
नक्सलियों के सफाए के लिए चलाया जा रहा अभियान
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हाल ही में गृहमंत्री ने नक्सलियों या माओवादियों के सफाए का संकल्प लेते हुए इनके विरूद्ध उग्र अभियान छेड़ दिया है। प्रश्न उठता है कि क्या हिंसा या उग्रवाद का जवाब वैसे ही दिया जाना चाहिए या इस हेतु अन्य मार्ग अपनाए जा सकते हैं।
कुछ बिंदु –
- नक्सलियों के उदय और विस्तार को रोकने के लिए सरकार ने अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयत्न किया है। आदिवासी क्षेत्रों में विकास की कमी थी। इसे संबोधित किया गया है।
- उग्रवाद और हिंसा विरोधी रणनीति के तहत पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों ने इन्हें मारने के लिए ‘सलवा जुडम’ जैसे अभिमान चलाए। इस अभियान में कई निर्दोष आदिवासी भी मारे गए, जिनकी अभी तक कोई गिनती नहीं की जा सकी है।
- उग्रवाद के विरूद्ध अन्य जगहों पर चलाए गए अभियानों के अनुभवों से पता चलता है कि सैनिक बल के आधार पर इस खतरे को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता है।
- माओवाद जैसी विचारधाराएं दमन के चरम के कारण ही गहरी जड़ें जमाती हैं। अतः हिंसक रास्तों से अंत का तरीका आदिवादियों के असंतोष को बढ़ा सकता है।
- हालांकि सरकार ने युद्ध विराम के लिए स्थानीय समाज के माध्यम से समझौते और पुनर्वास के प्रयत्न किए हैं, लेकिन नक्सली सरकार के प्रति अपना दृष्टिकोण न बदलने पर अडें रहे हैं। अगर वे वाकई अपने आदिवासी समाज को शोषण से बचाना चाहते हैं, तो उन्हें भी अपना रास्ता बदलने के लिए आगे आना चाहिए। नेपाली माओवादियों और कोलंबिया के एफएआरसी अभियान में ऐसा ही रास्ता अपनाया गया है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 24 मार्च, 2025