01-04-2019 (Important News Clippings)

Afeias
01 Apr 2019
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Date:01-04-19

Exaggerated Fears

VVPAT verification will bolster EVM integrity. But opposition’s 50% count demand is absurd

TOI Editorials 

The demand by opposition parties for counting VVPAT slips from 50% of EVMs is irrational and can delay the declaration of results by five days according to the Election Commission (EC). EVMs eliminated paper ballots but counting 50% of VVPAT slips nullifies those time and cost benefits. A committee of senior statisticians has said that verifying 479 randomly selected EVMs from a total of 10.35 lakh achieves a confidence level of 99.99%. Raising sample size further yielded only “negligible gains” in confidence levels. This would also roughly translate to one EVM per Lok Sabha seat.

The bogey of EVM tampering led to VVPAT but opposition paranoia seems unending. EC has said that VVPAT slip count from 1,500 polling stations in elections since March 2017 have matched completely with corresponding EVMs. Protocols stipulate checks on EVMs for physical tampering followed by random assignment to polling booths, both witnessed by party representatives. At EC’s EVM hackathon, no party came forward to attempt a hack. The opposition also conveniently forgets their multiple election wins – in Delhi, Bihar, Punjab and elsewhere or most recently in three Hindi heartland states – since 2014.

Some argue that the seven phase polling entails a wait of several weeks and a few more days for counting VVPATs makes little difference. EC’s estimate of five extra days is being questioned by those claiming that paper ballot counting in pre-EVM days wouldn’t exceed 2-3 days. EC has offered to hike the stations counted to one per 4,125 assembly constituencies. By EC’s own estimate it would take one hour to count VVPAT slips per booth and 250 hours to count the average 250-odd booths per constituency. While 125 hours to verify half these booths would be overkill, sparing one hour for a booth per assembly constituency would strike a balance.

Meanwhile, EC should swiftly replace faulty EVM/ VVPATs during polling. These isolated failures relayed through social media have contributed to rumour mongering. While BJP is the target of the opposition’s EVM hacking paranoia, EC takes the collateral damage. VVPATs are making their general election debut and this important step towards transparency was made possible by judicial interventions and EC’s timebound execution. It attests to the robustness of institutions and the potential of incremental approaches to solve fundamental problems. A manual count of 50% polling station VVPATs, however, is clearly not a constructive proposal.


Date:01-04-19

Junk Route to Active Corporate Bond Market

ET Editorials

The lack of guidelines for investment in lower-rated bonds continues to hamper corporate bond market development in India. Sebi’s recent circular, however, has streamlined valuation norms for money market and debt securities rated below investment grade in the mutual funds industry. With the Insolvency and Bankruptcy Code in place, a regulated market for issue of high-yield bonds is clearly warranted.

It makes perfect sense for fund houses to standardise valuation rules for, say, commercial paper and corporate bonds, following an adverse credit event. But, in parallel, what’s required are clear-cut guidelines for the issue of high-yield, sub-investment-grade bonds for a more complete corporate bond market. The market today is suboptimal, with corporate bond issuance characterised by private placements, a rather narrow issuer and investor base, and mostly held to maturity. The way forward is to policy-induce a thriving secondary market for corporate bonds for transparency, disclosure, across various investment grades, and not restricted to bonds with AA and AAA credit-rating, which can be very opaque indeed, going by the Infrastructure Leasing and Financial Services fiasco.

The Sebi circular calls for below-investment-grade securities to be valued on the basis of indicative haircuts provided by credit-rating agencies.A deep and liquid corporate bond market also needs a market for so-called junk bonds, which promise high, albeit more risky, yields for better resource allocation right across the board, especially in the long tail of small and medium enterprises lacking access to formal credit markets. An actively regulated market for sub-investment-grade bonds, complete with a central counterparty facility as in the gilts market, would complement top-rated bonds. Everyone would gain.


Date:31-03-19

गोलान पर तिरछा संग्राम

डॉ. दिलीप चौबे

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप घरेलू और विदेशी मोर्चे पर विवादास्पद फैसलों के लिए चर्चित रहे हैं। अपनी बे-लीक राजनीति के तहत उन्होंने विदेश नीति में भी ऐसे फैसले किये जो लंबे समय से चले आ रहे पेचीदा मामलों को हल करने के बजाय उसमें और जटिलता पैदा करने के कारण बन रहे हैं। हाल में उन्होंने इस्राइल और सीरिया के सीमा क्षेत्र में स्थित गोलान पहाड़ी क्षेत्र पर इस्राइल की संम्प्रभुता को मान्यता दे दी। गोलान वास्तव में 1967 और 1981 की सैन्य कार्रवाई के कारण इस्राइल के कब्जे में हैं। वहां इस्राइल की सेना तैनात है। लेकिन फिलिस्तीन की तरह गोलान को भी संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी कब्जे वाला इलाका मानती है। इस्राइल का शिकार सीरिया भी अपने क्षेत्र को दोबारा हासिल करने की स्थिति में न पहले था और न आज है। अरब देशों को यह आशा जरूर थी कि पश्चिम एशिया में यदि कभी शांति समझौता हुआ तो फिलिस्तीन और गोलान का मामला सुलझ जाएगा। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के इस फैसले से अब ऐसे किसी शांति समझौते के रास्ते में और बाधा आएगी।

विशेषज्ञ यह विश्लेषण कर रहे हैं कि जब गोलान पर इस्राइल का पहले से कब्जा है तो उसे ट्रंप की ओर से औपचारिक मान्यता दिये जाने का क्या औचित्य है? कुछ लोग इसे ट्रंप द्वारा अपने मित्र बेंजामिन नेतन्याहू को दिया गया उपहार मान रहे हैं। नेतन्याहू इस समय आम चुनाव का सामना कर रहे हैं, जिसमें उन्हें विपक्ष की ओर से कड़ी टक्कर मिल रही है। वह भ्रष्टाचार के आरोपों से भी घिरे हैं। ऐसी स्थिति में डोनाल्ड ट्रंप की यह घोषणा इस्राइली नेता नेतन्याहू के लिए संजीवनी साबित हो सकती है। गोलान के बारे में ट्रंप के फैसले का रूस, सीरिया, ईरान और तुर्की आदि विभिन्न देशों ने विरोध किया है। सीरिया के मौजूदा गृह युद्ध में इन देशों की सीधी दखल है। ईरान ने कहा है कि वह इस फैसले को बेअसर करने के लिए कार्रवाई करेगा। सीरिया में एक दशक से गृह युद्ध का सामना कर रहे बशर-अल-असद ने सरकार के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में कुछ हद तक स्थिरता कायम की है। यह काम वह रूस, ईरान और लेबनान के उग्रवादी संगठन हिज्बुलाह की मदद से कर पाए। असद का सत्ता में बने रहना और सीरिया में ईरान और हिज्बुलाह की मौजूदगी को इस्राइल अपने लिए खतरा मानता है। इस्राइल में सोच यह है कि गोलान पर उसकी संप्रभुता का अमेरिका द्वारा मान्यता दिये जाने से इस क्षेत्र में भविष्य में होने वाली सैन्य कार्रवाइयों में उसे मदद मिलेगी। गोलान पहाड़ी क्षेत्र ऊंचाई के कारण रणनीतिक महत्त्व का है और इससे सीरिया और लेबनान पर निगरानी रखी जा सकती है।

यूरोपीय संघ सहित पश्चिमी देशों ने ट्रंप के फैसले का समर्थन करने से इनकार कर दिया है। उनका मानना है कि यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन है तथा इससे मौजूदा विश्व व्यवस्था में व्यवधान पैदा होगा। खुद अमेरिका के लिए यह मुश्किल होगा कि वह क्रीमिया पर रूस के कब्जे का विरोध करे अथवा यदि भविष्य में चीन कभी ताइवान पर अधिकार के लिए कार्रवाई करे तो उसके विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई के लिए समर्थन जुटा सके। भारत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। हालांकि वह फिलिस्तीन में इस्राइल की सैनिक कार्रवाई का विरोध करता रहा है। अमेरिका और उसके समर्थक अरब देश इन दिनों पश्चिम एशिया में शांति समझौते के लिए खाका तैयार कर रहे हैं। इस्राइल में आम चुनाव के बाद इस दिशा में ठोस प्रयास होने की आशा है। इसके पहले ही ट्रंप के फैसले और फिलिस्तीन के गाजापट्टी इलाके में संघर्ष की स्थिति दोबारा पैदा होने से वार्ता प्रक्रिया में नई रुकावट पैदा हुई है।

रणनीतिक महत्त्व के साथ-साथ गोलान इलाका आर्थिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। पानी की कमी का सामना करने वाले इस क्षेत्र के देशों के लिए उसका महत्त्व है। जोर्डन नदी गोलान की जीवन धारा है। यहां प्राकृतिक गैस और खनिज के भंडार भी हैं। इस्राइल इनका आर्थिक गतिविधियों के लिए उपयोग कर सकता है। चुनाव में यदि बेंजामिन विजयी होते हैं तो वह शांति समझौते के बारे में क्या रवैया अपनाते हैं, यह देखने वाली बात होगी। पर ट्रंप शायद ही इस मुददे पर लचीला रवैया अपनाएं। ट्रंप का मानना है कि गोलान पर कब्जा इस्राइल की सुरक्षा की गारंटी है। सुरक्षा की गारंटी मिलने पर इस्राइल फिलिस्तीन को कोई रियायत देगा,यह सोचना अतिआशावादिता ही कही जाएगी


Date:31-03-19

न्याय के बंद होते दरवाजे

अरविंद जैन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) की भाषा-परिभाषा के अर्थो में अनुसूचित जनजाति के सदस्य/नागरिक ‘हिंदू’ माने जाते हैं। हिंदुओं की जनसंख्या गिनने-गिनाने और वोट की राजनीति के लिए भी ‘हिंदू’ माने-समझे जाते हैं। लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम,1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और हिंदू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम,1956 की धारा 2(2) और हिंदू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम, 1956 की धारा 3(2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर ये अधिनियम लागू ही नहीं होते बशर्ते कि केंद्रीय सरकार इस संबंध में कोई अन्यथा आदेश सरकारी गजट में प्रकाशित ना करे। उपलब्ध सूचना और तयों के अनुसार आज तक इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने कोई आदेश/नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है। ‘एक देश, एक कानून’ के विकासशील दौर में भी शायद कानून मंत्रालय को यह आभास तक नहीं (हुआ) है कि अनुसूचित जाति के सदस्य संविधान में हिंदू हैं, मगर हिंदू कानूनों के लिए नहीं हैं?

उपरोक्त सभी हिंदू अधिनियमों के लिए, ‘हिंदू’ की परिभाषा में बौद्ध, सिख, जैन, उनकी वैध-अवैध संतान और धर्मातरण करके ‘हिंदू’ बने व्यक्ति भी शामिल माने जाएंगे। मगर अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों पर ये अधिनियम लागू नहीं होंगे। इसका मतलब यह कि हिंदू विवाह अधिनियम,1955 द्वारा लागू बहुविवाह, विवाह, विवाह विच्छेद, दतकत्ता, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, संरक्षता वगैरा के तमाम प्रावधान, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों पर लागू नहीं हैं। भारतीय संविधान और हिंदू कानूनों के बीच इस गंभीर अंतर्विरोध और विसंगति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानना-समझना जरूरी है। मिजोरम, मणिपुर, असम, मेघालय, त्रिपुरा में सैकड़ों जनजातियां, उप-जनजातियां हैं, जिनके विवाह, तलाक, उत्तराधिकार संबंधी अपने अलग-अलग रीति-रिवाज, नीति, प्रक्रिया, संपत्ति अधिकार हैं। कहीं पुरु षों के हित में और कहीं स्त्रियों के। कुछ समय पहले मिजोरम में पारंपरिक रिवाजों को कानूनी रूप देने की पहल हुई है, मगर बाकी प्रदेशों में यथास्थिति बनी हुई है।

सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हंसदा (एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट 938) केस में दोनों पक्ष अनुसूचित जनजाति से संबद्ध हैं, और हिंदू धर्म को मानते हैं परंतु सुप्रीम कोर्ट न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस और आर.पी. सेठी की खंडपीठ ने अपने निर्णय में कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम ही नहीं, भारत के किसी भी कानून में ‘हिंदू’ को परिभाषित नहीं किया गया है। न्यायमूर्तियों ने भगवान कोर बनाम जे.सी. बोस (1903) में प्रिवी काउंसिल के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था, ‘हम ‘हिंदू’ की कोई सामान्य परिभाषा देने का प्रयास नहीं करेंगे क्योंकि शब्द ‘‘हिंदू’ की व्याख्या/परिभाषा तय करना बेहद मुश्किल काम है। ‘हिंदू’ धर्म में व्यक्तिगत उपासना की असीमित आजादी है। यह कहना ज्यादा आसान है कि कौन ‘‘हिंदू’ नहीं है। सब जानते हैं मगर परिभाषित करना कठिन है।’ तमाम तकरे-वितकरे और कानूनी स्थिति को देखने के बाद खंड पीठ ने कहा कि उनका विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) के प्रकाश में इस कानून के दायरे से बाहर है। वो केवल संताल रीति-रिवाज से ही शाषित होंगे। हिंदू विवाह अधिनियम,1955 में दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है। पर इस कानून के तहत जब जनजाति के सदस्य हिंदू ही नहीं माने जाते या यह कानून उन पर लागू ही नहीं होता तो ऐसे में बहुविवाह के लिए उन्हें, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 (बहुविवाह) के तहत दोषी नहीं माना जा सकता। मजिस्ट्रेट और उच्च न्यायालय के फैसले को किसी भी दृष्टि से गलत नहीं कहा जा सकता।

हिमावती देवी बनाम शेट्टी गंगाधर स्वामी (एआईआर 2005 सुप्रीम कोर्ट 800) मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मुख्यं न्यायाधीश, जी.पी. माथुर और पी.के. बालासुब्रमंयनन ने चुनाव याचिका की अपील सुनने के बाद अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया कि अनुसूचित जनजाति के नागरिक अपने समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार (बहु) विवाह कर सकते हैं। चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह सीट जनजाति के लिए सुरक्षित थी। सुषमा उर्फ सुनीता देवी बनाम विवेक राय मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का भी यही मत है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिंदू विवाह अधिनियम,1955 लागू नहीं होता। (एफ. ए. ओ. (एच.एम.ए) 229/2014 निर्णय दिनांक 16 अक्टूबर, 2014)राजेन्द्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी, (2015) केस में झारखंड उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी. एन. पटेल और रत्नाकर भेंगरा ने विवाह विच्छेद मामले में संविधान के अनुच्छेद 366 और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) और सुप्रीम कोर्ट के ‘सूरजमणि’ फैसले का विस्तार से उल्लेख करने के बाद अपील खारिज़ कर दी। न्यायमूर्तियों ने कहा कि ‘मुंडा’ जनजाति के सदस्य हैं, सो मौजूदा संविधान के अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 का कोई भी प्रावधान उन पर लागू ही नहीं होता। यहां भी मुख्य आधार वही कि अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर, हिंदू विवाह अधिनियम,1955 लागू ही नहीं होता। भारत सरकार बनाम बाबुभाई असारी (2017) में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति नरीमन और संजय कृष्ण कौल ने अपील रद्द करते हुए कहा कि सीआरपीएफ का जवान जनजाति से है, अपने रस्म ओ रिवाज से तलाक के बाद दूसरा विवाह किया है तो कोई गैर-कानूनी काम नहीं किया है। सीआरपीएफ का नियम नम्बर 15 उस पर लागू ही नहीं होता, सो उसे नौकरी से हटाना उचित नहीं है । गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराते हुए अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार को ऐसी फिजूल की मुकदमेबाजी से बचना चाहिए।

विचारणीय मुद्दा यह है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों (देश की 8-9% आबादी) को कब तक मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर रखा (जाएगा) जा सकता है, कब तक पिछड़ा, रु ढ़िवादी, अनपढ़ और असभ्य बनाये रखा (जाएगा) जा सकता है? उन्हें कब तक हिंदू न्याय मंदिरों से खदेड़ कर ‘खाप पंचायतश्र के खूंटे से बांध कर रखा (जाएगा) जा सकता है? और क्यों? क्या इसका कोई मानवीय, न्यायिक विवेक और मान्य तर्क हो सकता है? क्या सबको समान नागरिक संहिता की छतरी तले लाना संभव है? एक तरफ परंपरा और पहचान के संकट हैं, और दूसरी तरफ बहुमत की वर्चस्ववादी नीतियों के दुष्परिणाम। शिक्षित-शहरी और साधन संपन्न जनजाति के सदस्य (विशेषकर स्त्रियां) भी उसी अतीत की बेड़ियों में जकड़े हैं। शहरों/महानगरों में रह रही अनुसूचित जनजाति की औरतें (पुरुष भी) न्याय के लिए कौन सी अदालत का दरवाजा खटखटाएं? इक्कीसवीं सदी के ‘न्यू इंडिया’ में ऐसे कानूनों के बारे में क्या कहा जाए!


Date:31-03-19

बेहद गरीब के लिए न्याय

पी. चिदंबरम

आखिरकार, एक राजनीतिक दल ने कुछ जरूरी कदम उठाने का साहस तो जुटाया। लंबे समय से हम इस मामले को टालते रहे, नैतिक तर्क का सामना करने से बचते रहे, और गरीबी दूर करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाने से बचने के लिए बहाने बनाते रहे। भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा हमेशा से गरीब रहा है। (मुझ पर देशद्रोही होने का आरोप लग सकता है)। आजादी के वक्त हम बहुत ही गरीब थे। तब प्रति व्यक्ति आय (उस वक्त के मूल्यों पर आधारित) दो सौ सैंतालीस रुपए थी। नौकरी तो बहुत ही कम लोगों के पास थी। ज्यादातर खेती-बाड़ी करते थे। साक्षरता सत्रह फीसद थी। जन्म के वक्त औसत उम्र बत्तीस साल थी। ये सब संकेतक बताते हैं कि तब व्यापक स्तर पर गरीबी फैली हुई थी। बहत्तर सालों में इन सारे संकेतकों में सुधार हुआ है। करोड़ों लोगों ने खेती छोड़ दी और संगठित क्षेत्र में रोजगार में लग गए। साक्षरता तिहत्तर फीसद है, औसत उम्र अड़सठ साल है और मौजूदा मूल्यों (2018) पर आधारित प्रति व्यक्ति आय एक लाख बारह हजार आठ सौ पैंतीस रुपए है।

चौंकाने वाले आंकड़े

हमें खुश होना चाहिए, और साथ ही शर्मिंदा भी कि आज भी लगभग पच्चीस करोड़ लोग बेहद गरीब हैं। अगर हम बेघरों, या जिनके पास जमीन का टुकड़ा भी नहीं है, या जो महीने में कई दिन पर्याप्त खाना भी नहीं खा पाते, या जिनके पास नियमित आय का कोई स्रोत नहीं है, की गिनती करें तो इतने ही लोग और निकल आएंगे। तार्किक रूप से तो हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि करोड़ों लोग गरीबी के अभिशाप से बाहर निकल चुके हैं। हर सर्वे में यह सामने आया कि 2004-05 से 2013-14 (यूपीए के शासन में) के दौरान कम से कम चौदह करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकले। एनडीए सरकार के शासन में भी कुछ और लोग गरीबी से बाहर आए होंगे, जबकि कई नोटबंदी की तगड़ी मार और खामियों भरे जीएसटी लागू होने से गरीबी रेखा से भी नीचे चले गए होंगे। मेरा अनुमान है कि एनडीए सरकार में अभी तक की यह संख्या खारिज हो गई है। अभी हमें आलोच्य अवधि के आंकड़ों का इंतजार करना होगा।

नतीजा यह निकलता है कि आबादी का बड़ा हिस्सा है जो गरीबी में रह रहा है। एक अनुमान के मुताबिक यह बीस से पच्चीस फीसद के बीच है। संख्या में देखें तो गरीबों की यह तादाद पच्चीस से तीस करोड़ के बीच होगी। आर्थिक सवाल यह है कि क्या हम इन लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए केवल आर्थिक विकास पर भरोसा कर सकते हैं? नैतिक सवाल यह है कि क्या इन लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए आर्थिक वृद्धि पर ही भरोसा कर लेना चाहिए ?

आर्थिक दिमाग, नैतिक दिल

आर्थिक सवाल का जवाब है, हां हम ऐसा कर सकते हैं। तेज वृद्धि संयोग से गरीबी को खत्म कर देगी। यह हमें एक ऐसी सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था बनाने की भी इजाजत देगी जिसमें निजी हादसे या कारोबारी नाकामी की वजह से गरीबी रेखा के नीचे जाने से किसी को भी सहायता देकर बचाया जा सके। लेकिन मुद्दा यह है कि इसमें कई साल लग सकते हैं और इसकी वजह से बेहद गरीब लोग इस दौरान गंभीर मुश्किलों का सामना करेंगे और अपमानित महसूस करेंगे। इसलिए, आर्थिक सवाल का जवाब पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं है। नैतिक सवाल का जवाब है- नहीं हम नहीं कर सकते। हमें वृद्धि से अलग हट कर देखना चाहिए और गरीबी मिटाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने चाहिए। एक कदम तो लक्षित आबादी तक सीधे नगदी हस्तांतरण का है जिसका अर्थशास्त्रियों और समाज विज्ञानियों ने व्यापक तौर पर समर्थन किया है। दरअसल, 2014 से 2017 के बीच मुख्य आर्थिक सलाहकार डा. अरविंद सुब्रह्मण्यम ने इस बारे में 2016-17 के आर्थिक सर्वे में पूरा भाग तैयार करके दिया था।

यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) पर कई सालों से बहस चल रही है। लोगों के लक्षित समूह तक सीधा नगदी हस्तांतरण यूबीआइ का एक परिवर्तित रूप है। लक्षित समूहों को नगदी हस्तांतरण की प्रायोगिक योजनाएं कई देशों ने चला कर देखने की कोशिश की। इस विषय पर काफी सामग्री है। सीधे नगदी हस्तांतरण के बारे में जो संदेह हैं उनका स्पष्ट जवाब मिल चुका है। कांग्रेस पार्टी ने जो न्यूनतम आय योजना (न्याय) घोषित की है, उसमें हर महीने / साल पांच करोड़ बेहद गरीब परिवारों को सीधे नगदी पहुंचाने का वादा किया गया है। इसमें लगने वाली राशि अच्छी खासी है, लेकिन आजादी के बहत्तर साल बाद भी क्या भारत को गरीबी खत्म करने के लिए इस तरह की योजना शुरू करनी चाहिए, इसका जवाब आर्थिक दिमाग और नैतिक दिल से दिया जाना चाहिए। मेरे विचार से, इसका सिर्फ एक जवाब हो सकता है- हां हमें ऐसा करना चाहिए, सारी चुनौतियों से निपटते हुए। एक अच्छी सरकार की खूबी यही है कि वह मुश्किल योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू कर दे, ऐसी योजना बंद करके नहीं, जो नैतिक रूप से जरूरी और आर्थिक रूप से संभव हों।

संसाधनों पर हक

पिछले पंद्रह साल में (मौजूदा मूल्यों पर) भारत की जीडीपी में वृद्धि हुई है। और आने वाले वर्षों में यह ग्यारह से बारह फीसद सालाना की दर से बढ़ेगी-2023-24 तक इसके 400,00,000 करोड़ रुपए तक पहुंच जाने का अनुमान है। 2018-19 में केंद्र व राज्य सरकारों का कुल खर्च साठ लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है और जैसे-जैसे हर साल राजस्व बढ़ेगा, यह खर्च भी बढ़ेगा। नैतिक-आर्थिक सवाल यह है कि सबसे गरीब बीस फीसद आबादी को गरीबी से बाहर निकालने के लिए क्या देश को अपनी जीडीपी का दो फीसद तक हिस्सा अलग नहीं रखना चाहिए। याद है, अमदाबाद और मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन परियोजना की लागत एक लाख करोड़ रुपए बैठेगी! कंपनियों के दीवालिया होने के मामलों में अब तक चौरासी हजार करोड़ रुपए बट्टे-खाते में डाले जा चुके हैं! यदि कुछ लोग इस तरह के उदारता भरे दान के ‘हकदार’ हैं तो फिर पांच करोड़ परिवारों (पच्चीस करोड़ लोग) जीडीपी या कुल खर्च के एक छोटे से हिस्से के हकदार क्यों नहीं हो सकते? देश के संसाधनों पर सबसे पहला हक गरीबों का है। कांग्रेस ने इस सिद्धांत को स्वीकार्य किया है और चुनौती रखी है