पाठ्यपुस्तकों में संशोधन की राजनीति

Afeias
09 May 2023
A+ A-

To Download Click Here.

एनसीईआरटी की पुस्तकों में संशोधन के नाम पर हटाए जा रहे कुछ विशेष अध्यायों पर बहस लगातार चल रही है। पिछले दिनों लगभग 250 इतिहासकारों ने कुछ विशेष अध्यायों को हटाने को ‘शासन के गैरशैक्षणिक पक्षपातपूर्ण एजेंडे’ का हिस्सा बताया है।

एनसीईआरटी ने संशोधन पर दो तर्क दिए हैं। एक तो छात्रों पर बोझ कम करना और दूसरे पाठ्यक्रम को ‘शिक्षार्थियों के अनुकूल’ बनाना। इस प्रकार के संशोधन को बौद्धिक समाज में दूसरी तरह से देखा जा रहा है।

कुछ बिंदु –

  • इतिहास की पाठ्यपुस्तकों का संशोधन राजनीति से प्रेरित है। यह मुगल शासन के साथ हिंदुत्व की वैचारिक बेचैनी को प्रमाणित करता है।
  • शिक्षाविद् मानते हैं कि पाठ्यपुस्तक लेखन एक जटिल बौद्धिक प्रक्रिया है। यह युवा मस्तिष्क पर निश्चित छाप छोड़ती है, और उसे ज्ञान की दुनिया की खोज करने में मदद करती है। इस प्रकार का लेखन, संशोधन और विलोपन पूरी तरह से प्रशासनिक या तकनीकी हाथों में नहीं दिया जा सकता है।
  • पाठ्यपुस्तकें किसी देश की सरकार द्वारा दिया गया आधिकारिक कथन होती हैं। इस रूप में ये वैचारिक या सैद्धांतिक परियोजना होती है।
  • इतिहास और राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों का पुनरीक्षण वैसे भी अधिक संवेदनशील होता है। ये विषम समकालीन प्रासंगिकता के मुद्दों पर विचार करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करते हैं। उन्हें सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं को इतिहास के पलड़े पर तौलकर, इतिहास और वर्तमान के बीच तार्किक सामंजस्य बनाना सिखाते है। इन पुस्तकों के माध्यम से विद्यार्थी देश-विदेश के सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर अपने विचार बनाने का प्रयत्न करता है। एनसीईआरटी की मूल पुस्तकों को इसी विचार के साथ रूप दिया गया था।

हाल के संशोधन दो विशेष कारणों से समस्याग्रस्त कहे जा सकते हैं –

  • पाठ्यपुस्तकें टुकड़ों में नहीं लिखी जाती हैं। हर एक अध्याय इतिहास-राजनीति के प्रश्नों के ऐसे सेट को संबोधित करता है कि पढने वाला उन्हें उनकी संपूर्णता में समझ सके। साथ ही प्रत्येक अध्याय पाठ्यक्रम के समग्र विषयगत सरोकार से जुड़ा हुआ होता है। उदाहरण के लिए, मुगलों का अध्याय छात्रों को मध्यकालीन भारत की ऐतिहासिक वास्तविकतओं की समझ बनाने के लिए एक आधार प्रदान करता है। ऐसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अंततः मुगलकाल में हुए और उससे जुड़े आगे के घटनाक्रमों को तार्किक संदर्भ प्रदान करती है। इनको हटाने से सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम भ्रामक हो जाता है।
  • दूसरे, कुछ संदर्भों के दोहराव को लेकर हटाने का तर्क दिया जा रहा है। इन संदर्भों का एक खास पैटर्न है। ‘मुगल भारत’, ‘सांप्रदायिक दंगे’, ‘आपातकाल’, ‘गांधी का हिंदू चरमपंथियों को पसंद न करना’ जैसे शीर्षकों को अवांछनीय समझा जा रहा है। हिंदुत्व की मानसिकता से जुड़े भाजपा नेताओं और अन्य ने लगभग एक दशक से इस प्रकार के शीर्षकों के पढ़ाए जाने पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न किए हैं।

इतना ही नहीं; ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के और भी प्रयास किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय महत्व के कई स्मारकों को इस सूची से हटाए जाने का प्रयास किया जा रहा है। इन स्मारकों में मुख्यतः मस्जिदें, मकबरे और कब्रिस्तान हैं। भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद् को “भारत रू लोकतंत्र की जननी” जैसा नोट तैयार करके प्रचारित करने का निर्देश दिया गया है। यह नोट भारत और भारतीयता जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके दिखाना चाहता है कि गैर-हिंदुओं से जुड़ा भारत का इतिहास और वर्तमान विवादित है। यह गैर-हिंदुओं को विदेशी आक्रांताओं की श्रेणी में रखकर भारतीय लोकतंत्र में उनके योगदान को नगण्य मानता है।

कुल मिलाकर पाठ्यपुस्तकों से हटाई जाने वाली सामग्री, भारत के भूतकाल और वर्तमान की नकारात्मक धारणा पर आधारित है। यह मानसिकता कमजोर है, और केवल कुछ को हटाकर अपने इतिहास को बदलने का प्रयास करती है। इनके लिए भारतीय इतिहास के रचनात्मक, समावेशी, तार्किक, सुसंगत और विद्यार्थी अनुकूल संस्करण को लाना असंभव था, क्योंकि रचना में एक सकारात्मक गुण है, जिसे राजनीतिक ताकतें अक्सर कम आंकती हैं।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित हिलाल अहमद के लेख पर आधारित। 10 अप्रैल, 2023

Subscribe Our Newsletter