भारतीय अर्थव्यवस्था में न्यायिक दुर्बलता
Date:19-02-19 To Download Click Here.
1991 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद से लगातार देश की अर्थव्यवस्था बढ़ती जा रही है। वर्तमान में भारत, विश्व की तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। वर्तमान सरकार की अनेक आर्थिक नीतियों ने इस विकास को और भी गति दी है। अर्थव्यवस्था की गाड़ी को चलाने वाले देश के संस्थान रूपी ईंजन को अभी तक उतना सशक्त नहीं बनाया जा सका है, जितना कि बना दिया जाना था। भारत एक प्रजातांत्रिक देश है, और उसके संस्थानों की नींव मजबूत है। समस्या यह है कि बढ़ती जनसंख्या और उससे बढ़ी मांग के अनुरूप इन संस्थानों का विकास नहीं किया गया है। इनमें हमारा न्यायिक तंत्र भी एक है, जो सक्षम कार्यप्रणाली का अभाव रखता है।
अर्थव्यवस्था में न्यायिक व्यवस्था का महत्व
किसी भी देश की बाजार अर्थव्यवस्था में न्यायपालिका के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं :
- सक्षम सूचना तंत्र का होना पहली शर्त है। इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग के साथ सूचनाओं में पारदर्शिता बढ़ी है।
- सूचनाओं के आदान-प्रदान में सक्षमता बढ़ाने की सार्थकता तभी है, जब हम आर्थिक विवादों का जल्द से जल्द निपटारा कर सकें। 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में इस प्रकार के लंबित पड़े मामलों को देखते हुए ‘टाइमली जस्टिस’ नामक एक पूरा अध्याय बना दिया गया है। आर्थिक मामलों के निपटारे के लिए देश के पाँच मुख्य उच्च न्यायालयों में औसत अवधि 3 वर्ष की है। न्याय के प्रशासनिक क्षेत्र में, केन्द्र और राज्य सरकारें, सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.08-0.09 प्रतिशत ही खर्च करती हैं। यह अत्यधिक कम है। 2017 में भारत ने न्याय व्यवस्था के लिए प्रतिव्यक्ति 0.24 रु. खर्च किए, जबकि अमेरिका ने 12 रु. खर्च किए।
- सभी आर्थिक अनुबंधों को एक निश्चित समय सीमा के अंदर प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए एक सशक्त न्यायिक तंत्र का होना बहुत जरूरी है। हमारे देश में आर्थिक विवादों का निपटान करने वाला आधिकारिक तंत्र ठीक से काम नहीं करता। अनुबंधों से जुड़ी पार्टियां या व्यक्ति पूरे तंत्र को धता बताकर सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देकर आगे बढ़ जाना चाहते हैं। लाइसेंस राज में यही होता रहा।
दरअसल, अर्थव्यवस्था में न्यायपालिका के महत्व को समझने की समस्या आर्थिक सिद्धांत से जुड़ी हुई है। हमारे देश में सुधारों का समर्थक अर्थशास्त्री वर्ग नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र को मानते है, जिसमें लेन-देन को लागत रहित माना जाता है। जबकि रिचर्ड कोज़े और डगलस नार्थ मानत हैं कि वास्तविकता में, किसी आर्थिक गतिविधि से जुड़े नियम-कानून ही यह बताते हैं कि कोई लेन-देन बिना लागत वाला है या नहीं। अर्थशास्त्र का यह नया सिद्धांत नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र के लागत रहित लेन-देन और सूचना में पूर्णता की दो मान्यताओं को चुनाती देता हुआ, बाजारू लेन-देन में लेन-देन की लागत कम करने हेतु संस्थाओं की भूमिका के महत्व को प्रतिष्ठित करता है। परन्तु हमारे देश में न्यू इंस्टीट्यूशनल अर्थशास्त्र को मानने वाले बहुत कम हैं।
अध्ययन बताते हैं कि राजनैतिक अर्थव्यवस्था में संस्थाओं को शक्तिशाली बनाने से राजनैतिक शक्तियों की सुविधा लेने वालों के लिए मुश्किल खड़ी हो जाती है। इसलिए वे ऐसा करना नहीं चाहते। अतः इसके लिए विपक्षी दलों को तत्पर एवं सजग रहना चाहिए। आर्थिक सीढ़ी के ऊपरी पायदान पर अपनी जगह बनाने के लिए भारत को सशक्त संस्थानों की बहुत जरूरत है। अन्यथा हमारा देश याराना पूंजीवाद की भूमि ही बना रह जाएगा।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित समीर मलिक और संजीव के लेख पर आधारित।