विधेयकों की पूर्ण समीक्षा की जानी चाहिए
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हाल ही में सरकार ने किसानों की मांगों को मानते हुए तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा की है। इन तीनों कृषि कानूनों को लाने का तरीका और सरकार की मंशा पर एक नजर डाली जानी चाहिए –
- सर्वप्रथम, इन कानूनों का किसानों पर दूरगामी प्रभाव पड़ना था। फिर भी उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया।
- अनुच्छेद 123 के अंतर्गत अध्यादेश के रूप में लाए गए इस कानून की जरूरत, आपातकालीन नहीं थी। शायद इसके पीछे का कारण यह रहा हो कि सरकार संसदीय स्थायी समिति की छानबीन से बचना चाहती हो।
हालांकि अध्यादेश को विधेयक का रूप दिए जाने के बाद भी किसी कानून को संसदीय समिति के पास भेजा जा सकता है।
एक बड़ी चूक – बहरहाल, कृषि कानून से संबंधित विधेयक को न तो संसदीय स्थायी समिति और न ही संसद के दोनों सदनों की संयुक्त प्रवर समिति के पास समीक्षा के लिए भेजा गया। इतना ही नहीं, डेटा बताते हैं कि आजकल बहुत ही कम विधेयकों को समितियों के पास समीक्षा के लिए भेजा जाता है।
विधेयकों को समितियों को भेजने का निर्णय पीठासीन अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। इन अधिकारियों द्वारा विधेयकों को समीक्षा हेतु भेजे जाने के लिए कोई तर्क उपलब्ध नहीं हैं। चूंकि समितियों द्वारा विधेयकों की विस्तृत जांच के परिणामस्वरूप बेहतर कानून बनते हैं, इसलिए संबंधित अधिकारी, कुछ अपवादों को छोड़कर सभी विधेयकों को समितियों के पास भेज सकते हैं। इस नियम का मर्म स्पष्ट है कि समिति सभी महत्वपूर्ण विधेयकों की जांच करेगी।
कृषि कानूनों पर सरकार के भयानक अनुभव के आलोक में, विधेयकों को समितियों को भेजने की वर्तमान प्रथा की समीक्षा की जानी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने हाल ही में हुए पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में समिति व्यवस्था को मजबूत करने की बात कही है। इसे मजबूत करने का तरीका यही है कि सभी महत्वपूर्ण विधेयकों की समिति द्वारा जांच कराई जानी चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित पी.डी.टी. आचार्य के लेख पर आधारित। 22 नवम्बर, 2021