पूर्वोत्तर राज्यों को मुख्यधारा में लाना
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एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की यात्रा की शुरूआत से ही पूर्वोत्तर भारत का भारतीय जीवन की मुख्यधारा में एकीकरण, राष्ट्रीय एजेंडा रहा है। इस क्षेत्र को हमेशा ही एक सीमा तक विदेशी के रूप में देखा जाता रहा है। आत्मसात के प्रयास के विपरीत छोर पर इस क्षेत्र के लिए दो ऐसे कदम उठाए गए, जो इसे और दूर ले गए। इनमें –
1) 1949 में बनाई गई संविधान की छठी अनुसूची, तथा
2) 1958 में लागू किया अफस्पा अधिनियम, हैं।
छठी अनुसूची अविभाजित असम के आदिवासी बेल्ट के लिए स्वतंत्र भारत का पहला प्रशासनिक उपकरण था। इसके तहत स्वायत्त जिला परिषदों का गठन किया गया, जिसमें आदिवासीयों के अपने कानूनों को भी वैधता दी गई। नगा हिल्स ने इस अनुसूची को अस्वीकार करते हुए पूर्ण स्वायत्तता की मांग की। इसके चलते क्षेत्र में भयानक अशांति फैल गई, और उसके परिणामस्वरूप अफस्पा लागू किया गया। फिर क्षेत्र की कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी कठोर सैन्य नियंत्रण में चली गई।
अन्य प्रयास –
- सन् 1972 में अधिकांश स्वायत्त क्षेत्रों को असम से अलग कर दिया गया।
- सन् 2001 में केंद्र में डिपार्टमेन्ट ऑफ नॉर्थ ईस्ट रिजन बनाया गया, जिसे 2004 में एक पूरा मंत्रालय ही बना दिया गया।
- 1991 में भारत की लुक ईस्ट नीति के साथ दक्षिण एशिया के देशों की अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लिए पूर्वोत्तर राज्यों को आधार बनाने का निर्णय लिया गया।
- वर्तमान केंद्र सरकार की आज पूर्वोत्तर में मजबूत उपस्थिति है। भाजपा अभी असम, त्रिपुरा, मणिपुर और अरूणाचल प्रदेश में सत्ता में है। यह नहीं भूलना चाहिए कि इस क्षेत्र में चुनावी राजनीति विचारधारा के बारे में कम और केंद्र में सत्तारूढ पार्टी के साथ गठबंधन करने के बारे में अधिक रही है।
जमीनी स्तर और चुनावी राजनीति के बीच जो भी अलगाव हो, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस क्षेत्र में व्याप्त सीएए और अफ्सपा जैसे संकट दोबारा खड़े न हों। कुल मिलाकर, पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति को नियंत्रण में रखा जाना ही अपने आप में अभी एक बड़ा काम है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित प्रदीप फनजुबम के लेख पर आधारित। 16 अगस्त, 2022