ये कैसा लोकतंत्र ?

Afeias
12 Oct 2020
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Date:12-10-20

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संयुक्त राष्ट्र ने 15 सितंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है। इसके पीछे की अवधारणा को व्यक्त करते हुए लिखा गया है कि यह दिवस ‘दुनिया में लोकतंत्र की स्थिति की समीक्षा करने का अवसर प्रदान करता है।’ भारत में नित नई आ रही चुनौतियों के मद्देनजर लगता है कि हमें वार्षिक रूप से मनाए जाने वाले स्वतंत्रता दिवस उत्सव की जगह इनसे निपटने पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए हमें एक उपयुक्त मानदंड अपनाने की आवश्यकता होगी।

एक आंशिक मूल्यांकन

औपचारिक रूप से , भारत एक लोकतंत्र है। यहाँ होने वाले बहुदलीय चुनाव , केवल एक उम्र को मताधिकार से प्रतिबंधित करते हैं। भारत के लोकतंत्र के मूल्यांकन में , यह माना जाता है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। चुनावों के बाद सरकार को बदलने के लिए सहज मार्ग ,स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका के अस्तित्व और कानून में न्यायोचित नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है। यह एक मान्य अवलोकन है। लेकिन अगर आंशिक मूल्यांकन को आधार बनाकर देखा जाए , तो एक हद तक यह सामाजिक आर्थिक परिणामों की चिंता किए बिनाए सरकार की स्वयं की प्रशंसा करने का रास्ता ही दिखाता है। यह एक अत्यधिक सुन्दर भवन को निहारने के समान है , जिसके निवासियों की मन: स्थिति के बारे में कोई ज्ञान न हो।

दुनिया के अनेक लोकतंत्रों के रूप अलग-अलग दिखाई देते हैं। उदाहरण के रूप में हम नागरिकों द्वारा दिए गए जीवन संतुष्टि के स्तरों को पैमाने के रूप में ले सकते हैं। इसको गंभीरता से लिया जाना चाहिए , क्योंकि यह लोगों की धारणाओं पर आधारित है। यह सबसे ज्यादा मायने रखती है , क्योंकि इसमें उनकी जरूरतों के लिए सरकार की जिम्मेदारी भी शामिल है। 2020 की हैप्पीनेस इंडेक्स रिपोर्ट शीर्ष पर पश्चिमी यूरोप के लोकतंत्र देशों से भरी पड़ी है। अमेरिका को शीर्ष 20 में बमुश्किल स्थान मिल पाया है। 153 देशों के इस सर्वेक्षण में भारत का स्थान 144वां है।

हाल के वर्षों में इसके स्थान में गिरावट आई है। हमें विश्व सूचकांक में इसके स्थान और इसकी गिरावट के कारणों , दोनों पर ही ध्यान देना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारे लोकतंत्र में लोगों के जीवन की संतुष्टि पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। ऐसा पहले नहीं होता था।

जनता के साथ अपने जुडाव में इस कसौटी को मानने वाले दो नेता , जवाहलाल नेहरू और सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। 15 अगस्त , 1947 के अपने भाषण में नेहरू ने स्वतंत्रता का लक्ष्य ऐसी संस्थाएं बनाना बताया था , जो हर पुरूष और महिला को न्याय और जीवन की पूर्णता दे सकें। नेहरू ने वादा नहीं किया था कि सरकार इन संस्थाओं का निर्माण करेगी। वह भली भाँति जानते थे कि लोकतंत्र आंकड़ों का खेल नहीं है। यह लोगों से संबंधित है। अंततः वे संस्थाएं जो व्यक्तियों को पूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाती हैं , स्वयं लोगों द्वारा निर्मित की जाती हैं। 1960 के अमेरिका ने जन क्रांति के माध्यम से आए तीन मुख्य बदलाव देखे थे। यही कारण है कि जनता द्वारा लाए गए परिवर्तन के फलस्वरूप निर्मित संस्थाएं महत्व रखती हैं। इसमें सरकार की भी भूमिका होती है। कानून की भूमिका ऐसी होनी चाहिए कि वह स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयत्न न करे , और इसमें तब बदलाव लाए जाएं , जब ऐसा करने की जरूरत महसूस हो। हालांकि , केवल प्रतिबंधों को हटा देने पर ही सरकार की भूमिका खत्म नहीं हो जाती है।

देश का विकास कैसा हो ?

देश के विकास के लिए सरकार के साथ-साथ क्षमतावान और समर्थ व्यक्तियों का भी आगे आना बहुत जरूरी है। सशक्तिकरण के लिए कट्टरपंथी दृष्टिकोण स्व-सहायता के महत्व पर सही ढंग से जोर देते हैं। परंतु इस बात को मानना जरूरी है कि स्वास्थ और शिक्षा जैसी क्षमताओं के लिए व्यक्ति स्वयं में पर्याप्त नहीं होता। इसमें राज्य की सहायता की आवश्यकता होती ही है। ऐतिहासिक रूप से , भारत की जाति-प्रथा ने समाज के एक बड़े वर्ग को शिक्षा से वंचित रखा था। भारत में व्यक्तिगत या निजी पहल ने निर्माण-क्षमताओं पर सीमित प्रभाव डाला था। इन सबको देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास सूचकांक तैयार किया। इसके मुख्य तत्व , स्वास्थ और शिक्षा हैं। भारत का स्थान इस सूचकांक में भी बहुत खराब है। 189 देशों में भारत का स्थान 129वां रहा था। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक गंभीर चुनौती है।

उपेक्षा और दमन

भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का निर्वहन , भारतीयों के जीवन को संपूर्णता देने के लक्ष्य से मेल नहीं खाता। 1950 के दशक तक संविधान के पहले संशोधन के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया था। संविधान द्वारा दिए गए नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत स्वास्थ और शिक्षा को बिल्कुल भुला दिया गया था। स्वास्थ-क्षेत्र की उपेक्षा और निवेश की कमी के चलते ही आज देश में स्वास्थ आपातकाल की खस्ता हालत है। इस पर जब सरकार से इस पर प्रश्न किया जाता है , तो वह दमन करती है। हाल ही में आंध्रप्रदेश के एक चिकित्सक को प्राथमिक स्वास्थ केंद्र में बिस्तरों की कमी बताने पर धमकाया गया।

एक तबाह देश या डायस्टोपिया की कल्पना ऐसी जगह के रूप में की गई थी , जहां लोग एक सत्तावादी सरकार की चौकस आंखों की निगरानी में , स्वयं की रक्षा करने के प्रयास में बहुत पीड़ित अनुभव करते हैं। क्या यह आज के भारत की स्थिति से अधिक दूर है ?

‘द हिंदू’ में पुलेपर बालाकृष्णन् के लेख पर आधारित। 24 सितम्बर , 2020

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