ईज़ ऑफ डुईंग बिजनेस (Ease of Doing Business)

Afeias
30 Nov 2016
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83ipk416Date: 30-11-16

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ईज़ ऑफ  डुईंग बिजनेस की विश्व बैंक की सूची में भारत को दो वर्ष में ही 131वें स्थान से उठाकर 50वें स्थान पर लाने का प्रधानमंत्री का सपना पूरा होता नहीं दिख रहा है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने नौकरशाही को कारण बताओ जैसे आदेश जारी किए हैं। साथ ही उन्होंने लक्ष्य को हासिल करने के लिए सुझाव भी मांगे हैं।

ऐसा लगता है कि ईज़ ऑफ  डुईंग बिजनेस के विश्व बैंक के पैमाने को आधार बनाना ही गलत है। इसके तीन कारण हैं

  • विश्व बैंक का सूचकांक बहुत ही संकुचित डाटा पर आधारित है। (इसमें केवल दिल्ली और मुंबई को शामिल किया गया)
  • भारत में व्यवसाय की जटिल प्रक्रिया और विश्व बैंक की अति सरल प्रक्रिया में बहुत ज्यादा भेद है।
  • .अंक हमेशा सही चित्रण नहीं कर सकते। इनके पीछे छिपी वास्तविकता कुछ और ही होती है।

अतः प्रधानमंत्री को चाहिए कि अपने अधिकारियों से ऐसी ईज़ ऑफ डुईंग बिजनेस नीति तैयार करने को कहें, जो पूर्णतः देशी पैमाने पर आधारित हो। ऐसी नीति, जो सरकार की वरीयता सूची में उच्च स्थान रखने वाले क्षेत्र और व्यवसायों में निवेश को आकर्षित कर सके। अगर प्रधानमंत्री ऐसा करते भी हैं, तो भी संपत्ति का पंजीकरण, निर्माण कार्य की अनुमति, कर अदायगी आदि ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं, जहाँ केन्द्र की पकड़ बहुत कम होती है। ये सभी मामले राज्य सरकारों से संबद्ध हैं। जब तक राज्य सरकारें इन क्षेत्रों में सरलता नहीं लातीं, तब तक अकेला केन्द्र कुछ नहीं कर सकता। तलंगाना और आन्ध्रप्रदेश-? दो ऐसे राज्य हैं, जिन्होंने ईज़ ऑफ डुईंग बिजनेस में सर्वाधिक सफलता प्राप्त की है। पश्चिम बंगाल, बिहार और राजस्थान भी इसी कड़ी में आगे बढ़ रहे हैं।

यहाँ दो तरह के सवाल उठ खड़े होते हैं, जिन पर सरकार को सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है।

  • निवेश बढ़ाने के लिए सरकार की नीति क्या होनी चाहिए? तथा
  • निवेश योग्य क्षेत्रों में ईज़ ऑफ डुईंग बिजनेस की राह में क्या मुश्किलें हैं और उन्हें कैसे हटाया जाए?

पहला, सरकार श्रम आधारित उद्योगों एवं स्वच्छ ऊर्जा के विकास के क्षेत्र में सबसे ज्यादा निवेश आकर्षित कर सकती है। ये दोनों ही क्षेत्र ऐसे हैं, जो भारत को विश्व से अलग खड़ा करते हैं। इन दोनों क्षेत्रों में भारत के पास संसाधन हैं।इसमें कोई शक नहीं कि हमारे पास निवेश के लिए अन्य क्षेत्र भी हैं। बुनियादी ढांचे; जैसे-सड़क, मकान, बंदरगाह आदि के अलावा सामाजिक क्षेत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा, जल जैसे क्षेत्र भी निवेश की मांग रखते हैं। वितरण प्रणाली में कैश ट्रांसफर का क्षेत्र भी निवेश योग्य है। लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश करने का लाभ कम है। दूसरे इन क्षेत्रों में निवेश के लिए बैंक ऋण सीमा बढ़ाने को तैयार नहीं होते। बैंक भी जब तक 2003-11 तक के ऋणों की भरपाई नहीं कर लेते, वे ऋण सीमा बढ़ाने की स्थिति में नहीं होंगे।

इसका अर्थ यही है कि सरकार को ऐसे क्षेत्रों को ही निवेश की वरीयता सूची में रखना होगा, जहाँ बाधाएं कम से कम हों।दूसरा प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। सभी जानते हैं कि भारत में व्यवसाय करना बहुत कठिन है। अगर हम निवेश के लिए श्रम आधारित उद्योगों और ऊर्जा क्षेत्र को प्राथमिकता पर रखते हैं, तो पूंजी के अबाध प्रवाह के लिए कुछ मुख्य बाधाओं को दूर करना होगा-

  • भूमि अधिग्रहण की व्यवस्था को दलालों से मुक्त करना होगा। हमारे देश में भूमि संबंधी दस्तावेज बहुत उलझाव भरे हैं। जगह-जगह मौजूद भू-माफियाओं को राजनैतिक और नौकरशाही की शरण मिली हुई है। इन सबसे बाहर निकलकर भूमि की उपलब्धता को सरल बनाना होगा।
  • बुनियादी ढांचे; जैसे-मकान, बिजली, पानी, सड़क आदि में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। अगर किसी भी निवेशक को ये बुनियादी सुविधाए ही नहीं मिल पाएंगी, तो स्पष्ट रूप से उत्पादन की लागत बढ़ेगी और प्रतिस्पर्धा में कमी आएगी।
  • मुद्रास्फीति की स्थिरता, बौद्धिक संपदा कानून में खामियां, समझौतों में स्पष्टता एवं प्रतिबद्धता की रक्षा आदि कुछ ऐसे बिन्दु हैं, जिन पर अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है। अगर हम इन क्षेत्रों में अपनी नीतियां बेहतर कर लेते हैं, तो शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र के लिए तकनीकी केन्द्रों की स्थापना हेतु निवेश को भी आकर्षित कर सकेंगे।

इन तीन बिन्दुओं पर काम करते हुए सरकार को इन क्षेत्रों के प्रगति रिकार्ड पर कड़ी नजर रखनी होगी। भूमि-दस्तावेजों का डिजीटलीकरण, पानी की उपलब्धता, उत्पादन क्षेत्र से बंदरगाह तक की यात्रा अवधि का समय, कुशल श्रमिकों की उपलब्धता तथा कर संबंधी नियम आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सतत सुधार कार्य की आवश्यकता है।इनके प्रगति कार्य की निगरानी के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के किसी तीसरे दल को नियुक्त किया जाना चाहिए। यह दल समय-समय पर इसकी प्रगति रिपोर्ट बनाकर उसे सार्वजनिक करे।

इस पूरी प्रक्रिया में विश्व बैंक की अनदेखी करना भी उचित नहीं है। बात सिर्फ यही है कि हमें अपनी नीतियां विश्व बैंक के सूचकांक के इर्द-गिर्द तैयार न करके देशी सूचकांक पर तय करनी होगी।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित विक्रम एस. मेहता के लेख पर आधारित।