शीर्ष पदों पर महिलाओं की कमी

Afeias
31 Mar 2021
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Date:31-03-21

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भारत की शीर्ष कंपनियों में लैंगिक विविधता और लैंगिक समानता की बहुत कमी है। संयुक्त राष्ट्र धारणीय विकास के इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन वास्तविकता में निफ्टी 500 बोर्ड डायरेक्टर में केवल 17% महिलाएं हैं। आखिर वित्तीय वर्ष 2021 में शीर्ष एक हजार कंपनियों में से कम-से-कम एक स्वतंत्र निदेशक के रूप में महिला की नियुक्ति के नियामक जनादेश का अनुपालन कब किया जाएगा ?

अध्ययन बताते हैं कि महिला निदेशक पेशेवर विशेषज्ञता के साथ गंभीर भूमिका निभाती हैं। कुछ अध्ययनों में यह भी कहा गया है कि महिला-नेतृत्व की अधिकता वाली कंपनियां प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने और बेहतर मूल्य बनाने की संभावना रखती हैं। फिर भी जिस गति से बोर्डरूम में लैंगिक अंतर को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं, वे निराशाजनक हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम निजी क्षेत्र की तुलना में और भी खराब रहे हैं। सिक्योरिटी एण्ड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) के अथक प्रयास के बाद भी बीएसई 500 बोर्ड की 71 इकाईयों में से मात्र आठ में 20% से ज्यादा महिलाएं हैं। महिलाओं की अध्यक्षता के मामले तो और भी कम हैं।

यदि हम विदेशों के बोर्डों में लैंगिक विविधता की बात करें, तो अमेरिका के संदर्भ में स्थिति कुछ बेहतर कही जा सकती है। लेकिन महिलाओं की अध्यक्षता वाले क्षेत्र में अभी भी पिछड़ापन है। अमेरिका में भारत की तरह वर्तमान पीढ़ी के बोर्ड सदस्यों का महिला व पुरूषों के बीच अंतर करने वाला रवैया नहीं है।

हालांकि स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं। एक चीज जो समय के साथ बदल गई है, वह है गति- जिस पर चलने की जरूरत है। विशेषरूप से कोविड-19 के दौर में बोर्ड की उत्तरदायित्व पूर्ण भूमिका निभाने के लिए आज एक पैर पर भी खड़े रहना पड़ सकता है। वर्चुअल मीटिंग के दौर में सभी के योगदान को सुनिश्चित करने के लिए थोड़ा और अधिक प्रक्रियात्मक और औपचारिक होने की आवश्यकता हो गई है।

प्रामाणिकता मायने रखती है। अतः बोर्ड की सदस्यता या अध्यक्षता करने से पहले जरूरी नहीं है कि महिलाओं को ‘जमीनी काम’ पर बहुत अधिक तौला जाए। बस एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस भूमिका की अधिकारी महिला ने अन्य निदेशकों का विश्वास जीतकर ही यह पद प्राप्त किया हो। अतः उसका सम्मान किया जाना चाहिए।

भारत को इस दिशा में अभी लंबा रास्ता तय करना है। उम्मीद की जा सकती है कि लैंगिक समानता की राह में नीतिगत परिवर्तन भी किए जाएं क्योंकि अंततः समानता में ही सफलता का मार्ग छिपा हुआ है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ के संपादकीय पर आधारित। 8 मार्च, 2021