संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सुधार की समस्या
To Download Click Here.
संयुक्त राष्ट्र में मूलभूत सुधारों पर बहस की शुरूआत हुए तीन दशक हो चुके हैं। वैश्विक महत्व के इस निकाय में फैली अव्यवस्था पर तुर्किये के राष्ट्रपति एरडोगन ने स्पष्ट कहा है कि ‘सुरक्षा परिषद अब विश्व सुरक्षा की गारंटर नहीं रह गई है। यह केवल पांच देशों की राजनीतिक रणनीतियों के लिए युद्ध का मैदान बन गई है’ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है कि ‘दुनिया बदल गई है, लेकिन हमारे संस्थान नहीं बदले हैं। हम समस्याओ का समाधान तब तक प्रभावी ढंग से नहीं कर सकते, जब तक कि हमारे संस्थान विश्व का प्रतिबिंब नहीं बनते। और ये समस्याओं का समाधान बनने की जगह, समस्या का कारण बनते दिखाई दे रहे हैं’
समता की दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र में अन्याय की स्थिति –
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह आज की नही, बल्कि 1945 की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करती है।
- जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र स्थापित हुआ था, तब 51 देश इसके सदस्य थे। इनमें से 11 सुरक्षा परिषद के सदस्य थे यानि 22% देश परिषद में थे। लेकिन आज 193 सदस्य देशों में से मात्र 15 देश यानि 8% से भी कम परिषद के सदस्य हैं।
- 1965 में मूल चार्टर में बदलाव करके परिषद की संख्या को 11 से बढ़ाकर 15 किया गया था। ये अस्थायी सदस्य थे। लेकिन इस पर भी पूर्ण संख्या और सदस्यता के अनुपात में परिषद की संरचना में शक्ति के संतुलन को बनाकर नहीं रखा गया है। उदाहरण के लिए, यूरोप में दुनिया की आबादी का 5% निवास करता है, फिर भी 33% सीटों पर कब्जा उसका है (इसमें रूस शामिल नहीं है)
- समता के सामान्य सिद्धांत से यह स्थिति अन्यायपूर्ण कही जा सकती है। इसी कड़ी में हम देखते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्यों में से सबसे ज्यादा वित्तीय सहायता देने वालों में दूसरे नंबर पर जर्मनी और तीसरे पर जापान है। फिर भी इन्हें चार्टर में ‘शत्रु देश’ की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मित्र राष्ट्रों ने की थी।
- संयुक्त राष्ट्र में भारत जैसे बड़ी जनसंख्या, विश्व अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी और शांति स्थापना जैसे अभियानों के जरिए बड़ा योगदान देने वाले देशों को अभी भी स्थायी सदस्यता का अवसर नहीं दिया जा रहा है।
देशों का रूख –
- बहुत से देश सुरक्षा परिषद में सदस्यता के इच्छुक हैं। ये ऐसे देश हैं, जो वर्तमान स्थायी सदस्य बने हुए छोटे-छोटे देशों से कहीं कमतर नही हैं। कुछ ऐसे भी देश हैं, जिन्हें पता है कि संयुक्त राष्ट्र में होने वाले किसी भी सुधार से उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है। ये छोटे-छोटे देश परिषद की दो-वर्षीय अस्थायी सदस्यता के मिल जाने से ही खुश हैं।
- कुछ मध्यम और बड़े आकार के देश हैं, जो संभावित लाभार्थियों के प्रतिद्धंदी हैं। वे इस बात से नाराज है कि विश्व निकाय में उनको दूसरे दर्जें की स्थिति से निकलने का अवसर क्यों नहीं दिया जा रहा है।
- कई देश खुले तौर पर प्रतिस्पर्धा एवं ऐतिहासिक शिकायतों को लेकर चल रहे हैं। इन्होंने सदस्यता में सुधार की संभावना को अनिश्चित काल के लिए विफल कर दिया है।
संशोधन की कठिन शर्तें और समाधान –
- संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन की शर्तें बहुत कठिन हैं। किसी संशोधन के लिए कुल सदस्यता यानि 193 देशों में से दो-तिहाई यानि 129 देशों के बहुमत की आवश्यता है।
- इसके साथ ही मौजूदा स्थायी सदस्यों में से किसी एक का भी विरोध नहीं होना चाहिए। ये शर्तें असंभव सी लगती हैं।
- अतः दूसरा प्रस्ताव यह हो सकता है कि अर्ध-स्थायी सदस्य देशों का एक वर्ग बनाया जाए। इन्हें 10 वर्ष के लिए चुन लिया जाए। सदस्यता के प्रमुख दावेदार देशों में से कोई भी अभी तक इस सुधार के समर्थन में आगे नहीं आया है।
निरंतर गतिरोध –
दशकों तक घूमती बहस के बीच सुरक्षा परिषद में गतिरोध जारी है। हाल ही के यूक्रेन संघर्ष से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि कैसे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य राष्ट्र ने संयुक्त राष्ट्र के एक संप्रभु सदस्य देश पर आक्रमण किया, और सुरक्षा परिषद कुछ नहीं कर पाया।
रूस के वीटो के बढ़ते प्रयोग ने यूक्रेन, माली, सीरिया और उत्तर कोरिया पर आए किसी प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया है। इसी प्रकार पश्चिम के अवरोध ने स्थापित वित्तीय संस्थानों में सुधार नहीं होने दिया है। क्या हम एक मंच पर लाने वाली ऐसी वैश्विक प्रणाली को बर्दाश्त कर सकते हैं ? साथ ही क्या हम इस एकमात्र वैश्विक प्रणाली को अप्रभावी और अप्रासंगिक होने दे सकते हैं ?
‘द हिंदू’ में प्रकाशित शशि थरूर के लेख पर आधारित। 12 अक्टूबर, 2023