विधायिका की कमजोर होती शक्ति

Afeias
13 Jul 2016
A+ A-

CC 13-July-16

Date: 13-07-16

To Download Click Here.

गणतांत्रिक देशों में संविधान का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि शक्ति का केंद्रीकरण न हो सके।

हमारे देश में भी इसी तरह से विधायिका को विकेंद्रीकृत किया गया है। जो भी विधायिका बनाई जाती है, उसका काम होता है कि वह सरकार के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित कर सके। वस्तुतः विधायिका नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार के कामकाज पर निगरानी रखती है। उससे अपेक्षा भी की जाती है कि वह सरकारी एजेण्ट के तौर पर नहीं बल्कि जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करे।

 

कार्यकारिणी पर सवाल उठने के कारण

  • हाल ही में दिल्ली सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया है।
  • संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 में यह स्पष्ट लिखा गया है कि कोई भी सांसद या विधायक लाभ का पद नहीं ले सकता। इसका उद्देश्य यही था कि कोई सांसद या विधायक इस प्रकार लाभ का पद प्राप्त करके सरकार के दबाव में काम न करे, बल्कि स्वतंत्र होकर जनता की भलाई के लिए काम कर सके।
  • गौर करने की बात है कि मंत्रीगण भी कार्यकारिणी के सदस्य होते हैं। इनको संविधान में अपवाद के तौर पर रखा गया है। इसी तरह से संसद और विधानसभाओं में कुछ और भी नियुक्तियाँ अपवाद की श्रेणी में आती हैं।
  • संविधान के 91वें संशोधन में मंत्रियों की संख्या को सीमित करके सरकार पर नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश की गई। इससे संसद या विधानसभाओं में मुख्यमंत्री सहित केवल 15 प्रतिशत लोगों को ही मंत्री पद का प्रावधान रखा गया। दिल्ली के लिए संविधान के अनुच्छेद 239 एए में कुल विधायकों में से 10 प्रतिशत का ही प्रावधान है।
  • दिल्ली सरकार ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव का पद देकर संविधान की 10 प्रतिशत वाली सीमा को बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया है। इस पर दिल्ली सरकार ने अपना तर्क दिया है कि ये सचिव नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने में सरकार की मदद कर सकेंगे। लेकिन इन नियुक्तियों से शक्ति के विकेद्रीकरण का स्वरूप बिगड़ता है।
  • दलबदल विरोधी कानून से भी विधान मंडल की स्थिति कमजोर हुई है। सन् 1985 में हुए संविधान के 52वें संशोधन ने उनकी की क्षमता को बाँध दिया है। सत्ताधारी दल अपने सभी सांसदों को अपने किसी निर्णय के पक्ष में वोट देने को बाध्य कर सकता है।
  • सन् 1993 में केंद्र सरकार ने एमपीलैड्स (डच्स्।क्ै) शुरू किया, जिसके अनुसार प्रत्येक सांसद को अपने संसदीय क्षेत्र में कुछ कार्य करवाने के लिए एक सार्वजनिक कोष दिया जाने लगा। इसे राज्य सरकारों ने भी अपने यहाँ प्रारंभ कर दिया। इससे विधायिका को एक बार फिर से कमजोर किया गया। विधायिका को तो केंद्र एवं राज्यों के समस्त बजट एवं खर्चों पर निगरानी रखने का अधिकार है एवं यह उसका कर्तव्य भी है।

प्रजातंत्र में सांसदों एवं विधायकों की भूमिका गंभीर समालोचक की होनी चाहिए। ये सभी नागरिकों द्वारा चुनकर केंद्र एवं राज्यों में सरकार की कार्यप्रणाली को जनता के हित में बदलने की शक्ति रखते हैं, और इनकी इस भूमिका का कमजोर पड़ जाना प्रजातंत्र के लिए उचित नहीं माना जा सकता।

 

द हिंदू’ में प्रकाशित एम.आर. माधवन

के लेख पर आधारित