उच्च शिक्षा संस्थानों का कायाकल्प स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार समान रूप से किया जाए
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उच्च शिक्षा संस्थानों की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग की चर्चा करना भारत में एक वार्षिक अनुष्ठान सा बन गया है। विश्व में प्रतिष्ठित मानी जानी वाली क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग सिस्टम में शीर्ष एक हजार में भारतीय संस्थानों की संख्या पिछले साल के 22 से बढ़कर 27 हो गई है। भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरू (आईआईएससी) ने 31 स्थान ऊपर उठकर भारत के सर्वोच्च संस्थान का दर्जा प्राप्त किया है।
इन सबके बीच दुर्भाग्य यह है कि इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस को छोड़कर भारतीय विश्वविद्यालयों के खराब प्रदर्शन पर कोई गंभीर बहस नहीं की जाती है।
सौतेला व्यवहार क्यों ? कुछ बिंदु –
- इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस या आईओई को अधिक शैक्षणिक और प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की जाती है, और सार्वजनिक आईओई को अतिरिक्त धन दिया जाता है। इसलिए क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग के शीर्ष 500 में उनका आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
- उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2019-20) के अनुसार देश के 1,043 संस्थानों में से 184 को ही केंद्र वित्तपोषण करता है। राज्य सरकारें अपने स्तर पर उच्च शिक्षा संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं, परंतु यह पर्याप्त नहीं होती, क्योंकि राज्यों में स्नातक छात्रों की संख्या सबसे अधिक है।
- 2015-16 की तुलना में 2019-20 में विश्वविद्यालयों की संख्या में 30.5% की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि के अनुरूप शैक्षणिक और प्रशासनिक बुनियादी ढांचे को मजबूत नहीं किया गया है।
- शिक्षकों की भर्ती में उदासीन रवैया देखने को मिलता है।
- विश्वविद्यालयों की रैंकिंग संकाय शक्ति, आधुनिक प्रयोगशालाओं, बुनियादी ढांचे के निर्माण, डिजिटल पुस्तकालयों, प्रायोजित अनुसंधान, परियोजना अनुदान तथा कंप्यूटिंग सुविधा आदि संकेतकों पर होती है। इनमें केंद्र द्वारा वित्तीय अनुदान प्राप्त संस्थान आगे निकल जाते हैं। राज्य द्वारा वित्त पोषित संस्थान अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वित्तीय अनुदान और स्वायत्तता की स्थिति में बहुत अधिक असमानता रहती है। कोई भी रैंकिंग प्रणाली संस्थानों को उनकी प्रशासनिक चुनौतियों, ढांचागत बाधाओं और वित्तीय दुर्दशा की जांच करने के बाद तर्कसंगत रूप से रैंक नहीं करती है।
भारत को अगर अपने अधिक से अधिक संस्थानों को वर्ल्ड रैंकिंग में उच्च स्थान पर लाना है, तो राज्यों में स्थित उच्च शिक्षा संस्थानों पर भी ध्यान देना होगा।
नई शिक्षा नीति की परिकल्पना –
इसके तहत सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को 2040 तक बहुविषयक या मल्टी डिस्पिलनरी बनाने की सोच है। इसका उद्देश्य व्यावसायिक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 2035 तक बढ़ाकर 50% करना है। इसका लक्ष्य यह भी सुनिश्चित करना है कि 2030 तक प्रत्येक जिले में या उसके आसपास कम से कम एक बड़ा मल्टी-डिस्पिलनरी उच्च शिक्षा संस्थान हो। इसका अर्थ यह है कि एक ही धारा को लेकर चलने वाले संस्थानों को चरणबद्ध तरीके से बंद कर दिया जाएगा।
परिणाम कुछ और कहते हैं –
क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में एकल धारा या सिंगल स्ट्रीम वाले आईआईटी और आईआईएससी का शीर्ष 500 में स्थान बनाना नई शिक्षा नीति की बहु-विषयक संस्थानों की परिकल्पना पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रमाण है।
भारत जैसी विशेषज्ञ पेशेवरों द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था में एक सिंगल स्ट्रीम संस्थान को बहु विषयक बनाना बहुत अच्छा विचार नहीं लग रहा है। इस तरह का विचार पश्चिम में काम कर रहा है, क्योंकि वहाँ निजी और सार्वजनिक अनुसंधान अनुदान और वित्त पोषण के माध्यम से बहुविषयक अनुसंधान में पर्याप्त संसाधनों का निवेश किया जाता है। भारत में इस विचार को सफल बनाने हेतु उच्च शिक्षा संस्थानों में अधिक निवेश की पारिस्थितिकी को तैयार किया जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित मिलिंद कुमार शर्मा के लेख पर आधारित। 5 जुलाई 2022