जल ही जीवन है।

Afeias
18 Oct 2017
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Date:18-10-17

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हम जानते हैं कि हमारी नदियां हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यहाँ तक कि हमने उन्हें माँ और जीवनदायिनी जैसा भी माना है। इसका कारण यही है कि हमारी सभ्यता नदी किनारे ही जन्मी और पोषित की गई है। परन्तु जनसंख्या की अतिवृद्धि और विकास के दबाव ने हमारी नदियों और भू-जल की दुर्दशा कर दी है। अब हमें गलत योजनाओं और उपेक्षा से जन्मी नदी, प्रकृति एवं मानव-जीवन के बीच की विषमता को खत्म करना ही होगा।

  • सिंचाई में 80 प्रतिशत पानी की खपत होती है। इसके अलावा पीने, उद्योग एवं ऊर्जा क्षेत्र में भी जल की खपत होती है। फसल योजना में बदलाव, पानी की बर्बादी को रोकने एवं नवीनीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देकर कुछ हद तक समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  • पूरे विश्व में प्रतिव्यक्ति वार्षिक व्यय के लिए 1951 में 5177 क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध था, जो अब 1545 क्यूबिक मीटर रह गया है। राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान ने अनुमान लगाया है कि भारत में 2010 में प्रति व्यक्ति 938 क्यूबिक मीटर जल उपलब्ध था जो 2015 में घटकर 814 क्यूबिक मीटर रह जाएगा।
  • पानी की समस्या से निपटने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना पर विचार चल रहा है। इससे एक नदी का अतिरिक्त जल दूसरी नदी में स्थानांतरित हो सकेगा। इस योजना से कई प्रकार की हानियां भी हैं। केन-बेतवा को जोड़े जाने से 10,000 हेक्टेयर की वन भूमि जलमग्न हो जाएगी। इसमें से आधी तो पन्ना बांध संरक्षण क्षेत्र की भूमि है।
  • रैली फॉर रिवर्स अभियान ने नदी के आसपास के एक किलोमीटर क्षेत्र को वृक्षारोपण के लिए संरक्षित करने का प्रस्ताव रखा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे वृक्षारोपण कार्यक्रम से पर्यावरणीय, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ होंगे।
  • औद्योगिक कचरे तथा नगरों के अपशिष्ट निष्कासन से नदियों को बचाया जाना चाहिए।
  • थर्मल ऊर्जा के उत्पादन पर भी नजर रखी जानी चाहिए।
  • सरकार की नमामि गंगे योजना को सक्रियता से काम करके परिणाम प्रदर्शित करने चाहिए।

जल की समस्या राज्य सरकारों से जुड़ा विषय है। इसलिए इसके लिए प्रयास भी उनकी ओर से किए जाने चाहिए। अन्यथा हम बूँद-बूँद को तरसेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के संपादकीय पर आधारित।

 

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