अवमानना और भावना

Afeias
02 Sep 2020
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Date:02-09-20

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हाल ही में , उच्चतम न्यायालय ने एडवोकेट प्रशांत भूषण को उनके दो ट्वीट में न्यायालय की अवमानना का दोषी ठहराया है। न्यायालय ने अपने निर्णय में कुछ नया नहीं कहा है। लेकिन उसका यह फैसला अवमानना कानून की सार्थकता पर सवाल उठाता है। सवाल यह है कि न्यायधीश अपनी आलोचना को किस नजरिए से देखते हैं। दूसरे , भारतीय न्यायालयों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम निंदा को किस तरीके से लिया जा रहा है।

न्यायालय की अवमानना के विरूद्ध प्रावधान –

  • संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 , उच्चतम और उच्च न्यायालय को उनकी अवमानना करने वाले को दंडित करने का अधिकार देते हैं।
  • अनुच्छेद 142 में भी ऐसा प्रावधान है।
  • न्यायालय की अवमानना अधिनियम , 1971 में उच्च न्यायलय को अधिकार दिया गया है कि वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना करने वालों को दंडित कर सकता है।

न्यायालय के मुख्य तर्क

  • न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि प्रशांत भूषण के ट्वीट ने वास्तव में न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं किया है। इसके लिए न्यायालय के पूर्व निर्णयों को आधार बनाया गया है।
  • 1953 के ब्रह्म प्रकाश शर्मा मामले में एक संविधान पीठ ने कहा था कि इसकी पुष्टि करने के लिए जरूरी नहीं है कि न्याय-प्रशासन के साथ वास्तविक हस्तक्षेप हुआ हो। न्यायालय को बदनाम करने की नीयत से न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करना भी दंडनीय है।
  • न्यायालय के विरूद्ध ऐसी टिप्पणियों को ; जो आम जनता में उसके प्रति निष्ठा को धूमिल करने का प्रयास करती हो , अवमानना की श्रेणी में माना जाएगा।
  • न्यायालय को अपमानित करने का एक साधारण तरीका , किसी न्यायाधीश के प्रति अभद्रता दिखाना भी हो सकता है। इसके लिए न्यायालय को स्पष्ट करना चाहिए कि न्यायाधीश की अवमानना उनके पद को लेकर की गई है या व्यक्तिगत स्तर पर की गई है।

न्यायालय के निर्णयों का विरोधाभास और मनमाना रवैया –

  • न्यायालय को अपमानित करने की टिप्पणी को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • न्यायालय ने न्यायाधीशों के प्रति की गई निष्पक्ष आलोचना , जो सार्वजनिक हित में हो , को अवमानना से बाहर रखा है।
  • 2018 में उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर , मुख्य न्यायाधीश और न्यायालय के कामकाज के तरीके को दोषपूर्ण बताया था , जिसे अवमानना की श्रेणी से अलग रखा गया।
  • संविधान के अनुच्छेद 145(3) के अनुसार संविधान की व्याख्या जैसे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का निर्णय करने के लिए पाँच न्यायाधीशों का फोरम पूरा किया जाना चाहिए। इस मामले में तीन सदस्यीय संविधान पीठ ने ही निर्णय दे दिया।

अन्य प्रजातंत्रों के उदाहरण –

  • इंग्लैड में अवमानना प्रक्रिया पर आखिरी बहस 1930 में की गई थी। वर्तमान में इसे पूरी तरह से हटा दिया गया है।

वहाँ के न्यायाधीश द्वेषरहित भावना से की गई निंदा या अपमान को कोई तूल ही नहीं देते हैं।

  • अमेरिका में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना गया है।

2018 में भारत के विधि आयोग ने अपनी 274वीं रिपोर्ट में अवमानना कानून को चलाने की सिफारिश की थी , क्योंकि इस प्रकार के मामलों की बड़ी संख्या सामने आई थी।

अवमानना कानून को समस्याग्रस्त क्यों माना जाता है ?

न्यायाधीश स्वयं अभियोजक और पीडित के रूप में कार्य करता है , और निर्दोषता के बजाय अपराध के अनुमान के साथ कार्यवाही शुरू करता है।

ब्रिटिश जज लॉर्ड डेनिंन ने कहा था कि “अवमानना निस्संदेह हमारे लिए हैए लेकिन हम इसको सबसे अधिक प्रयोग में लाएंगे। इस अधिकार क्षेत्र का उपयोग कभी भी हमारी गरिमा को बनाए रखने के लिए नहीं करना चाहिए। न ही इसका इस्तेमाल उन लोगों को दबाने के लिए करना चाहिए , जो हमारे खिलाफ बोलते हैं। हम आलोचना से डरते नहीं है , और न ही इससे नाराज होते हैं”।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 15 अगस्त , 2020