न्यायपालिका में लैंगिक समानता की स्थापना कैसे हो ?

Afeias
05 May 2021
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Date:05-05-21

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भारतीय न्यायपालिका के बारे में एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि पीठ में महिलाओं की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। अपने 70 वर्षों के अस्तित्व में उच्चतम न्यायालय में मात्र 8 महिला न्यायाधीश रही हैं। इनमें से भी कोई मुख्य न्यायाधीश नियुक्त नहीं की जा सकी। वर्तमान में 25 उच्च न्यायालयों में 1,078 पुरूष न्यायाधीशों की तुलना में मात्र 81 महिला न्यायाधीश हैं।

इस समस्या का निराकरण न केवल महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने से संभव है, बल्कि न्यायालय में महिलाओं को पुरूषों के समकक्ष लाने से भी जुड़ा हुआ है। इस परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का यह कहना कि महिला अधिवक्ताओं को न्यायाधीश के पद हेतु आमंत्रित किए जाने पर वे उसे घरेलू दायित्वों का वास्ता देकर ठुकरा देती हैं, विवादास्पद कहा जा सकता है।

मुख्य न्यायाधीश का उपरोक्त वक्तव्य उस दौरान आया, जब वे उच्चतम न्यायालय महिला वकील संघ की उच्च न्यायालयों में अधिक महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर दी गई याचिका पर सुनवाई कर रहे थे।

मुद्दे की बात यह है कि विश्वविद्यालयों से लेकर सेना और संसद तक, लगभग सभी संस्थाएं, लिंग और जाति के समावेश का दायरा बढ़ाने के लिए अपने तंत्र के आकार की चुनौती से जूझ रहे हैं। अपने ऐतिहासिक निर्णयों में संवैधानिक समानता के विचार को स्थापित करने वाली न्यायपालिका भी इस चुनौती से अछूती नहीं है।

इस चुनौती से न निपट पाने से न्याय की गाड़ी पटरी से उतर सकती है। हाल ही में अटार्नी जनरल ने न्यायपालिका में लैंगिक असमानता की ओर उच्चतम न्यायालय का ध्यान खींचा है। उन्होंने बताया है कि किस प्रकार से मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में यौन-शोषण की शिकार युवती को दोषी को राखी बांधकर समझौता करने पर जोर दिया गया था। ऐसी घटनाएं न्यायपालिका में पुरूषों के असंगत प्रभुत्व और पितृसत्तातमक अन्याय के हठ के बीच एक कड़ी का काम करती हैं। न्यायपालिका की उच्चतम संस्था होने के नाते उच्चतम न्यायालय, प्रशासन और राजनीति की दिशा को निर्धारित कर सकता है, और समकालीन विवादास्पद मामलों में लोग उसी की ओर देखते भी हैं।

जैसे-जैसे सार्वजनिक मामलों में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ता जाएगा और वे स्वयं पर लगाई गई बंदिशों को पीछे छोड़ती जाएंगी, वैसे-वैसे लैंगिक समानता की भूमिका बढ़ती जाएगी। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश से लेकर समलैंगिक विवाह तक, वैवाहिक बलात्कार से लेकर कार्यस्थल में होने वाले यौन उत्पीड़न तक, पितृसत्तात्मक समाज और कामुकता के बदलते मानदंडों के बीच संवाद के मुद्दे अब घर-परिवारों और राजनीतिक क्षेत्र से लेकर न्यायालयों में भी उठाए जाएंगे। इन लड़ाइयों में, न्यायपालिका में स्थित लैंगिक असमानता से पुरूष अभिजात वर्ग को न्याय के विचार पर वीटो अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

जिला न्यायलयों और बार एसोसिएशन में न्यायपालिका को विशेषाधिकार और शक्ति से परे वातावरण का निर्माण करने की आवश्यकता है। इस तथ्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि महिलाओं को सफलता के लिए एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है, जो अक्सर बच्चे के जन्म और उसकी देखभाल से बाधित होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें न्यायिक जिम्मेदारी उठाने की इच्छा नहीं है। संस्थाओं को यह देखने और समझने की जरूरत है कि उन्हें पदाधिकारी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है। यही न्याय की मांग है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित 17 अप्रैल, 2021