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स्वतंत्रता की रक्षा में
Date:16-11-20 To Download Click Here.
अतः अपनी अभिव्यक्ति के किसी बिंदु को स्पष्ट रूप से कहने के लिए मोहम्मद के बारे में कैरकेचर या लेखन के उपयोग को रोकने का प्रयास पूरे विश्व में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करता है। यह इस्लाम के प्रसार-प्रचार की तुलना में मुसलमानों की रूढ़िवादिता को और अधिक मजबूत करता है। इसका एक उदाहरण भारतीय दंड संहिता की धारा 295 के दुरूपयोग में भी मिलता है। ‘रंगीला रसूल’ और ‘सैटेनिक वर्सेस’ ने देश में स्वतंत्र संभाषण की राजनीति को गर्त में पहुँचा दिया था। जब तक हम अप्रिय अभिव्यक्ति को स्वीकार करना नहीं सीखते हैं, तब तक सुधार संभव नहीं है। उपनिवेशवादी और प्राच्यवादी दृष्टिकोणों को लेकर कला की अभिव्यक्ति करना उदारवादियों के लिए चिंता का विषय है। परंतु इसके कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से समझौता नहीं किया जा सकता। केवल मुसलमानों को अप्रिय अभिव्यक्ति से बचाने की बात करना अपने आप में मुस्लिम विरोधी भावना की अभिव्यक्ति है।
उदारवादी तो स्वयं ही किसी की आस्था को ठेस नहीं पहुँचाने का प्रयास करते हैं। वे आस्था का सम्मान करते हैं। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के पीछे डटकर खड़े रहने के लिए आक्रामकता की आवश्यकता नहीं है। इसका अपमान करने वालों की कभी-कभी निंदा की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन उन्हें बर्दाश्त भी किया जाना चाहिए। कानूनी दांवपेंचों का बचाव, समाज के लिए नैतिक प्रथाओं के उपयुक्त रूपों के सवाल को बंद नहीं कर सकता। यह वास्तव में इस जटिल संवाद को निर्धारित करता है। उदारवादी राष्ट्रों को इस बारीक अंतर को समझना चाहिए।
उदारवादियों ने तो अपराध की राजनीति को भी पीछे छोड दिया है। अनावश्यक रूप से धर्म का अपमान करने की इच्छा करने वाले लोग बचकानापन दिखाते हैं। इस माध्यम से वे विशेषकर अल्पसंख्यकों को एक प्रकार की माफी देने का प्रयोजन रखते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाना या उसके विरूद्ध आक्रमक हो जाना, वैचारिक रूप से इस प्रकार की माफी का प्रतिफल होता है। लकीर के फकीर यही सोचते हैं, और मानकर भी चलते हैं कि अल्पसंख्यक अपनी स्वतंत्रता को संभाल नहीं सकते। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपमानजनक मानकर उस पर प्रतिबंध लगाया जाना जितना स्वीकार्य होता जाता है, अपमान की अनुभूति की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जाती है।
कई संदर्भों में अपमान की अनुभूति एक प्रकार का प्रतिस्पर्धी सामुदायिक खेल बन गया है, क्योंकि इसे राजनीतिक गोलबंदी के लिए हथियार बनाया जा सकता है। इसके अलावा वैश्विक संदर्भ में देखने पर इस बात पर कोई वायदा नहीं किया जा सकता कि सार्वजनिक परिदृश्य में किसी धार्मिक समुदाय को कोई चोट न पहुँचाई जाए, क्योंकि आज के डिजीटल युग में छवियों और विचारों का प्रसार बहुत तेजी से होता है, और इसे रोक पाना असंभव है। यदि फ्रांस की घटना के संदर्भ में देखें, तो एक बंद कमरे में इस्लाम को तथाकथित रूप से अगर पुनः संदर्भित किया जा सकता है, तो पूरी दुनिया में किसी धर्म की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने का वादा करना मूर्खता है।
यह एक उदारवादी सिद्धांत है कि किसी को उसके समुदाय विशेष के कारण घेरा नहीं जाना चाहिए। इस प्रतिबद्धता की उदार अभिव्यक्ति धर्म और हिंसा के बीच संबंध पर मौन में पीछे हटना है। धार्मिक उन्माद या अपमान के लिए उपनिवेशवाद, गरीबी, भेदभाव और अभाव जैसे मूल कारणों की आड में छुप जाना बड़ा आसान हैं। इससे आप हिंसा के विभिन्न तरीकों की उत्पत्ति को भी समझ सकते हैं। इसलिए यह कहना कि धर्म का हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है, ऐतिहासिक रूप से गलत है।
धर्म का कोई भी रूपय चाहे वह इस्लाम हो, ईसाई हो, बौद्ध कट्टरवाद हो या हिंदू राष्ट्रवाद हो, वह राजनीति से प्रेरित कट्टरपंथ है, और वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। धर्म की पवित्रता को इस आधार पर परखना कि वह कभी किसी को हिंसा के लिए नहीं उकसाता, सही नहीं है। सच्चाई तो यही है कि लोग धर्म के नाम पर हत्या और सर कलम करते हैं। सांस्कृतिक तत्व किन घटनाओं को धर्म से जोड़ते हैं, और किसे नहीं, यह अलग बात है।
जो भी हो, उदारवादियों का धर्मशास्त्रीय बहस में उलझकर लोगों के धर्म को उनके लिए परिभाषित करना शोभा नहीं देता। जब वे ऐसा करते हैं, तो लगता है कि वे अपनी शक्ति को धर्म से ऊपर रखने का प्रयत्न कर रहे हैं। उदारवादियों का धर्म तो यही है कि वे हर हालत में स्वतंत्रता की अक्षुण्णता को बनाए रखें। यह धर्म के अनुयायियों पर छोड़ दें कि उनकी स्वतंत्रता के साथ कौन सा धर्म चल सकता है।
उदारवादी राष्ट्रों का यह धर्म है कि वे हिंसा के दोषियों को दण्ड दें, और स्वतंत्रता को बाधित करने वाले तरीकों को रोकें। लेकिन अगर वे यह सब उदारवाद के सिद्धांतों पर करते हैं, तो उन्हें उनपर अधिक से अधिक टिके रहना होगा। उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि शक्ति की विषमता समुदायों के बीच भेदभाव न करे। उन्हें यह भी निर्धारित करना होगा कि सार्वजनिक नीति और सार्वजनिक अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता की रक्षा को बाधित न करें।
यही वह क्षण है, जब राजनीतिक धाराओं को एकजुट करने वाले उदारवाद का जश्न मनाया जाना चाहिए। किसी भी प्रकार का बल फ्रांस की हिंसा के इर्द-गिर्द फैली विचारधारा के जल को मैला कर देगा। इस क्षण में यह याद रखना जरूरी है कि ईश्वर के तथाकथित रक्षक और मानव की स्वतंत्रता के पहरेदार, दोनों ही हमसे हमारी मानवता को छीनने के लिए तैयार बैठे हैं। इस प्रकार की चुनौती देने वालों और राजनीति के चक्रव्यूह से निकलकर स्वतंत्रता के सरल सिद्धांत की रक्षा करने का यह उपयुक्त क्षण है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित। 31 अक्टूबर, 2020