
मृत्युदंड के अनेक मामलों में व्यवस्था की लापरवाही
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- 49 गवाहों में से 10 व्यक्तिगत रूप से उपस्थित गवाह थे, जिनसे बचाव पक्ष ने ठीक से जिरह नहीं की।
- न्यायाधीशों से उम्मीद की जाती है कि सही निष्कर्ष पर आने के लिए गवाहों से प्रश्न करें। अभियुक्त अक्सर सक्षम कानूनी सहायता प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए एक निष्पक्ष सुनवाई के लिए न्यायाधीश को अभियोजन पक्ष से पूछताछ जरूर करनी चाहिए। लेकिन यह पर्याप्त रूप से नहीं की गई।
- आरोपियों की शिनाख्त-परेड नहीं कराई गई। जबकि अपराध के चश्मदीद गवाह मौजूद थे।
- ट्रायल कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ने आरोपी की गिरफ्तारी, स्वीकारोक्ति और बरामदगी पर बिना प्रमाण की पुष्टि के पुलिस संस्करण को स्वीकार कर लिया।
- साक्ष्य खोजने, नमूने एकत्र करने और उन्हें फोरेंसिक को भेजने के तरीके में भी प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया गया।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जांच और परीक्षण की ऐसी कमियों के बावजूद दो न्यायालयों ने अभियुक्तों को मृत्युदंड दिया। केवल इस मामले में ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक मामलों में भी ऐसे उदाहरण देखे जा रहे हैं। एन एलयू दिल्ली के प्रोजेक्ट 39ए से पता चलता है कि 2021 में देश भर में मौत की सजा पाए 33 कैदियों को बरी कर दिया गया था। यह आरोपी और पीड़ित दोनों के साथ अन्याय है।
दोषसिद्ध करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्भर रहना कोर्ट और पुलिस पर बड़ी जिम्मेदारी डालता है। जिम्मेदारी इस बात की है कि जांच की पूरी श्रृंखला जांच के दायरे और “संदेह से परे’’ सिद्धांत को पूरी करे। भविष्य में पुलिस, वकील और जज से उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक प्रकार से करेंगे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 9 नवंबर, 2022