उच्च शिक्षण संस्थानों को धन के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए
Date:23-10-17
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हाल ही में केन्द्र सरकार ने भारत में 20 विश्व स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थानों के निर्माण हेतु 10,000 करोड़ का प्रावधान रखा है। परन्तु शिक्षण संस्थानों या ज्ञान के माध्यम से समाज को समृद्ध बनाने के लिए केवल इतना करना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए हमें एक ऐसा पारिस्थितिकीय तंत्र बनाने की आवश्यकता है, जो ज्ञान का संवहन कर सके। उच्च शिक्षण संस्थान ऐसे ही ज्ञान के संवाहक होते हैं, जिनसे देश की उत्पादकता एवं समृद्धि में बढ़ोत्तरी होती है।
सन् 1960 तक अमेरिका के अर्थशास्त्री केनेथ एरो और रॉबर्ट सॉलो ने सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया कि विकास और उत्पादकता का नाता केवल पूंजी और श्रम से नहीं है। उन्होंने आर्थिक तंत्र में ज्ञान की भूमिका को पहचाना। अब आज दीर्घकालिक विकास में ज्ञान पर आधारित एवं उच्च तकनीक आधारित सेवाओं का ही सबसे ज्यादा योगदान दिखाई दे रहा है। इस मामले में पूरे विश्व में अमेरिका की 33 प्रतिशत, चीन की 10 प्रतिशत एवं भारत की मात्र 2 प्रतिशत भागीदारी है। उच्च तकनीक आधारित सेवाओं के क्षेत्र में शायद भारत का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
किसी समाज को समृद्ध तभी बनाया जा सकता है, जब वहाँ ऐसे सशक्त संस्थान हों, जो सूचना तंत्र, योजना निर्माण, शोध-अनुसंधान, शिक्षण के साथ-साथ लोगों में विश्वास और आशा जागृत कर सकें। किसी भी देश के सशक्त संस्थान ज्ञान रूपी सम्पत्ति देकर जानकारी प्राप्त करने का उन्मुक्त वातावरण बनाकर एवं ऐसा प्रयोगात्मक वातावरण तैयार करके एक ऐसे पारिस्थितिकीय तंत्र का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ विचारों पर लगातार प्रयोग किए जा सकें, क्योंकि विचारों का निरन्तर मूल्यांकन आवश्यक होता है।
तत्पश्चात् इन संस्थानों को उपलब्ध किए जाने वाले धन की बात आती है। इसके लिए हमें अकादमिक शोध संस्थानों एवं इनके प्रयोगों के उपभोक्ताओं के बीच एक संपर्क का पुल बनाना होता है। भारत में इस तंत्र की कमी है।भारत के सकल घरेलू उत्पाद में शोधों के लिए बहुत कम स्थान रहता है। यही कारण है कि भारत के विद्वान इस ओर कम रुझान रखते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि 2013 के विज्ञान संबंधी शोध सामग्री प्रकाशन के क्षेत्र में पूरे विश्व में भारत का 4.4 प्रतिशत योगदान रहा। इन शोधों को भी तकनीक रूप में परिणत नहीं किया जा सका। इस समस्या से निपटने का सबसे अच्छा रास्ता यही है कि सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रोजेक्ट आधारित मूल्यांकन को बढ़ावा दिया जाए।
इन सबके साथ विश्वविद्यालयों एवं उद्योगों के बीच ऐसा अंतर्सबंध हो कि वहाँ कर्मचारियों की अदला-बदली की जा सके। ऐसा संभव होने में दो अड़चनें बनी रहती हैं – (1) सरकारी महकमे में सेवाओं का स्तर बहुत ही पिछड़ा हुआ है। अन्य विभागों से आने वाले कर्मचारियों के साथ न्याय नहीं हो पाता। (2) निजी एवं सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों के बीच एक भेद की दीवार सी बनी हुई है। जबकि आईआईटी, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल, वेल्लोर आदि ऐसे सरकारी व निजी संस्थान हैं, जिनसे निकलने वाले स्नातकों में शायद ही कोई भेद दिखाई देता हो।
सार्वजनिक संस्थानों को नियुक्ति एवं बर्खास्तगी के मामले में अधिक स्वायत्तता देने की आवश्यकता है।
संस्थानों को अनुदान दिए जाने के बाद उनके उपयोग पर नजर रखी जानी चाहिए।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित मीता राजीव लोचन एवं राजीवलोचन के लेख पर आधारित।