राजद्रोह : आयोग की गलतियाँ

Afeias
28 Jun 2023
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भारतीय दंड संहिता की धारा 124, के अंतर्गत आने वाले राजद्रोह कानून को अभी तक बहुत आलोचना का सामना करना पड़ा है। इस कानून में सरकार के प्रति असंतोष भड़काने वाले भाषण या अभिव्यक्ति पर दंड देने का प्रावधान हैं। इस कानून की अस्पष्ट भाषा के चलते इसका बहुत दुरूपयोग किया गया है। लेकिन हाल ही में आई विधि आयोग की 279वीं रिपोर्ट में इस कानून को बनाए रखने की सिफारिश की गई है।

आयोग ने राजद्रोह कानून पर आमतौर पर उठाई जाने वाली दो चिंताओं को दूर करने का प्रयास किया है। ये चिंताएं हैं –

1) इसका बड़े पैमाने पर दुरूपयोग, तथा

2) आज के समय में इसकी प्रासंगिकता।

आयोग ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी कानून के दुरूपयोग को उसे वापस लेने का आधार नहीं माना जा सकता है। दूसरे, भारत के विरोध में चल रहे चरमपंथी और अलगाववादी आंदोलनों और प्रवृत्तियों का हवाला देते हुए इसकी प्रासंगिकता भी सिद्ध कर दी है।

आयोग ने क्या नहीं माना या किस पर ध्यान नहीं दिया –

1) औपनिवेशिक विरासत और दुरूपयोग पर –

  • आयोग का तर्क है कि कानून की औपनिवेशिक उत्पत्ति और दुरूपयोग के उदाहरण इसे निरस्त करने का वारंट नहीं देते हैं। विडंबना यह है कि रिपोर्ट स्वयं स्वीकार करती है कि राजद्रोह के अपराध का एक अस्पष्ट अतीत है। एक सटीक परिभाषा का अभाव है, और संचालन में सरकार की ‘हानिरहित आलोचना’ को भी अपराध बना दिया जाता है।
  • सच्चाई भी यही है कि राजद्रोह के कानून को जानबूझकर अस्पष्ट तैयार किया गया था। इसे एक अलोकतांत्रिक औपनिवेशिक सरकार के संरक्षण के एजेंडे के रूप में तैयार किया गया था। रिपोर्ट स्वयं इस बात का उल्लेख करती है कि कैसे सहमति आयु विधेयक की आलोचना करने पर जे. सी. बोस के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल किया गया था। बाल गंगाधर तिलक और अम्बा प्रसाद को समाचार पत्रों में लेख लिखने के लिए दंडित किया गया था।

2) आतंकवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच की रेखाओं का धुंधला रखना –

  • आयोग ने भारत की आंतरिक सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरों को देखते हुए कानून को बनाए रखने की वकालत की है। आयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतांत्रिक देश की पहचान बताता है। लेकिन इसके लिए एक उचित प्रतिबंध के रूप में राजद्रोह कानून की पैरवी भी करता है। हालांकि, आयोग इस बात का तार्किक निष्कर्ष निकालने में विफल रहा है कि कैसे राजद्रोह कानून, इन समस्याओं का प्रभावी ढंग से मुकाबला कर सकता है।
  • आयोग ने इस कानून से संबंधित जो तस्वीर पेश की है, उसमे वास्तविक स्थिति बहुत अलग है। नारे लगाने, विववादास्पद कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए स्कूली नाटकों के आयोजन, बलात्कार के मामले पर रिपोर्टिंग और यहां तक कि निजी टेलीफोन वार्तालापों पर भी राजद्रोह कानून लगाया जा चुका है।

3) अव्यवहारिक सिफारिशें –

  • आयोग ने प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रक्रियात्मक दिशा-निर्देशों को लागू करने और प्रारंभिक जांच करने का सुझाव दिया है। यह पुलिस के मनमाने आचरण और शक्ति को कम करने का भ्रम पैदा कर सकता है। निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने में हमारे कार्यकारी निकायों का ट्रैक रिकार्ड यह स्पष्ट करता है कि यह सिफारिश खोखली है।
  • रिपोर्ट में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले के साथ संरेखित करते हुए, हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति के साथ ‘वाक्याशं को शामिल करने के लिए संशोधन का प्रस्ताव किया गया है। हालांकि, शब्द ‘प्रवृत्ति’ अस्पष्ट है, और विस्तृत व्याख्या में यह अतिसंवेदनशील हो जाता है। इसके अलावा इस प्रवृत्ति-परीक्षण की जिम्मेदारी न्यायालय को दी जानी चाहिए, न कि पुलिस को। चूंकि कानून का दुरूपयोग गिरफ्तारी के चरण पर ही होता है, दोषसिद्धि के स्तर पर नहीं, अतः इस ‘प्रवृत्ति’ को जोड़े जाने का कोई विशेष प्रभाव नहीं होने वाला है। वास्तव में तो, देशद्रोह के आरोपी जेलों में सड़ते रहेंगे, और न्यायालय ‘प्रवृत्ति’ सिद्धांत की व्याख्या पर लंबी बहस में उलझे रहेंगे।

स्वतंत्रता के साथ ही राजद्रोह कानून को निरस्त किया जाता था। इसके बजाय, स्वतंत्र भारत की सरकारों ने असंतोष और आलोचना को दबाने के लिए इसे केवल एक प्रतिगामी (रिग्रेसिवद) उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया है। अब समय आ गया है कि भारत इस औपनिवेशिक चिन्ह को छोड़ दे। यह हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ असंगत है।

विभिन्न समाचार पत्रों पर आधारित। 8 जून, 2023