भारतीय कूटनीति और वैश्विक परिद्रश्य

Afeias
31 Aug 2017
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Date:31-08-17

 

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  पिछले कुछ समय में हुई प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं काफी प्रभावशाली रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने इन देशों की यात्राएं करके इनके साथ चलने वाले संबंधों में उत्साह का पुट डाल दिया है।

  • अपनी अमेरीका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने सतर्कता बरतते हुए विवादग्रस्त व्यापारिक मामलों को नहीं उठाया। उन्होंने मुख्यतः आतंकवाद विरोधी एवं सुरक्षा संबंधी समझौतों पर ही चर्चा की।
  • इजरायल में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली यात्रा थी। यात्रा का मुख्य उद्देश्य सुरक्षा समझौतों से जुड़ा था। दोनों देशों ने आतंकवाद का सामना करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई। हांलाकि दोनों देश भिन्न प्रकार के आतंकवाद का सामना कर रहे हैं। इज़रायल के दुश्मन ईरान और हिजबुल्लाह हैं, जबकि भारत के लिए लश्कर-ए-तय्यबा एवं अन्य आतंकवादी संगठन हैं।

इस अवसर पर दोनों देशों ने 4 करोड़ डॉलर की निधि से एक अन्वेषण मंच तैयार किया है। इस मंच के माध्यम से दोनों देशों के उद्यमी नई खोजों के द्वारा व्यापारिक प्रगति कर सकेंगे। चीन-इज़रायल के ऐसे समझौतों के समक्ष यह निधि बौनी प्रतीत होती है, क्योंकि भारत की तुलना में चीन इज़रायल का बहुत बड़ा निवेशक एवं व्यापारिक साझेदार है।

इन देशों के अलावा फिलहाल भारत की स्थिति को प्रभावित करने वालों में चीन और पाकिस्तान जैसे देश हैं।

  • एशिया में चीन अपना प्रभुत्व उन सभी स्थानों पर कायम करता जा रहा है, जहाँ कभी पहले अमेरीका का हुआ करता था। पूर्वी एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में पहले ही चीन का काफी प्रभाव है। अब वह दक्षिण के साथ-साथ पश्चिम एशिया में भी अपने पांव पसार रहा है। वर्तमान में, ईरान जैसे पश्चिम एशिया के देश पर चीन का जितना प्रभाव है, वैसा पहले कभी नहीं था, जबकि भारत की स्थिति वहाँ कमजोर होती जा रही है। चीन ने नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका एवं मालदीव जैसे भारत के कुछ पड़ोसी देशों को भी अपनी ओर मिला लिया है।
  • पाकिस्तान से भारत के विवाद जगजाहिर हैं। धीरे-धीरे भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता की समाप्त होती स्थितियाँ कोई शुभ संकेत नहीं हैं।

पाकिस्तान की अपनी घरेलू समस्याओं के चलते चीन पर उसकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। इससे दक्षिण एशियाई राजनीति में एक प्रकार का असंतुलन पनपने लगा है। इसमें सुधार के लिए भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो कुछ कर सकता है। परन्तु भारतीय कूटनीति को एक अन्य प्रकार के द्वंद्व का सामना करना पड़ रहा है।

  • एशिया एक रणनीतिक पुनरूत्थान के दौर से गुजर रहा है। चीन के साथ उसके बढ़ते संबंधों का प्रभाव एशिया पर पड़ना अपरिहार्य है। मुसीबत यह है कि पिछले पचास वर्षों में यही वह समय है, जब एशिया के साथ भारत के संबंधों में कमजोरी दिखाई दे रही है।
  • भारत की ‘एक्ट ईस्ट और लुक वेस्ट’ नीति ने भारतीय कूटनीति को एक नई दिशा दी है। परन्तु मुख्य रूप से पश्चिम एशिया में भारत अपनी भूमिका को उस प्रकार से सक्रिय नहीं रख सका है, जैसा कि होना चाहिए था। क्रूड आॅयल के लिए भारत की निर्भरता पश्चिम एशियाई देशों पर ही है। इसके बावजूद चीन और रशिया ने बाजी मार ली है। चीन-रशिया-ईरान की संधि फल फूल रही है और इन सबके बीच भारत एक किनारे पर रह गया है।

ऐसे समय में; जब पश्चिम एशिया के देश अरब एवं गैर अरब के बीच बंटे जा रहे हैं, भारत का इस क्षेत्र में प्रभुत्व कम होना दुर्भाग्यपूर्ण है। शिया देश ईरान एवं सऊदी अरब में विवादों की संभावना बढ़ती जा रही है। इन सबके बीच भारतीय कूटनीति पर गहरा असर पड़ने की संभावना है। क्षेत्र में अस्थिरता से इस्लामिक आतंकवाद के उग्र होने की भी संभावना है।

  • भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के बेहतर परिणाम मिले हैं। पूर्वी एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई वियतनाम एवं जापान जैसे देशों से भारत के संबंधों में सुधार हुआ है। हांलाकि तथ्यों से ऐसा प्रगट नहीं होता, परन्तु इस बात की संभावना है कि जापान के साथ भारत के संबंधों के कारण चीन पर अंकुश लगा रहता है।

अब भारत की राजनयिक क्षमता इस बात में है कि वह दबंग चीन, दुश्मन पाकिस्तान एवं अस्थिर दक्षिण और पश्चिम एशियाई देशों की राजनीति के बीच अपनी नैया पार करने का रास्ता ढूंढ ले। हो सकता है कि ऐसी विषम परिस्थितियों में भारतीय कूटनीति को कृत्रिमता का सहारा लेना पड़े।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एम.के.नारायणन के लेख पर आधारित।