बोलने की स्वतंत्रता
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में इंडियन पीनल कोड की धारा 499 और 500 को संवैधानिक ठहराया है।
इन धाराओं में कुछ ऐसे कानून हैं, जो 70 वर्षों से यथावत चले आ रहे हैं। ये कानून आपराधिक निन्दा के बारे में है।
गौर करने की बात है कि अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत हमें बोलने की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार के रूप में दी गई है और अनुच्छेद 21 में दी गई जीने की स्वतंत्रता का इससे गहरा संबंध है।
अनुच्छेद 19(2) में यह कहा गया है कि अनुच्छेद 19(1) के कानून का किसी तरह का विपरीत प्रभाव नहीं डाल सकता।
हर व्यक्ति को सम्मान से जीने का अधिकार अनुच्छेद 21 देता है। सच भी यही है कि बोलने की स्वतंत्रता के माध्यम से अगर किसी के लिए अपमानजनक बात कही जाए या निन्दा की जाए, तो उसका प्रभाव व्यक्ति के सामाजिक अस्तित्व पर सीधे-सीधे पड़ता है।
न्यायालय ने भी इस बात को स्पष्ट किया है कि किसी की बोलने की स्वतंत्रता से दूसरे की ख्याति पर चोट नहीं पहुंचाई जा सकती।
किसी की नकारात्मक या अपमानजनक सच्चाई अगर समाज से जुड़ी न होकर व्यक्तिगत है, तो उसे उजागर होने से बचा जाना चाहिए।
सामाजिक भलाई के लिए किसी की की गई निंदा या सच्चाई को अपमान के लिए बने सिविल कानून में सुरक्षा दी गई है, और इसे इंडियन पीनल कोड के अनुच्छेद 499 की धारा 2, 3, 5, 6 और 9 में भी रखा गया है।
वाणी द्वारा किसी का अपमान एक अपराध है, और इस कानून को अधिक सशक्त बनाने की जरूरत है।
इंडियन एक्सप्रेस में अभिषेक सिंघवी एवं अनीश दयाल के संपादकीय पर आधारित