदा नहीं दिखता। जाहिर है, हमें बुनियादी उपाय करने होंगे, तभी हम जंगलों को जलने से बचा पाएंगे।


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