लोकसभा के अध्यक्ष की भूमिका
Date:15-07-19 To Download Click Here.
एक जागरुक संसद ही सुचारू रूप से चलने वाले प्रजातंत्र की नींव होती है। संसद की प्रभावशीलता का दारोमदार इसके पीठासीन अधिकारी पर होता है। सभी सांसद वाद-विवाद की सुविधा, उनके अधिकारों की रक्षा, और संसद की गरिमा को बनाए रखने के लिए इस अधिकारी पर निर्भर रहते हैं। हम बात कर रहे हैं, लोकसभा के अध्यक्ष की।
17वीं यानि वर्तमान लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला चुने गए हैं। अध्यक्ष के लिए बिना अवरोधों के लोकसभा की प्रक्रिया को चला पाना ही सबसे बड़ी और प्राथमिक चुनौती होगी। इसके लिए उन्हें सांसदों का विश्वास जीतना पड़ता है। विश्वास जीतने के लिए उसे अपनी धारणा और विचारों, दोनों को ही तटस्थ रखने की जरूरत होती है।
अध्यक्ष के तटस्थ रहने का मुद्दा ऐसा है, जिस पर भारत को 60 से अधिक वर्षों से जूझना पड़ रहा है। ब्रिटेन में इस पद पर बने रहने की शर्त ही निष्पक्षता है। पारंपरिक रूप से, अध्यक्ष के चुनाव के लिए कोई भी दल अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करता है। साथ ही यह भी प्रथा रही है कि अध्यक्ष चुने जाने के बाद वह पार्टी की अपनी सदस्यता छोड़ देता है।
लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी.मावलंकर को इस बात का अंदेशा था कि भारतीय प्रजातंत्र में निष्पक्षता की रक्षा कर पाना एक कठिन काम होगा। 1952 में लोकसभा में अपने पहले भाषण में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि एक बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद चुनाव क्षेत्र या लोकसभा में किसी भी दल द्वारा उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए।
1951 और 1953 में, विधायिकाओं के अध्यक्षों के भारत में सम्मेलन के दौरान ब्रिटिश परिपाटी को ग्रहण करने हेतु एक प्रस्ताव पारित किया गया था। मावलंकर ने सभी राजनीतिक दलों से इसे अपनाने की अपील की थी। परन्तु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली थी। 1954 में काँग्रेस कार्य समिति के निर्णय के समक्ष सबको नतमस्तक होना पड़ा कि अध्यक्ष की निष्पक्षता बनाए रखने के उसे निर्विरोध चुनाव लड़ने दिया जाए।
अपने कार्यकाल की निरंतरता की अनिश्चितता के कारण अध्यक्ष को आगामी सत्र के चुनावों के लिए अपनी पार्टी पर ही निर्भर रहना पड़ता था। इससे लोकसभा के कार्यकाल के दौरान उसपर अपनी पार्टी का दबाव पड़ने का पूरा अंदेशा रहता था।
1948 में जवाहरलाल नेहरू ने अध्यक्ष पर पड़ सकने वाले इस दबाव को रेखांकित किया था। विट्ठलभाई पटेल के चित्र का अनावरण करते हुए उन्होंने कहा था कि, ‘‘हम इस कुर्सी पर किसी ऐसे विशिष्ट व्यक्ति को बैठाना चाहते हैं, जो किसी भी संभव खतरे से हमारी स्वतंत्रता और स्वाधीनता की रक्षा कर सके, चाहे वह खतरा किसी कार्यकारी हमले का ही क्यों न हो। किसी भी राष्ट्रीय सरकार से कभी भी यह खतरा हो सकता है कि वह अल्पसंख्यकों के विचारों को नजरअंदाज कर दे, और ऐसी स्थिति में अध्यक्ष ही ऐसा है, जो प्रत्येक सदस्य या प्रत्येक समूह की रक्षा कर सके।’’
मावलंकर के अलावा लोकसभा के प्रत्येक अध्यक्ष को सर्वसम्मति से चुना गया। चुनाव के बाद अध्यक्ष को उनकी कुर्सी तक पहुँचाने के लिए सत्तादल और विपक्षी दल के नेता आगे आते हैं। इस परंपरा का यही अर्थ है कि चुने जाने के बाद अध्यक्ष को समस्त सभा का माना जाए। अगले पाँच वर्षों तक अध्यक्ष का व्यवहार सभी सदस्यों के प्रति निष्पक्ष हो। वह संसद की गरिमा की रक्षा के प्रति सतर्क हो, और उसे सशक्त करने की दृष्टि रखे। इस चुनौतीपूर्ण यात्रा में संविधान और लोकसभा की कार्यप्रणाली से जुड़ी नियमावली ही उसकी रोशनी होती है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित चक्षु रॉय के लेख पर आधारित। 19 जून, 2019