पहचान और गोपनीयता संदेह के घेरे में
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अपराधियों का बायोमीट्रिक नमूना लेने और उसे 75 वर्षों तक सुरक्षित रखने का पुलिस को अधिकार देने वाला दंड प्रक्रिया शिनाख्त कानून बन गया है। सरकार ने इसे आपराधिक न्याय प्रणाली को अत्याधुनिक तकनीक से लैस करने वाला बताया है।
कुछ प्रावधान –
- सरकार का दावा है कि इस कानून के माध्यम से पुलिस और जांचकर्ता, अपराधियों से दो कदम आगे रह सकेंगे।
- इसका उद्देश्य दोषसिद्धि का अनुपात बढ़ाना है।
- महिलाओं और बच्चों के साथ अपराध को छोड़कर, सात साल से कम सजा पाने वाले अपराधियों का बायोमीट्रिक डेटा नहीं लिया जाएगा।
- बायोमीट्रिक डेटा की मदद से आरोपितों के खिलाफ पुख्ता सुबूत जुटाने में मदद मिलेगी, और पीड़ितों को त्वरित न्याय मिल सकेगा।
आशंकाएं एवं कमियां –
- यह विधेयक, उच्चतम न्यायालय के, के.एस. पुट्टस्वामी मामले में दिए गए निर्णय के विरूद्ध है, जिसमें गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया गया था।
- यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यह कानून अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन है। ज्ञातव्य हो कि यह अनुच्छेद आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार की रक्षा करता है।
- संग्रहित डेटा के संरक्षण, साझा करने, प्रसारित करने और नष्ट करने के तरीकों पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। इस प्रकार की प्रथा की शुरूआत तभी की जानी चाहिए, जब देश में एक मजबूत डेटा संरक्षण कानून हो, जिसमें उल्लंघनों के लिए कड़ी सजा दी जाए।
- प्रावधान में कुछ अपवादो को छोड़कर, सात वर्ष से कम की सजा पाए बंदियों को नमूना नहीं देना होगा। लेकिन सभी बंदियों को पता नहीं हो सकता कि वे नमूना देने से मना कर सकते हैं। पुलिस तो इस प्रावधान को नजरअंदाज कर सकती है, और बाद में दावा कर सकती है कि उन्होंने बंदी की सहमति ली थी।
यह विधेयक विवादास्पद कहा जा सकता है, क्योंकि कार्यकर्ताओं, प्रदर्शनकारियों और यहां तक कि निर्दोष लोगों को गिरफ्तार करने, और गंभीर आरोप लगाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। विपक्ष की मांग के अनुसार इसे गहन जांच के लिए स्थाई समिति के पास भेजा जाना चाहिए था। लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया है। उम्मीद की जा सकती है कि इस कानून का दुरूपयोग से बचाने के लिए किए गए सरकारी दावे सच सबित हों, और कानून अपने उद्देश्य पर खरा उतरे।
समाचार पत्रों पर आधारित।
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