पिंजड़े को तोड़ना जरूरी है
Date:11-12-18 To Download Click Here.
केन्द्रीय जाँच ब्यूरो या सीबीआई भारत की प्रमुख जाँच एजेंसी है। यह आपराधिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के मामलों की जाँच करने के लिए गठित की गई है। राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों की जाँच करते हुए सीबीआई को अनेक बार विवादों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। महत्वपूर्ण मामलों में सी बी आई ने सदा ही सरकार का अनुसरण किया है। यही कारण है कि इसे ‘पिंजरे में बंद तोते’ की संज्ञा भी दी गई है। पहली बार ऐसा हुआ है कि अपने ही अधिकारियों की आपसी तनातनी में सीबीआई दलदल में धंसती नजर आ रही है।
बहुत समय से उच्चतम न्यायालय, सीबीआई को राजनैतिक दबावों से अलग रखने का प्रयास कर रहा है। इसी प्रक्रिया में उसे स्वायत्तता प्रदान की गई।
- 1998 में विनीत नारायण बनाम केन्द्र सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निश्चित कर दिया था कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त, अन्य सतर्कता आयुक्तों, गृह सचिव एवं सचिव (कार्मिक विभाग) की एक संयुक्त समिति करेगी। निदेशक का कार्यकाल कम से कम दो वर्ष का होगा।
- सीबीआई के ऊपर नजर रखने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग को अधिकृत किया गया था। इस प्रकार की निगरानी या जाँच-पड़ताल का काम भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत किया जा सकता था।
ऐसा आदेश देने वाले न्यायमूर्ति वर्मा ने 2009 में सीबीआई पर एक बार फिर से टिप्पणी करते हुए कहा था कि, ‘‘शक्तिशाली व्यक्तियों के विरुद्ध चलने वाले मामलों में सीबीआई, अभी भी लोगों को निराश कर रही है।’’
2013 में लोकपाल अधिनियम के अंतर्गत सीबीआई के निदेशक की चयन प्रक्रिया को बदलते हुए चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित उच्चतम न्यायालय के कोई न्यायाधीश को रखा गया।
ऐसी ही समिति ने आलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक के रूप में नियुक्ति की थी। 2017 में सीबीआई के विशिष्ट निदेशक के पद पर राकेश अस्थाना की नियुक्ति पर आलोक वर्मा ने विरोध किया था, क्योंकि अस्थाना की छवि साफ नहीं थी। सीबीआई में समस्या यहीं से शुरू हो गई। वर्तमान में चल रही इस समस्या का समाधान तो शायद न्यायिक हस्तक्षेप से संभव हो सकेगा, परन्तु दूरगामी स्थिरता के लिए सीबीआई में कुछ संचरनात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता है।
(1) देश की प्रमुख जांच एजेंसी का गठन 1963 में एक प्रस्ताव पारित करके किया गया था। इसमें संस्था को जाँच करने के अधिकार, 1946 के दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट के तहत दिए गए थे। 1948 में एल पी सिंह समिति ने किसी शक्ति-संपन्न केन्द्रीय जाँच एजेंसी के गठन की सिफारिश की थी। 2007 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने सीबीआई की कार्यप्रणाली के लिए एक नया कानून लाने की जरूरत पर जोर दिया था।
(2) संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 19वीं और 24वीं रिपोर्ट में सीबीआई को कानूनी आदेश, बुनियादी ढांचों और संसाधनों की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली बनाने की सिफारिश की थी। 24वीं रिपोर्ट में तो सीबीआई के पक्ष में उसे अपराधों पर स्वतः संज्ञान लेने के अधिकार की वकालत की गई थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि ऐसा होने पर हमारे देश के संघीय ढांचे पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा।
सीबीआई को संपूर्ण भारत में जाँच और कानूनी आदेश का अधिकार जल्द से जल्द दिया जाना चाहिए। उसे भारतीय सेवा के अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच-पड़ताल का अधिकार तुरन्त प्रभाव से दिया जाना चाहिए। इसमें राज्यों की सीमाओं को आड़े नहीं आने देना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह सीबीआई की संस्थागत अखंडता को बहाल करे एवं उसे अपेक्षित स्वायत्तता प्रदान करे। तभी इस संस्था के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ सकेगा।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रकाश सिंह के लेख पर आधारित। 30 अक्टूबर, 2018