पूंजीवाद के अस्तित्व की रक्षा के लिए तर्कसंगत रवैया अपनाना होगा

Afeias
01 Jun 2017
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Date:01-06-17

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  • हाल ही में इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने कंपनी के मुख्य परिचालन अधिकारी की वेतनवृद्धि को असंगत बताया है। उनका कहना है कि जहाँ कंपनी के अन्य कर्मचारियों को वेतन में 6-7% की वृद्धि दी गई है, वहाँ कंपनी के मुख्य परिचालन अधिकारी (COO) को 60-70% की वृद्धि देने से कंपनी के प्रबंधन पर से कर्मचारियों का विश्वास उठ जाएगा। इंफोसिस ने उनकी इस आशंका का खंडन करते हुए इस बढ़ोतरी को उचित बताया है। कंपनी का कहना है कि मुख्य संचालन अधिकारी इस वेतन वृद्धि के योग्य हैं। श्री मूर्ति ने कंपनी के न्यूनतम और अधिकतम वेतन के बीच एक तर्कसंगत अनुपात बनाने के लिहाज से प्रबंधन को चर्चा के लिए आमंत्रित किया है। उनका मानना है कि यदि इस अनुपात को तर्कसंगत ढंग से सहानुभूतिपूर्ण नहीं रखा जाएगा, तो पूँजीवाद का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
  • श्री मूर्ति की इस आशंका से उन्नत अर्थव्यवस्था में वेतन को लेकर होने वाला वाद-विवाद फिर से गर्मा गया है। इस अर्थव्यवस्था में उच्च पदों पर बैठे प्रबंधकों पर वेतन वृद्धि की बारिश अक्सर होती ही रहती है। अगर हम 2008 की आर्थिक मंदी पर एक नज़र डालें, तो उसके लिए धनी देशों में उच्च पदों पर बैठे इन प्रबंधकों को काफी हद तक दोषी करार दिया जा सकता है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अधिनियम बनाकर अमेरिकी कंपनियों को सीईओ से लेकर औसत कर्मचारी के वेतन को ऊजागर करना अनिवार्य कर दिया था। ब्रिटेन भी इसी प्रकार का कानून बनाने का इच्छुक है।विश्व के सबसे बड़े निवेशक ब्लैक रॉक ने सभी कंपनियों के चेयरपर्सन्स को यह लिखा है कि वह उच्च पदस्थ अधिकारियों के वेतन में तब तक वृद्धि नहीं करेगा, जब तक कि उसके कर्मचारियों के वेतन में भी उस अनुपात से वृद्धि नहीं होती।
  • भारत में अभी मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (CEO) के वेतन पर खुलकर बहस होना बाकी है। हालांकि सूचीबद्ध कंपनियों ने 2015 से वेतन अनुपात को ऊजागर करना शुरू कर दिया है। लगभग 38 कंपनियों का वेतन अनुपात 237 है। ऐसा लगता है कि मुख्य कार्यकारी अधिकारी को इतना वेतन देने के पीछे कारण यही है कि उसे जल्दी बदला नहीं जा सकता। इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों के ऊपर उत्तरदायित्व भी अधिक होता है। बड़ी कंपनियों के स्टार सीईओ के साथ तो यही सच लागू होता है। सच्चाई यही है कि ऐसे सीईओ की मांग के हिसाब से पूर्ति बहुत कम है।ऐसा होने के बावजूद उच्च स्तरीय मैनेजर के लिए पद हासिल करना आसान नहीं है। कॉर्पोरेट में इन पदों के लिए उत्पादकता से अर्जित लाभ से ज़्यादा संचालन के स्तर के अनुसार उम्मीदवार का चयन किया जाता है। जरूरी नहीं चुना जाने वाला व्यक्ति परिश्रमी हो।
  • ज्यादातर इस बात को महत्व दिया जाता है कि वह किस संस्था से पढ़ा है या उसके संपर्क सूत्र कैसे हैं। भारतीय कॉर्पोरेट संस्कृति में इसी बात का महत्व अधिक है।भारतीय कंपनियों पर संस्थापकों का प्रभुत्व बना रहता है। इन परिवारों के पदाधिकारियों को वेतन के अलावा शेयर होल्डर होने की वजह से डिवीडेन्ट के रूप में अतिरिक्त धन मिल जाता है। रिलायंस कंपनी के चेयरमैन मुकेश अंबानी का वेतन 15 करोड़ रु. सालाना है। लेकिन दूसरी ओर उन्हें और उनके परिवार को डिवीडेन्ट के रूप में 1,000 करोड़ से भी ज़्यादा मिल जाते हैं।इंफोसिस भारत की प्रशंसनीय कंपनियों में से एक है। वेतन मामलें में कंपनी का बोर्ड नारायण मूर्ति की राय से असहमत है। लेकिन एक बात जो इंफोसिस को स्वयं से पूछनी चाहिए कि प्रारंभ से लेकर अब तक हुई कंपनी की अद्भुत प्रगति का कारण मूर्ति के सिद्धाँत रहे हैं या नहीं ?
  • पूंजीवाद पर यह बहस पश्चिम में भी चल रही है, जिसके मूल में यही प्रश्न है। संरक्षणवाद की राजनीति इसलिए ही शुरू की जा रही है। दूसरा तरीका, मूलभूत आय का अपनाया जाना है।वैश्विक मंदी के दौर को विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत ने बेहतर तरीके से संभाला है। लेकिन 2008 से रोज़गार की गति धीमी ही है।

इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित पूजा मेहरा के लेख पर आधारित।